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प्रथम पुष्प महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
__ एवं भट्टारक त्रिभुवनकीर्ति ( व्यक्तित्व एवं कृतित्व )
लेखक एवं सम्पादक 610 कस्तूरचन्द कासलीवाल
प्रकाशक
श्री महावीर ग्रन्थ अकादमी, जयपुर
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अध्यक्ष की ओर से
श्री महावीर ग्रन्थ अकादमी की ओर से प्रकाशित “महाकवि ब्रह्म रायमल्ल एवं भट्टारक त्रिभुवनकीति" पुस्तक को पाका के हाथों : २७ हुने मुझे बड़ी प्रसन्नता है । प्रस्तुत पुस्तक महावीर ग्रन्थ प्रकादमी का प्रथम प्रकाशन है जो समूचे हिन्दी जैन साहित्य को २० भागों में प्रकाशित करने के उद्देश्य से स्थापित की गयी है। हिन्दी भाषा में जैन कवियों द्वारा निधन विशाल साहित्य उपलब्ध होता है। श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी के साहित्य शोध विभाग की अोर से डा० कासलीवाल के सम्पादन में राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रन्थ सूचियों के पांच भाग प्रकाशित हुए हैं उनमें जन कवियों की सेकड़ों रचनाओं का उल्लेख मिलता है। डा• कासलीवाल जी ने "राजस्थान के अन सन्त-व्यक्तित्व एवं कृतिस्व" तथा "महाकधि दौलतराम कासलीवाल - व्यक्तित्व एवं कृतित्व" इन दो पुस्तकों के माध्यम से जन कवियों के महत्वपूर्ण साहित्य का परिचय प्रस्तुत किया है जिनका सभी अोर से स्वागत हपा है। समाज में कितनी ही उच्चस्तरीय प्रकाशन संस्थाय है ले किन हिन्दी में निबच जैन कवियों के साहित्य के प्रकाशन की कहीं कोई योजना नहीं दिखलायी दी । डा. कासलीवाल जी ने एवं उनके वीटे भाई वंद्य प्रभुदयाल जी जैन ने जब मुझे श्री महावीर ग्रन्थ अकादमी की पोजना के बारे में बतलाया तो मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई और मैंने तत्काल इस प्रोर मागे कार्य करने के लिये उनसे प्राग्रह किया । अन्य अकादमी की स्थापना डा० कासलीवाल की सूभवूझ का प्रतिफल है । मुझे यह लिखते हुये प्रसन्नता है कि भकादमी की इस योजना का सभी ओर से स्वागस हो रहा है।
"महाकवि ब्रह्म रायमल्ल एवं भट्टारक त्रिमृबनकीति" मन्य अकादमी का सन् १९७८ का प्रथम प्रकाशन है जिसमें १७ वीं शताब्दी के प्रथम चरण में होने वाले दा प्रमुख कवियों का परिचय एवं उनकी मूल कृतियों के पाठ दिये गये हैं। इसी वर्ष में प्रकादमी की ओर से दो भाग और प्रकाशित किये जायेंगे जिनमें कविवर युवराज एवं महाकवि ब्रह्मा जिनदास तथा उनके समकालीन कवियों की कृतियां एवं उनकी
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मुल्यांकन रहेगा। इन पुस्तकों से विश्वविद्यालयों में शोध करने वाले विद्वानों एवं विद्यार्थियों को इस दिशा में सामग्री भी उपलब्ध हो सकेगी धोर उन्हें जैन ग्रंथ भण्डारों में कम भागना पडेगा।
श्री महावीर ग्रन्थ अकादमी की योजना को सफल बनाने के लिये यह प्रावश्यक है कि उसकी अधिक से अधिक संख्या में संचालन ममिति के सदस्य एवं विशिष्ट सदस्य के रूप में समाज का सहयोग प्राप्त हो । यदि अकादमी के ५०० विशिष्ट सदस्य एवं ५१ सचालन समिति सदस्य रन जावें तो अकादमी की अपनी योजना के क्रियान्वयन में पूर्ण सफलता मिल सकेंगी । मुझे पूर्ण विश्वास है कि समाज के साहित्य प्रेमी महानुभावों का इस दिशा में पूर्ण सहयोग प्राप्त होगा । मैं समाज को यह अवश्य विश्वास दिलाना चाहता हूं कि जिस उद्देश्य को लेकर ग्नन्थ अकादमी की स्थापना हुई है उसमें वह बराबर भागे बढ़ती रहेगी तथा पाँच वर्ष की अवधि में अर्थात् सन् १९८२ तक हिन्दी जन साहित्य को २० भागों में प्रस्तुत किया जा सकेगा । मुझे यह लिखते हुए प्रसन्नता है कि अकादमी को साहु अशोककुमारजी अन का संरक्षण प्राप्त है।
अन्त में मैं डॉ० कासलीवाल जी का प्राभारी हैं जिन्होंने अपना समस्त जीवन जैन साहित्य की सेवा में समर्पित कर रखा है। श्री महाबीर ग्रन्थ मकादमी की स्थापना उन्हीं की कल्पनामों का साकार रूप है। प्रस्तुत पुस्तक के वे ही लेखक एवं सम्पादक है । इसके अतिरिक्त सम्पादक मण्डल के सभी विद्वानों का माभारी हूँ जिन्होंने इसे सर्वोपयोगी बनाने में अपना योग दिया है। साथ ही उन सभी महानुभावों का भी मैं प्राभारी हूँ जिन्होंने अकादमी की सदस्यता स्वीकार करके साहित्य सेवा की इस सुन्दर योजना को मूर्त रूप दिया है।
२३६ टी. एस. रोड़
कन्हैयालाल जैन
मद्रास
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लेखक की कलम से
जैन कवियों द्वारा निवद्ध हिन्दी साहित्य कितना विशाल एवं व्यापक है इसका अनुमान ये ही कर सकते हैं जिन्होंने शास्त्र भण्डारों में संग्रहीत पाण्डुलिपियों को देखा है तथा उनके अन्दर तक प्रवेश किया है। अब तक जितने भी जैन कवियों से सम्बन्धित ग्रन्थ प्रकाशित हुये हैं उनमें महाकवि बनारसीदास, महाकवि दौलतराम कासलीवाल, एवं महा पंडित टोडरमल के अतिरिक्त शेष सभी ग्रन्थ परिचयात्मक हैं नौर जिनमें लेखक का सामान्य परिचय एवं उसकी रचनाओं के नाम गिना दिये गये है। बड़ी प्रसन्नता की बात है कि श्री महावीर ग्रन्थ अकादमी की स्थापना पचास से हिन्दी साहित्य के प्रतिनिधियों एवं उनकी रचनाश्रों
भी
प्रथम पुष्प है जिसमें
के प्रस्तुतीकरण के लिये हुई है । प्रस्तुत ग्रन्थ अकादमी का संवत् १६०१ से १६४० तक होने वाले प्रमुख दो कवियों का अध्ययन प्रस्तुत किया गया है और ये दो कवि हैं ब्रह्म रायमल्ल एवं भट्टारक त्रिभुवनकीति । ब्रह्म रायमल्ल ढूंढाड प्रदेश के कवि थे जबकि त्रिभुवनकीर्ति वागड़ एवं गुजरात प्रदेश में अधिक रहे थे ।
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ब्रह्म रायमल्ल एवं त्रिभुवनकी दोनों ही लोक कवि थे। इन कवियों ने अपनी कृतियों की रचना जन सामान्य की रुचि एवं भावना के अनुसार की थी । ब्रह्म रायमल्ल पूर्ण रूप से घुमक्क कवि थे जिन्होंने ढूंडा प्रदेश के प्रमुख नगरों में बिहार किया और अपने बिहार की स्मृति में किसी न किसी काव्य की रचना करने में सफल हुये । कवि ने अपने काव्यों में पौराणिक परम्परा का निर्वाह करते हुये तत्कालीन सामाजिक स्थिति का भी बहुत ही स्पष्ट वर्णन किया हैं। ब्रह्म रायमल्ल के सभी प्रमुख काव्य किसी न किसी नवीनता को लिये हुये हैं । कवि की परमहंस चौप श्राध्यात्मिक कृति होने पर भी सामाजिकता से श्रोत प्रोत है । प्रस्तुत भाग में afa के दो काव्य प्रद्यम्नु रास एवं श्रीपाल रास पूर्ण रूप से तथा परमहंस चौपाई एवं भविष्यदत्त चौपई के एक भाग को ही दिया गया है। शेष रचनाओं के पाठों को पृष्ठ संख्या अधिक हो जाने के भय से नहीं दिया जा सका। इसी तरह भट्टारक त्रिभुवनकीति के दो काव्यों में से एक जम्बूस्वामी रास के पाठ को ही दिया गया है । प्रस्तुत भाग में उक्त दो कवियों का जीवन परिचय के साथ ही उनके काव्यों का प्रध्ययन भी प्रस्तुत किया है जिसके आधार पर काव्यों की विशेषताओं के साथ साथ कवि की काव्य शक्ति का भी परिचय प्राप्त हो सकेगा । दोनों ही कवि संगीतज्ञ
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थे इसलिये उन्होंने अपने कामों को कितनी ही राम एवं ढाली में प्रस्तुत किया है। वास्तव में उनके काव्य मेप काव्य बन गये हैं जिन्हें भाव विभोर होकर श्रोताओं के सामने प्रस्तुत किया जा सकता है ।
ब्रह्म रायमल्ल ने अपना जीयन ग्रन्थ लिपिक के रूप में प्रारम्भ किया था। सौभाग्य से उनके स्वयं द्वारा लिपिबद्ध गुटका अयपुर के ही पाश्र्वनाथ दि. जैन मन्दिर के शास्त्र भण्डार में उपलब्ध है जिसका एक चित्र पाठकों के प्रवलोकनार्थ दिया गया है । इसी तरह यद्यपि स्वयं भट्टारक निमुवनकीति द्वारा लिपिबद्ध पाण्डुलिपि प्राप्त नहीं हो सकी है लेकिन जिस गुटके में उनके काव्यों का संग्रह है वह भी उन्हीं की परम्परा में होने वाले ब्रह्म सामल द्वारा लिपिबद्ध है।
प्रस्तुत भाग के संपादन में जिन तीन अन्य विद्वानों पादरणीय डा. सत्येन्द्र जी, जा. माहेश्वरी जी एव प. अपचन्द : पार्थ का सहयोग मिला है उसके लिये मैं उनका हृदय से प्राभारी हुं । पादरणीय डा. सत्येन्द्र जी के प्रति किन शब्दों में माभार घ्यक्त करू', उन्होंने पुस्तक के सम्बन्ध में 'दो शब्द' लिखने की महती कृपा की है।
इस अवसर पर मैं श्रीमान् मा० अनूपचन्द जी जैन दीवान व्यवस्थापक शास्त्र भण्डार पार्श्वनाथ दि. जैन मन्दिर जयपुर एवं श्री प्रेमचन्द जी सौगाणी व्यवस्थापक शास्त्र भण्डार दि. जैन बड़ा तेरहपंथी मन्दिर जयपुर का भी प्राभारी है जिन्होंने कवि की मूल पाण्डुलिपियां उपलब्ध करायो है। श्री प्रकाशचन्द जी बंद का भी आभारी हैं जिन्होंने 'परमहंस चौपई' की प्रति उपलब्ध कराने में सहयोग प्रदान किया है। इनके अतिरिक्त श्री महेशचन्द जी जैन का भी प्राभारी हं जिन्होंने पुस्तक की साज-सज्जा में सहयोग दिया है।
डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल
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दो शब्द
मैं इसे अपना सौभाग्य मानता हूं कि श्री महावीर अन्य अकादमी के इस 'प्रथम पुष्प' के लिए मुझ से 'दो पाब्द' लिखने को कहा गया है । श्री महावीर ग्रन्थ प्रकादमी जयपुर के इस प्रथम पुष्प में महाकवि 'ब्रह्म रायमल्ल एवं भट्टारक त्रिभुवनकीति" के अन्य प्रकाशित किये गये हैं। इन ग्रन्थों का विद्वत्तापूर्ण सम्पादन १० कासलीवाल ने किया है । हिन्दी साहित्य के अनुसंधान के क्षेत्र में डा० कासलीवाल का स्थान महत्वपूर्ण है। इन्होंने हिन्दी जैन साहित्य के योगदान की ऐतिहासिक स्थापमा की है। जैन ग्रन्थ भण्डारो को ग्रन्थ सूचियां प्रकाशित कर के इन भण्डारी में उपलब्ध ग्रन्थों के नाम हस्तामलकवत् कर दिये है। इस भगीरथ प्रयत्न में इन्हें सपारू का 'प्रद्युम्न बरित' मिला जिसका सम्पादन करके भी इन्होंने पश पजन किया 1 यह प्रद्युम्न चरित सूर पूर्व बज भाषा का प्रथम महाकाव्य म्सना जा सकता है।
महावीर प्रन्य प्रकादमी, जयपुर की स्थापना में भी डा. कासलीवाल का ही प्रमुख हाथ रहा है । इस अकादमी की पंचवर्षीय योजना का दो सूत्री कार्यक्रम बनाया गया है । इस का द्वितीय सूत्र इस प्रकार है१. २० भागों में जैन कवियों द्वारा निबद्ध समस्त हिन्दी साहित्य का
प्रकाशन । यह सूत्र ही हिन्दी साहित्य की समृद्धि को प्रकाश में लाने और उसके इतिहास की कितनी ही अचचित भोर उपेक्षित कड़ियों को उभार कर ससंदर्म उन्हें पथास्थान लगाने का श्लाध्य कार्य करेगा ।
महावीर ग्रन्थ पकादमी संकल्पबद्ध होकर पंचवर्षीय योजना का कार्य सम्पादित कर रही है. यह इस 'प्रथम पुष्प' से सिद्ध होता है।
__ आज यह 'प्रथम पुष्प' पाठकों के सामने है और इसमें "ब्रह्म रायमल्ल और त्रिभुवनकीति" के कृतित्व का प्रकाशन हुआ है। यदि इन दोनों कवियों के अन्धों का पाठ ही प्रकाशित करा दिया गया होता तब भी इस कार्य की प्रशंसा होती और अकादमी का योगदान ऐतिहासिक माना जाता। किन्तु सोने में सुगन्ध को भांति सा. कासलीवाल ने परिश्रमपूर्वक पाठ सम्पादित करके प्रन्य तो प्रकाशित किये ही
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हैं, साथ ही एक विशद परिचयात्मक और विवेचनात्मक भूमिका देकर इन ग्रन्थों के सभी परियाश्यों का उद्घाटन कर दिया है ।
ब्रह्म रायमल्स सूर-तुलसी के युग के कवि हैं । इस युग के जैन कवियों के सम्बन्ध में इस 'प्रथम पुष्प' के विद्वान् सम्पादक के ये शब्द महत्वपूर्ण हैं :
" बर्षों में जनजि भी पाप सवार हुए प्रोर वे भी देश में व्याप्त भक्ति धारा से प्रचते नहीं रह सके। उनकी कृतियां भी भक्ति रस में प्राप्लाक्ति होकर सामने पायी और इस दृष्टि से भट्टारक शुभचन्द्र पाण्डे राजमल्ल, भट्टारक वीरचन्द, सुमतिकोति, ब्रह्म विद्याभूषण, ब्रह्म रायमल्ल, उपाध्याय साधुकोति, भीखम कवि, कनक सोम, वाचक मालदेव, नवरंग, कुशल लाभ, सकलभूषण, मादि के नाम उल्लेखनीय हैं। इन कवियों ने रास फाग, वेलि, चौपाई एवं पदों के माध्यम से हिन्दी साहित्य की महती सेवा की है। इन कवियों में से हम सर्वप्रथम ब्रह्म रायमल्स का परिचय उपस्थित कर रहे हैं, क्योंकि संवत् १६०१ से १६४० तक की अवधि में ब्रह्म रायमल्ल हिन्दी के प्रतिनिधि कवि रहे है।"
डा कासलीवाल को उक्त सूची को और संबंधित किया जा सकता है, उन उल्लेखों के प्राधार पर जो जहां तहां हुए हैं । ऐसी सूची में ये कवि स्थान पा सकते हैं : १-तस्तमल्ल, २-कल्याए देव, ३-बनारसीदास, ४-मालदेव , ५-विजयवंत सूरि, सदयराज, ७-ऋषभदास, ८-रायमल्ल ब्रह्मचारी (मिश्र बंधुनों के अनुसार इनके अन्य हैं : भविध्यदत्त चरित्र पौर सीताचरित्र तथा रचना काल १६६४, विबरणसकलचन्द्र भट्टारक के शिष्य थे) । -रूपचन्द, १०-हेमविजय, ११-विद्याकमल, १२-समय सुन्दर उपाध्याय ।
सूर-तुलसी युग के इन जन कवियों की सूची में नयी खोज रिपोर्टों से तथा अन्य खोजों से और नाम भी बढ़ाये जा सकते हैं।
हमने जो सूची दी है उसमें रायमल्ल ब्रह्मचारी का नाम आया है। यह मित्र बन्धु विनोद की लेखक संख्या ३५७ के कवि है। इन्हें मिथ बन्धुषों ने 'सकसचन्द्र भट्टारक का शिष्य बताया है । डा० कासलीवाल ने इस ग्रन्थ की भूमिका में सो बता दिया ! कि ब्रह्म रायमल्ल में ब्रह्म का अभिप्राय 'ब्रह्मचारी' से ही है। मतः रायमल्ल ब्रह्मचारी और ब्रह्मरायमल्ल में अभेद विदित होता है।
डा. कासलीवाल ने इस भूमिका में विवृत्तापूर्वक यह भी सिद्ध कर दिया है कि ये ब्रह्म रायमल्ल गुजराती ब्रह्मरायमल्ल से भिन्न है। गुजराती ब्रह्म रायमल्ल संस्कृत के विद्वान थे।
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पर मिश्र बन्धु विनोद के उक्त कधि क्या कोई तीसरे ब्रह्म रायमल्ल है ? संभव हो सकता है कि मिथ बन्धु विनोद के टिप्पणीकार ने 'सकलकीति' मुनिवर गुणवंत को 'सकलचन्द्र' मान लिया हो। 'भविष्यदत्त चरित्र' इस संग्रह में दी गयी भविष्यदत्त चोपई ही हो सकती है । दुसरा ग्रन्थ 'सीतापरित्र' भी इस संग्रह की 'हनुमन्त कथा' का ही दूसरा नाम हो सकता है ? संवत् १६६४ रचनाकाल के लिए या तो गलत पढ़ लिया गया है या सम्भव है कि यह लिपिकाल ही हो ? फिन्तु यहां कठिनाई यह है कि मिश्रवन्धु विनोद के उक्त उल्लेख के प्रामाणिक स्रोत का पता लगाना सम्भव नहीं, मत: यही कह सकते है कि 'डा० कासलीवाल ने अपनी भूमिका में जितना कुछ लिखा है वह प्रामाणिक है, और इस अन्ध के द्वारा दो हिन्दी के महत्वपूर्ण पौर स्वल्पज्ञात कवियों का उद्घाटन हो रहा है।
ब्रह्म रायमल्ल महाकवि केशवदास के- समकालिक हैं, और इनके काव्य में जहां-तहां केशवदास से साम्य साम गिरता है।
ब्रह्म रायमल्ल का 'पोदनपुर नगर वर्णन' का एक उदाहरण यहां देना उपयुक्त होगा :
मारण नाम न सुनजे जहां खेलत सारि मारि जे तहाँ हाथ पाई नवि छेद कान सुभद्र खाय से छेदें पान । बंधन नास फूल बंधेर बघन कोई किसहा न देइ । कामणि नैण काजल होइ हिपड़े मनुस न कालो होइ । सपणं परायो छिद्र जु महे । कोई क्रिसका छिद्र न कहे। गुंगो कोई न दीस सुनि । पर अपवाद रहे धरि मौन चोरी पोर न दीसे जहां घड़ी नीर ने चोरों जहां दंड नाम को किस ही न लेई
मनवचकाइ मुनि दड़ देइ ।। और ऐसे ही आसंकारिक शिल्प में केशव ने लिखा था
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मूलन ही की जहाँ प्रयोगति के शव गाई । होम हतासन घूम नगर एक मलिनाई ॥ दुर्गति दुर्जन ही जु कुटिल गति सरितन ही में धीफल की अभिलाष प्रकट कविकुल के जी में अति चंचल जह बलदलै विधवा बनी न नारि
मन मोह्यां ऋषि राज को अद्भुत नगर निहारि । डा• कासलीवाल का प्रयत्न निश्चय ही स्वागत योग्य है। उन्होंने ब्रह्म रायमल्ल के ग्रन्थों का ही उद्धार नहीं किया, वरन् विस्तृत भूमिका में कवि और उसके काव्य के सभी पक्षों पर अध्यवसाय पूर्वक प्रकाश डाला है। ऐसी भूमिका से ही इस कवि के गहन अध्ययन के लिए रुचि जाग्रत होती है।
__ इस महान प्रयत्न में सम्पादक मण्डल में मुझे भी सम्मिलित करके जो उदारता प्रौर कृग दिखाया है, और दो शब्द लिखने का अवसर दिया है, उसके लिए कृतज्ञता व्यक्त कर सकने योग्य शब्द मेरे पास नहीं।
हां, मैं प्राशा करता हूं कि महावीर ग्रन्थ अकादमी के प्रकाशनों से समृद्ध जैन साहित्य का पानपूर्ण प्रा भार ते
स ह भावना : मैं इस प्रयत्न की सफलता हृदय से साहता हूं ।.
