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लगा।"
"नृत्य अच्छा लगा या नर्तकी अच्छी लगी?
" पट्टमहादेवी को ईर्ष्या की बोमारी भी है यह हमें पता न था ।" "सन्निधान की दृष्टि आजकल अपनी स्थिरता खोती हुई मालूम पड़ रही
हैं ।"
"तुम्हारा मतलब "
“चलो छोड़ो इस बात को वहाँ देखिए । रुक्मिणी और सत्यभामा की खींचातानी में कृष्ण की जो हालत बनी, नर्तकी उसे दिखा रही है।"
दोनों की दृष्टि उधर गयी। कहीं से बात उठी, कहीं चली गयी। लेकिन अब वहीं वह बात स्थगित हो गयी ।
नाट्य समाप्त हुआ। लोगों ने ताली बजाकर अपना सन्तोष अभिव्यक्त किया। नर्तकी सभामंच पर चढ़कर सन्निधान के निकट जाने लगी । शान्तलदेवी ने अपलक नर्तकी को देखा।
ब्रिट्टिदेव ने कहा, "उदय ! इस नर्तकी को पुरस्कार देकर भेज दो। हमारे पास तक आने की जरूरत नहीं। ऐ नर्तकी, वहीं रहो।" उन्होंने शान्तला की ओर देखा ।
नर्तकी सिर झुकाकर पल्लू मरोड़ती वहीं रुक गयी ।
बिट्टिदेव ने पूछा, "तुम्हारा नर्तन बहुत अच्छा था, पट्टमहादेवी कह रही हैं कि यह बलिपुर का सम्प्रदाय है। क्या यह सच हैं?"
नतंकी ने "हाँ" का संकेत सिर हिलाकर दिया, बोली नहीं ।
" तो यह बलिपुर का सम्प्रदाय आलुप राज्य में कैसे पहुँचा ?" बिट्टिदेव ने फिर से सवाल किया।
नर्तकी ने जवाब नहीं दिया ।
"सन्निधान के सामने कहते हुए डर लग रहा होगा।” उदयादित्य ने सूचित
किया |
“उसके पास जाकर तुम खुद पूछकर बताओ ।" विट्टिदेव ने कहा । उदयादित्य नर्तकी के पास गया। उसने कान में कुछ कहा ।
"बलिपुर के गंगाचारी के शिष्य से सीखा - यही बताती है ।"
विहिदेव ने शान्तला की ओर देखा। बोले, "तो मतलब यह कि पट्टमहादेवी गुरु
के
के शिष्य इस नर्तकी के
गुरु
हैं ।"
शान्तलदेवी ने पूछा, "तुम्हारे गुरु का क्या नाम हैं:"
उदयादित्य ने पूछकर बताया, "कहा है कि गुरु का नाम न बताने की आजा
है।"
पट्टमहादेवी शान्तला भाग दो : 457