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________________ चन्दलदेवी और ग्गड़ती मात्रिकब्बे ही विशेष उत्तरदायित्व से महामातृश्री एचलदेवी के आदेशानुसार कार्यनिर्वहण करती रहीं । महादण्डनायिका चामब्बे के मन में इन लोगों के प्रति इतना अधिक गुस्सा आता था कि इन सभी को एकदम पीसकर रख दे। परन्तु किसी तरह की प्रतिक्रिया कर सकने का उसे साहस नहीं होता था । वह समझती थी कि बल्लाल अपना है, उससे सब ठीक करा लूँगी। मगर वह बल भी नहीं रहा । वह सोचती, “इतने अच्छे बल्लाल को क्या से क्या बना दिया इन स्वार्थियों ने? भगवान अन्धा नहीं। वह सब देख रहा है। कभी-न-कभी वह इन लोगों को अच्छा पाठ पढ़ाएगा। तब उन लोगों की जो हालत बनेगी उसे में देखूँगी। मेरे प्रति जो लापरवाही की है, तब इसके कारण उन लोगों को पछताते हुए हाय-तौबा करना हैं पड़ेगा। इस सबका कारण उस मनहूस वामशक्ति पण्डित के सर्वतोभद्र यन्त्र उन यन्त्रों ने उल्टा हमको ही डाँवाडोल बना दिया है। उन्हें कूड़े में फेंक दिया, फिर भी उनका प्रभाव हम ही को सता रहा है। उस हेगड़े के घर के अहाते में एक सुन्दर बगीचा बनाना चाहते हैं। उसके लिए खाद की खीज कर रहे थे। हमारे यहां के कूड़े का सारा गोबर वहाँ भिजवाकर उसके साथ इन मनहूस यन्त्रों को जहाँ पहुँचाना था, वहाँ पहुँचा देने की मिट्टी के लगते ही वे यन्त्र अपना प्रभाव दिखाएँगे ही। तब मैं अपना हथकण्डा दिखाऊँगी। आज खुशी से गड़ती जो फूल कर कुप्पा बन रही हैं उसे तब मिट्टी चाटनी पड़ेगी। इस प्रकार महादण्डनायिका तरह-तरह की अण्ट-सण्ट बातें सोचती रहती थी । 1 इसी समय एक विचित्र बात हुई। महादण्डनायक के घर में पढ़ानेवाली अध्यापिका का कवि वोकिमय्या और नागचन्द्र के साथ परिचय हो जाने एवं इस अध्यापक वृन्द के बीच मात्सर्य रहित एक परिशुद्ध मैत्रीभाव पैदा हो जाने से जब कभी इन सबकी आपस में भेंट हो जाती थी। दोनों विद्वान कवि और महासाध्वी, मितभाषिणी, महाज्ञानी कवयित्री, सरस्वती के ये तीनों निष्ठावान आराधक जब एक बार मिले तो उन्होंने आपस में विचार-विमर्श करके प्रस्ताव रखा कि राजकुमार, दण्डनायक की बेटियों और शान्तला - इन सबका पठन-पाठन राजमहल ही में क्यों न हो । महामातृश्री और अन्य सभी ने यह स्वीकार कर लिया पर महाराज बल्लालदेव ने अनुमति नहीं दी। महाराज की अनुमति न हो तो कोई क्या कर सकता है? वह सलाह जैसे उत्पन्न हुई वैसे ही रह गयी । एचलदेवी को इसके लिए दुःख नहीं हुआ, किसी को दुःखी होने की आवश्यकता भी नहीं थी। परन्तु महाराज बल्लालदेव की इस प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप कुमार बिट्टिदेव अवश्य चिन्तित हुए। उन्होंने शान्तला से इस सम्बन्ध में विचार-विमर्श किया। शान्तला से आग्रह किया कि वह पद्यला के मन 146 :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग टो
SR No.090350
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages459
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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