डा. सत्येन्द्र
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श्री महावीर ग्रन्थ अकादमी, जयपुर
एक परिचय
जैनाचार्यों, भट्टारकों एवं विद्वानों ने देश की प्रत्येक भाषा में विशाल साहित्य की रचना करके धर्म एवं संस्कृति की सुरक्षा एवं उसके विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है । इसी विशाल साहित्य को प्रकाश में लाने की दृष्टि से भगवान महावीर के २५०० वें परिनिर्वाण वर्ष में साहित्य प्रकाशन की कितनी ही योजनाएं बनी । भारतीय ज्ञानपीठ देहली, विद्वत् परिषद्, साहित्य शोध विभाग, जयपुर, जन बिस्व भारती साडनू', शास्त्री परिषद एव पचासों अन्य संस्थाओं ने अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकों का प्रकाशन भी किया लेकिन इतने प्रयासों के उपरान्त भी हम हमारे विशाल साहित्य को जन साधारण तक नहीं रख पाये तथा विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों में कार्य करने वाले प्रोफेसरों एव शोध छात्रों को अभीष्ट पुस्तकें उपलब्ध नहीं करा सके । इसलिये अब कभी विद्वानों, शोधाथियों एवं पाठकों द्वारा किसी प्राचार्य एवं विद्वान् को प्रथवा किसी विशिष्ट विषय पर उच्चस्तरीय पुस्तक की मांग की जाती है तो हम इधर उधर देखने लगते हैं और कभी-कभी एक दो पुस्तकों के नाम भी नहीं बता पाते । इसके अतिरिक्त प्राजकल जिस प्रकार साहित्य के विविध पक्षों के प्रस्तुतीकरण की नवीन शैली अपनायी जा रही है उससे हम अपने पापको कोसों दूर पाते हैं।
उत्तरी भारत एवं विशेषतः राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश एवं देहली में स्थापित जैन अन्यागारों में लाखों पाण्डुलिपियां संग्रहीत है। श्री महावीर क्षेत्र के साहित्य शोध विभाग द्वारा हस्तलिखित शास्त्रों की जो पांच भागों में अन्य सुचियां प्रकाशित हुई है उनसे हमारे विशाल साहित्य के दर्शन हो सके है तथा पचासों विद्वानों को साहित्यिक क्षेत्र में कार्य करने की प्रेरणा मिली है। लेकिन प्राकृत, अपनश, संस्कृत एवं हिन्दी में जिन प्राचार्यों एवं विद्वानों ने भनेकों ग्रन्थों की संरचना की है उनके विषय में सामान्य परिचय के अतिरिक्त उनका अभी तक न तो हम मूल्यांकन कर पाये हैं और न उनकी मूल कृतियों को प्रकाशित ही कर सके हैं।
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श्री महावीर ग्रन्थ प्रकादमी, जयपुर
एक परिचय
जैनाचार्यों, भट्टारकों एवं विद्वानों ने देश की प्रत्येक भाषा में विशाल साहित्य की रचना करके धर्म एवं संस्कृति की सुरक्षा एवं उसके विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इसी विशाल साहित्य को प्रकाश में लाने की दृष्टि से भगवान महावीर के २५०० में परिनिर्वाण वर्ष में साहित्य प्रकाशन की कितनी ही योजनाएं बनी । भारतीय ज्ञानपीठ देहली, विद्वत् परिषद्, साहित्य शोध विभाग, जयपुर, जन विश्व भारती लाडनू', शास्त्री परिषद् एव पचासों अन्य संस्थाओं ने धनेक महत्वपूर्ण पुस्तकों का प्रकाशन भी किया लेकिन इतने प्रयासों के उपरान्त भी हम हमारे विशाल साहित्य को जन साधारण तक नहीं रख पाये तथा विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों में कार्य करने वाले प्रोफेसरों एवं शोध छात्रों को अभीष्ट पुस्तकें उपलब्ध नहीं करा सके । इसलिये जब कभी विद्वानों, शोधार्थियों एवं पाठकों द्वारा किसी प्राचार्य एवं विद्वान् की अथवा किसी विशिष्ट विषय पर उच्चस्तरीय पुस्तक की मांग की जाती है तो हम इधर उधर देखने लगते हैं पर कभी-कभी एक दो पुस्तकों के नाम भी नहीं बता पाते। इसके अतिरिक्त प्राजकल जिस प्रकार साहित्य के विविध पक्षों के प्रस्तुतीकरण को नवीन शैली अपनायी जा रही है उससे हम अपने आपको कोसों दूर पाते हैं ।
उत्तरी भारत एवं विशेषतः राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश एवं देहली में स्थापित जैन ग्रन्थागारों में लाखों पाण्डुलिपियां संग्रहीत है। श्री महावीर क्षेत्र के साहित्य शोध विभाग द्वारा हस्तलिखित शास्त्रों की जो पांच भागों में ग्रन्थ सुनियां प्रकाशित हुई है उनसे हमारे विशाल साहित्य के दर्शन हो सके हैं तथा पचासों विद्वानों को साहित्यिक क्षेत्र में कार्य करने की प्रेरणा मिली है। लेकिन प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत एवं हिन्दी में जिन प्राचार्यों एवं विद्वानों ने अनेकों ग्रन्थों की संरचना की है उनके विषय में सामान्य परिचय के प्रतिरिक्त उनका अभी तक न तो हम मूल्यांकन कर पाये है और न उनकी मूलकृतियों को प्रकाशित हो कर सके हैं
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गत कुछ वर्षों से ऐसी ही किसी एक संस्था की पावश्यकता को अनुभव किमा जा रहा था जो योजना बद्ध ढंग से समूचे भाषागत जन साहित्य का प्रकाशन कर सके । अस्टूबर ७६ में अकस्मात थी महावीर ग्रन्थ अकादमी का नाम सामने पाया और संस्था का यही नाम रखना उचित समझा । नामकरण के साथ ही एक पंचवर्षीय योजना भी तैयार की।
सर्व प्रथम जन कषियों द्वारा निबद्ध हिन्दी साहित्य को प्रकाशित करने का विचार सामने आया क्योंकि संवत् १४०१ से लेकर १६... तक हिन्दी एवं राजस्थानी में जिस प्रकार के विपुल साहित्य का निर्माण किया गया वह सभी दृष्टियों से मत्रत्वपूर्ण है और उसके विस्तृत परिचय की महती पावश्यकता है 1 हिन्दी भाषा में जिस प्रकार जायसी, सूरदास, मीरा, तुलसीदास, रसखान, बिहारी, दादू, रज्जव, जैसे पचासों कवि हुये सयों के विविध सार है. चुका ईमोर प्रागे भो होता रहेगा तथा जिनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को नये-नये प्रायामों के प्राधार परखा जा रहा है लेकिन इस प्रकार से प्रकाशित होने वासी पुस्तकों में जैन कवियों का कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता और यदि कहीं मिलता भी है तो वह एकदम संक्षिप्त एवं अपूर्ण होता है । जैन कवियों में सघा, रामसिंह, ब्रह्म जिनदास, शान. भूषण, बूघराज, ब्रह्म रायमल्ल, विद्याभूषण, त्रिभुवनकीति, समयसुन्दर, यशोधर, रन कीर्ति, सोमसेन, बनारसीदास, भगवतीदास, भूधरदास, धानतराय, बुधजन, पचन्द, बुलाकीकास, किशनसिह, दौलतराम जैसे कितने ही महाकवि हैं जिन्होंने हिन्दी में सैकड़ों रचनायें निबस को और उसके विकास में अपना सर्वाधिक योगदान दिया लेकिन इनमें सघार राजसिंह, बनारसीदास एवं दौलतराम जैसे कुछ कवियों को छोड मेष के सम्बन्ध हम स्वयं अन्धेरे में है । इसलिये इन कवियों के जीवन एवं व्यक्तित्व के अध्ययन के साथ ही तथा उनकी कृतियों के मूल भाग को सम्पादित एवं प्रकाशित करने की अतीव अावश्यकता है । मूल कृतियों के दिना कोई भी विद्वान् कवियों के मूल्यांकन के कार्य में प्रागे नहीं बढ़ सकता । पोर ने माज शोधार्थी विभिन्न भण्डारों में जाकर उनकी मूल पाण्डुलिपियों के अध्ययन का कष्ट साध्य परिश्रम करना चाहता है।
इसलिये प्रथम पंचवर्षीय के अन्तर्गत २० भागों में कम से कम पचास जैन ववियों का जीवन परिचय तथा उनके कृतित्व का सूक्ष्म अध्ययन प्रस्तुत करना ही इस महावीर ग्रन्थ अकादमी की स्थापना का मुख्य उद्देश्य निश्चित किया गया है।
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इन कचियों के काव्यों के सूक्ष्म अध्ययन के साथ-साथ उनकी प्रमुख कृतियो भी प्रकाशित की जायेंगी । अकादमी के प्रथम भाग में महाकवि ब्रह्म रायमल्ल एवं भट्टारक त्रिभुवनकोति को लिया गया है । दोनों ही कवि विक्रम की १७वीं शताग्दि के प्रथम चरण के कवि है और जिनका साहित्यिक योगदान बहुत ही महत्वपूर्ण रहा है ।
अकादमी द्वारा पंचवर्षीय योजना के अन्तर्गत निम्न प्रकार पुस्तकों के प्रकाशन की संख्या रहेगी।
९ पुसमा १६७६
१९५१ १९५२
इस योजना के अन्तर्गत जिन कवियों पर प्रकाशन कार्य होगा उनके नाम निम्न प्रकार है :
१. महाकवि ब्रह्म रायमल्ल एवं मट्टारक त्रिभुवनकोति २. कविवर बुचराज एवं उनके समकालीन कवि ३. महाकवि ब्रह्म हिनदास एवं प्रतापकीर्ति ४. महाकवि वीरचन्द एवं माहिचन्द ५. विद्याभूषण, मानसागर एवं जिनदास पाण्डे । ६. ब्रह्म यशोषर एवं भट्टारक शानभूषण ७. भट्टारक रलकीर्ति एवं कुमुदचन्द्र ८. कविवर रूपचन्द, जगजीवन एवं ब्रह्म कपूरबन्द १. महाकवि भूधरदास एवं बुलाकीदास १०. जोधराज गोदीका एवं हेमराज
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११. महाकवि घानतराय १२. भगवतीदास एवं भातकवि १३. करि गुणालचन्द माना जातो १४. कविवर किशनसिंह, नथमल विलाला एवं पाण्डे लालचन्द १५. कविवर बुधजन एवं उनके समकालीन कवि १६. कविवर नेमिचन्द एवं षंकीति १७, मैया भगवतीदास एवं उनके समकालीन कवि १८. कविवर दौलतराम एवं छत्तदास १६. मनराम, मनासाह एवं लोहट २०. २० वीं शताब्दि के जैन कवि
२० भागों में उक्त कषियों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का सम्यक् अध्ययन प्रस्तुत किया जावेगा । इसके अतिरिक्त प्रत्येक कवि की मूल कृतियों के पाठ भी उन में रहेंगे। ऐसे कवियों एवं साहित्य निर्माताओं की संख्या कम से कम ५० होगी।
___ महाबीर ग्रन्थ अकादमी की प्रथम पंचवर्षीय योजना करीब २ लाख रुपये की अनुमानित की गयी है जिसके अन्तर्गत २० माग प्रकाशित किये जायेंगे। प्रत्येक भाग २५० से ३०० पृष्ठ का होगा। इस प्रकार मकादमी ५-६ हजार पृष्ठों का साहित्य प्रथम पांच वर्षों में अपने पाठकों को उपलब्ध करायेगी। इस योजना की क्रियान्विति के लिये संचालन समिति के ५१ सदस्य जिनमें संरक्षक, अध्यक्ष, कार्याध्यक्ष उपाध्यक्ष एवं निदेशक सम्मिलित हैं, होगे तथा कम से कम ५०० विशिष्ट सदस्य बनाये जायेंगे । विशिष्ट सदस्यों से २०१) रु. तथा संचालन समिति के सदस्यों से (पदाधिकारियों के अतिरिक्त) कम से कम ५०१) रु० लिये जावेगे। मुझे यह लिखते हुये बड़ी प्रसन्नता होती है कि समाज में साहित्य प्रकाशन की इस योजना का स्वागत हुमा है तथा अब तक संचालन समिति की सदस्यता के लिये एवं विशिष्ट सदस्यता के लिये १०० से अधिक महानुभावो की स्वीकृति प्राप्त हो चुकी है। इस प्रकार प्रकादमी का कार्य चल पड़ा है। अकादमी की संरक्षकता के लिये मैंने श्रावक शिरोमणि स्व० साहु शान्तिप्रसाद जी जन से अकादमी की योजना भेजते हुये जब निवेदन किया तो वे योजना से अत्यधिक प्रभावित हुये और एक सप्ताह में ही उन्होंने अपनी स्वीकृति भेज दी । मुझं बड़ा खेद है कि उसके कुछ महीने पश्चात् ही
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उनका अकस्मात स्वर्गवास हो गया और वे इसके एक भी प्रकाशन को नहीं देख सके लेकिन मुझे यह लिखते हुये प्रसन्नता है उन्हीं के सुपुत्र साहू अशोक कुमार जी जैन ने हमारे विशिष्ट याग्रह पर प्रकादमी का संरक्षक बनने की स्वीकृति दे दी है साथ ही में अपना पूर्ण सहयोग देने का आश्वासन भी दिया है। इसी प्रकार जब मैंने श्रीमान सेठ गुलाबचन्द जी साहब गंगवाल से उपाध्यक्ष बनने की स्वीकृति चाही तो उन्होंने भी तत्काल ही अपनी स्वीकति भिजवादी । इसी तरह श्रीमान् लाला अजीतप्रसाद जी जैन ठेकेदार देहली का नाम उल्लेखनीय है जिन्होंने सर्व प्रथम विशिष्ट सदस्यता के लिये पौर फिर विशेष प्राग्रह करने पर अकादमी के उपाध्यक्ष के लिये अपनी स्वीकृति भिजवादी।
अकादमी की स्थापना के सम्बन्ध में जब मैने श्रीमान सेठ कन्हैयालाल जी सा जैन पहाडिया,मद्रास वालों से बात चलायी और उनसे उसकी अध्यक्षता स्वीकार करने के लिये प्राग्रह किया तो उन्होंने अपनी प्रसन्नता प्रकट करते हुये दूसरे ही दिन बातचीत करने के लिये कहा । मैं एवं वैद्य प्रभुदयाल जी कासलीवाल भिषगाचार्य दोनों ही दूसरे दिन उनके पास पहुंचे तो उन्होंने अकादमी के कार्य को आगे बढ़ाने के लिये कहा और उसका अध्यक्ष बनना भी स्वीकार कर लिया। इसी तरह श्रीमान् से कमलचन्द जी कासलीवाल एवं श्री कन्हैयालाल जी सेठी ने भी उपाध्यक्ष बनने की जो स्वीकृति दी है उसके लिये हम उनके प्रामारी हैं। प्रकादमी के सदस्य बनाने के फार्म में मुझे जिनका विशेष सहयोग मिला उनमें श्रीमती सुदर्शना देवी जी छाबड़ा, पैद्य प्रभृदयाल जी भिषगाचार्य, श्रीमती कोकिला जी सेठी, ५० अमृतलाल जी दर्शनाचार्य वाराणसी एवं श्री गुलाबचन्द जी गंगवाल, श्री महेशचन्द जी जैन, डॉ० चान्धमल जैन एवं डॉ. कमलचन्द सोगाणी उदयपुर के नाम विशेषत: उल्लेखनीय है । मैं इन सभी महानुभावों का हृदय से प्राभारी हूं जिन्होंने संचालन समिति अथवा विशिष्ट सदस्यता के रूप में अपनी स्वीकृति भेजी है । मुझे पूर्ण विश्वास है कि समाज के साहित्य प्रेमी महानुभाव समूचे हिन्दी न साहित्य के प्रकाशन में भागीदार बनकर सहयोग देने का कष्ट करगे।
साहित्य प्रकाशन के इस कार्य में कितने ही विद्वानों ने सम्पादक के रूप में और कितने ही विद्वानों ने लेखक के रूप में अपना सहयोग देने का प्राश्वासन दिया है। श्री महावीर प्रकादमी की इस योजना में हम अधिक से अधिक विद्वानों का सहयोग लेना चाहेंगे। अभी तक देश एवं समाज के कम से कम ३० विद्वानों की वीकृति प्राप्त हो चुकी है । ऐसे विद्वानों में डा. सत्येन्द्र जी जयपुर, डा. रामचन्द्र
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जी द्विवेदी उदयपुर, १० दरबारीलाल जी कोठिया बाराणसी, डा. गंगाराम गर्ग, डा. महेन्द्र सागर प्रचंडिया, डा. प्रेमचन्द रांवका जयपुर, हा प्रेमचन्द जैन, पं. अब जी काय, असली महोदो, ग. भिलापचन्द जी शास्त्री, पं. भंवरलाल जी न्यायत्तीथं एवं डा. नरेन्द्रभानावत जयपुर का नाम विशेषतः उल्लेखनीय है।
डा. कस्तूरबन्द कासलीवाल निवेशक एवं प्रधान सम्पादक
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विषय-सूची
ili-iv
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डॉ. सत्येन्द्र
vii-x
xi-xvi
१. मध्यक्ष की ओर से २. लेखक की कलम से ३. दो शब्द ४. अकादमी का परिचय ५. महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
जीवन-परिचय एवं मूल्यांकन
भविष्यदस चौपई ७. परमहंस चौपई ८. श्रीपालरास ६. प्रद्युम्न रास ।
कविवर म० त्रिभुवनकीति
जीवन-परिचय एवं मूल्यांकन ११. जम्यूस्वामीरास
ब्रह्म रायमल्ल
१३७-१८० १८१-१९८ १६६-२३८ २३६-२६६
२६७-२६० २६१-३५६
त्रिभुवनकीति
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पूर्व पीठिका
जैनाचार्यों, भट्टारकों एवं विद्वानों का भारतीय साहित्य को समृद्ध एवं सपाक्त बनाने में विशेष योगदान रहा है। भारतीय संस्कृति के स्वर में स्वर मिलाकर उन्होंने देश की सभी भाषामों में विशाल साहित्य का निर्माण किया और उसके विकास में चार चांद लगाये। उन्होंने न किसी भाषा विशेष से राग किया मौर न
षषध किसी भारतीय भाषा में साहित्य निर्माण को बन्द विया । संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंप एवं हिन्दी जैसी राष्ट्रभाषाओं तथा राजस्थानी, गुजराती, मराठी, तमिल, तेलगू एवं कन्नड़ जैसी प्रादेशिक भाषाओं के विकास में योग दिया । जैन कवियों ने काव्य, पुराण, सिद्धान्त, अध्यात्म, का, ज्योतिष, प्रायुर्वेद, गणित, छन्द एवं अलंकार जैसे विषयों पर सैंकड़ो ग्रन्थ लिखकर साहित्य सेवा का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया । जन कवि जन-जन में बौद्धिक नेतना जागृत करने में कभी पीछे नहीं रहे और किसी न किसी विषय पर साहित्य निर्माण करते रहे । देश के जंन ग्रन्थागारों में जो विशाल साहित्य उपलब्ध होता है वह जैन प्राचार्यों एवं विद्वानों के साहित्य प्रेम का स्पष्ट द्योतक है । इन ग्रन्थागारों में संग्रहीत साहित्य अत्यधिक व्यापक एवं समृद्ध है । यद्यपि अब तक सकड़ों कृतियों प्रकाशित की जा चुकी हैं लेकिन यह प्रकाशन तो उस विशाल साहित्य का एक अंश मात्र है । वास्तव में जैन ग्रन्थागार साहित्य के विपुल कोष हैं तया उनमें संग्रहीत साहित्य देश की महान् निधि है।।
हिन्दी में भी जैन विद्वानों ने उस समय लिखना प्रारम्भ किया जब उसमें लिखना पांडित्य से परे समझा जाता था और वे भाषा के पंडित कहताते थे। यह भेदभाव तो महाकवि तुलसीदास एवं बनारसीदास के बाद तक चलता रहा । हिन्दी में जैन कवियों ने रास संज्ञक रचनामों से काव्य निर्माण प्रारम्भ किया। जब अपन या भाषा का देश में प्रचार था तब भी इन कवियों ने अपनी दूरदर्शिता के कारण हिन्दी में भी अपनी लेखनी चलाई और साहित्य की सभी विधाओं को पल्लवित करते रहे और उनमें संस्कृति एवं समाज की मनोदशा का यथार्थ चित्रण करने लगे । जिनदत्तचरित (सं० १३५४) एवं प्रद्युम्नचरित (सं० १४११) जैसी कृतियां अपने युग की खुली पुस्तकें हैं। जैन कवियों ने हिन्दी की सबसे अधिक एवं सबसे लम्बे समय तक संवा की तथा उसमें अवाच गति से साहित्य निर्माण करते रहे । लेकिन हिन्दी विद्वानो की जैन ग्रन्यागारों तक पहुंच नहीं होने के कारण वे उमवा मूल्यांकन नहीं
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल कार सके और जब हिन्दी साहित्य का क्रमबद्ध इतिहास लिखा गया तब जन भण्डारों में संग्रहीत विशाल हिन्दी साहित्य को 'पपन्द्र शाम में मागिन् । यह लिख कर साहित्य की परिधि से बाहर निकाल दिया कि वह केवल धार्मिक साहित्य है और उसमें साहित्यिक तत्व विद्यमान नहीं है। रामचन्द्र शुक्ल की इस एक पंक्ति ने जैन विद्वानों द्वारा निर्मित हिन्दी साहित्य का बड़ा भारी अहित किया । उसका फल माज भी उसे भुगतना पड़ रहा है।
समय ने पल्टा लाया । जैन ग्रन्थागारों के ताले खुलने लगे तथा विद्वानों का इस ओर ध्यान जाने लगा । शनैः शनैः जनाचार्यों का विशाल साहित्य बाहर पाने लगा। सर्वप्रथम अपना साहित्य पर विद्वानों का ध्यान गया और धनपाल के 'भविसयत्तचरिउ' की पाण्डुलिपि प्राप्त होते ही साहित्यिक जगत में हलचल मच गयी क्योंकि इसके पूर्व हिन्दी के विद्वानों में समूचे अपभ्रश साहित्य को ही लुप्त प्रायः साहित्य घोषित कर दिया था। अपभ्रा के महाकाव्य पउमचरिउ (स्वयंभु) रिटुरोमिचरिउ, महागुराण, जम्बूसामिचरिउ जैसे महाकाव्यों का जब पता चला तो महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने रामचन्द्र शुक्ल के विरुद्ध झण्डे गाड़ दिये और महाकवि स्वयंभू के पदमचरिउ को हिन्दी का प्रथम महाकाव्य घोषित कर दिया। इसके पश्चात् और भी विद्वानों का उस ओर ध्यान गया और उन्होंने जैन कवियों के निर्मित काव्यों का मूल्यांकन करके उन्हें हिन्दी के श्रेष्ठ महाकाव्यों को कोटि में ला बिठाया । ऐसे विद्वानों में स्वर्गीय डा. वासुदेव शरण अग्रवाल, स्वर्गीय डा. माता प्रसाद गुप्त, डा रामसिंह तोमर, एवं डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी के नाम उल्लेखनीय हैं। हिन्दी के वर्तमान मूर्धन्य विद्वानों में डा. हजारी प्रसाद द्विवेदी का नाम इस दिशा में सर्वाधिक उल्लेखनीय है जिन्होंने अपनी पुस्तक "हिन्दी साहित्य का प्रादिकाल" में हिन्दी जैन साहित्य के विषय में जो पंक्तियां लिखी हैं वे निम्न प्रकार है
"इधर जैन अपभ्रश चरित काव्यों की जो विपुल सामग्री उपलब्ध हुई है वह सिर्फ धार्मिक मम्प्रदाय के मुहर लगाने मात्र में अलग कर दी जाने योग्य नहीं है। स्वयम्भू, चतुर्मुख, पुष्पदन्त और धनपाल जैसे कवि केवल जैन होने के कारण ही कान्यक्षेत्र से बाहर नहीं चले जाते । धार्मिक साहित्य होने मात्र से कोई रचना साहित्य कोटि से अलग नहीं की जा सकती। यदि ऐसा समझा जाना लगे तो तुलसीदास का रामचरितमानस भी साहित्य क्षेत्र में अविवेच्य हो जाएगा और जायसी का पद्मावत भी साहित्य-सीमा के भीतर नहीं घुस राकेगा।"
श्री महावीर क्षेत्र के द्वारा राजस्थान के जैन ग्रन्धागारों के मुचीकरण कार्य से अपनश एवं हिन्दी कृतियों को प्रकाश में लाने में बहुत योग मिला। इससे
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१. हिन्दी साहित्य का प्रादिकाल-पृष्ठ ११ प्रथम संस्करण १६५.२
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पूर्व पीठिका
की पचासों कृतियों प्रकाश में आ सकी । सन् १६५० में जब इस क्षेत्र की ओर से एक प्रशस्ति संग्रह प्रकाशित किया गया तो अपभ्रंप के विशाल साहित्य की श्रीर विद्वानों का ध्यान गया और हिन्दी के मूर्द्धन्य विद्वानों ने उस प्रज्ञात साहित्य को हिन्दी के लिये वरदान माना । प्रशस्ति संग्रह' प्रकाशन के पश्चात् डा० हरिवंश कोछड ने अपभ्रंश साहित्य पर अपना शोध प्रबन्ध प्रस्तुत किया जिसमें उसके महत्त्व पर प्रथम बार अच्छा प्रकाश डाला तथा अपभ्रंश साहित्य को हिन्दी का ही पूर्वकालिक साहित्य स्वीकार किया । डा० हीरालाल जैन, एवं डा० आदिनाथ मेमिनाथ उपाध्ये ने अपभ्रंश की कृतियों को प्रकाश में लाने की दृष्टि से प्रत्यधिक महती सेवा की और महाकवि पुष्पदन्त के तीन ग्रन्थों को प्रकाश में लाने में सफलता प्राप्त की।
गत २५ वर्षों में हिन्दी जैन कवियों एवं उनके काव्यों पर देश के विभिन्न विविद्यालयों में जो शोध कार्य हुआ है और वर्तमान में हो रहा है वह यद्यपि एक रूप में सर्वे कार्य ही है फिर भी इससे जैन हिन्दी विद्वानों एवं उनकी कृतियों को प्रकाश में आने में बहुत सहायता मिली है और हिन्दी के शीर्षस्थ विद्वान् यह अनुभव करने लगे हैं कि जैन विद्वानों विकृतियों की केवल धार्मिक साहित्य के बहाने साहित्य जगत् से दूर रखना उनके साथ धन्याय होगा। स्थान प्राप्त होना चाहिये जो अन्य हिन्दी कवियों के साहित्य को प्राप्त है । साहित्य को देखते हुए
इसलिये उसको भी वही
जो
म
जैन कवियों के आ सके हैं वे तो 'घाटे में नमक' के बराबर ही कहे जा सकते हैं । हिन्दी जैन साहित्य विशाल है और उसकी विशालता के मूल्यांकन के लिये हजारों पृष्ठ भी कम रहेंगे। अभी तो ऐसे सकड़ों कवि है जिनकी कृत्रियों का ग्रन्थ सूचियों के प्रतिरिक्त कहीं कोई नामोल्लेख भी नहीं हुआ है । मूल्यांकन की बात का प्रश्न ही सामने नहीं आया । ब्रह्मजिनदास जैसे कवियों की रचनाओं को प्रकाशित करने के लिये वर्षों की साधना चाहिये और हजारों पृष्ठों का मैटर छापने के लिये चाहिये ।
ब्रह्म रावमहल एक ऐसे ही हिन्दी कवि हैं जिनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व दोनों ही महत्त्वपूर्ण होते हुये भी अभी तक अज्ञात अवस्था को प्राप्त हैं। प्रस्तुत पुस्तक में हम उनके एवं उनके समकालीन ( संवत् १६०१ से १६४० तक) होने वाले ग्रन्थ कवियों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर सामान्य रूप से प्रकाश डालने का प्रयास कर रहे हैं। हमारा यह प्रयास कितना सफल रहता है इसका मूल्यांकन तो विद्वान् ही कर सकेंगे ।
तत्कालीन युग
संवत् १६०१ से १६४० तक का युग हिन्दी साहित्य के इतिहास के काल विभाजन को दृष्टि से भक्तिकाल में आता है। मिश्रबन्धु विनोद में इस काल को
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल प्रौढ़ माध्यमिक काल (संवत् १५६१ से १६८० तकी में समाहित किया गया है । पं० रामचन्द्र शुक्ल इस काल को पुणे मध्यकाल-भक्तिकाल (संवत् १३७५ से १७००) के रूप में अभिव्यक्त किया है। प्राचार्य श्यामसुन्दरदास ने सम्वत् १४०० से १७०० तक के काल को भक्ति युग का काल स्वीकार किया है। इनसे धागे होने वाले डा. सूर्यकान्त शास्त्री ने इस काल को तारुण्य काल कह कर सम्बोधित किया है । हा० रामकुमार वर्मा ने हिन्दी साहित्य का प्रारम्भ संवत् ७५० से मानते हुए सम्बत् १३७५ से १७०० तक के काल को भक्तिकाल का युग कहा है। इसके पश्चात होने वाले सभी विद्वानों ने संवत् १७०० तक के काल को भक्तिकाल की संज्ञा दी है।
3 त य का ग्रासोत: काल संवत् १६०१ से १६४० तक का रखा गया है । जो भक्तिकाल के अन्तर्गत प्राता है । हिन्दी साहित्य के ये ४० वर्ष भक्तिकाल के स्वर्ण वर्ष कहे जा सकते हैं। सगृगा भनिधारा के अधिकांश कवियों का साहित्यिक जीवन इन्हीं वर्षों में निखरा और उन्होंने इन्हीं वर्षों में देश को अपनी मौलिक कृतियाँ समर्पित की। महाकवि सूरदास, मीराबाई, तुलसीदास जैसे भक्त कवि इसी काल की भेंट हैं । इसलिये ब्रह्म रायमल्ल को हिन्दी के इन महान कवियों के समकालीन होने का गौरव प्राप्त है। कवि की रचनाओं में भक्ति रस की जो छटा देखने को मिलती है वह सब उसी युग का प्रभाव है। क्योंकि मन्त्र चारों ओर भक्ति रस की वारा बह रही हो तब उस धारा से जैन कवि कैसे अछूते रह सकते थे । संवत् १६०१ से १६४० की अवधि में होने वाले प्रसिद्ध जैनेतर भक्त कवियों का संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार हैकुम्भनदास
ये प्रष्ट छाप के कवि थे तथा बल्लभाचार्य के प्रमुख शिष्य थे। इनकी जन्म तिथि सम्बत् १५२५ एवं मृत्यु तिथि सम्वत् १६२६ के पास-पास मानी जाती है। चौरासी वैष्णवों की वार्ता में लिखा है कि सम्राट अकबर ने कुंभनदास को फतेहपुर सीकरी बुलगाया था । जिसका उल्लेख उन्होंने अपने एक पद में किया है। इनके द्वारा निबद्ध भक्ति रस के पद कीर्तनसंग्रह, कीर्तन रत्नाकर, राग कल्पद्रम आदि में मिलते हैं।
मिश्नबन्धु विनोद भूमिका पृष्ठ-६३ ३. पं. रामचन्द्र शुक्ल-हिन्दी साहित्य का इतिहास पृष्ठ-8 ४. पं. श्यामसुन्दरराम-हिन्दी साहित्य पृष्ठ २६-२१ ५. हिन्दी साहित्य का पालोचनात्मक इतिहास पृष्ठ ४१, ४३ ५. भक्तन को कहा सीकरी सो काम
पावत जात पनहिया टूटी विसरि गयो हरि नाम जाको मुख देखे दुख लागे ताको करन परी प्रनाम ।
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पूर्व पोठिका तुलसीदास
महाकवि तुलसीदास देश के जनकवि थे। राम कान्य के सबवे बड़े प्रणेता महाकवि तुलसीदास ही माने जाते हैं । ब्रजभाषा एवं अवधि दोनों ही भाषानों में इन्होंने समान रूप से लिखा है । इनकी जन्म तिथि के सम्बन्ध में अत्यधिक मतभेद है लेकिन डा० माताप्रसाद गुस्त ने इनका जन्म सम्बत् १५८६ भादवा शुक्ला ११ माना है। इनकी मृत्यु तिथि सम्बत् १६८० मानी जाती है । महाकवि ने अपनी केवल तीन रचनात्रों में रचना संवत् दिया है वह निम्न प्रकार हैरामचरितमानस
वि० सं० १६३१ पार्वतीमंगल कवितावली
॥ १६८ के पूर्व तुलसीदास की उक्त रचनाओं के अतिरिक्त रामगीतावली, सतसई, जानकी मंगल, कृष्णगीतावनी, दोहावली आदि ११ रचनाएँ और हैं । महाकवि ने अपने पापको जिस प्रकार रामभक्ति में समर्पित कर दिया था वह जगत प्रसिद्ध है। रामचरितमानम उनका सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रन्थ है जिसका प्रत्येक शब्द भक्तिरस से प्रोतप्रोत है। नन्ददास
नमा प्र णिों में से मल कवि माने जाते हैं । ये रामपुर ग्राम के निवासी थे। इन्हें महाकवि तुलसीदास का भाई बताया जाता है । डा. दीनदयाल गुप्त नन्ददास का जन्म संवत् १५६० के लगभग एवं मृत्यु संवत् १६४३ के लगभग मानते हैं। इनकी २६ रचनाएँ बतायी जाती है जिनमें रास पंचाध्यायी, रूपमंजरी, विरहमंजरी. रसमंजरी, सुदामाचरित, रुक्मणी मंगल, मंवर गीत, दानलीला आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त नन्ददास के स्फुट पद भी प्राप्त है। परमानन्ददास
वे भी प्रष्टछाप के एक कवि थे । डा. दीनदयाल गुप्त के अनुसार ये जाति से कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे तथा इनका जन्म कन्नौज में हुआ था । इनकी जन्म तिथि संवत् १५५० तथा मृत्यु तिथि संवत् १६४. मानी जाती है। इनकी दो कृतियाँ दानलीला एवं धन परित्र तथा बहुत से पद मिलते हैं।"
६. तुलसीदास, पृष्ठ १०६-११ .. मिश्र बन्धु विनोद पृष्ठ २३४
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म. वि ब्रह्म निमाल
सूरदास
महाकवि सूरदास भक्तियुग के महान् कवि थे । ये वल्लभाचार्य के समकालीन थे। इनका जन्म संवत् १५३५ वैशाख सुदी ५ को तथा मृत्यु संवत् १६३८ के लगभग हुई थी। बादशाह अकबर ने इनसे मथुरा में मेंट की थी । सूरदास के पद देश में सर्वाधिक लोकप्रिय हैं और वे हजारों की संख्या में हैं। अब तक इनकी २४ रचनाओं की प्राप्ति हो चुकी है जिनमें से उल्लेखनीय रचनाएँ निम्न प्रकार है१. सूरसागर
२. भागवत भाषा ३. दशमस्कंध भाषा
४. सूरदास के पद ५. प्राणधारी
६. मंवर गीत ७. सूर रामायण
८, नागलीला ६. गोवर्धन लीला १०. सूर पच्चीसी ११. सूरसागर सार १२, सूरसारावली १३. साहित्य लहरी
१४. सूरशतक १५. दान लीला
१६. मानलीला मीराबाई
मीराबाई राजस्थानी महिला भक्त कवि थी। मीराराई के पद जन-जन को कण्ठस्थ है । "मीरा के प्रभु गिरधर नागर" पंक्तियों अत्यधिक लोकप्रिय हैं। मीराबाई का जन्म सचद १५५५ से १५७३ तक तथा मृत्यु सवद १६२० से १६३० के बीच हुई थी। बंगला भक्तमाला और सियाराम की हिन्दी भक्तमाला की टीकामों में सम्राट अकबर और तानसेन का भीरा के दर्शनों को आने का तथा मीराबाई का वृन्दाबन जाकर रूप गोस्वामी के दर्शन करने का उल्लेख है ।
उक्त कुछ प्रमुख कवियों के अतिरिक्त प्रासकरनदास, कल्लानदास, कान्हरदास, कृष्णदास, केशवभट्ट, गिरिधर, गोपीनाथ, चतुरबिहारी, तानसेन, सन्त तुकाराम, दामोदरदास, नागरीदास, नारायन भट्ट, माधवदास, रामदास, लालदास, विष्णुदास, मादि पचासों कवियों के नाम उल्लेखनीय हैं। इन कवियों ने हिन्दी में भक्तिरस की रचनाएँ निबद्ध कर देश में भक्तिरस की धारा प्रवाहित की थी और इसके माध्यम से सारे देश को भावात्मक एकता में निबद्ध किया था। यही नही देश में वर्गभेद, जातिभेद की भावना में भी परिवर्तन ला दिया का । जैन कवि
इन वर्षों में जन कवि भी पर्याप्त संख्या में हुए और वे भी देश में व्याप्त भक्ति धारा से प्रडूते नहीं रह सके। जमकी कृतियां भी भक्तिरस में प्राप्लावित
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जीवन
होकर सामने आयी और इस दृष्टि से भट्टारक शुभचन्द्र पाण्डे राजमल्ल भट्टारक वीरचन्द्र, सुमतिकीर्ति, ब्रह्म विद्याभूषण, ब्रह्म रायमल्ल, उपाध्याय साघुकीर्ति भीखमकवि, कनकसोम, वाचक मालदेव, नवरंग, कुशललाभ, हरिभूपण, सकलभूषण आदि के नाम उल्लेखनीय है । इन कवियों ने रास, फागु, बेनि, चौपाई एवं पदों के माध्यम से हिन्दी साहित्य की महनी रोवा की है। इन कवियों में से हम सर्वप्रथम ब्रह्म रायमन्ड का परिचय उपस्थित कर रहे हैं क्योंकि संवत् १६०१ मे १६४० तक की अवधि में ब्रह्म रायमल्ल हिन्दी के प्रतिनिधि कवि रहे हैं ।
ब्रह्म रायमल्ल
हमारे आलोच्य कवि अह्म रायमल्ल हिन्दी के इसी स्वरसंयुग के प्रतिनिधि कवि थे । तत्कालीन जनभावनाओं का समादर करके कवि ने अपनी रचनाएँ लिखी और उन्हें मुक्त रूप से स्वाध्याय प्रेमियों को समर्पित किया । कवि ने अपने काव्यों को जन-जन के काव्य बनाने का प्रयास किया और लोक प्रचलित शैली में लिखकर एक बहुत बड़ी कभी की पूर्ति की । ब्रह्म रायमल्ल की रचनाएँ इतनी अधिक लोकप्रिय रही कि राजस्थान के अधिकांश ग्रन्थालयों में वे आज भी अच्छी संख्या में मिलती है । जैन समाज में ब्रह्म रायमल्ल सदैव बहुचर्चित कवि रहे और उनकी कृतियों का स्वाध्याय बड़ी रुचिपूर्वक किया जाता रहा।
ब्रह्म रायमल की अधिकांश रचनाएँ राससंज्ञक रचनाएँ हैं जिनमें अधिकतर कथापरक हैं । कवि ने श्रीपाल, सुदर्शन भविष्यदत्त, हनुमान, नेमिनाथ जैसे महापुरुषों के जीवन पर प्रख्यान परक रचनाएँ निवद्ध करके तत्कालीन समाज को एक नयी दिशा प्रदान करें तथा उन महापुरुषों के अनुकुल अपने जीवन निर्माण को प्रोत्साहित किया, साथ ही में तीर्थंकरों के प्रति श्रद्धा एवं भक्ति भावना को पुनर्जीवित किया । यद्यपि महाकवि ने सुरदास एवं कबीर जैसे पद नहीं लिखे और न निर्गुण एवं सगुण जैसी भक्ति धारा में बहे। उन्होंने तो अपनी रचनाओं के माध्यम से यही सिद्ध करने का प्रयास किया कि तीर्थंकरों की पूजा, भक्ति एवं स्तवन में अपार पुण्य की प्राप्ति होती है तथा दुष्कर्मों का नाश होता है। श्रीपाल, सुदर्शन, प्रद्य ुम्न, भविष्यदत्त, हनुमान जैसे महापुरुषों का जीवन तीर्थकरों की भक्ति एवं श्रद्धा से उपार्जित पुष्प की खुली पुस्तकें हैं। उनका जीवन आगे आने वाली सन्तति के लिये प्रेरणा स्रोत है । यही कारण है कि इन महापुरुषों के जीवन को ब्रह्म रायमल्ल के पूर्ववर्ती एवं उत्तरवर्ती सभी कवियों ने अपने-अपने काव्यों में सर्वाधिक स्थान दिया है।
5.
७
भाव भगति जिम् दीया हो, करि स्नान पहरे शुभ चीर ।
जिरा चरण पूजा करी हो, भारो हाथ लई भरि नीर ॥
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
ब्रह्म रायमल्ल का जन्म कब और कहाँ हुप्रा । वे किस देश एवं जाति के थे और किस प्रेरणा से उन्होंने गृहत्याग किया इस सम्बन्ध में हमें अभी तक कोई सामग्री उपलब्ध नहीं हुई। इन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा कहाँ प्राप्त की तथा विवाह होने के पश्चात् गृह त्याग किया अथवा विवाह के पूर्व ही ब्रह्मचारी बन गये, इसके सम्बन्ध में भी न तो स्वयं कवि ने अपनी रचनाओं में उल्लेख किया है और न किसी अन्य विद्वान् ने अपनी रचना में ब्रह्म रायमल्ल का स्मरण किया है। इनके नाम के पूर्व 'ब्रह्म' शब्द मिलने से सम्भवतः रायमल्ल ब्रह्मचारी थे और अन्तिम समय तक ये ब्रह्मचारी ही बने रहे इसके अतिरिक्त हम अधिक कुछ नहीं कह सकते ।
पं० परमानन्द जी शास्त्री एवं डा० प्रेमसागर जैन ने ब्रह्मा रायमल्ल का परिचय देते हुए भक्तामर स्तोत्र वृत्ति के कर्त्ता ब्रह्म रायमल्ल एवं रास ग्रन्थों के निर्माता ब्रह्म रायमल्ल को एक ही माना है । 'भक्तामर स्तोष वृद्धि' में दूसरे ब्रह्म रायमल्ल ने जो अपने माता-पिता आदि का नामोल्लेख किया है उसी को आलोच्य ब्रह्म रायमल्ल के माता पिता मान लिया है। 'भक्तामर स्तोत्र वृत्ति' के कर्ता ब्रह्म रायमल्ल डुंबड यश के भूषण थे। इनके पिता का नाम मह्य एवं माता का नाम चम्पा था । ये जिन चरण कमलों के उपासक थे । इन्होंने महासागर तटभाग में समश्रित मीयापुर के चन्द्रप्रभु स्यालय में वर्णी कर्मसी के वचनों से 'भक्तामर स्तोत्र वृत्ति' की रचना विक्रम संवत् १६६७ में समाप्त की थी ।
हमारे विचार से बहा रायमल्ल नाम वाले दो भिन्न भिन्न विद्वान् हुए । प्रथम रायमल्ल रास ग्रन्थों के रचयिता थे जिन्होंने हिन्दी में काव्य रचना की तथा जिनकी संवत् १६१५ से संवत् १६३६ तक निर्मित एक दो नहीं किन्तु पूरी १५ रचनाएँ
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६. जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह - प्रस्तावना- पृष्ठ संख्या ५१ १०. जैन शोध और समीक्षा— पृष्ठ संख्या
११.
श्रीमद् हूड-वंश-मंडणमणि झ ेति नामा वणिक् तद्भार्या गुणमंडिला व्रतश्रुता चम्पामितीताभिधा ||६| तत्पुत्रो जितपादकंजमधुपो रायादिमल्लोव्रती ।
च वृत्तिमियां स्वस्य नितरां नत्वा श्री (सु) बादीदुकं ||७|| सप्तषठ्यं किले वर्षे षोडशाख्ये हि संवते ( १६६७ )
प्राषाढ-वेतपक्षस्य पंचम्यां बुधवार ॥॥॥॥ ग्रीवापुरे महा सिन्धोस्तरभाग समाश्रिते प्रोत 'गदुर्ग संयुवते श्री चन्द्रप्रभसद्मनि ||६|| वणिनः कर्मसी नाम्नः वचनात् मयकाऽरचि । भक्तामरस्य सद्वृत्तिः रायमल्लेन वणिना ।।१०
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जीवन परिचय
मिलती हैं। सभी कृतियां भक्ति परक है तथा रास एवं कथा संझक हैं सभी में उन्होंने अपना समान परिचय दिया है। इन कुतियों के आधार पर ब्रह्म रायमल्ल मुनि अनन्तवीति के शिष्य थे जो भट्टारक रत्नकीति के पट्टधर शिष्य थे। इन दोनों नामों के अतिरिक्त हिन्दी की किसी भी कृति में उन्होंने अपना धिक परिचय नहीं दिया । १२ अपनी प्रतिम कृति 'परमहंस चौपई' में भी ब्रह्म रायमल्ल ने अपने गुरु एवं दादागुरू का वही नामोल्लेख किया है केवल मुनि सफलकोति का नामोल्लेख और किया है और उसीका दूसरा नाम मुनि रलकीति था जिसको कवि ने अमृतोपम कहा है।
मूल संघ जग तारणहार, सरब गबछ गरवो माचार । सफलकोलि मुनिवर गुनबंत, सा समाहि गुन लही न अंत ॥६४०।। सिंह को अमृत नांव प्रति चंग, रतनोति मुनि गुणा अभंग । अनन्तफीति तास सिष आन, बोले मुख ते प्रमृत बान ।
तास शिष्य जिन चरणा लोन, ब्रह्म रायमल्ल बुषि को होम ।।
उक्त प्रमस्तियों के आधार पर मालोच्य ब्रह्म रायमल्ल मूलसंघ एवं सरस्वती गन्छ के भट्टारक रत्नकीति के प्रशिष्य एवं मुनि अनन्तकीर्ति के शिष्य थे 1 ये ब्रह्म रायमल्ल राजस्थानी विद्वान् थे तथा जिनका इकाहड प्रदेश प्रमुख केन्द्र था ।
दूसरे ब्रह्म रायमल्ल गुजरात के सन्त थे जो संस्कृत के विद्वान् थे। ये बंड जाति के थे तथा जिनके पिता मह्म एवं माता चम्पादेवी थी। भक्तामर स्तोत्र वृत्ति इनकी एक मात्र कृति है जिसको उन्होंने संवत् १६६७ में ग्रीवापुर के चन्द्रप्रभ वत्यालय में समाप्त की थी। संस्कृत के विद्वान् ब्रह्म रायमल्ल ने न तो अपने गुरू का उल्लेख किया है और न मुलसंघ के सरस्वती गच्छ से अपना कोई सम्बन्ध बतलाया है । इस प्रकार दोनों रायमल्ल भिन्न भिन्न विद्वान् है । एक १७वीं शताब्दि के पूर्वाद्ध के हैं और दूसरे रायमरन्ल उसी शताब्दि के उत्तराध के विद्वान् है | हमारे मत का एक और सबल प्रमाण यह है कि प्रथम रायमल्ल की संवत् १६३६ के पश्चात् कोई रचना नहीं मिलती। यदि दोनों रायमल्लों को एक ही मान लिया जावे तो तो प्रथम रायमलन ३१ वर्ष तक साहित्य निर्माण से अपने आपको अलग रखे और फिर ३१ वर्ष पश्चात् 'भक्तामर स्तोत्र वृत्ति' लिखे इसे हम सम्भव नहीं मान सकते ।
श्री मूलसंघ मुनि सरसुती गछ, छोडी ही चारि कपाठ निभंछ । अनन्तीति गुरू विदिती, तासु तणौ सिषि कीयो जी बखाण । ब्रह्म रायमल्ल जगि जाणियो, स्वामी जी पाश्वनाथ को जी थान ।
—नेमिनाथ रास
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
क्योंकि जिस कवि ने पहिले ३१ वर्षों में १५ रचनाएं निर्मित की हो वह पागे ३१ वर्षों तक चुपचाप बैठा रहे यह संभव प्रतीत नहीं होता । जीवन परिचय
या रागमाल के शामिल होना कोई हनिव- नहीं मिलता। कवि ने किस अवस्था में साधु जीवन स्वीकार किया इसके बारे में भी हमें जानकारी नहीं मिलती लेकिन ऐसा मालम पड़ता है कि कवि १०-१२ वर्ष की अवस्था में ही भट्टारकों अथवा उनके शिष्य प्रशिष्यों के निर्देशन में चले गये। मुनि अनन्तकीर्ति को जब बावि की व्युत्पन्नमति एवं शास्त्रों के उच्च अध्ययन की नि का पता चला तो उन्होंने इन्हें अपना शिष्य बना लिया और अपने पाम ही रख कर इन्हें प्राकृत, संस्कृत एवं हिन्दी का अध्ययन कराने लगे । सामान्य अध्ययन के पश्चात् कवि को शास्त्रों का अध्ययन कराया गया और ऐसे योग्य शिष्य को पाकर वे स्वयं गौरवान्वित हो गये। मुनि अनन्तकीति भट्टारक रत्नकीर्ति के पट्टधर शिष्य थे । भट्टारक रत्लकीति नागौर गादी के प्रथम भद्रारकों में से हैं जो भट्रारक जिनचन्द्र के पश्चात् हुए थे । यदि मुनि अनन्तफौति इन्हीं भट्टारक जी के शिष्य थे तब तो ब्रह्म रायमल्ल का सम्बन्ध नागौर मादी से होना चाहिये। कवि ने ज्येष्ठजिनवर व्रत कथा को संवत् १६२५ में सांभर में समाप्त किया था । ३ लेकिन कवि संघ में नहीं रह कर स्वतन्त्र रूप से ही विहार करते रहे, यह निश्चित है।
उक्त सब लथ्यों के आधार पर कवि का जन्म संवत् १५८० के प्रास-पास होना चाहिये । यदि १५ वर्ष की अवस्था में भी इनका भट्टारकों से सम्पर्क मान लिया जावे तो इन्हें ग्रन्थों के गम्भीर अध्ययन में कम से कम १० वर्ष तो लग ही गये होंगे । २५ वर्ष की अवस्था में ये एक अच्छे विद्वान् की श्रेणी में आ गये । प्रारम्भ में इनको प्राचीन हस्तलिखित अन्यों के पढ़ने एवं लिपि करने का काम दिया गया और यह कार्य ब्रह्म रायमल्ल बिना संकोच के तमा विद्वत्तापूर्ण तरीके से करने लगे । संवत् १६१३ में कवि द्वारा लिखा हुणा एक गुटका उपलब्ध हुआ है जिससे भी मालूम पड़ता है कि कवि को सर्वप्रथम अन्यों के लेखन का कार्य दिया गया था। इस गुटके के कुछ प्रमुख पाठ निम्न प्रकार हैं
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13. मूलसंघ भव तारण हार, सारद गल गरयो संसार ।
रत्नकीति मुनि अधिक सुजाण, तास पाटिमुनि गृह निधान ।।७१।। अनन्तकोति मुनि प्रगट्य नाम, कीत्ति अनन्त विम्तरी ताम | मेघ ब्रूद जे जाइ न गिनी, तास मुनि गुग जाइ न भरणी ।।७।। तास शिष्य जिम्ररणा लीन, ब्रह्म रायमल मति को हीन । हण कथा को क्रियो प्रकास, उत्तम क्रिया मुणीश्वर दास ||७३।।
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साहित्य साधना
बीबीस ठाणा चर्चा
१.२८ जीव समास
२६-५६ सुग्यय दोहा
६-६७ परमात्म प्रकाश
रत्नकरण्डश्रावकाचार उक्त गुटकं में पृष्ठ ६० पर निम्न प्रशस्ति दी हुई है - श्री । श्री संवतु १६१३ वर्ष जेष्ट बदि ८ मानौ वारे लिखितं ब्रह्म रायमल्ल ।।
देहली ग्रामे ।
इसी गुटके के पृष्ठ ६६ पर भी ब्रह्म रायमल्ल ने अपना निम्न प्रकार उल्लेख किया है
इति परमात्मप्रकाश समाप्त । प्रभुदास कृत ।। सुभं भवतु ॥ श्री ।। छ । श्री ॥ लिखितं ब्रह्म रायमल्लु ।।
इस प्रकार उक्त गुटका ब्रह्म रायमल्ल द्वारा लिपि बद्ध किया हुआ है। इस समय कवि देहली में थे और वहाँ ग्रन्थों की प्रतिलिपि करने का कार्य करते थे। कवि ने इस मुटके के पूर्व एवं इसके पश्चात् और कितने ग्रन्थों की प्रतिलिपियां की थी का सभी कोई तल्लेख नहीं मिला है लेकिन इतना अवश्य है कि कवि ने अपना साहित्यिक जीवन ग्रन्थों की प्रतिलिपि करने के साथ प्रारम्भ किया था। उक्त गुटके में कवि ने न तो अपने गुरु के नाम का उल्लेख किया है और न किसी श्रावक के नाम का, जिराके अनुरोध पर उक्त गुटका लिखा गया था। इसलिये यह भी कहा जा सकता है कि उसने यह गुटका स्वयं अपने प्रध्ययन के लिये लिखा हो। साहित्य साधना
ग्रन्थों की प्रतिलिपि करते-करते ब्रह्म रायमल्ल साहित्य निर्माण की ओर प्रवृत्त हुए और सर्व प्रथम इन्होंने नमीश्वररारा की रचना को हाथ में लिया । साहित्य निर्माण का कार्य सम्भवतः देहली छोड़ने के बाद ही प्रारम्भ किया था। देहली के बाद ये स्वतन्त्र रूप से विहार करने लगे और सर्व प्रथम झुंझनू में जाकर इन्होंने ग्राना स्वतंत्र लेखन कार्य प्रारम्भ किया । भुझनु उस समय साहित्यिक केन्द्र था। देहली के पास होने से वहाँ जैन साधुओं का प्रान्ना गमन बराबर रहता था। कवि ने उक्त नगर में संवत् १६१५ की धावरण बुदी १३ बुधवार के शुभ दिन नमीश्वररास' का समापन दिवस मनाया'५ तथा अपनी प्रथम कृति को विद्वानों एवं स्वाध्याय
१४. राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रन्थ सूत्री चतुर्थ भाग, पृष्ठ ७६५ १५. अहा सोलास पन्द्रह रच्यो राग, सावलि तेरसि सावण मासा
बरत जी बुधि वासो भलौ, अहो जैसी जी बुधि दीन्हीं अवकास ।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
प्रेमियों की सेवा में समर्पित की। कवि ने 'नेमीश्वररास' के अन्त में विद्वानों से विनय पूर्वक इतना अवश्य निवेदन किया कि जैसी उसकी बुद्धि थी उसी के अनुसार उसने ग्रन्थ रचना की है इसलिये पंडितजन यदि कहीं त्रुटि हो तो उसके लिये क्षमा करें।
'नमीश्वररास' काव्य कृति का अच्छा स्वागत हा तथा कवि से इस बार की दूसरी रचना निबद्ध करने के लिये चारों ओर से प्राग्रह किया जाने लगा। एक ओर कवि का काव्य रचना के प्रति उत्साह, दूसरी और जनता का प्राग्रह, इन दोमों के कारण ६ महिने पश्चात् ही वैशाख कृष्णा नवमी शानिवार के शुभ दिन कवि ने "हनुमन्त कथा" को छन्दोबद्ध करके दुसरी काव्य रचना करने का गौरव प्राप्त किया ।१६ हनुमन्त कथा एक वृहद रचना है। इसमें कवि ने हनुमान की जीवन गाथा को बहुत ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है। काव्य के रचना स्थान बाला पद कवि सम्भवतः देना मूल गये या फिर इसे भी झंझनु नगर में ही कविता बद्ध करने के कारण नगर का नाम दुबारा नहीं दिया । उक्त दोनों रचनामों से कवि की कोति चारों घोर फैल गयी और श्रावक गण उन्हें अपने यहां सादर आमन्त्रित करने लगे। इसके पश्चात् ८-९ वर्ष के दीर्घकाल तक कपि की कोई बड़ी रचना उपलब्ध नहीं होती । जिन लघु रचनाओं में संवत् नही दिया हुअा है हो सकता है उनमें से अधिकांश रचनाएं इसी समय की हों।
संवत् १६२५ में कवि का सांभर नगर में बिहार होने का उल्लेख "ज्येष्ठ जिनवर कथा" की प्रशस्ति से मिलता है। प्रस्तुत कृति सांभर प्रवास में ही निबद्ध की गयी थी। यह एक लघु कृति है जिसमें प्रादिनाथ के जीवन पर प्रकाश डाला गया है । इसकी एक मात्र प्रति अजमेर के भट्टारकीय शास्त्र भण्डार के एक गूटके में संग्रहीत है ।'७ सांभर नगर में कवि ने जिरणलाडू गीत का और निर्माण किया । यह रचना भी छोटी है जिसमें केवल १७ पद्य हैं ।१६
उक्त संवतोल्लेखवाली तृतीय रचना समाप्ति के पश्चात् कवि का सांभर से विहार हो गया और वे मारवाड़ के अंचल में बिहार करने लगे | नागौर की भट्टारक गादी से सम्बन्ध होने के कारण वे इस प्रदेश को कैसे भुला सकते थे। यद्यपि ब्रह्म रायमल्ल स्वाभिमानी सन्त थे और भट्टारकों के पूर्णत: अधीन नहीं रहना चाहते थे फिर भी उन्होंने शाकम्भरी प्रदेश एवं नागौर प्रदेश को अपने उपदेशों से पावन किया और संवत् १६२८ में के हरसोरगढ़ पहुंच गये जो नागौर प्रदेश का प्रमुख नगर था ।
१७. देखिये राजस्थान के जन शास्त्र भण्डारों को अन्य सूची पंचम भाग, पृष्ठ सं.६४५ १८. देखिये राजस्थान के जन शास्त्र भण्डारों की ग्रन्थ सूची तृतीय भाग,
पृष्ठ सं. ११७
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साहित्य साधना यहां उन्होंने 'प्रद्युम्न रास' को समाप्त किया और अपनी रचना में एक कडी मौर जोड दी 1 प्रद्युम्न रास कवि की उत्तम कृतियों में से हैं। यह रचना १६५ पद्यों में पूर्ण होती है। प्रस्तुत रास में कवि ने अपना जो परिचय दिया है उसकी कुछ पंक्तियां निम्न प्रकार है
हो मूलसंघ मुनि प्रमटी लोई, हो अनन्तफोति जाणो सह कोड । सासु तणो सिषि जाणिज्यौ जी, हो ब्रह्म रायमति कोयौ बलारणी । हो सोलहसै अठवीत विचारो, हो भावव मुवी दुतीया पुषवारो। गढ़ हरसौर महाभला जी, तिने भलो जिरणेसुरयानो । श्रीवंत लोग बस भला जी, हो वेव सास्त्र गुरू राख मानो ।। १६४।।
हरसोर नागौर प्रदेश के इतिहास एवं संस्कृति दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण मगर माना जाता रहा है । यह नगर संवत् १६२८ में अजमेर सूबा में सम्मिलित था 1
हसोर के पश्चात् महाकवि का काव्य रचना की और फिर ध्यान गया और वे एक के पश्चात् दूसरी रचना निमित करने लगे । संवत् १६२६ में वे मारवाड से विहार कर धौलपुर आ गये । धौलपुर का क्षेत्र प्राज के समान उस समय भी संभवतः डाकू आतंकित क्षेत्र था इसलिये सन्त रायमल्ल ने इस प्रदेश के लोगों में धार्मिक भावना जाग्रत करने के लिये विहार किया और पथ भ्रष्टों को वापिस गले लगाया । धौलपुर में पाने के पश्चात् उन्होंने "सुदर्शन रास" को छन्दोबद्ध किया और संवत् १६२६ में वैशास्त्र सुदी सप्तमी के शुभ दिन अपनी नवीनतम काव्यकृति को साहित्य जगत् को भेंट किया । २० धौलपुर पर उस समय बादशाह अकबर का शासन था । 'सुदर्शनरास' कवि की उत्तम कृतियों में से हैं । धौलपुर के बीहा क्षेत्र में विहार करने के पश्चात् ब्रह्म रायमल्ल भागरा, भरतपुर एवं हिण्डौन होते हुये रणथम्भौर पहुंचे । यह दुर्ग सदैव वीरता एवं शौर्य के लिये प्रसिद्ध गढ़ माना जाता रहा तथा साहित्य एवं संस्कृति का भी सैकड़ों वर्षों तक केन्द्र रहा। जब रायमल्ल ने इस क्षेत्र में प्रवेश किया तो उस समय वहां बादशाह अकबर का शासन था। चारों ओर शांति थी । महाकवि ने इस दुर्ग को कितने ममय तक अपनी चरण रज से पावन किया इस विषय में तो कोई उल्लेख नहीं मिलता लेकिन संवत् १६३० के प्रारम्भ में जब इस दुर्ग में प्रवेश किया तो जैन समाज के साथ-साथ सभी दुगं निवासियों ने ब्रह्म रायमल्ल का भावभीना स्वागत किया। कवि ने उस समय के दुर्ग का जो वर्णन किया है उससे ऐसा लगता है कि वहां के निवासी युद्धों की ज्वाला को भूल चुके थे
9€. Ancient Cities of Rajasthen page 329 २०. अहो सोलहस गुणतीसे वैसाखि, सातै जी राति उजाल जी पाखि 1
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल और अब शांतिपूर्ण जीवन यापन करने लगे थे ।२१ यहां रहने के कुछ समय पश्चात ही संवत् १६३० की अषाढ शुक्ला १३ शनिवार को उन्होंने श्रीपाल रास की रचना समाप्त करने का गौरव प्राप्त किया। समाप्ति के दिन अष्टान्हिका पर्व था इसलिये उस दिन समस्त समाज ने मिलकर नयी रासकृति का स्वागत किया। श्रीपाल रास कवि की बड़ी रचनाओं में से हैं तथा उसमें २६८ छन्द हैं।
रणथम्भोर हूंढाड प्रदेश का ही भाग माना जाता है । इसलिये कवि वहाँ से विहार करके सांगानेर की ओर चल पड़े | मार्ग में प्राने वाले अनेक नगरों एवं ग्रामों के नागरिकों को सम्बोधित करते हुये वे संत्रव १६३३ में सांगानेर श्रा पहुंचे सांगानेर तूंढाड प्रदेश का प्रमुस्न नगर था तथा प्रदेश की राजधानी प्रामेर से केवल १४ मील दूरी पर स्थित या । सांगानेर को जैन साहित्य एवं संस्कृति का प्रमुख केन्द्र रह्ने का गौरव प्राप्त रहा है। उस समय राजा भगवन्तदास ठूढाड के शासक थे तथा अपने युवराज मानसिंह के साथ राज्य का शासन भार सम्हालते थे। सांगानेर पाने के पश्चात् कविवर ब्रह्म रायमल्ल ने अपनी सबसे बडी कृति भविष्यदत्त चौपई को समाप्त करने का श्रेय प्राप्त किया। संयोग की बात है कि भविष्यदत्त पोपई की समाप्ति के दिन भी भ्रष्ट्रान्हिका पर्व चल रहा था । उस दिन शनिवार था तथा संवत् १६३३ की कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी की पावन तिथि थी। नगर में चारों ओर अष्टान्हिका महोत्सब मनाया जा रहा था । इसलिये ब्रह्म रायमल्ल की उक्त रचना का विमोचन समारोह भी बड़े उत्साह के साथ प्रायोजित किया गया। उस समय तक तक ब्रह्म रायमल्ल की ख्याति प्राकामा को छुने लगी थी और साहित्यिक जगत में उनका नाम प्रथम पंक्ति में आ चुका था । वे क्रावि से महाकवि बन चुके थे तथा उनकी सभी रचनायें लोकप्रिय हो चुकी थी।
सांगानेर में पर्याप्त समय तक ठहरने के पश्चात् महाकवि ब्रह्म रायमल्ल घाटसू की ओर विहार कर गये और काठाडा भाग के कितने ही ग्रामों को अपने प्रवचनों का लाभ पहुंचाते हुए वे टोडारायसिंह जा पहुंचे। टोडारायसिंह का दुसरा नाम तक्षकगढ भी है। यह दुर्ग भी राजस्थान के विशिष्ट दुर्गों में से एक दुर्ग है । १७ वीं शताब्दि में टोडारायसिंह जैन साहित्य एवं संस्कृति की दृष्टि से ख्याति प्राप्त केन्द्र रहा । देहली एवं चाटसू गादी के भट्टारकों का यहां खूब आवागमन रहा । ब्रह्म रायमल्ल यहाँ आने के पश्चात् साहित्य संरचना में लग गये और कुछ ही समय पश्चात् संवत् १६३६ ज्येष्ठ बुदी १३ शनिवार के दिन 'परमहंस चौपई' की रचना समाप्त करके उसे स्वाध्याय प्रेमियों को स्वाध्याय के लिये विमुक्त कर दिया।
२१.
हो रपथभ्रमर सोम कवि लाम, भरीया नीर ताल चहुं पास । याग विहरि बाडी घणी, हो धन कए सम्पत्ति तणो निधान ।
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रचनाएँ
कवि की यह प्राध्यात्मिक कृति है तथा रूपक काव्य है जिसमें परमहंस परमात्मा का विशद वर्शन किया गया है । संवतोल्लेख वाली कवि की यह अन्तिम कृति है। इसमें ६५१ दोहा चौपई छन्द हैं।
संवत् १६३६ के पश्चात् ब्रह्म रायमहल और कितने वर्षों तक जीवित रहे तथा उनकी साधना गिर विधानसी की इस गान में अभी तक कोई उल्लेख नहीं मिल सका है। कवि की अब तक १५ रचनाएं उपलब्ध हो चुकी है जिनमें ८ रचनाएँ संवतोल्लेख वाली है जिनका ऊपर उल्लेख किया जा चुका है शेष ७ रचनाओं में रचना समाप्ति का कोई उल्लेख नहीं मिलता इसलिये उनकी कोई निश्चित रचना तिथि के बारे में नहीं कहा जा सकता। लेकिन इन सात रचनामों में जम्बूस्वामिरास के अतिरिक्त सभी रचनाएँ लघु रचनाएँ हैं इसलिये हमारा अनुमान है कि वे सभी कृतियाँ संवत् १६१५ से १६३६ के बीच में किसी समय रची गयी होगी। रचनाएं
महाकवि की अब सक्र १५ कृतियाँ उपलब्ध हो चुकी है जिनके नाम निम्न प्रकार हैं
१. नेमीश्वररास रचना संवत १६१५ २. हनुमन्त नया रचना संवत् १६१६ ३. ज्येष्ठिजिनवर कथा रचना संवत् १६२५ ४, प्रधुम्न रास रचना संवत् १६२८ ५. सुदर्शन रास रचना संवत् १६२६ ६. श्रीपाल रास रचना संवत् १६३० ७. भविष्यदत्त चौपई रचना संवत् १६३३
८. परमहंस चौपई रचना संवत् १६३६ बिना संवत् वाली रचनाएँ
है. जम्बूस्वामी चौई १०. निदोष सप्तमी कथा ११. चिन्तामरिण जयमाल १२. पंच गुरू को जयमाल १३. जिनलाई गीत १४, नेमिनिर्वाण १५. चन्द्रगुप्त के सोलह स्वप्न
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
उक्त सभी रचनाएँ हिन्दी की बहुमूल्य कृतियाँ है तथा भाषा, शली एवं विषय वर्णन आदि सभी दृष्टियों में उल्लेखनीय है । इन कृतियों का सामान्य परिचय निम्न प्रकार है
१. नेमीश्वररास
यह कषि की उपलब्ध कृतियों में प्रथम कृति है । काव्य रचना में प्रवेश करने के साथ ही कवि ने नेमिनाथ स्वामी के जीवन पर रास काव्य सिख कर उन्हीं के चरणों में उसे समर्पित किया है। इससे यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि कवि नेमिनाथ के अत्यधिक भक्त थे । कवि को उस समय भायु क्या होगी इसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता । वैसे कवि का साहित्यिक जीवन संवत् १६१० से १६४० तक का रहा है । वे अपने पूरे साहित्यिक जीवन में ब्रह्मचारी ही रहे और प्रत्येक काव्य के अन्त में उन्होंने अपने पापको प्रनन्तकीति के शिष्य के रूप में प्रस्तुत किया। अनन्तकीति मूलसंघ भट्टारक परम्परा में मुनि थे और उन्हीं के शिष्य थे कवियर रायमल्ल जिन्होंने अपने गुरू का प्रस्तुत काग्य में उल्लेख किया है।
नेमीश्वररास राजस्थानी भाषा की कृति है । इसमें नेमिनाय का जीवन चरित अंकित है। नेमिनाय २२ वें तीर्थकर थे और भगवान श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे । नेमिनाथ को ऐतिहासिक महापुरुष घोषित करने की पोर खोज जारी है । नेमि यदुवंशी राजकुमार थे जिनके पिता समुद्रविजय थे। उनकी माता का नाम शिवादेवी वा । एक रात्रि को माता ने सोलह स्वप्नों देखे । स्वप्नों का फल पूछने पर समुद्र विजय ने अपूर्व लक्षणों युक्त पुत्र होने की बात कही । कार्तिक शुक्ला ६ को देवों ने मिलकर गर्म कल्याणक मनाया ।
श्रावण शुक्ला अष्टमी के दिन तीर्थंकर नेमिनाथ का जन्म हुआ। नगर में विभिन्न उत्सव मनाये गये । पारती उतारी गयी और मौतियों का चौक मांडा गया । स्वर्ग लोक के इन्द्र देव देवियों के साथ नगर में पाये और बाल तीर्थंकर को सुमेर पर्वत पर ले जाकर पाण्डक शिला पर अभिषेक किया । इन्द्र अपने एक हजार पाठ कलशों से जल भर कर नेमिकुमार का अभिषेक किया । दूध-दही, घृत एवं रस के साथ औषधियों से मिले हुये जल से भगवान का न्हवरण किया ।
साहस अठोतर इन के हायि, प्रवर भरि लीया जो देवतां साथि । जा हो जीऊ परि बसिया, अहो दुध वही धूत रस कोजी धार । सार सुगंधी जी ऊषधी, ग्रहो न्हवरण भयो शिव देवकुमार ।।२।।
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नेभिश्वररास
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तीर्थंकर का नाम निकुमार रखा गया इस सम्बन्ध में कवि के निम्न प
लिखा है
अहो वा की सुइस्यो जो छेदिया कान, वस्त्र आभरण विने बनुमान । महो किया जी महोखा प्रतिषरणा, वंदना भक्ति करि वारं जी वार ॥
हो कर जोडे सुरपति सरणी नाम दिये तसु नैमिकुमार ||२८|| नेमिकार दोज के चन्द्रमा के समान बढ़ने लगे । सुख एवं ऐश्वर्य में समय जाते देर नहीं लगती । नेमिकुमार कब युवा हो गये इसका किसी को पता भी नहीं चला। एक दिन श्रीकृष्णा वन क्रीड़ा को जाने लगे तो नेमकुमार उनके साथ हो गये । अनेक यादव कुमार भी साथ में थे तथा वे सभी हाथी रथ एवं पालकी में सवार थे। यही नहीं ग्रन्तःपुर का पूरा परिवार साथ में था ।
बे वन में विविध प्रकार की कीड़ा में मस्त हो गये। एक युवती झूला झूलने लगी तो दूसरी हाथ में डण्डा लेकर उसे मारने लगी। एक युवती यह देख कर खिलखिलाकर हंसने लगी तो दूसरी अपने पति का नाम लिखने में ही मस्त हो गयी ।
एक तीया भुल भुलगा, एक सखी हाँ साट से हाथि । एक सखी हा हा करें, ग्रहो एक सखी लिहि कंत कौलाव ।। वहीं पर एक विशाल एवं गहरी बावड़ी थी। वह गंगा के समान निर्मल पानी से ओत-प्रोत थी । नेमिकुमार ने उस बावड़ी में खूब स्नान किया। जब वे स्नान करके बावड़ी से बाहर निकले तो अपना दुपट्टा डाल दिया तथा अपनी भावज जामवती से उसे शीघ्र धोने का निवेदन किया। जामवती को वह अच्छा नहीं लगा और कहा कि यदि नारायण श्रीकृष्ण ऐसी बात सुन लें तो तुम्हें नगर से बाहर निकाल दें। नारायण के पास शंख एव धनुष जैसे शस्त्र है तथा नाग या पर वे सोते हैं । यदि तुम्हारे में भी बल हो, तथा इनको प्राप्त कर सको तो वह उनके कपड़े धो सकती हैं। नेमिकुमार को जामवती की बात अच्छी नहीं लगी । वन क्रीडा से लौटने के पश्चात् नेमि नारायण के घर गये और वहां उनका शंखपूर दिया। शंखपूरने से तीनों लोकों में खलबली मच गयी । नेमिकुमार ने नारायण के धनुष को भी चढा दिया। वहीं श्रीकृष्णजी आ गये । वे भोधित होकर नेमिकुमार को डाटने लगे। दोनों में मल्ल युद्ध होने लगा । लेकिन श्रीकृष्ण इन्हें नहीं हरा सके ।
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नारायण ने समुद्र विजय के घर प्राकर शिवादेवी के चर्ण स्पर्श किये तथा कहा कि नेमिकुमार युवा हो गये हैं इसलिये शीघ्र ही उनका विवाह करना चाहिये तथा यह भी कहा कि उग्रसेन की पुत्री नेमिकुमार के योग्य कन्या है । माता ने श्रीकृष्ण के कहने पर अपनी स्वीकृति दे दी। इसके पश्चाद नारायण ने सजा उग्रसेन के समक्ष राजुल के विवाह का प्रस्ताव रखा। उनसेन ने माना कि घर पर बैठे गंगा
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
मा गयी और उन्होंने अपने भाग्य को मराहा। ज्योतिषी को बुलाया गया तथा दोनों के नक्षत्र देने गये । उग्रसेन एवं श्रीकृष्ण ने ज्योतिषी से निम्न प्रकार कहा
अहो लेह शुभ लग्न जिव होई कुसलात, रोग विजोगम सांबरौ । स्वामि राइ सनिशर टालि जै लाभ, श्री नेमिजिनेश्वर पाय नमू ।।४।।
ज्योतिषी ने दोनों के निम्न प्रकार लग्न देखाअहो माहि जी खडहि कियो बरबाण, ग्यारहु सुर गुरू राजल थान | नेमि नौ सात उरवि लौ, ग्रहो लिख्यौ जी लग्न गीरणी ज्योतिगो यां ज्ञान । ___ सम्बन्ध निश्चित हो गयः सपा ताना बांगल में पान मुमारी हल्दी और नारियल समर्पित कर दी गयी ।
भगवान श्रीकृष्ण जी द्वारा सुपारी स्वीकार करते ही चारों और हर्ष छा गया । बाजे बजने लगे तथा घर घर में बधावा गाये जाने लगे। पट रस यंजन बनाये गये तथा सभी राजा एक पंक्ति में भोजन करने लगे । भोजन के पचनात् तांबूल दिये गये । वस्त्राभूषण का तो बोई रिकाना ही नहीं था । अन्त में कृष्णा जी को हाथ जोड़ कर विदा किया गया । लगन लेकर जब कृष्ण जी वापिस पहुंचे तो शिवादेवी में नेमिमुमार के विवान की तैयारियां करने को कहा । एक और सुन्दरियां गीत गाने लगी। तेल इत्र छिडका जाने लगा तथा केसर कस्तूरी तथा फलों में सारा राजमहल सुगन्धित होने लगा। दूसरी और विश्वस्त सेवकों को बुलाकर महिष, सुवर, सांभर, रोझ, सियाल आदि को एक बाडा में बन्द किये जाने का प्रादेश दिया गया ।'
अहो तब लगु फेसौ जो रच्यो हो उपाउ, सेवक प्रापरणा लीयाजी बुलाई । वेग देव नमो जी गम करौ, ग्रहो छ लाहो महिष हरण सुवरसांबर रोझ सियाल, वेगि हो जाई बाडी रचौ अहो गौरण ओग्नजी सेरिण भोवाल ॥५५।।
नेमीकुमार की बारात में सभी यादव परिवार के अतिरिक्त कौरव, पांडव भी थे। बराती सभी सज धज कर भले । अांखों में फजल, मुगल में पान, केजर चन्दन तथा कुचाम के तिलक लगे हुये पालकी, रथ एवं हाथियों पर वे चले । लेकिन जब बारात चली तो दाहिनी पोर रासभ पुकारने लगा, रथ की ध्वजा फट गयी, कुत्ते ने कान फड़फड़ाया, तथा बिल्ली ने रास्ता काट दिया।
नेमिकूमार के सेहरा बांधा गया उनके मोतियों की माला लटक रही थी। कानों में कंडल थे तथा मुफूट में हीरे जड़े हये थे । जनके वस्त्र दक्षिण देश से विशेष रूप से मंगाये गये थे। जब बरात नगर में पहुंची तो बाजे बजने लगे। शंख ध्वनि होने लगी। बरात की अगुवानी हुई तथा महाराजा उग्रसेन ने नेमिकुमार से कुपा रखने के लिये निवेदन किया ।
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नेमिश्वररास
दूसरे दिन लग्न की तिथि भायी तो नेमिकुमार अपने परिजनों के साथ तोरण के लिये पहुंचे। उनके स्वागत में महिलाओं ने मंगल गीत गाये । राजुल ने भी अपना पूरा शृंगार किया।
प्रहो मंदिर राजल करो जो सिंगार, सोहै जी गली रत्नांड्यौ हार । नासिका मोती जी अति बण्या, अहो पाई नेवर महा सिरहा मैह-मंद काना हो कुल प्रति मला, महो मेरू दुहुँ विसो जिम सूर पर चंर ।
नैमिकुमार जट का द्वार पर पहुई में उन्हें एक स्थान से अनेक पशुणों की करुण पुकार सुनाई दी। उनकी पुकार सुन कर वे चुपचाग नहीं रह सके और उसका कारण पूछा । जब नेमिकुमार को मालूम पड़ा कि ये पशु उन्हीं की बरात में पाये हुये बरातियों के लिये हैं तो वे चिन्तित हो उठे और सपत्ति को पाप का मूल जान कर विवाह के स्थान पर वैराग्म लेने को अधिक उचित समझा और कंकन सोड कर गिरनार पर्वत पर चढ़ गये--
स्वामी जीव पसू सह शेना जी छोडि, चाल्यो जी फेरि तप नै रष मोहि। काध जी सुराह लोधी पालिकी, अहो जै जै कार भयो असमान । सुरपति विनों जी गोले घरणों, स्थामि बाह बढ्यो गिरनारि गढ़ पानि ।।७३।। क्योंकि जहां जीव दया नहीं है वहां सब बेकार हैजप तप संजम पाठ-सह, पूजा विधि व्योहार । जीव दया विरण सह प्रफल, ज्यो दुरजन उपगार ।
लेकिन जब राजुल ने नेमिकुमार द्वारा वैराग्य घाररण करने की बात सुनी तो वह मूर्छित होकर गिर पड़ी
अहो गइ जी बचन मुरगता मुरछाई, काटि जी अलि बसौं कुमलाई । नाटिका थानक छाडिया, अहो मात पिता जब लाघो जी सार । रूवन करौ प्रति सिर धुणे, अहो कीनर जी सीतल उपचार ॥७५।।
जब राजुल के माता पिता ने उसका दूसरे कुमार के साथ विवाह करने की बात कही तो राजुल ने उसे भारतीय संस्कृति के विरुद्ध बतलामा तथा नेमिकुमार के अतिरिक्त सभी को अपने पिता एवं भाई के समान मानने का अपना निश्चय प्रकट किया। वह अपनी एक सहेली को लेकर गिरनार पर्वत पर गयी जहां नेमिनाथ मुनि दीक्षा धारण कर तपस्या में लीन हो गये थे । राजुल ने नेमिनाथ से वापिस घर चलने को कहा, अपने सौन्दर्य की प्रशंसा की । विभिन्न १२ महिलों में होने वाले
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
प्राकृतिक उपद्रवों की भयंकरता पर प्रकाश डाला एवं विविध प्रकार से अनुनय विनय क्रिया
अहो सा जो बारह मास कुमार, रिति रित भोग की प्रतिसार । माता जन्म की को गिर, अहो घर मे जी नाज खावाज जो हो । पारि करि मरौ स्वामी सुवा ये लाकडी बेई न कोई ||१७|| नेमिनाथ ने राजुल की वेदना बड़े ध्यान से सुनी लेकिन वे उससे जरा भी प्रभावित नहीं हुये। उन्होंने संसार की प्रसारता, मनुष्य जीवन का महत्व, जगत् के पारवारिक सम्बन्धों के बारे में विस्तृत प्रकाश डाला तथा वैराग्य लेने के निश्चय को दोहराया।
राजुल नेमिनाथ की बातों से प्रभावित तो हुई लेकिन उसने स्त्रीगत भावों का फिर प्रदर्शन किया 1 लेकिन नेमिनाथ को वह प्रभावित नहीं कर सकी । नेमिनाथ की माता शिवादेवी भी वहीं मा गयी और उन्हें घर चल कर राज्य सम्पदा भोगने के लिये अपना अनुनय किया ।
अहो माता सिवदेवि जो नेमि नं दे उपदेसि पुत्र सुकमाल तुहु बालक बेस 1 बिन इस घर में जी थिति करौ ग्रहो सुखस्यो की भोगवी पिता को राज ! दिया हो लेग वेला नहि स्वामि धर्य हो श्राश्रमि आतमा काज ॥। ११४।।
माता शिवादेवी एवं नेमिनाथ में खूब वाद विवाद हुआ। माता ने विविध दृष्टान्तों से राज्य सम्पदा के सुख भोगने की बात कही जबकि नेमिनाथ जगत् के सुखों की प्रसारता के बारे में हृष्टान्त दिये ।
माता पिता के पचात् बलभद्र, श्रीकृष्णजी एवं अन्य परिवार के मुखिया नेमिनाथ को समझाने आये लेकिन नेमिनाथ ने वैराग्य लेने का दृढ़ निश्चय प्रकट किया और अन्त में सावन शुक्ला ६ को वैराग्य ले लिया तत्काल स्वर्ग से इन्द्रों
।
ने श्राकर नेमिनाथ के चरणों की पूजा, भक्ति एवं वन्दना की। राजुल ने भी वैराग्य लेने का निश्चय किया और अपने आभूषण एवं वस्त्रालंकार उतार दिये तथा उसने आयिका की दीक्षा ले ली। वह विविध व्रतों एवं तप में लीन रहती हुई अन्त में मर कर १६ वें स्वर्ग में इन्द्र हो गयी । नेमिनाथ ने कैवल्य प्राप्त किया और देश में सैकड़ों वर्षो तक विहार करके तथा अहिसा अनेकान्त एवं अन्य सिद्धान्तों का उपदेश देकर देश में अहिंसा धर्म का प्रचार किया और अन्त में गिरनार से ही मुक्ति प्राप्त की ।
प्रस्तुत काव्य ब्रह्म रायमल्ल की प्रथम कृति । इसे कवि ने संवत् १६१५ सावन कृष्णा १३ बुधवार के शुभ दिन समाप्त किया था । नेमीश्वररास की रचना झुझुनुं नगर में हुई श्री जहाँ चारों ओर बाग बगीचे थे। महाजन लोग जहां पर्याप्त
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हनुमन्त कथा
संख्या में थे तथा जिसमें ३६ जातियों रहती थी। उस नगर के शामक चौहान जाति के ये जो अपने परिवार के साथ राज्य करते थे। नगर में थी पार्श्वनाथ दि० जैन मन्दिर था और वही नेमिश्वररास का रचना स्थान था। प्रशस्ति में कवि ने अपने पापको मूलसंघ सरस्वती गच्छा के मुनि अनन्तकौति का शिष्य होना लिखा है । पूरी प्रशस्ति महत्वपूर्ण है जो निम्न प्रकार है
भी भूससंघ मुनि सरसुती गछ, छोडी हो वारि कवाय नि । मनन्तकीति गुरू विदितौ, सासु सग सिषि कोयौ जी बताए।
ब्रह्म रायमल्ल जगि आरिणप, स्वामी जो पाश्यनाथ को मो यानि ॥१४१।। रचना काल
अहो सोलाहसे पन्द्राह रच्यो रास, सावलि तेरसि साबरण मास । बरस जी षि पासो भलो, ग्रहो असो जो बुधि दोन्ही प्रवकास ।
पंडित कोई औ मत हसौ, तसो जो युधि कीयो परगास ॥१४२।। रचना स्थान
बागवाजी घणी नौ जी ठारिण, वसे हो महामम नम्र झाझोरिण । पोरिण छत्तीस लीला कर, गाम को साहिब जाति सौहारण ।
राज करो परिवार स्यौ, अहो छह वरसन को राखो जी मान ।।१४३।। छंद संध्या
भयो जी रासी सिवदेवी का बालको, कड़वाहो एक सौ अधिक पैताल । भाष जी मेद जुदा जुधा, छंच नामा शब सुभवणं । कर जोर्ड कवियण कहै, भव भव धर्म जिनेसर सर्ण 11१४४।।
श्री नेमिजिगोसर पय नरें। उक्त प्रशस्ति के अनुसार राम में १४५ कउ बक छन्द होने चाहिये ।
२. हनुमन्त कथा प्रस्तुत कृति भी कवि की विस्तृत कृतिरों में से है। भविष्यदत्त चौपई के समान इस रचना के भी हनुमन्तकथा, हनुमन्त रास एवं हनुमन्त चौपई पादि नाम मिलते हैं। हनुमान पौराणिक पुण्य पुरुषों में से एक है तथा उनकी कथा का प्रमुख उदगम स्थान रविषेरणाचार्य का पद्म पुराण है जो संस्कृत भाषा में है। हनुमान का जीवन समाज में लोकप्रिय रहा है इसलिये हनुमान के जीवन पर प्राधारित कितनी ही रचनाएँ मिलती हैं। प्रस्तुत कुति भी कवि की ऐसी एक लोकप्रिय कृति है। जिसकी कितनी ही प्रतियाँ राजस्थान के विभिन्न भण्डारों में संग्रहीत है ।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
ब्रह्म रायमल्ल ने कया का प्रारम्भ चौबीस तीर्थंकरों की वन्दना से किया है। उसके पश्चात् सरस्वती का स्तवन दिया गया है तथा अपनी निम्न शब्दों में लघुता प्रकट की है
समरी सरसति सामरिण पाय, होइ बुधि सम्ह तरणी पसाइ । हौं मूरिख प्रति अपाड प्रयाण, पंडित जन सोहया स विहाण ।।१५।। प्रक्षर पद नवि पाऊ मेद, लहो न अर्थ होइ बहु खेव ।। लधुं वीर्घ जाणु नहीं वर्ण, करिया कहाँ कथा प्रावणं ।।१६।।
इसके पश्चात् प्राचार्य कुन्दकुन्द का नमन करके कथा को प्रारम्भ किया गया है। सुमेरू के दक्षिण भाग की ओर विधाधरों की बस्ती ची । चारों प्रोर सघन हरियाली थी वनों में चारों ओर वृक्ष लगे हुये थे । सुपारी भी कमरस था तथा निंबु एवं आम के सघन वृक्ष, लोंग, अखरोट एवं जायफल में लदे हुये वृक्ष थे। कुंजा, मरवा एवं रायचंपा की बेलियां जुही, पाइल, बोलनी, चमेली, एवं मूचकंद के लता एवं वृक्ष थे।
घोल सुपारी कमर घणो, नियमां पायांफण सचिचिरिण । मिरि बिदाम लौंग अखरोट, बहत जाइफल फले समाट ।।।। कुजो मरवी सादी जाइ, देसि सिंहाली चंपो राइ । अहो पाउल पालना , ला कनयर मुभव II
आदितपुर बहुत सुन्दर नगर था जिसके राजा का नाम प्रहलाद था । उसके एक पुत्र था नाम था पवनकुमार | भादितपुर नगर सब तरह से सम्पन्न था। मंदिर धे, बाजार थे, बड़े बड़े व्यापारी थे । थावक गण धन धान्य से पूर्ण थे । एक दूसरे में ईा नहीं थी । कहीं मल्लयुद्ध होता था तो कहीं अखाडा चलता था । घर घर विवाह होते रहते थे । नगर में मुनियों का पाहार होता रहता था ।
इसी भरत क्षेत्र में मेरू के पूर्व दिशा की ओर वसन्त नगर था उसका राजा महेन्द्र था तथा रानी का नाम इन्द्रदनि था । अंजना उसकी पुत्रो का नाम था । वह बहुत रूपवती थी। अंजना जब पूर्ण युवती हो गई तो राजा ने अपने चारों मंत्रियों से बुलाकर अंजना के लिये उचित वर की तलाश करने को कहा । प्रथम मन्त्री ने रावण से विवाह करने का प्रस्ताव किया। दूसरे मन्त्री ने रावण के पुत्र इन्द्रजीत एवं मेघनाद में से किसी एक के साथ विवाह करने के लिये कहा । तीसरे मन्त्री ने हिरणाभ के पुत्र अरिंद कुमार से करने की सलाह दी । चौथे मन्त्री ने पवनंजय के साथ विवाह करने का प्रस्ताव रखा। सभी सभासदों को अन्तिम प्रस्ताव अच्छा लगा।
कुछ दिनों पश्चात् प्रष्टान्हिका पर्व मा गया और सब विद्याधर अष्टान्हिका पूजा के निमित्त नन्दीश्वर द्वीप चले गये । वहां भक्तिपूर्वक पूजा होने लगी। वहीं
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हनुमन्त कथा पर पवनकुमार के पिता प्रहलाद आ गये। धोनों राजा मिलकर अतीव प्रसन्न हुए
बहुत प्रानन्द बुहु मन भयो, ताको वर्णन जाइ न कहयो। कनक सिला सोभै अति भली, बैठा तहाँ भूपति अति बली 1
राजा महेन्द्र ने अपनी पुत्री अंजना का राजा प्रहलाद के सामने प्रस्ताव रखा भौर कहले लगा -
मुझ पुत्री मुन्दरि अंजनी, एप विवेक कला बह भणी । वर प्राप्ति सा कन्या भई, निस यासरि मुझ निहा गई। चित अधिक गई , तो दो नारा दीर । राज कुबार देख सब टोहि, बात विचार न आये कोई ॥५६॥ हम ऊपरि फरिदार पसाब, राखौ बोन मारो राव । भात तुम्हारै चित्त सुहाइ, पवन श्रेजना वीज च्याहि ॥६६॥
अन्त में विवाह का निश्चय हो गया और शुभ मूहरत में दोनों का विवाह हो गया । एक महीने तक वहां बारात ठहरी ।
संका में रावण का शासन था । वह तीनखंड का सम्राट था 1 चारों दिशाओं में उमक्री धाक श्री। लेकिन पुहरीक नगर के राजा वरुण अपने आपको अधिक शक्तिशाली मानते थे। इसलिये रावण ने उस पर विजय प्राप्त करने का निश्चय किया और अपना दूत उसके दरबार में भेजा । इसके पश्चात् दोनों की सेनामों में युद्ध छिडा लेकिन रावण जीत नहीं सका । वह वापिम का आ गया और सेना एकत्रित करके युद्ध को पुनः तैयारी करने लगा। रावण ने प्रहलाद राजा को भी सेना लेकर बुलाया । पत्रनकुमार ने अपने पिता के समक्ष स्वयं जाने का प्रस्ताव रखा और पिता की स्वीकृति से सेना को साथ लेकर चल दिया। रात्रि होने पर सरोबर के पाम पड़ाव डाल दिया । वर्हा पवनकुमार ने चकवी के विग्ग को देखा । पवनकुमार को अंजना की याद आ गयी जिसको उसने अकारण ही १२ वर्ष से छोड़ रखा था । अन्त में वह अपने मित्र की सहायता से तलाल उसी रात्रि को अंजना से मिलने गया। इंजना से अपने किये पर क्षमा मांगी और दोनों ने रात्रि आनन्द से व्यतीत की | अंजना की प्रार्थना पर उसे एक म्बर्गा ग्रंगूठी देकर पवनंजय वापिस युद्ध भूमि के लिये चल दिया।
ग्रंजना गर्भवती हो गयी 1 चारों ओर चर्चा होने लगी। उसकी साम को जब मालूम पड़ा तो अंजना ने अपना स्पष्टीकरण दे दिया लेकिन किमी ने उस पर विश्वास नहीं किया और उसको अपने पिता के घर भेज दिया । पिता ने भी उसके चरित्र पर सन्देह किया और बहुत कुछ समझाने पर भी किसी बात पर भी
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
विश्वास नहीं किया और अंजना को देश निकाला दे दिया। होनहार ऐसा ही था । कवि ने ऐसी घटनाओं पर अपनी बहुत सुन्दर टिप्पणी दी है
जा दिन भाई आपना ता दिन प्रोत म कोइ । माता पिता, कटुंब सहु ते फिरि मेरो होइ । कंत सासु सुसरी पिता, रथ दल अधिक अनूप ।
सुन्वरी निकली एकली, यो संसार सप ॥२७॥
अपने पिता की नगरी से अंजना अपनी एक दासी के साथ भयंकर वन में पहुंची। उसी वन में उसे एक मुनि के दर्शन हुए जिससे उसको बहुत कुछ सांत्वना मिली । उसने रामोकार मन्त्र का उच्चारण किया। मुनि ने भी उन्हें उपदेश दिया और विपत्ती में धैर्य धारण करने के लिये कहा। मुनि से अंजना ने अपनी विपत्ति अपने पूर्व संचित पाप कर्मों का फल जानने के पश्चात् रहने लगी। वहीं एक रात्रि को गुफा में अंजना ने पुत्र को
का कारण पूछा । अंजना ने बहू और उसकी दासी वन जन्म दिया।
में
गुफा मध्य प्रति भयो उजास जागकि दिणयर कियो प्रकास । रूप कला गुण है न पार, परत षिकाम अवतार ॥७६॥ fare कोटि दिधै तस बेह, सोल कला चन्द्र मुख एव ।
तेजा पुरंग बोजे वर बोर, महावा तसु खभं सरीर ॥ ५०॥
उसी गुफा के ऊपर से एक विद्याधर विमान द्वारा सपत्नीक जा रहा था
जब उसे मालूम हुआ तो वह गुफा में जाकर अंजना एवं नवजात शिशु के सम्बन्ध में
कि वह तो उसका मामा ही है, बालक का जन्मोत्सव मनाया ।
जानना चाहा । दासी द्वारा जब बात मालुम हुई वह तत्काल अंजना को अपने साथ ले गया और ज्योतिषी ने जन्म कुंडली बनायी और कहा कि यह बालक अपूर्व तेजस्वी होगा तथा अन्त में निर्वाण प्राप्त करेगा । मामा के विमान में पांचों बैठ कर चल दिये। बालक मामा के हाथ में था । विमान ऊपर चला जा रहा था कि मामा के हाथ से छूट कर बह नीचे गिर पड़ा । अंजना पर फिर विपत्ति श्रा गयी। नीचे जब विमान को उतारा तो देखा बालक प्रसन्न होकर अंगूठा चूल रहा है। पंजना की प्रसन्नता का पार नहीं रहा अन्त में वे सब अपने घर आ गये। अंजना अपने मामा के घर रहने लगी । इधर पवनकुमार रावण से सम्मानित होने के पश्चात् वापिस अपने देश लौट आमा । वहां आने पर जब उसे भंजना नहीं मिली तो वह तत्काल अपने साथी के साथ राजा महेन्द्र के यहां गया। जब वहां भी उसे अंजना नहीं मिली तो वह उसके विरह में उन्मत्त होकर चारों ओर वन, पर्वत एवं गुफाओं में उसकी तलाश करने लगा । लेकिन फिर भी उसे अंजना नहीं मिली । अन्त में उसके पिता श्वसुर प्रादि
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हनुमन्त कथा
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सभी उसे खोजते वहां आ गये और पवनंजय को अंजना मिलने की खुशखबरी सुनायी । कुछ समय पश्चात् पवन कुमार उसको साथ लेकर वापिस प्रादितपुर चला गया और वहां सुख पूर्वक राज्य करने लगा।
___ बहुत वर्षों पश्वात् रावण का फिर संदेश लेकर दूत पाया और शीघ्र ही सेना लेकर वरुण को पराजित करने का आदेश दिया । हनुमान ने अपने पिता के साथ जाने का प्रस्ताव रखा । लेकिन पिता ने बालक हनुमान को युद्ध की भयानकता के बारे में बतलाया लेकिन उसने एक भी नहीं सुनी। अन्त में पिता ने उसे सम्मान के साथ विदा किया। हनुमान को नगर से निकलते ही शुभ शकुन हुये । कवि ने उन्हें निम्न शब्दों में गिनाया है
भये सुगरण सभ चालत बार, बाई वेष्या कर घोकार बाबो तीतर बाई माल, माई सारस सांड सियाल ।।११॥ बाबो घुघ घमं घणों, देहि मान राषरण घति घणों। भावो सुणहो ठोके कंध, बेगौ करे शत्रु को बंध ॥१२॥ मा सिध कर दोकार, मात्र रासभ वारंवार ।
आडी फिरि आई लौंगती, यांचे शत्रु हण सूपति ॥१३।।
हनुमान ने वरुण की सेना को सहज ही परास्त कर दिया। इससे चारों मोर उसकी जय जय कार होने लगी। एक दिन हनुमान अपने दीवान के साथ बैठे हुये थे। एक दूत ने हनुमान के हाथ में पत्र दिया जिसमें उनसे कोकिंदा के राजा सुग्रीव की अत्यधिक सुन्दर पुत्री पद्मावती के साथ विवाह करने की प्रार्थना की गई थी। कुछ समय पश्चात् खरदूषण के मरने एवं संवुक के पतन के समाचार सुनकर हनुमान को भी दुःख हुआ।
पर्याप्त समय के पश्चात् हनुमान के पास पत्र लेकर फिर एक दूत प्रामा पप में निम्न पंक्तियां थी
दूमा दिन आयो एक बूत, लिल्यो लेख बोनौ हनुवंत । सीता हरण कही सहु मात, राम लखमन को कुशलात ।।५।। रामचन्द्र कीन्हीं उपगार, सह सुग्रीव सण्यो व्योहार ।
राम च.आई आइ सुतार, सुरणी सहु से बात विधार ॥६॥
पत्र को पढ़ कर हनुमान शीघ्र ही राम के पास गये। राम ने हनुमान का स्वागत किण और सीता हरण की बात बतलायी तथा लत्काल लंका में जाकर सीता से मिलकर निम्न संदेश देने के लिये कहा
कहि नै सिया छ डा तोहि, सफल जन्म तब मेरउ होई लिया गये सो जो मावि करे, तास भार धरती पर रहे ॥२५॥
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
हनुमान राम का शुभाशीर्वाद लेकर लंका के लिये रवाना हुये । मार्ग में दो मुनियों को संकट में देख कर उनका उपसर्ग शान्त किया। वहीं पर लंका सुन्दरी से विवाह किया और उसे सीता के सम्बन्ध में बात बतलायी ।
२६
हनुमान लंका में जाकर विभीषण से मिले। वहां उनका उचित स्वागत हुआ। हनुमान जहां सीता रहती थी वहां गये ।
हनुमान ने वहां सीता के दर्शन किये। सर्व प्रथम राम नाम की मुद्रिका को ऊपर से सीता के पास गिरा दी। मुद्रिका देख कर सोता प्रमन्न हुई। उधर रावण को भी मन्दोदरी ने बहुत समझाया । उसके पहले ही १८ हजार राशियाँ थी और वे भी एक से एक सुन्दर थी। सीता की भी मन्दोदरी ने निम्न शब्दों में प्रशंसा की—
तुम्ह सम रूप नहीं को नारि संयम संम्ल वरत आचार ।
धमि पिता माता मिहि जरणी, धनि रामचन्द्र तस कामिनी ||३६|
हनुमान ने सीता से राम के समाचार कट्टे तथा सीता को छुडाने का रामचन्द्र का निश्चय घोषित किया। हनुमान एवं सीता ने एक दूसरे की बात पूछी तथा किस तरह सीला का हरण किया गया वह बतलाया । सुग्रीव का राम से जाकर मिलना तथा उन्हें अपनी राजधानी में लाकर ढहाने की बात कही ।
उधर मन्दोदरी ने हनुमान के आने की बात रावण से कही तो उसने तत्काल उसे बांध कर लाने का आदेश दिया। हनुमान ने सबका सामना किया। रावण ने अपने पुत्र इन्द्रजीत को हनुमान को बांध कर खाने के लिये भेजा । अन्त में इन्द्रजीत हनुमान को रावण के पास ले जाने में सफल हो गया। रावण ने हनुमान को बहुत समझाया, संसार का स्वरूप बतलाया, लेकिन रावण ने एक भी नहीं सुनी। हनुमान से अपने मरण की बात बतलायी और पूछ के कपड़ा रूई श्रादि बांधने तथा उस पर तेल डालने के लिये कहा। हनुमान ने तत्काल अपनी पूंछ चारों और घुमा दी जिससे लंका जलने लगी । इसके पश्चात् हनुमान वापिस राम के पास आ गये। राम ने हनुमान का राजसी स्वागत किया । वापिस आने के पश्चात् हनुमान ने लंका का पूरा वृत्तान्त सुनाया । इसके पश्चात् राम ने लंका विजय के लिये सेना तैयार की और वे लंका विजय के लिये चल पड़े। इसके पहले कि वे रावण पर आक्रमण करते उन्होंने रावण को समझाने के लिये अपना दूत भेजा लेकिन रावण ने दूत की बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया तथा उसके नाक कान काटने का आदेश दिया 1
अन्त में राम को लंका पर आक्रमण करना पड़ा। दोनों की सेनाओं में घोर युद्ध हुआ और अन्त में लक्ष्मण के हाथ से रावण का अन्त हुआ। सीता को लेकर राम वापिस अयोध्या लौट आये । हनुमान कुंडलपुर पर राज्य करने लगे । बहुत
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हनुमन्त कथा
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समय तक राज्य करने के पश्चात् हनुमान को जगत् से उदासीनता हो गयी । उन्होंने मुनि दीक्षा धारण कर ली और महानिर्वाण प्राप्त किया । रचना काल
कवि ने अपने इस काव्य को संवत् १६१६ वैशाख कृष्णा ६ शनिवार को समाप्त किया । उसने नम्रतापूर्वक अपने लघु ज्ञान के लिये सब विद्वानों से क्षमा मांगी है। जिसका उल्लेख उसने अपनी प्रशस्ति में किया है। उसने रत्नकीति और मुनि मनन्तको कामों का उल्लेख किया है बार अपने आपको अनन्तकौति का शिष्य स्वीकार किया है ।
मूलसंघ भव तारण हार, सारद गच्छ गरवौ संसार । रत्नकोति मुनि अधिक सुजाण, तास पाटि मुनि गुराहमिधाम | अमन्तकी ति मुनि प्रगट्यो नाम, कोति अनन्त विस्तरी ताम । मेघ व जे जाइ न गिनी, तास मुनि गुण जाउन भणी । तास सिष्य जिरण चरणां लोरण, ब्रह्म राउमाल मति को होरण ।
हा कया मौ कियौ प्रकास, उत्तम क्रिया मुरणीश्वर वास ।
कवि की यह संवतोस्लेख वाली यह दूसरी रचना है । कवि ने इसका रखना स्थन नहीं लिखा है और न तत्कालीन किसी शासक का नाम ही लिखा है । कवि ने प्रारम्भ और अन्त में मुनिसुव्रतानाथ का स्मरण किया है जिससे पता चलता है कि इसकी रचना मुनिसुव्रतनाथ के चैत्यालय में हुई थी 11
प्रस्तुत राम काश्य में ७५७ पद्य हैं जो वस्तुबन्ध, दोहा और चौपई छन्दों में विभक्त है । रास की भाषा राजस्थानी है ।
१. भणी क्रय मन मैं धरि हर्ष सोलास सोला शुभ वर्ष ।
रिति वसंत मास वैशाख, नौमि सनीसर करहिं पास ।। २. मूलसंघ भव तारण हार, सारद गच्छ गरवी संसार ।
रत्नफीति मुनि अधिक सुजारण, तारा पादि मुनि गुणनिधान । अनन्तकीर्ति मुनि प्रगट्यो नाम, कीति अनन्त विश्तरी ताम | मेघ द जे जाइ न गिनी, तास मुनि गुण जासन भणी । तास सिष्य जिण चरणां लीना, ब्रह्म राउमल मति को हीरा ।
हरण कथा नौ कियो प्रकास, उत्तम क्रिया मुरणीश्वर दास । ३. प्रस्तुत पांडुलिपि एक गुटके में है जो महावीर भवन में संग्रहीत है । गुटका
का लखनकाल संवत् १७१६ पौष सुदी प्रतिपदा है ।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
३. ज्येष्ठ जिनवर कला यह कवि की लघु रचना है जिसमें प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव का जीवन चरित्र प्रकित है। प्रथम तीर्थ कर होने के कारण वे सबसे बड़े जिन हैं, इसलिये इस कथा का नाम जेष्ठजिनवर कथा रखा गया है। इसका रचना काल संवत् १६२५ तथा रचना स्थान सांभर (राजस्थान) है। प्रस्तुत कथा का अजमेर के भट्टारकीय शास्त्र भण्डार अजमेर में संपर। समाजमा है ।
४. प्रद्युम्नरास परदवणरास ब्रह्म रायमल्ल की रास संज्ञक कृतियों में महत्वपूर्ण कृति है। राजस्थानी भाषा में निबद्ध इस रास काव्य का रचनाकाल संवत् १६२८ भादवा सुदी २ बुधवार है।' गढ़ हरसोर इसका रचना स्थान है। हरसोर जयपुर राज्य का ही एक ठिकाना था जहां जैन श्रीमन्तों की अच्छी बम्सी थी । जिनमन्दिर था तथा उसमें पूजा बत्त विधान होते रहते थे। कवि ने सम्भवतः संवत् १६२८ का चातुर्मास यहीं ध्यतीत किया था और वहीं श्रावकों के प्राग्रह से इस रास की रचना समाप्त की थी।
प्रद्य म्न की गणना १६९ पुण्य पुरुषों में की गयी है तथा २४ कामदेवों में भी प्रद्य म्न का सम्मानित स्थान है। ये नवें नारायण श्रीकृष्णा जी के पुत्र थे । चरम शरीरी थे । जैन वाड्मय में प्रद्युम्न के चरित्र का महत्वपूर्ण स्थान है । अब तक संस्कृत, अपभ्रंश हिन्दी एवं राजस्थानी में विभिन्न कवियों द्वारा निबद्ध प्रद्युम्न के जीवन पर २५ कृतियां खोज ली गयी हैं। ब्रम्ह रायमल्ल के पूर्व निबद्ध ७ कृतियां मिलती है और प्रस्तुत रास काव्य के रचना के पश्चात् १७ कृतियां और लिखी गयी जिनसे प्रद्युम्न के जीवन की उत्तरोत्तर लोकप्रियता का भान होता है। रास काव्य का मूल्यांकन
प्रद्युम्न रास का प्रारम्भ तीर्थ कर की वन्दना से होता है इसके पश्चात् जिनवारणी तथा फिर निर्ग्रन्थ गुरू को नमस्कार किया गया है । कवि ने फिर अपनी अल्पज्ञता का निम्न पद्य में वर्णन किया है
हो हो मृति अति अपढ प्रयाण, भावमेव जाणों नहीं जी हो घोडी जी बुधि किम करौ बखाण, रास भणी परववरण को जी।
१. राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रन्थ सूची पंचम भाम-पृष्ठ संख्या १४५
हो सोलहसै अठ्ठवीस विचारो, हो भादवा सुदि द्वितीया बुधवारो। गह हरसोर महाभलौ जी हो तिमै भला जिगोसुर थानी ।
श्रीवंत लोग बस भलाजी, हो देव शास्त्र गुरू राखै मानौ ॥१९४३ २. देखिये-लेखक द्वारा सम्पादित प्रश्च म्न चरित्र की प्रस्तावना, पृ० ४३
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प्रद्युम्न रास द्वारिका के वर्णन से रास प्रारम्भ होता है। वहां प्रप्रकवष्टि राजा थे जो सम्पदृष्टि श्रावक थे | कुन्ती इसी की पुत्री थी जिसका पांडुराज से विवाह हुआ था । इमका पुत्र बसुदेव था तथा उसकी पत्नी का नाम रोहिणी था जो रूप सौन्दर्य में प्रप्सरा के समान थी (रूपकला अपसरा समान) । इनके दो पुत्र नारायण एवं बलिभद्र थे। दोनों ही शलाका पुरुषों में थे तथा जैन धर्म के प्रति उनका विशेष अनुराग था । एक दिन नारायण के घर पर नारद ऋषि का प्रागमन हुमा । ऋषि का स्वागत सत्कार करने के पश्चात् नारायस बारद हाई बीपकागर कहने के लिये निवेदन किया क्योंकि नारद का सभी क्षेत्रों एवं स्थानों पर आवागमन रहता था। नारद ने कहा कि पूर्व और पश्चिम दोनों में केवल ज्ञानी विचरते हैं और उसके ममवसरण में प्राणी मात्र धर्मलाभ लेते हैं। इसके पश्चात् नारद महलों में गये जहां श्रीकृष्ण की रानी सत्यभामा रहती थी । सत्यभामा ने नारद का स्वागत नहीं किया और अपने ही श्रृंगार में व्यस्त रही। इस पर नारद ने सत्यभामा को गर्व नहीं करने की बात कही किन्तु इस पर वह उल्टे नारद को मान कषाय त्यागने का उपदेश देने लगी । इस पर नारद क्रोधित हो गये और निम्न शब्दों में उसकी भत्सना को
हो भणे रषीसुर वेवी अभागी, हो हम ने जी सीख देग तू लागी । पाप धर्म जाणो नहीं जी, हो मुझ न जी मानवान सहु आप 1 सुर भर सह सेवा कर जी, हो तोमि लोक मुझ पे सह कंपै ।
सत्यभामा ने उसका फिर कटाक्ष रूप में उत्तर दिया जिरासे नारद ऋषि और भी जल गये । उन्होंने निश्चय किया कि सत्यभामा अपने रूप लावण्य के मद में चूर है इसलिये श्रीकृष्ण जी के इससे भी सुन्दर वधु लानी चाहिये। इसी विचार से वे चारों ओर घूमने लगे। ये विद्याधरो की नगरी में गये और देश की विभिन्न राजधानियों में गये । अन्त में चल कर वे कुण्डलपुर पहुंचे जहां भीषमराज राज करते थे । श्रीमती उनकी पटरानी थी। रूप कुमार पुत्र था तथा शक्मिणी पुत्री थी । एक मुनि ने नारद ऋषि के आने के पूर्व ही रुक्मिणी का विवाह कृष्णाजी के साथ होगा ऐसी भविष्यवाणी कर दी थी । जब रुक्मिरणी की मुवा सुमति ने मुनि की भविष्यवाणी के बारे में बतलाया तो भीषम राजा ने श्रीकृष्ण जी के साथ विवाह करने का विरोध किया तथा शिशुपाल के साथ रुक्मिणी का विवाह करना निश्चय किया।
नारद ऋषि भीषम राजा के महल में गये । वहां रानियों ने नमस्कार करके उन्हें उचित आदर सत्कार दिया । रुक्मिणी ने आकर जब नारद की वन्दना को तो उसे श्रीकृष्ण जी की पटरानी बनने का आशीर्वाद दिया। नारद वहीं से कृष्ण जी की सभा में गये और वहां उन्होंने निम्न बात कही
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
हो नारद बोल हरी नरेसो, हो उसपुर बस असेसो । भीषम राजा राजई जी, हो तिहकै सुता कपिरली जाणों । सासु रूप लिखि आरिणयो जी, हो सोभे नाराईण के राणी १३३६।।
भीषम राजा ने रुक्मिणी के विवाह की तैयारियां प्रारम्भ कर दी। लेकिन जब उसकी भुवा को मालूम पड़ा तो वह अत्यधिक चिन्तित हुई और पत्र के द्वारा श्रीकृष्ण जी को 2-1 भेज मि पा वापर परे समाचारोलिक रूप से कहे कि विवाह के दिन नागपूजने के बहाने से रुक्मिणी बाग में पावेगी सब यहां मेंट हो सकेगी । पूर्व निश्चयानुसार रुक्मिणी वहां प्रागयी और कहने लगी
हो ताहि औसरि रूपरिण सहा आई, हो भाग देवता की पूज रचाई। हाय जोडि विनती करे जो हो, जे छ सकल देवता साचो । नाराहरण अब आइज्यो जी, हो फुरिज्यो सही तुहारी बाचो ॥४२।।
रुक्मिणी हरण की नगर में जब खबर पहुंची तो युद्ध की तैयारी प्रारम्भ हो गयी
हो कुंग्लपुर में लाधी सारो, ठाई ठाइव पडि पुकारो। कपिरिण न हरि ले गयो जी, हो रामा जी भषिम बाहर लागी । साठि सहस रथ जोतिया जी, हो तीनि लाख घोग सुर बागा ।।४५।।
रुक्मिणी सेना देख कर डर गयी और कृष्ण जी से 'प्रब आगे क्या होगा' कहने लगी । लेकिन श्रीकृष्ण जी ने शीघ्र ही धनुष बाण चलाना प्रारम्भ कर दिया
और सर्वप्रथम रूपकुमार को घराशायी कर दिया। शिशुपाल और श्रीकृष्ण में युद्ध होने लगा । और कृष्ण जी ने बाण से उसका भी सिर छेद दिया। उसके पश्चात् वे रूपकुमार को साथ में लेकर रंवत पर्वत पर चले गये वहां रुक्मिणी के साथ विवाह कर लिया । द्वारिका पहुंचने पर उनका जोरदार स्वागत किया गया । हो हलधर फिस्न द्वारिका प्राया, हो जित्याजी सम निसारण बजाया
एक दिन कृष्ण ने अपना एक दूत दुर्योधन के पास भेजा और कहलवाया कि रुक्मिणी और सत्यभामा दोनों में से जिस किसी के प्रथम पुत्र होगा वह उसकी सुता उदघिमाला से विवाह करेगा। इधर सत्यभामा एवं रूक्मिणी में यह तय हुअा कि जो दोनों में से प्रथम पुत्र पैदा करेगी वह दुर्योधन की लडकी के साथ विवाह करने के पश्चात् दूसरी का सिर मुण्डन करेगी। नौ महिने के पश्चात् दोनों को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। लेकिन कृष्णजी के पास रूक्मिणी का दूत पहिले पहुंचा और सत्यभामा का दुत पीछे | पुत्र उत्पन्न होने पर द्वारिका में खूब उत्सव मनाये गये
हो मनहारिका भयो उछाहो, घरि घरि गागै कामणी श्री ।।६७॥
जन्म के ६ दिन पश्चात् घूमकेतु नामक विद्याधर प्रद्य म्न को प्राकाश मार्ग से उड़ाकर ले गया और महाभयानक बन में एक सिला के नीचे दबा कर चला गया।
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हनुमन्त कथा
इसी अवसर पर वहां कानसंवर का विमान पाया । प्रद्य म्न के ऊपर पाने पर जब विमान रुक गया तो नीचे उत्तर कर उसने शिला के नीचे से शिशु प्रद्य म्न को उठा लिया और अपनी रानी कंचनमाला को ले जाकर दे दिया। कालसंबर के पहले ही पांचसो पुष थे इरालिये उसने कहा
हो जो पुत्र पांना सामो, हो सहमालकको कर प्रहारो। ते दुख जाईन में सहया जी, हो सुरिण बोलौ संबर नर नाही ।
कालसंवर प्रद्य म्न को मेघकूट दुर्ग पर ले गया जहां उसका राज्य था। वहां प्रद्य म्न की प्राप्ति पर अनेक उत्सव मनाये गये । उघर द्वारिका में शिशु प्रद्युम्न के हरण पर शोक छा गया। रुक्मिणी रोने पीटने लगी--
रुदन करै हरि कामिणी जी, हो घूर्ण सीस दुवै कर पोटे ।।७६॥ हो राजा जो भीखम तणी कुमारी, हो हिरे सिर कटे अति भारी । वोस जी खरी अराघणी जो, हो सुरपी बात किस्न के दिवाणि ।। मुख बोल हरि रालीयोजी, हो हाहाकार भयो असमाने ।।७७॥
इतने ही में नारद जी का द्वारिका प्रागमन हुआ 1 उनसे भी रुक्मिरगी ने रूदनपूर्वक प्रद्य म्न के अपहरण की चर्चा की। ऋषि ने रुक्मिणी को सान्त्वना देते हुये शीघ्र ही आकाश मार्ग से विदेह क्षेत्र में जाकर सीमन्वर तीर्थ कर से प्रद्युम्न हरण के बारे में जानने के लिये कहा 1 नारद ऋषि तत्काल वहां से उसी क्षेत्र में गये जहां सीमन्धर स्वामी का समवसरण लगा हुआ था । नारद ऋषि वन्दना करके समवसरण में बैठ गये । वहां सीमंधर स्वामी ने प्रद्युम्न के पूर्वभव, उनके अपहरण का कारण एवं वर्तमान में उसका निवास स्थान प्रादि के बारे में विस्तृत जानकारी दी । नारद जी ने पुनः द्वारिका में जाकर निम्न बातें कही
हो रूपिरिणस्यो मुनि बात पयासी, हो सोलह वरष गया घरि आसी रीती सरवर जलि भरे जी, हो सका धन फुले असमानो । दूध चिर तुम्ह ग्रंचसा जी, हो तो जारणी सानी सह नागो ।। १०३||
उधर कालसंबर के यहां प्रच.म्न दिन प्रति बढने लगा । एक बार कालमंदर ने अपने पांच सौ पुत्रों को अपने शत्र राजा सिंध भूपति को पराजित करने के लिये भेजा लेकिन वे मफल नहीं हो सके । अन्त में पद्म म्न उनसे माजा मांग कर सिंघरथ को पराजित कराने के लिये गया और शीन ही उसे बांध कर कालसंवर के पास ले माया। इसके पश्चात् बह १६ गुफाओं में गया जहां से उसे कितनी ही सिद्धियां प्राप्त हुई । घर पर जाकर जब वह कंचनमाला से मिला तो वह उसके रूप को देख कर मोहित हो गयी और उससे दासना पूर्ति की बात करने लगी। अपनी तीन विधाएं' भी उसी को डाली । प्रद्य म्न ने कंचनमाला से विद्या तो लेली लेकिन वह उसे माता एवं गुराणि कह कर वहां से चल दिया।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
नमस्कार करि बौन जी बो, ईक माता अह भई गुराणी । विद्या बान बीयो घणौ जी, हो पुत्र जोगि सो काज बहाणी ॥११७।
कंचनमाला ने तत्काल पांचसी पुत्रों को बुला कर प्रद्युम्न को मारने की सलाह दी तथा कालसंवर के सामने अपना यिरूप बनाकर प्रद्य म्न के द्वारा अपने शीलभंग के बारे में कहा । इस पर कालसंवर अत्यधिक क्रोधित होकर प्रधम्न को पकडना चाहा लेकिन प्रद्युम्न के सामने सेना नहीं टिक सकी तथा अपनी विधावल से कालसंबर को बांध लिया । इतने ही में वहां नारद ऋषि आ गये और उन्होंने कालसंवर से वास्तविक बात बतलाकर परस्पर के मनमुटाव को शान्त किया
हो संबरि बाण आई नवि संघिउ, नागपाति स्पौ तंमण पंषित। कामदेव रिण जोसियो जी, हो तौलग मारव मुनिवर प्रायो ।।१२४।।
नारद ने प्रद्य म्न से द्वारिका चलने को कहा । प्रद्य म्न ने द्वारिका जाने के पूर्व सर्व प्रथम कंचनमाला से क्षमा मांगी और कालसवर से प्राज्ञा लेकर विमान द्वारा नारद के साथ द्वारिका के लिए प्रस्थान किया ।
द्वारिका में प्रवेश करने के पूर्व प्रद्य म्न ने दुर्योधन से उसकी लड़की उदधिमाला को छीन ली था माया का घोड़ा बना कर भानुकुमार के द्वारा घुडसवारी करने पर उसे खूब छकाया तथा पटवा दिया प्रद्युम्न इस समय वृद्ध ब्राम्हण के घेश में थे।
हो फेऱ्या बी घोडा घायुफा बोया, आडा उभी रासिया जी ।।१४२!
प्रद्युम्न सत्यभामा के घर गया जहां भानुकुमार का विवाह था । वहां उसने वृद्ध ब्राम्हण का रूप बनाया
विष रूपढौ भयोणी, हो छिटिक्या होठ निकस्था बंतो।
मुहि हाथ डगमग कर जी, हो मंदो मंडप माहि हसंतों ।
प्रद्य म्न ने कहा कि ब्राम्हण को जो यदि भर पेट जिमाता है तो वह वांछित फल प्राप्त करता है । सत्यभामा ने यह सुनकर उसको बैठने को प्रासन दिया और थाल में भोजन परोस दिवा । प्रद्य म्न सारा का सारा भोजन खा गया और पानी भी खूब पी गया । फिर उसने मुह में हाथ डाल कर उल्टी कर दी जिससे सारा महल दुर्गन्ध से भर गया। इसके पश्चात् प्रद्य म्न ने ब्रम्हचारी का रूप धारण कर लिया। और अपनी माता रूक्मिणी के घर चला गया । माता से दुर्बलता एवं चिन्ता के समाचार पूछने पर रूक्मिणी ने पुत्र के वियोग के कारण होने वाली दया की बात कही । प्रद्युम्न मपने वास्तविक रूप में प्रकट हो गया और माता के चरण 'हए ।
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प्रद्य म्नरास
فلی
हो नमस्कार करि चरणां लागौ हो भीषम पुत्री को दुख भागी। मसुरपात प्रानंब काजी, हो सूझ बात हरिष करि मातो। सह संबर का घर तरणी मी, हो मयण मूल को कझो बतातो ।।५५।।
प्रश्न म्न ने अपने शौर्य, पराक्रम एवं विद्याबल' को अपने पिता स्वयं श्रीकृष्ण जी को भी बतलाने की एक युक्ति रची। उसने रुक्मिणी का हरण कर लिया और थोकृष्ण, बलराम नादि सभी को युद्ध के लिए ललकारा
है कहिल्योजी जी तुम्ह बलिभद्र झारो, हो बाना घालि होई प्रसधारो कपिरिण ने ले चल्यो जो, हो पोरिष छ तो आई छडा जं ।।१६६॥
प्रद्य म्न ने श्रीकृष्ण के अतिरिक्त पांचों पाण्डयों को भी युद्ध के लिये सलकारा । श्रीकृष्ण अपनी समस्त सेना के साथ युद्ध भूमि में प्रा डटे । प्रध मन ने भी मायामयी सेना तैयार की। कवि ने युद्ध का जो वर्णन किया है वह संक्षिप्त होते हुए भी महत्वपूर्ण है--
हो प्रसवारा मारै असवारो, हो रथ सेथी रथ जुई झझारो । हस्तीस्यौ हस्ती भिडजी, हो घणं कही तो होई विस्तारो ।।
श्रीकृष्ण की जब सेना नष्ट होने लगी तो उन्होंने गदा उठाली और प्रद्य म्न पर प्राक्रमण करने के लिए दौड़। इतने में रूक्मिणी ने नारद से वास्तविक बात प्रकट करने के लिए कहा। अब श्रीकृष्ण ने प्रद्युम्न को अपने पुत्र के रूप में पाया तो उनका दिल भर माया । युद्ध बन्द कर दिया गया । प्रद्य म्न को समारोह के साथ द्वारिका में ले जाया गया। प्रद्युम्न का उदधिमाला से विवाह हो गया और वे आनन्द के साथ जीवन व्यतीत करने लगे ।
__कुछ समय पश्चात् भगवान नेमिनाथ का उधर समवसरण प्राया। सभी उनकी वन्दना को गये । समवसरण में जब श्रीकृष्ण जी के राज्य की अवधि पूछने पर नेमिनाथ ने बारह वर्ष के पश्चात् द्वारिका दहन की बात कही। प्रद्युम्न ने संसार की भासारता को जान कर वैराग्य धारण कर लिया और घोर तपस्या करके कर्मों के बन्धन को काट कर मोक्ष पद प्राप्त किया।
कवि ने अन्त में अपना परिचय निम्न प्रकार दिया हैहो मूससंघ मुनि प्रगटौ लोई, हो प्रनतकोति जारी सह कोई ।
तासु तपो सिषि आरिणज्योत्री, हो पह्मि राइमलि कीयो बखाए ।।१६३ मूल्यांकन
प्रद्युम्न रास शुद्ध राजस्थानी भाषा की कृति है । इसमें तत्कालीन बोल-चाल के शब्दों का एवं लोक शैली का सुन्दरता से प्रयोग किया गया है । प्रत्येक छंद के
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
प्रारम्भ में 'हो' शब्द का प्रयोग किया गया है जो सम्भवतः अपने पाठकों के ध्यान को एकाग्र रखने के लिये अथवा वर्ण्य विषय पर जोर देने के लिये है। दिखावण (३) परणी (६) बोल्या (१०) चाल्पो (१३) भास्यो (१५) पाइयो (४०) चाल्यो (४१) जैसी क्रिया पदों का प्रयोग हियर्ड (१६) भूवा (२४) किस्न (२५) व्याहु (३७) हरिस्पी (५१) जैसे शुख राजस्थानी शब्दों का प्रयोग करके कवि ने राजस्थानी भाषा के प्रति अपने प्रेम को प्रदर्शित किया है।
प्रद्य म्नरास का अपना ही छंद है। सारे काव्य में एक ही रास छन्द का प्रयोग हुप्रा है । प्रत्येक छन्द में ६ पद है जिनमें २० से १८, १७, १७ तथा १६, १६ मात्राए' हैं। कवि ने इसे कड़वा छन्द लिखा हैं ।
कवि ने पुराणों में वरिणत कथा के प्राधार पर ही रास काव्य की रचना की है । अपनी ओर से न तो कथा में कोई परिवर्तन किया है और न किसी नये कथानक को स्थान दिया है । हां कथा का विस्तार एवं संक्षिप्तीकरण अपने काव्य के छन्दों की सीमित संख्या के अनुसार किया है। नेमिनाय के समवसरण में केवल द्वारिका दहन की चर्चा ही होती है उसमें जैन सिद्धांतों का प्रतिपादन जो जन कवियों की अपनी शैली रही है कवि ने उसे इस काव्य में स्थान नहीं दिया है।
सामाजिक तत्वों की दृष्टि से रास काव्य में कोई त्रियोष वर्णन तो नहीं पाया किन्तु प्रद्य म्न के विवाह के समय लग्न लिखना, चौरी मण्डप बनाना, वधावा गीत गाना, वर कन्या के तेल चढाना, ब्राम्हणों द्वारा वेद मन्त्र का पाठ कराना आदि कुछ वर्णन तात्कालीन समाज की अोर संकेत है ।
रास सुखांत काव्य है । प्रधम्न राज्य सम्पदा का सुख भोगने के पश्चात् गृह स्याग कर देते हैं और अन्त में घोर तपस्या के पश्चात् निर्वाण प्राप्त करते हैं ।
कवि ने इसे गढ़ हरसोर में संवत् १६२८ (सन् १५७१) में पूर्ण किया था । उस दिन भादया शुक्ला वितीया बुधवार था । हरसोर में उस समय श्रावकों की अच्छी बस्ती थी। वहां भव्य जिन मन्दिर थे तथा श्रावक गण देव शास्त्र एवं मुरू का सम्मान करते थे ।
१ हो सोलहसी अदृषीस वीचारो, हो भाववा सुचि कुसिया पुषवारो ।
गढ हरसौर महा भसी जी, हो तिमै भलो जिणेसुर यानो । भोवत लोग बस भत्ता जी, हो देव शास्त्र गुफ राख्न मानो 1|१९४।।
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सुदर्शन रास
पूरे रास में १६५ पच हैं जिसका कवि ने रास के अन्त में उल्लेख किया है ।
५ सुदर्शन रास प्रस्तुत कृति ब्रह्म रायमल्ल की एक महत्वपूर्ण कृति है। इसमें अपनी सच्चरित्रता में प्रसिद्ध से सुदर्शन का जीवन वृत निबद्ध है। यह एक रास काम है और इसकी भी वर्णन शैली वही है जो कवि ने अन्य काव्यों में अपनायी है। सर्व प्रथम गम का चौबीस तीर्थारों की को किया गया है जो ५५ पद्यों में समाप्त होता है।
रास की कथा जम्बूद्वीप से प्रारम्भ होती है। भरतक्षेत्र में प्रग देश है उसकी राजधानी चंपा नगरी है। उसके राजा पालीवाहन तथा रानी का नाम अभया था । नगर सेठ थे वेष्ठि नषभदास जो पूजा पाठ एवं वन्दना में अपार विश्वास रखते थे । सेठानी जिनमती भी धार्मिक प्रवृत्ति वाली थी। एक रात्रि के पिछले पहर में सेठानी ने स्वप्न देखा और मुनि द्वारा स्वप्न फल बतलाये जाने पर दोनों पति पनि अत्यधिक प्रसन्न हुए कि उन्हें शीघ्र ही सुयुत्र रत्न की प्राप्ति होगी । सेठ ने पुत्र अन्म पर खूब दान दिया, उत्सव किये एवं पूजा पाठ का प्रायोजन किया। उन्होंने पुत्र का नाम सुदर्शन रखा । बालक बड़ा हुमा । पढने लगा और जब वह युवा हो गया तो माता-पिता ने एक सुन्दर कन्या से उसका विवाह कर दिया । सुदर्शन के माता-पिता ने उसे गृहस्थी का समस्त भार सौंप कर जिन दीक्षा धारण करली । कुछ समय पश्चात् सेठ सुदर्शन के भी पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।
एक दिन सेठ सुदर्शन कपिला ब्राम्हणी के घर के नीचे होकर निकले । कपिला सुदर्शन के रूप एवं सौन्दर्य को देख कर उस पर प्रासक्त हो गयी। उसे चाहने लगी । एक दिन कपिला ब्राम्हणी के पति को कहीं बाहर जाना पड़ा । कपिला ने अपने पेट के दर्द का बहाना लिया और दुख से विह पल होकर चिल्लाने लगी तथा मन्दिर के ऊपर जाकर ढक कर सो गयी । सेठ सुदर्शन ऊपर गये और ब्राम्हणी की बीमारी के बारे में जानकारी चाही। जब वह अपने मित्र के साथ ऊपर गया तो ब्राह्मणी ने उसका हाथ पकड़ लिया और काम जबर का नाम लेने लगी । सेठ सूदर्शन ब्राह्मणी का चरित्र देखकर अचम्भित हो गया और प्रानी स्त्री मनोरमा के अतिरिक्त सभी स्त्रियों को माता, बहिन एवं पुत्री के समान मानने की बात कहने लगा । सेठ ने माम्हणी को बहुत समझाया तथा शील के महत्व को सामने रखा । अन्त में वह ब्राह्मणी के चंगुल से मुक्त होकर घर पहुंचा।
२ हो काया एकप्तौ अधिक पंचाणू, हो रास रहस परवमान बनायो ।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
कुछ दिनों पश्चात् बसन्त ऋतु पायी। चारों ओर पुष्प महकने लगे । राजा, रानी, सेठ सुदर्शन एवं उसकी पत्नी एवं पुत्र तथा कपिल ब्राह्माणी सभी वन विहार के लिये चले । जब रानी ने सेठ सुदर्शन को देखा तो वह उसकी अपूर्व सुन्दरता से प्रभावित हो गयी और उगके बारे में जानकारी चाही। रानी के पास ही कपिला ब्राह्मणी थी । पहिले तो उसने सेठ को नपुसक बतलाया और रानी को कहा कि यदि वह सेक को अपने जाल में फांस सके तब उसके चातुर्य को समझे ।
सनी ने पर प्राकार अपनी जान को मात पाडत जी से कही । लेकिन पंडितजी ने रानी की बात को मानने के बजाय उसे शील महात्म्य पर खूब उपदेश दिया । लेकिन रानी ने कहा कि उसने कपिला आम्हणी को वचन दे दिया है कि वह सुदर्शन को अपने वश में कर लेगी नहीं तो कटारी खाकर मर जावेगी । वमन का निर्वाह करना प्राचीन परम्परा रही है। अन्त में अनेक उपाय सोचे गये । अष्टान्हिका में सेठ सुदर्शन घमशान में जाकर ध्यान लगाता था। यह बात जब रानी की दासी को मालुम हुमा तो उसने महल के रक्षकों को भुलावे में डालने के लिये मानवाकृति के आटे के पुतले को प्रतिदिन लाने ले जाने लगी । और अन्त में पाठवें दिन स्वयं ध्यानस्थ सेठ को रानी के महल में लाकर पलंग पर डाल दिया 1
अहो सेठि सुदर्शन रह्यो धरि ध्यान, मनु कियो वच्च का यंभ समान । आयोजी भाप समीषियो, अहो मन वचन कायाजी लियो सन्यास । मो उपसगं ये बरी, अहो हावि भोजन करौ वन में जी वास ।।१२२।।
रानी ने गेठ के साथ संभोग करने की कितनी ही बालें चली। विविध हाव भाव बतलाये । लेकिन वह सेठ को वश में नहीं कर सकी । अन्त में निराश होकर सेठ को बाहर निकाल दिया और स्वयं कपडे फाड कर अपने प्राण खरोच कर चिल्लाने लगी--
अहो रच्यो जी प्रपंच सह फाचोजी चौर, काचुयो तोडि विसरि सरीर । बंधु बाहर कर पापणी, अहो सेठि पापी मुझ तोडियो अंग | राति उपसर्ग किया घणा, अहो राउ स्यु कही जिम कर सिर भंग 1
नगर में रानी की बात नांधी के समान फैल गयी। चारों पोर हाहाकार होने लगा तथा किसी ने भी सेठ सुदर्शन के चरित्र पर शंका प्रकट नहीं की ।
महो धावक क्रिया जी पाल हो सार, वान पूजा करें पर उपकार नग्र नर नारि ने सीख दे अहो, पंडित जाणो जी जैन पुराए । कर्म कुकर्म सो किम करे, अहो सील न छोड़े हो शाहि पराण ।
राजा ने जब रानी की बात सुनी तो उसके क्रोध का पार नहीं रहा और
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सुदर्शन रास
उसने तत्काल सेठ को सूली लगाने का प्रादेश दिया । सेठारणी हाहाकार विलाप करती हुई सेठ के पास पहुंची तो उसने पूर्व जन्म के किये हये पापों का फल बतला कर उसे सान्त्वना देना चाहा । सेठ को शूली पर चढ़ाने के लिये ले जाया गया और ज्योंही. उसे शूली पर चढ़ाया वह शूली सिंहासन बन गयी । यह देख कर सेवक वहां से भागे और जाकर राजा से निवेदन किया। राजा ने उस पर विश्वास नहीं किया और तत्काल सेना लेकर वहां पहचा। देवताओं ने राजा को मार भगाया। राजा नंगे पांव सेठ के पास गया और विनयपूर्वक अपने अपराध के लिये क्षमा मांगने लगा। भन्त में सेठ ने देवताओं से राजा को क्यों मारते हो ऐसा कहा । देवों ने सेठ के चरित्र की बहुन प्रशंसा की और उसका खूब सम्मान करके स्वर्ग लोक चले गये ।
___ ने जद : वृतान्त न हो इसने सत्ता कर लिया तथा पंडिता पाडलीपुर चली गयी और वहां वैश्या के पास रहने लगी । सेठ सुदर्शन घर पाकर सुख से रह्ने लगा तथा अपना जीवन धर्म कार्यमें व्यतीत करने लगा । एक दिन वहां मुनिराज पाये तथा जब सेठ ने शूली वाली घटना की बात जाननी चाही तो मुनिराज ने विस्तार पूर्वक पूर्व भव की बातों का वर्णन किया । अन्त में सेठ ने मुनि दीक्षा ली और अनेक उपसर्गों को सहने के पश्चात् कंवल्य प्राप्त करके अन्त में निर्धारण प्राप्त किया।
इस प्रकार २०१ पद्यों में निर्मित सुदर्शन राम कवि की कथा प्रधान रचना है इसमें कथा का बाहुल्य है । सभी पद्य एक ही छन्द में लिखे हुये हैं तथा उनमें कोई नवीनता नहीं है । कवि ने अपना परिचय देते हुये अपने पापको मूलसंघ के मुनि अनन्तकीति का शिष्य लिखा है। ।
रास का रचना काल संवत् १६२६ वैशाख शुक्ला सप्तमी है। उस समय अकबर का शासन था जो सभी छह दर्शनों का सम्मान करता था । रचना स्थान धौलहर नगर लिखा है जो सम्भवतः घौलपुर का नाम हो । चौलपुर स्वर्ग के समान था वहां सभी ३६ जातियां थी जो प्रतिदिन जिन पूजा करती थी। १ ग्रहो श्री मूलसंघ मुनि प्रगटौ गी लोइ, अनंतकौति चारणो सह कोई तास तणो सिपि माणज्यो, अहो राइमल्स ब्रह्म ममि भयो उछाह ।
बुद्धि करि हीण आगे नहीं, प्रहो क्णयो रास सवर्शन साह ||१९॥ २ अड़ो सोलहस गुणतीसै वैसाखि, सात जी राति उजाल जो पालि।
साहि अकबर राजिया, अहो भोग राज अति इन्द्र समान ।
चोर लवांड राखं नहीं, अहो छह वशंग को राखं श्री मान ||१९६।। ३ अहो धोलहर न बन देहुरा थान, वेबपुर सोभै जो सर्ग समान ।
पौणि छत्तीस लीला कर, अहो कर पूजा नित जपं अरहत ।।२०।।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
लीला राम जैन धर्म में श्रीपाल एवं मैनासुन्दरी का जीवन अत्यधिक लोकप्रिय है । सिद्ध चक्र की पूजा के महात्म्य को जन जीवन तक पहुंचाने का पूरा श्रेय मैना सुन्दरी को है जिसने इस सिद्धचक्र नत एवं पूजा के महात्म्य से कुष्ट रोग से पीड़ित अपने पति श्रीपाल एवं उसके ७०० साथियों का कुष्टरोग दूर कर दिया था । इसलिये जैनाचार्यों एवं जैन विद्वानों ने इन दोनों के जीवन को लेकर विविध काव्य लिखे हैं। प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, राजस्थानी एवं हिन्दी में चरित, रास, चौपई, वेलि संज्ञक रचनाए निबद्ध की गयी और उनके माध्यम से श्रीपाल एवं मनासुन्दरी का जीवन आकर्षण का केन्द्र बन गया । रचना काल
प्रस्तुत रास कविवर ब्रह्म रायमस्ल की काव्य रचना है जिसमें उन्होंने २६५ पद्यों में श्रीपाल एवं मनासुन्दरी के जीवन का विषद वर्णन किया है। यह रास कवि के काव्य जीवन की परिपक्व अवस्था का काम है जिसे उन्होंने संवत् १६३० अषाढ सुदी १३ शनिवार को राजस्थान के प्रसिद्ध गढ़ रणथम्भौर में समाप्त किया था। अष्टान्हिका पर्व में विमोचित यह रास काव्य श्रीपाल एवं मनासुन्दरी को समपित काव्य है । रणथम्भौर उस समय धन जन सम्पन्न दुर्ग था । बादशाह अकबर का उस पर शासन था । दुर्ग में चारों ओर छोटे-छोटे सरोवर, दाग एवं बगीचे थे। सरोवर जल से अप्लादित थे तथा उद्यान वृक्ष और लताओं से आच्छादित थे । दुर्ग में जैन धर्मावलम्बियों की अच्छी संख्या थी। वे सभी घन सम्पत्ति मे भरपूर थे । सभी धावक चार प्रकार के दान-आहारदान, औषधिदान, शानदान एवं अभयदान के देने वाले थे । यही नहीं वे प्रतिदिन व्रत, उपवास, प्रोषध एवं सामायिक करते थे । ब्रह्म रायमल्ल को भी ऐसे ही दुर्ग में श्रावकों के मध्य कुछ समय के लिये रहना पड़ा और उन्होंने नानकों के आग्रह से वहीं पर श्रीपाल रास की रचना की ।
१. हो सोलर तीसो सुभवर्ष, हो मास आषाढ भण्यो करि हर्ष ।
तिथि तेरसि सित सोभनी, हो अनुराधा नक्षत्र सुभ सार । कर्ण जोग दीसं भला, हो सोभन कार शनिश्चरवार ।।२६।।
रास भणौं सरिपाल को । हो रणथभ्रमर सौमै कवि लास, भरीया नीर ताल बहु पास । बाग विहर वाडी घणी, हो धन कण सम्पत्ति तरणों निधान साहि अकबर राज हो । सौमै घणा जिलोसुर थान ।।२६६।।
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श्रीपाल रास
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कवि ने काव्य के अन्त में २९६ छन्दों का उल्लेख किया है जबकि रास में २६८ छन्द हैं । सम्भवतः कवि ने अन्तिम दो छन्दों को रास काव्य की छन्द संख्या मैं नहीं लिया है 1 ___हो से प्रधिका छिनचे छंद, कधियण भण्या तासु मतिमंद ।
काव्य के अन्त में कवि ने अपनी काव्य निर्माण के प्रति अनभिज्ञता प्रकट करते हुये विद्वानों से श्रीपाल रास को पढ़ कर हंसी नहीं उडाने की प्रार्थना की है ।
पद अक्षर की सुधि नहीं, हो जैसी मति बोनी आकास । पंडिस कोई मति हसी, संसो मति कीनो परकास ||२६८।।
रास भणी श्रीपाल को। कथा भाग
श्रीपालरास चौबीस तीर्थ करों की स्तुति से प्रारम्भ होता है। उज्जयिनी नगरी के राजा पापपाल के दो पुत्रियां थी । बड़ी सुरसुन्दरी एवं छोटी मैनासुन्दरी श्री । राजा ने सुरसुन्दरी को सोमशर्मा की चटशाला में पढ़ने को भेजा। जहां उसने तर्कशास्त्र, पुराण, व्याकरण आदि ग्रन्थ पढ़े। छोटी लड़की यमघर नामक मुनि के पास पढ़ने लगी। जिससे मनासुन्दरी ने भेद विज्ञान का मर्म जाना । पुत्रियों के वयस्क होने पर राजा ने सुरसुन्दरी से अपनी इच्छानुसार राजा का नाम बतलाने को कहा जिससे उसके साथ उसका विवाह किया जा सके । सुरसुन्दरी ने नामछत्रपुर के राजा का नाम लिया और पहुपपाल ने सुरसुन्दरी का तत्काल उससे विवाह कर दिया । दहेज में राजा ने हाथी, घोड़े, वस्त्र, आभूषण, दासी दास आदि बहुत से दिये ।
अस्व हस्ती बहुदाइजो, हो वस्त्र पटम्बर बह आभर्ण 1 वासी वास दिया धणा, हो मणि माणिक जव्या सोवर्ण ॥१६॥
एक दिन मैनासुन्दरी जब प्रातः पूजा से निवृत्त होकर पिता के पास आयी तो राजा ने उससे भी अपनी इच्छित वर का नाम बताने को कहा । मैना सुन्दरी प्रारम्भ से ही धार्मिक विचारों की थी इसलिये उसने उत्तर दिया कि जैसा भाग्य में लिखा होगा वही पति मिलेगा।
हो श्रापक लोग बस धनवंत, पूजा करै जनै अरहत । दान चारि सुभ सकतिस्यो, हो श्रावक व्रत पाले मनलाइ । पोसा सामादक सदा, हो मत मिथ्यात न लगता जाइ ।।२६७।।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
माता पिता कन्या का जिसके साथ विवाह कर देते हैं, लड़की उसी को अपना पति मान लेती है तथा देह और छाया के समान अभिन्न होकर रहने लगती है।
कुल कम्या तहि ने बरं, कर स्नेह जिस देह रू छोह ।।२०।।
राजा पारपान को अपनी लड़की की गट बात अच्छी नहीं लगी उस समय तो उसने कुछ नहीं कहा लेकिन एक दिन जब वह वन क्रीडा को गया तो उसे वहां एक कोढी राजकुमार मिला जिसके साथ में ७०० कोही और थे । कवि ने कोढ़ियों का जो वर्णन किया है वह निम्न प्रकार है
हो वहरी योची कोड कुजाति, खसरो कर ते वा भाति । सील पपरी बोयरी, हो बगै बाउ जहि बैसे नाक । कोट मसूरिउ जाणि जे, हो बैठे गले जिम काक ||रास।।२५|| हो को उबर सेत सरीर, वाव कोठ अति दुःख गहीर । खुसम्बो पाल रहे नहीं हो, चांदी कोख उपज साल। गलत काँच अंगुलि चुवै, हो निकले हार उपर हाल ।
राजा ने उसी के साथ मैना सुन्दरी का विवाह कर दिया । कवि ने विवाह विधि का निम्न प्रकार वर्णन किया है
हो लगन महरत बेगि लिखाई घेवो मंरप सोभा लाह । वस्त्र पटवर तारिणयां, हो वर कन्या ने तेल यहोडि । सोल सिगार जु साजिया, हो बैठा बेदी अंचल जोडि ।।311 हो यांभरए भग व झणकार, कामिणी गागै गीत सुधार । भाट भणे विडवावली, हो वर कन्या देखे नप रूप ।।
मैना सुन्दरी ने बिना कुछ विरोध किये कोढी श्रीपाल को अपना पति स्वीकार कर लिया और उसी के साथ वन में रहने को चल दी। राजा ने श्रीपाल को दहेज में बहुत धन सम्पत्ति दासी दास के साथ रहने के लिये वन में भवन भी दिया । मैना सुन्दरी श्रीपाल के साथ रहने लगी । वह प्रतिदिन भगवान जिनेन्द्र की पूजा करती । एक दिन संयोग से उसी वन में एक निनन्थ साघु आये । मैनासुन्दरी एवं श्रीपाल ने उनकी खूब सेवा सुअषा की। मुनि ने श्रावक धर्म का वर्णन किया और जीवन में उसे उतारने पर जोर दिया । अन्त में मनासुन्दरी ने श्रीपाल की कोळ मुक्ति के बारे में पूछा । इस पर मुनिश्री ने अष्टान्हिका में आठ दिन व्रत करने एवं भगवान की पूजा करने को कहा
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श्रीपाल रास
हो मुनिवर बोले सुरग कुमारि, सिद्धचक गरी संसारि । fears व्रत तुम्ह करौ, हो भाठ दिवस पूज मन लाई । आठ द्रव्य ले निर्मला हो कोढि कलेस व्याधि सह जाइ ॥ ४६ ॥
सिद्धचक्र व्रत के महात्म्य से श्रीपाल एवं उनके साथियों का कोड रोग दूर हो गया और उसके पारीर की लावण्यता चारों ओर चमकने लगी। श्रीपाल ने निम्न व्रत अंगीकार किये—
हो सिद्धच पूजा करि सार, द्वारा पेषण दान प्रहार पर्छ आप भोजन करें, हो पर कामिनी देखें निज मास 1 सत्य वचन खोले सदा, हो तरस जीउ को करें में घात ॥ ६० ॥ हो द्रव्य परायो लेइ न जाग परिग्रह तो करे परमाश । करे व्रत भावना हो, गुणव्रत तीन्यो पाले सार ।
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कोढ दूर होने पर पहिले श्रीपाल की माता उधर था गयी। इसके पश्चाद एक दिन मैनासुन्दरी के पिता ने जब श्रीपाल के अतिशय सुन्दर शरीर युक्त देखा तो उसने भी कर्म के प्रभाव को स्वीकार किया। श्रीपाल का उसने बहुत सत्कार किया और अपना साधा राज्य भी देने के लिए प्रस्ताव किया लेकिन श्रीपाल ने उसे स्वीकार श्रीपाल को वर के घर रहना नहीं किया । वे दोनों वहीं रहने लगे 1 उचित नहीं लगा तो वह इसी चिता में चिन्तित रहने लगा । ग्रन्त में वह मैनासुन्दरी से १२ वर्ष की श्राज्ञा लेकर रत्नदीप जाने का निश्चय किया । श्रीपाल के साथ मैंना ने जाने की इच्छा प्रगट की तो उसने सोता का उदाहरण दिया जिसके कारण राम को अत्यधिक कष्ट उठाने पड़े थे
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फल लागा जे राम ने हो साथि सिया में लोयां फिर 1
श्रीपाल अपनी मा के चरण छू कर विदेश यात्रा के लिये प्रस्थान किया । म्रगुच्छ तट पर
साथ रत्नद्वीप जाने
अनेक ग्राम, नगर वन एवं नदियों को पार करने के पश्चात् वह पहुंचा। उधर समुद्र तट पर धवल सेठ पांच सौ व्यापारियों के की तैयारी में था लेकिन उसके जहाज चल ही नहीं रहे थे। जब किमी निमित्त जानी मुनि से जहाज न चलने का कारण पूछा तो बतलाया गया कि जब तक बत्तीस लक्षणों से युक्त कोई युवक जहाज में नहीं बैठेगा ने अपने आदमियों को चारों श्रोर दौड़ाया। सेठ श्रीपाल को देख कर अतीव प्रसन्न हुआ श्रीपाल को लेकर धवल सेठ का जहाजी बेड़ा
तब तक जहाज नहीं चलेगा । सेठ मार्ग में इन्हें श्रीपाल मिल गया । धवल और उसका खूब आदर सत्कार किया । रवाना हुया | जब वे प्राधी दूर ही
पहुंचे थे कि बीच में उन्हें समुद्री चोर मिल गये और धवल सेड को बन्दी बना कर
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
जहाजों में भरे हुए सामान को लूट लिया । श्रीपाल से जब सबने की तो उसने धनुष-बाप लेकर लुटेरों का सामना किया और उन की। श्रीपाल को वीरता से धवल सेठ एवं उसके साथी अत्यधिक सेठ ने उसे अपना धर्मपुत्र बना लिया ।
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मिल कर प्रार्थना
पर विजय प्राप्त प्रभावित हुये और
दोहडा - कोटपाल वरिणवर कह्यो, नाइ मु............नर । एता मित्र जुतो करों से होइ सवं संधार ॥। ६६ ।।
श्रीपाल का जहाजी बेड़ा रत्नद्वीप पर था पहुंचा 1 सर्व प्रथम वह यहां के जिनमन्दिर के दर्शनार्थ गया। वहां सहस्त्रकुट चैत्यालय या । चन्द्रमशिकान्त की जहां प्रतिमाए थी। स्वर्ण के स्तम्भ थे । वेदी में पाच वर्ष की मणियां जड़ी हुई थी।
होति
कनक भ वविसि वप्पा हो पंच वर मरण वेदो जबिज । सिला सिंघासन सोभिती हो जागि विधाता प्रापण घडि ।।
उस सहस्रकूट चैत्यालय के वज्र के कपाट थे लेकिन श्रीपाल के हाथ लगते ही ये खुल गये । श्रीपाल ने बड़ी भक्ति भाव से जिनेन्द्र भगवान के दर्शन किये।
I
भ्रष्ट द्रव्य से पूजा की और अपने श्रापको दर्शन करके धन्य समझा 1
भाव भगति जिरण दिया हो करि स्नान पहरे सुभ चीर । जिरा चरण पूजा करि हो भारी हाथ लइ भरि नीर ।। १०२ ।। हो जल चंदन प्रक्षत शुभ माल नेवज द्वीप धूप भरि धाल । नालिकेर फल बहु लिया हो पुहपांजलि रवि जोड्या हाथ ।
जिरगवर गुण भास्या घणा हो जे जे स्वामी त्रिभुवन नाथ ।
रत्नदीप के विद्याधर राजा के पास मन्दिर के कपाट खुलने के सचाचार पहुंचे तो वह तत्काल वहां आया और श्रीपाल को अपना परिचय देकर अपनी सर्वगुणसम्पन्न कन्या रत्नमंजूषा से विवाह करने की प्रार्थना की। विद्याधर ने किसी अवधिज्ञानी मुनि द्वारा वज्र के कपाट खुलने वाले के साथ अपनी पुत्री के विवाह की भविष्यवाणी की बात सुनी थी। उसने अपनी पुत्री को 'गुसलावण्य पुण्य की खाति कहा । तत्काल विवाह मंडप तैयार किया गया और सात फेरों के पश्चात् वह श्रीपाल की धर्मपत्नी हो गयी। साथ में उसे अपार दहेज भी प्राप्त हुआ ।
दे विचार डाइ हस्ती, घोड़ा कनक अपार ॥ ११० ॥
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श्रीपाल रास
श्रीपाल अपनी
पत्नी के साथ अपने बेड़े पर गया। घवल सेठ और उनके सभी साथियों ने ऐसी सुन्दर वधु प्राप्त करने पर उसे बधाई दी। श्रीपाल ने अपने साथियों को बड़ा भोज दिया ।
हो निश्हर मध्य भयो जैकार, सौरीपाल दोनो ज्योणार ।
तथा जुगति संतोषीया हो कनक वस्त्र होना बहु वान । हाथ जोडि बिनती करी, हो धवल सेट्ठि नं दीनो मान ।।११३।।
एक दिन रत्नमंजूषा ने श्रीपाल से पूरा परिचय जानना चाहा। श्रीपाल ने संक्षिप्त रूप से अपना परिचय दिया और विदेश यात्रा पर श्राने का निम्न कारण बताया
हो हृमस्यों कहे बाल गोपाल, राज जवाह इह सीरोपाल । नाम पिता की फोन लेहो, मेरा मन में उपज्यो सोग । कारण सेवक cafeया हो, नकछ पटरि संजोग ।। ११८ ॥
४३
रत्नदीपस्तुओं को साथ लेकर वल सेठ ने वहां से अपने देश को प्रस्थान किया । साथ में उसके ५०० जहाजों का बेड़ा था। श्रीपाल एवं रत्नमंजूषा भी साथ थे। घवल सेठ रत्नमंजूषा का रूप लावण्य देख कर आप में नहीं रह सका । वह दिन प्रतिदिन उसके साथ सहवास की इच्छा करने लगा । श्रीपाल एवं रत्नमंजुषा के हास परिहास को देखकर वह बेहाल हो जाता और उसको प्राप्त करने का उपाय सोचता रहता ।
हो ऐसा मंजूषा सेवे कंस, घवस सेट्ठि प्रति पीस दंत ।
नींव सूख तिरषा गइ हो मंत्री जोग्य कही सहु बात सुवरि स्पौ मेली करो हो, के हों मरों करों अपघात ।।१२२||
उसके मन्त्री ने सेठ को बहुत समझाया । कीचक एवं रावण के उदाहरण
दिये । लोक में निन्दा होने की बात कही तथा श्रीपाल को धर्मपुत्र होने की बात बतलायी । लेकिन सेठ के मन पर कोई असर नहीं हुआ । ग्रन्त में सेठ ने एक दांव फेंका और उसे एक लाख का इनाम देने की बात कही
हाथ जोड़ विनती करे हो लाख टका पहली ल्यौ रोक । सुंदर हम मेलो करो, हो जाय हमारा मन को सोक ।। १२७ ।।
लाख टके की बात सुन कर मन्त्री को लोभ या गया और वह श्रीपाल के
बघ की नाल सोचने लगा । उसने जहाज के चालक ( धीमर) से मिल कर एक षडयन्त्र रचा जिसके फलस्वरूप जहाज के धीमर (मल्लाह) चोर-चोर चिल्लाने लगे ।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
श्रीपाल' यह सुन कर जहाज के ऊपर बढ़ कर चारों ओर देखने लगा 1 धोखे मे उस धीमर ने रस्सी काट दो संत श्रीपाल समुद्र में गिर गया। चारों ओर दुख छा गया । रणामंजूषा विलाप करने लगी। उसने अपने सभी आभूषण छोड़ दिये तथा दिन रात आंसू बहाने लगी।
.........""हो रण मंजूसा करे पुकार, सिर कूट होयो हसे
हो कहगो कोडी भट भरतार ॥१३०11
कामान्य घवलसेक ने अपनी एक दूती को रत्नमंजूषा के पास भेज कर उसे फुसलाना चाहा । दुती ने सेठ के वैभव की बात कही तथा मनुष्य जन्म की सार्थकता "खाजे पीजे विलसीजे हो, अवर जनम की कही न जाइ" इन शब्दों में बतलायी । रत्नमंजुषा के शरीर में उस पतिता की बात सुन पसीना आ गया और उसकी निम्न शब्दों में भर्त्सना करके उसे अपने यहां से निकाल दिया
हो सुरणी सुदरी कणि बात हो उपनो दुख पसीनो गात । कोय करिवि सा वीनों हो नरक थे बेगि जाहि प्रब रांग पाप वचन से भासिया हो इसा बोल थे होसी भांड ॥१३४।।
इसके पश्चात् वह कामान्ध सेठ स्वयं उसके पास चला गया और कहने लगा
हाप जोजि बीनती करें, हो हम उपरि करि क्या पसाउ काम अग्नि तनु बासीयो हो राहय बोस हमारो भाउ ।३१३५॥
रत्नमंजूषा ने सेठ को अनेकों युक्तियों से पतियत धर्म के बारे में कहा तथा दुश्चरित्र होने पर इस जन्म में ही नहीं दूसरे जन्म में भी जो नरक यातनाएं भोगनी पड़ती है उसके सम्बन्ध में कितने ही उदाहरण प्रस्तुत किये । लेकिन घबल सेठ के एक भी बात समझ में नहीं प्रायी। उसने रस्नमंजुषा का हाथ पकड़ लिया । इतने में ही एक दैवी घटना घटी और रनमंजूषा के शील की रक्षार्थ जिनशासनदेव, ज्वाला मालिनी देवी, वायु कुमार और चकेश्वरी देवी वहां प्रगट होकर धवल सेठ की बुरी तरह दुर्गति की ।
हो ज्याला मालिणी देवी प्राइ, बौनी मोहरिण अग्नि लगाइ रोहिणी पौधों टंकियो हो विष्टा मुख में दीनी सि । लात घरका प्रति हरण, हो सांकल तौष गला मे मेलि ।।१४।।
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श्रीपाल रास हो पातकुमार जब तब प्राइ, दीनौ प्रधिको पवन चलाइ । जल कोलोल बहू उच्छल हो चक्केसरि प्रति कोनौ कोप । प्रोहण फेरै चक्र ज्यों हो, अंधकार करियो पाटोप ।। १४२।। हो अंवा ताते छुड़के तेलि, मूत नासिका दोनो ठेलि । छेदन भेदन वुःख सहै हो मणिभद्र प्रायो तहि ठाउ ।
मार मार मुखि उच्चर हो, धवल सेठ मुखि सुहेडसाइ ॥१४३।।
धवल रोठ चारों ओर विपत्ति को देखकर तथा अमहाय वेदना झेल कर रत्नमंजूषा के चरणों में गिर पड़ा और उससे क्षमा मांगने लगा और अपने किये पर पश्चाताप करने लगा। रत्नमंजूषा को उस पर दया आ गयी और चक्रेश्वरी प्रादि देबियों से उसे छोड़ देने की प्रार्थना की।
उघर श्रीपाल ने समुद्र में गिरने के पश्चात् णमोकार मंत्र का स्मरण किया। कवि ने सामोकार मन्त्र की प्रभावना का भी वर्णन किया है। अनायास ही एक लकड़ी का बड़ा टुकड़ा उसके हाथ आ गया । श्रीपाल उस पर बैठ गया और समुद्र के किनारे जा लगा ! किनारे पर ही उस द्वीप के राजा के दो सेवक थीपाल की ही प्रतीक्षा कर रहे थे। उस द्वीप का नाम या 'दलवणपदण' तथा शासक का नाम धनपाल था । गुणमाला उसकी पुत्री थी । राजा ने जन्न एक बार मुनि से उसके विवाह की चर्चा की तो मुनि ने भविष्यवाणी की थी कि श्रीपाल इस समुद्र को तैर कर भावेगा और यही गुणमाला का पति होगा। सेवकों ने जाकर तत्काल राजा से निवेदन किया । धनपाल चिर अभिलाषित कुमार को पाकर अत्यधिक हर्णित हुआ
और किनारे पर पाकर श्रीपाल से मेंट की। श्रीपाल के स्वागत में बाजा बजने लगे तथा चारण विस्दावालो गाने लगे।
हो भयो हरष राजा धनपाल, गयो सामुही जहां सिरौपाल । नपा छाडिउ जुर्मासस्यौ, हो मेरी नफेरो नाद मिसाण ।
साहण सेना साखती हो चारण बोले विजा बखाए ।। ११२॥
धनपाल ने श्रीपाल को कंठ लगाया । कुशल क्षेम पूछी तया उसे हाथी पर बिठला कर 'दलपटण' नगर में प्रवेश किया । सत्काल विवाह मंगर मा उसमें श्रीपाल और गुणमाला का विवाह संपन्न हुमा । हज य ग
.. कितने ही गांव दिये -
हो भावरि सात किरिल बई भाकिम किया .... राजा पोतो डाइको हो
। . बेस ग्राम बीमा
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
श्रीपाल और गुणमाला सुख से वहीं रहने लगे। इतने में ही धवल सेठ का जहाज भी संयोग से उसी द्वीप में भा गया । राजा ने सेठ का बहुत आदर सत्कार किया तथा उसे राज्य सभा में आमन्त्रित करके उचित सम्मान किया । सेठ ने श्रीपाल को भी वहीं देखा । नुप्तरूप से श्रीपाल के बारे में जानकर सेठ उससे डर गया । और एक बार फिर उसे राजद्धार से निकालने की मुक्ति सोची । वह एक ड्रम को बुला कर राज्य सभा में श्रीपाल को अपना सम्बन्धी बतलाने को कहा । ड्रम और डूमनी सपरिवार राज्य सभा में प्राकर विविध खेल दिखाने लगे और श्रीपाल को भी अपने ही परिवार का सिद्ध करने में सफल हो गये ।
उमा पाखंड मोडियो हो रह्या सुभट ने कंठि लगाइ ।। १७८ ।। हो एक ड्रमडो उट्ठी रोई, मेरो सगौ भतीजो होइ । एक उमड़ी बोन हो इह मेरी पुत्री भरतार । बहुत दिवस थे पाइयो हो कामि तजि किम गयो गवार । पालि पोसि मोटा किया हो करी सडाइ भोजन जोग 1 समूा माझ लहुडर पडिख, हो साधौ प्रादे कर्म के जोग ॥ १० ॥
राजा धनपाल ने श्रीपाल को ड्रम का पुत्र मान कर उसे तत्काल सूली लगाने का आदेश दिया । श्रीपाल ने फिर अपने ऊपर प्रामी हुई विपत्ति देख कर शांत भाव से उसे सहने का निश्चय किया । उसे बुरे हाल में सूली पर ले जाया गया 1 रोती पीटती गुणमाला भी वहीं भा पहुंची और श्रीपाल से वास्तविक बात जाननी चहीं । श्रीपाल ने घवल सेठ के जहाज में बैठी हुई अपनी पत्नी रलमंजूषा से उसके बारे में पता लगाने को कहा । गुणमाला दोड़ती हुई उसके पास गई और श्रीपाल का जीवन वृतांत जान कर रत्नमंजूषा को साथ लेकर राजा के पास प्रायी। रत्नमंजूषा ने श्रीपाल के बारे में राजा से पूरा वृतांत कहा और उसके साहसिक कार्यों की पूरी जानकारी दी । तत्काल राजा ने जाकर श्रीपाल से क्षमा मांगी और फिर ससम्मान उसे नगर में घुमा कर राज्य दरबार में लाया गया। धवल सेठ को जाल रचने के अपराध में तत्काल वन्धन में डाल दिया और बहुत कुरा हाल किया।
हो राजा किंफर पठाया घरणा, औरणो बंषि धवल सेठ तक्षणा वधि सेटि ले आइया हो मारत बार न सेका करें । मत वियो महु नासिका हो प्रौधों मुल पग ऊंचा करें ॥१६
लेकिन पुनः श्रीपाल ने रोठ को अपना धर्म पिता बतला कर उसे छुड़ा दिया। मह अपने साथियों से जाकर मिला । उसका अत्यधिक सम्मान किया गया। उन्हें सामूहिक भोजन कराया और पूरी तरह से उनका मातिथ्य किया। श्रीपाल के प्रत्यधिक
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श्रीपाल रास
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विनय को लेकर पवन से अपने जीवन को धिक्कारने लगा और इसी बीच वहीं उसकी मृत्यु हो गयी। यहां कवि ने फिर दृष्टान्तों द्वारा चरित्र हीनता को नरक घंध, अपयश एवं नीच गति का प्रमुख कारण बतलाया है ।
श्रीपाल अपनी दोनों पत्नियों के साथ सुख पूर्वक रहने लगा । दिनों को जाते देर नहीं लगती । कुछ समय पश्चात् वहां कुकरा देश से एक दूत पाया और श्रीपाल को यहाँ के राजा की पाठ कन्यानों के प्रश्नों का समाधान करने के पश्चात् विवाह करने के लिये निदेगन कियः ! श्रीपाल ने की बात स्वीकार करली और तत्काल कुकरण देश के लिये रवाना हो गया | वहां जाने पर श्रीपाल का खूब स्वागत किया गया और पाठ कन्याओं से उसकी मेंट करायी गयी । श्रीपाल से उनकी समस्यामों का समाधान करने के लिये निवेदन किया जिसे श्रीपाल ने सहर्ष स्वीकार कर लिया । पहिले सबसे बड़ी राज कुमारी ने इस प्रकार समस्या रखी
सुभग गौरि घोली बड़ी, हो कोडीभर सुरिण मेरो युधि ।
तोनि पवा भागे कहो, हो साहस जहां तहाँ हो सिडि। श्रीपाल ने इसका निम्न प्रकार समाधान किया
हो सुण्या वचन बोल वरवीर, सुगडु कुमारि चित्त करि धीर । सत्त सरीर हस्यों रहे हो चदै कर्म तेसो ही बुधि ।
उविम तउ न छोडि जे, हो साहस जहां तहां ही सिद्धि । सोमा देवी ने अपनी समस्मा इस प्रकार रखी
हो सोमा देवी को विधार कोण धर्म जगि तारणहार । सुरिण कोडी भड बोलिया हो ग्यारह प्रतिमा श्रावक सार ।
तेरह विधि प्रत मुनि तणा, हो कुण धर्म जगि तारण हार । एक राजकुमारी से पद का प्रश्न एवं श्रीपाल का उत्तर निम्न प्रकार था
हो संपव बोलो धचन सुमोठ्ठ, सो न सजे विरसा विट्छ । सिरीपाल उत्तर दियो, हो दोष मढाइ मध्य पडदछ ।
दुरी पराइ ना कहे हो सो नर तौब विरला वोट ।
इस प्रकार श्रीपाल ने पाठों राज कन्यामों के प्रश्नों का समाधान कर दिया। और फिर अत्यधिक हर्ष और उल्लास के मध्य आठों राजकन्याओं से उसका विवाह हो गया । श्रीपाल विविध सुख साधनों के मध्य रहने लगे। दिनों को जाते देर नहीं लगती और इस प्रकार बारह वर्ष व्यतीत होने को आने लगे । उसे वहां मनासुन्दरी
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४
महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
का ध्यान प्राया । और बह तत्काल अपनी आठ हजार रागियों तथा आठ हजार सेना घोड़ें, हाथी रथ आदि के साथ वह उज्जयिनी पहुंचा।
उघर मैनासुन्दरी अपने प्रियतम की प्रतीक्षा कर रही थी। उसने एक एक दिन गिन कर बारह वर्ष व्यतीत किये थे। और जब श्रीपाल को अवधि समाप्त होने पर भी आता हुआ नहीं देखा तो उसने अपनी सास से सब संकल्प विकल्प छोड़ कर प्रातः आर्यिका दीक्षा लेने की बात कही । सास ने दस दिन तक और प्रतीक्षा करने के लिपे कहा । दस दिन मनार होने केही कविसमार श्रीवाल की पहुंच गया। सबसे पहिले उसने माता के चरणा छुए और फिर मैनासुन्दरी ने श्रीपाल की वन्दना की । बारह वर्षों की घटनामों की जानकारी श्रीपाब ने अपनी माता एवं पत्नी को दी । तत्काल वह माता कौर मंना को अपने सैन्यदल में ले गया और बारह वर्ष में जिन जिन वस्तुओं की उपलब्धि हुई थी उन्हें दिखायी।
श्रीपाल ने अपना एक दूत उपिनों के राजा के पास उसकी अधीनता स्वीकार करने के लिये भेजा तथा "कंघि कुहाडी कंबल प्रोढ कर" भेंट करने के लिए कहा । पहिले तो राजा ने दूत को भला बुरा कहा लेकिन दूत ने जब समझाया तो राजा ने बात मानली और हाथी पर बैठ बह श्रीपाल से मिलने आया। दोनों जब परस्पर मिले तो चारों और अतीव आनन्द छा गया। नगर में विभिन्न उत्सव मनाये गये तथा श्रीपाल' का राजा एवं नागरिकों की ओर से विविध मेंट देकर सम्मान किया गया । श्रीपाल ने उज्जयिनी में कुछ समय व्यतीत किया ।
अन्त उसने अपने देश लौटने का निश्चय किमा । अपने पूर्ण सैन्यदल के साथ वह चम्पा के लिये रवाना हुग्रा और नगर के समीप आकर डेरा डाल दिया। श्रीपाल ने अपना एक दूत वीर दमन राजा के पास भेजा और पुरानी बातों की याद दिलाते हुये अधीनता स्वीकार करने के लिये आदेश दिया। वीरदमन ने दूत की की बार स्वीकार नहीं की और युद्ध के लिए दूत को ललकारा। दोनों की सेनाओं ने युद्ध के लिये प्रयाण किया ।
हो भाटि मानियो रणसंग्राम, प्रायो कोडी भा के ठाम । बात पाश्विी सह कही,
.......... .""हो सिंधूडा वाजिया निसाग | सूर किरणि सूझ नहीं, हो उडो खेह सागी असमान ।।२५७।। हो घोड़ा मूमि खणं सुरताल, हो जारिणकि जलटिन मेघ प्रकास रथ हस्ती बहु साखती हो वह पक्ष को सेना चली। सुभग संजोग संभालिया हो अशी बुहं राजा को मिलो ।
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श्रीपाल रास
४६ लिये मही निश्चय किया गया कि दोनों राजारों में ही परस्पर में युद्ध हो जावे और उसमें जो विजयी हो वही राजा बने । श्रीपाल एवं वीरदमन में परस्पर युद्ध हुआ । श्रीपाल ने सहज में ही उसे पराजित कर दिया ।
श्रीपाल ने जीतने पर भी अपने वृद्ध काका से राज्य करने का अनुरोध किया। वीरदमन ने श्रीपाल के इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया और संयम धारण करने का निश्चय किया। श्रीपाल ने लम्बे समय तक देश का शासन किया और प्रजा को सब प्रकार से सुखी रस्त्रा। एक बार नगर के बाहर श्रुतसागर मुनि का आगमन हुआ । श्रीपाल ने भक्तिपूर्वक बन्दना की और अपने जीवन में प्राने वाली विविध घटनाओं के कारणों के बारे में मुनिराज से जानना चाहा । श्रुतसागर ने विस्तार पूर्वक श्रीपाल को उसके पूर्व भव में किये हुये अच्छे बुरे कार्यों के बारे में बतलाया ।
श्रीपाल फिर सुख से राज्य करने लगा। प्रतिदिन देवदर्शन, पूजन, सामायिक एवं स्वाध्याय उसके दैनिक जीवन के अंग बन गये । एक दिन जब वह वन क्रीड़ा के लिये गया तो मार्ग में कीचड़ में फंसे हाथी को देख कर उसे वैराम्य उत्पन्न हो गया और उसने दिगम्बरी दीक्षा धारण करली । उसके साथ मैनासुन्दरी सहित अन्य स्त्रियों ने भी आर्यिका दीक्षा स्वीकार कर ली। अन्त में श्रीपाल ने कर्म बन्धन को काट कर मोक्ष प्राप्त किया तथा मनासुन्दरी सहित अन्य रानियों को अपने-अपने तप के अनुसार स्वर्ग की प्राप्ति हुई। कवि ने इस प्रकार २६६ छन्दों में श्रीपाल एवं मैनासुन्दरी के जीवन पर विस्तृत प्रकाश डाला है । उसने अन्त के ५ छन्दों में अपना परिचय दिया है जो निम्न प्रकार है .
हो मूलसंध मुनि प्रगटो जाणि, कीरति अनंत सीस को वॉरिण । तास तरणी सिष्य जारिणज्यो, हो ब्रह्म रायमल्ल दिद्ध करि चिस । भाउ भेव जाणे नहीं हो तहि विट्ठो सिरोपाल चरित्त ||२६४।।
हो सोलहसे तीसौ सुभ वर्ष, हो मास असाढ मण्यो फरि हर्ष । तिथि तेरसि सिप्स सोममी, ही अनुराधा नक्षत्र शुभ सार | करणं जोग बीसे अला, हो सोमन बार शनिश्चरवार ||२६५।।
हो रगमभ्रमर सोभ कविलास, भरिया नीर ताल चहु पास । बाग विहरि धाडी घणो हो, धन करण संपति तणों निधान | साहि अफवर राज हो, सो घणा जिरासुर थान ।।२९६||
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महाकवि ब्रह्म राममल्ल
हो शावक लोक मस धनयंत, पूजा कर जप अरहस । दान चारि भुभ सकत्ति स्पो हो श्रावक व्रत पाले मन लाइ । पोसा सामाइक सबा हो, मत मिथ्यात न लगता जाइ || १६७।। हो हं से अधिका छिन छंच, करियण भण्यौ तासु मति मंद । पर प्रक्षर की सुधि नहीं, हो जसो मति बौनी मोकास | पंजित कोई मत्ति हसौ, तैसी मति कीनो परगास ।।२६८।।
रास भरखो श्रीपाल को ।। इति श्रीगाल रास समाप्ता । भोपाल : राजा का काव्य ई इस में राजस्थानी शब्दों का पूरा प्रयोग हुआ है । कवि ने 'श्रीपाल' शब्द का भी 'सीरीपाल' शब्द के रूप में प्रमोग करके उसे राजस्थानी भाषा का रूप दिया है। लहडी (१३) डाइजो (१६) जिणवर पूजण (१७), ज्योरणार (११३), जवाइ १११८), रांड (१३४), भांवरि (१६६) जैसे शब्दों को रास काव्य में भरमार है। यही नहीं जुगलियों, चल्यो, मिल्यो, सुण्या, बाण्या, नैणा, रेगमंजुसा, जिएको, भणं जैसे ठेठ राजस्थानी शब्द कषि को अत्यधिक प्रिय रहे हैं। संवत् १६३० में यह काव्य रणथम्भौर में लिखा गया था।
अकबर के शासन में होने के कारण उस समय वहां फारसी, अरबी जैसी भाषानों का जोर अवश्य होगा । लेकिन इस काव्य में उनके एक भी शल्द का प्रयोग नहीं होना कषि की अपनी भाषा में काव्य लिखने की कट्टरता जान पद्धती है। इतना अवश्य है कि उसने काव्य को तत्कालीन बोलचाल की भाषा में लिखा है । कविवर का द्वाड प्रदेश से अधिक सम्बन्ध रहने के कारण वह यहां की सौदी सादी भाषा का प्रेमी था। इसलिये रास को दुरूह शब्दों के प्रयोग से यथाराम्भव दुर रखा गया है।
श्रीपाल के जीवन में बराबर उतार चढाव आते हैं। कभी वह कुष्ट रोग से ग्रसित होकर अत्यधिक दुर्गन्ध युक्त देह को प्राप्त करता है तो कभी उसका रूप लावषय ऐसा निम्नर जाता है कि उसकी कहीं उपमा नहीं मिलती। रत्नद्रा में जाने पर उसे पूरा राजकीय सम्मान प्राप्त होता है रूप लावण्य' युक्त रत्नमंजूषा जैसी सुन्दर वधु प्राप्त होती है किन्तु यही वधु उसको समुद्र में गिराने का कारण बनती है । समुद को वह पार करने में सफल होता है और पुनः दुगरे द्वीप में पहुंच जाता है जहां उसका राजसी स्वागत ही नहीं होता क्रिन्तु गुणमाला जैसी राजकन्या
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श्रीपाल रास
भी बंधू के रूप में प्राप्त होती हैं । यहां भी विपत्ति उसका साथ नहीं छोड़ती और पवल सेठ के एक षडयन्त्र में उसे हम पुत्र सिद्ध होने पर सूली की सजा मिलती है लेकिन दैव योग से उस विपत्ति से भी वह बच जाता है और फिर उसे राज्य सम्पदा प्राप्त होती है । इसके पश्चात् उसकी सम्पत्ति एवं ऐश्वयं में दिन प्रतिदिन वृद्धि होती रहती है । अन्त में वह स्वदेश लौटता है और चम्पा का राज्य करने में सफल होता है।
श्रीपाल का जीवन विशेषताओं से भरा पड़ा है। वह "बाव जिसो तीसौ लणी" में पूर्ण विश्वास रखता है । सिद्धचक्र पूजा से उसको कुष्ट रोग से मुक्ति मिलती है। कवि ने उसका "गयो कोह जिम माहि कंचुली" उपमा से वर्णन किया है । प्रतिदिन देवदर्शन करना, पूजा करना, आहार दान के लिये द्वार पर खड़े होना, सत्य भाषण करना, त्रस जीवों का घात नहीं करना, ग्रादि उसके जीवन के अंग थे। वह अत्यन्त विनयी था तथा क्षमाशील था। पवल सेठं द्वारा निरन्तर उसके साथ धोखा करने पर भी उसने राजा के बंधन से मुक्त करा दिया । बीरदमन को पराजित करने पर भी उसे राज्य कार्य सम्हालने के लिये निवेदन करना उसके महान् व्यक्तित्व का परिचायक है।
काव्य का नायक श्रीपाल है । मैनासुन्दरी यद्यपि प्रधान नामिका है लेकिन विदेश गमन से लेकर वापिस स्वदेश लौटने तक वह काव्य में उपेक्षित रहती है और नायिका का स्थान ले लेती है रत्नमंजूषा एवं गुणमाला । काव्य में कोई भी प्रतिनायक नही है । यद्यपि कुछ समय के लिये धवल सेठ का व्यक्तित्व प्रतिनायक के रूप में उभरता है लेकिन कुछ समय पश्चात् उसका नामल्लेख भी नहीं प्राता और रास के प्रारम्भिक एवं अन्तिम भाग में प्रोझल रहता है।।
ब्रह्म राममल्ल ने काव्य में सामाजिक तत्वों को भी वर्णन किया है। रास में चार बार विवाह के प्रसंग पाते हैं और यह उनका प्रायः एकसा ही वर्णन करता है विवाह के अवसर पर गीत गाये जाते थे । लगन लिखाते थे। मंडप एवं वेदी की रचना होती थी । आम के पत्तों की माला बांधी जाती थी। लगन के लिये ब्राह्मण को बुलाया जाता था। विवाह अग्नि और ब्राह्मण की साक्षी से होता था। दहेज देने की प्रथा थी । दहेज में स्वर्ण, वस्त्र, हाथी थोड़े, दासी-दास और यहां तक गांव भी दिये जाते थे । शुभ अवसरों पर जीमनवार होती थी। स्वयं श्रीपाल ने दो बार अपनी साथियों को जीमण कराया था।
श्रीपास रास में एक दोहा छन्द को छोड़ कर शेष सब पद्य रास छन्द में लिखे हुये हैं । यह संगीत प्रधान काव्य है जिसमें प्रत्येक छन्द के अन्त में 'रास भणों
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५.२
महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
श्रीपाल को यह अन्तरा आता है तथा छन्द की प्रत्येक पंक्ति में 'हो' शब्द का प्रयोग हुआ है जो भी छन्द का सस्वर पाठ करने में काम आता है ।
भविष्यदत्त चौपई
भविष्यदत्त का जीवन जैन कवियों के लिये अत्यधिक प्रिय रहा है। प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत एवं हिन्दी सभी में भविष्यदत्त के जीवन पर अनेक रचनाएं मिलती है । हिन्दी में उपलब्ध होने वाली कृतियों में ब्रह्म जिनदास, विद्याभूषणा एवं ब्रह्म रायमल्ल की कृतियाँ उल्लेखनीय है । ब्रह्म रायमल्ल की यह कृति संवत् १६३३ की रचना है जिसे उसने सांगानेर नगर में महाराजा भगवन्तदास के शासन में सम्पूर्ण की थी । कवि ने अपनी कृति को कहीं पर रास, कहीं पर कथा और कहीं चौपई नाम से सम्बोधित किया है ।
भविष्यदत्त पपई कवि की महत्वपूर्ण कृति है । कथा का प्रारम्भ मंगलाघर से हुआ है । भरत क्षेत्र में करूजांगल देश और उसी में हस्तिनापुर नगर था । तीर्थंकरों के कल्याणक होने के कारण वहां सभी समृद्ध थे। चारों और शान्ति एवं श्रानन्द व्याप्त था । उसी नगर में धनबइ सेठ रहता था। उसका विवाह उसी नगर के दूसरे सेठ धनश्री की पुत्री कमलश्री के साथ हुआ। एक दिन उसी नगर में एक मुनि का आगमन हुआ । धनवई सेठ ने मुनिश्री से सन्तान के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि उसके मूवोग्य पुत्र होगा जो अन्त में मुनि दीक्षा धारण करेगा । कुछ समय पश्चात् कमलश्री ने पुत्र को जन्म दिया । पुत्र जन्म पर विविध उत्सव किये गये तथा स्वयं नगर के राजा ने आकर सेठ को बधाई दी। सेठ ने भी दिल खोल कर नृत्य खर्च किया | बालक का नाम भविष्यदत्त रखा गया । सात वर्ष का होने पर उसे पढ़ने बिठा दिया गया -
बालक बरस सात को भयो, पंडित आगे पढो दियो । कीया महोछा जिरवरि ध्यानि, सजन जन बहु दीन्हा दान ।
कुछ समय पण्चात् सेठ धनवइ को अकस्मात् कमलश्री मेघा हो गयी और उसने तत्काल अपने घर से चले जाने को कह दिया। कमलधी ने बहुत प्रार्थना की लेकिन सेठ ने एक भी नहीं सुनी और अन्त में वह अपने पिता के पास गयी । कमली के अचानक घर आने पर उसके माता-पिता को उसके चरित्र पर सन्देह लगा इतने में धननद के मन्त्री ने व्याकर सबका भ्रम दूर कर दिया । कमलभी अपने पिता के घर सुखचैन से रहने लगीं। धनवइ का दूसरा विवाह कमलश्री की छोटी बहिन रूपा से हो गया। विवाह बहुत ही उत्साह और ग्रानन्द के साथ हुआ ।
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भविष्यदत्त चौपई
दोनों पति-पत्नि मुखपूर्वक रहने लगे । सरूपा के कुछ वर्षों पश्चात् पुष हुषा जिसका नाम बन्धुदत्त रखा गया । वह बड़ा हुना और रत्नदीप में हमापार के लिये जाने तैयार हो गया। पिता की प्राज्ञा पाकर उसने ५०० अन्य साथियों को भी ले लिया। जब भविष्यदत्त ने अपने भाई को व्यापार के लिये जाने की बात मुनी तो उराने भी भी उसके साथ जाने की इच्छा प्रकट की और अपनी माता में प्राज्ञा लेकर भाई के साथ हो गया । लेकिन सरूपा ने बन्धुदत्त को कहा कि वह उसका बड़ा भाई है इसलिये संपत्ति का मालिक भी वही होगा । अतः अच्छा यही है कि मार्ग में भविष्यदत्त का काम ही तमाम कर दिया जाये।
बन्धुदत्त अपने साथियों के साथ व्यापार के लिए चला। साथ में किरारणा एवं अन्य सामग्री ली। वे समुद्र तट पर पहुंचे और शुभ मुहरत देख कर जहाज से रत्नद्वीप के लिये प्रस्थान किया । वे धीरे-धीरे प्रागे बढ़ने लगे। जब अनुकूल हवा होती तब ही वे प्रागे बढते 1 बहुत दिनों के पश्चान् जन उन्होंने मदन द्वीप को देखा तो अत्यधिक हषित होकर वहां उतर पड़े और वहां की शोभा निहारने लगे । जब भविष्यदत्त फूल चुनने के लिये चला गया तो बन्धुदत्त के मन में पाप उपजा और अपने भाई को वहीं छोड़ कर भागे चल दिया ।
भवसदत फल लेगा गयो, बंधुत्त पापी देखियो । बात विचारी माता तणो, मन में कुमति उपजी परणी।।२०।।
भविष्यदत्त बहुत रोया चिल्लाया लेकिन वहां उसकी कौन सुनने वाला था । अन्त में हाथ मुंह धोकर एक शिला पर गंच परमेष्ठी का ध्यान करने लगा । रात्रि को वहीं शिलातल पर सो गया। प्रातः होने पर वह एक उजाइ बन में होकर नगर में पहुंच गया और जिन मन्दिर देख कर वह उसी में चला गया और भक्तिपूर्वक भगवान की पूजा करने लगा। उसने अत्यधिक भक्ति से जिनेन्द्र की पूजा की। पूजा करने के पश्चात् वह थक कर सो गया ।
इसी बीच पूर्व विदेह क्षेत्र में यशोधर मुनि से अच्युत स्वर्ग का इन्द्र अपने पूर्व जन्म के मित्र चमित्र के बारे में पूछता है वह किस गति में है। मुनिराज इन्द्र को पूरा वृत्तान्त सुनाते हैं और ना कहते हैं कि इस समय वह तिलक द्वीप के नगर में चन्द्रप्रभु मन्दिर में है । मुनि के वचनों को सुन कर देवेन्द्र उस मन्दिर में गया और उसे मोता हुआ देखकर मन्दिर की दीवाल पर उसने लिखा कि हे मित्र उत्तर दिशा में पांचवें घर में एक मृन्दर कुमारी है वह उसकी प्रतीक्षा में है। वह उससे विवाह करले । उस इन्द्र ने मणिभद्र को यह भी कह दिया कि वह भविष्यदत्त का समय समय पर ध्यान रखे । जब वह निद्रा से उठा और सामने लिखे हुए प्रक्षर
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
पढे तो वह उसी के अनुसार पांचवे मकान में चला गया। जब उसने अत्यधिक रूपवती कन्या को देखा तो वह विस्मय करने लगा
को पाह सुर्ग अपछरा कोह, नाग कुमारि परतषि होइ । बम देवी लिष्ट इह पानि,भवसक्त ममि भयो गुमिान ।।५५।।
कन्या द्वारा भविष्य दत्त का बहुत सम्मान किया गया और विविध प्रकार के व्यंजन भोजन के लिए तैयार किये गये और अन्त में उस नगरी के उजड़ने का कारण भी उसने बतलाया और कहा कि इस नगर का राजा यशोधन था। भवदत्त उसके पिता थे जो नगर सेठ थे । माता का नाम मदनवेगा था। उसकी वही पुत्री का नाम नागश्री एवं छोटी का नाम था भविष्यानुरूपा, जो मैं हुं । उसने कहा कि एक व्यंतर ने सारे नगर को उजाडा । पता नहीं उसने उसे कैसे छोड़ दिया। विष्यदत्त ने अपना नतान्त भी भविष्यानुरूपा से निम्न प्रकार कहा
भरत क्षेत्र कुर जांगल देस, हथिरणापुर भूपाल नरेस । धनपति सेठि यसो तहि हाम, तासु तीया कमलश्री नाम । भविसवत हों तहि को बाल, सुख में जातन जाणे काल ।
जो मात सरूपरिण पुन, पंडिस नाम वियो बंधुदत्त । मोहण पूरि दीप ने चल्यो, हो परिण सानि तास को मिल्यो सी पापी मति दीगो भयो, मदन दीप मुझे छाडि वि गयो कर्म जोग पदरण पावियो, इहि विषि तुम थानक अइयो ।।११।।
एक दूसरे का परिचय होने के पश्चात् जब भविष्यानुरूपा ने भविष्पदत्त से उसे स्त्री के रूप में अंगीगार करने के लिये कहा तो भविष्यदत्त ने बिना किसी के दी हुई वस्तु को लेने में असर्थता प्रगट की तथा कहा कि यदि वह व्यंतर देव उसे सौंप देगा तो उसको स्वीकार करने में कोई प्रापत्ति नहीं होगी। कुछ समय पश्चात् वहां व्यंतर देव प्राया और एक मनुष्य को देख कर अत्यधिक क्रोधित हो गया । लेकिन भविष्यदत्त ने उसे लडने के लिए ललकारा । अन्त में जब उसे मालूम पड़ा कि वह उसी का पूर्व भव का मित्र है तो वह उसका घनिष्ठ मित्र बन गया । व्यन्तर देव ने भविष्यानुरूपा का विवाह उसके साथ कर दिया और भविष्दत्त को मदनद्वीप का राज्य सौंप कर वहां से चला गया। भविष्यदत्त एवं भविष्यानुरूप यहां पर सुख से रहने लगे।
उधर भविष्यदत्त के वियोग में उसकी माता कमलश्री चिन्तित रहने लगी। एक दिन वह प्रायिका के पास गयी और अपने पुत्र के बारे में जानना चाहा ।
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भविष्यदत्त चौपई
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प्रायिका ने उसे श्रत पंचमी व्रत पालन का उपदेश दिया। उसने कहा कि आशढ सुदी पंचमी को प्रथम बार इस व्रत को ग्रहाण करके कानिक, फागुन या आषाढ़ की पहली शुक्ल पंचमी को व्रत का प्रारम्भ करके उस दिन उपवास करना चाहिये तथा षष्ठी के दिन एक बार प्रहार करना चाहिये तथा जिनेन्द्र देव की पूजा करनी चाहिये । इन दिनों में अत्यधिक संयम पूर्वक जीवन बिताना चाहिये । यह व्रत पांच वर्ष एवं पचि महिने तक होता है। उसकी वाद उद्यान करना चाहिये । यदि उद्यापन करने की स्थिति नहीं हो तो दुगने समय तक इस व्रत का पालन करना चाहिये । कमलथी ने श्रुत पंचमी के व्रत को अंगीकार कर लिया और उसका उद्मापन भी कर दिया इसके पश्चात् भी जब उसका पुत्र नहीं पाया तो वह प्रायिका उसे मुनि श्री के पास ले गयी जो मन्दिर में विराजे हुए थे। वे मुनि अवधिज्ञानी थे। इसलिये कमल श्री के पूछने पर मुनि महाराज ने कहा कि उसका पुत्र अभी जीवित है । वह द्वीपान्तर में सुख से रह रहा है । यहां आने पर वह प्राधे राज्य का स्वामी होगा । कमलश्री फिर भविष्यदत्त के पाने के दिन गिनने लगी।
एक दिन भविष्यरूपा में भविष्यदल से अपनी ससुराल के बारे में फिर पूछा। तत्काल भविष्यदत्त को अपने माता के दुखों का स्मरण या गया । वह पछनाने लगा मौर शीघ्न ही हस्तिनापुर जाने की तैयारी करने लगा । वे बहुत से मोती. माणिक आदि लेकर उसी गुफा में होकर समुद्र तट पर आ गये और हम्तीनापुर जाने वाले जहाज की प्रतीक्षा करने लगे। कुछ दिनों पश्चात् वहां बन्दत्त का जहाज भी पा गया बन्धुदत्त का बहुत बुरा हाल था । उसके पास न खाने को था और न पहिनने को । सर्व प्रथम पह भविष्यदत्त को पहिचान भी नही सका । लेकिन फिर दोनों भाई गले मिले । बन्धुदत्त ने अपने बड़े भाई से क्षमा मांगी। भविष्यदत्त ने सबका यथोचित सम्मान किया और ज्योंही वह जहाज़ पर बैठ कर चलने को हुप्रा भविष्यानुरूपा को नागशय्या एवं नागमुद्रिका की याद मा गयो । भविष्यदत्त जब नागमुद्रिका लेने को गया, बन्धुदत्त ने जहाज घालबा दिया । भविष्यदत्त फिर अकेला रह गया । भविष्यदत्त खूब रोया चिल्लाया और अन्त में मूछित होकर गिर पड़ा। कुछ देर बाद उसे होश आया तो वह उठ कर फिर तिलकद्वीप में चला गया । वहां भी वह अपने सूने मकान को देख कर रोने लगा। अन्त में चन्द्रप्रभु जिनालय जाकर भगवान की पूजा करने लगा।
इधर बन्धुदत्त का मन वाराना में भर गया और वह भविष्यानुरूपा से मनोकामना पूरी करने के लिये कहने लगा। किन्नु वह अपने शोल पर दृढ रह कर उसे परमार्थ का उपदेश देने लगी। जहाज अन्त में तट पर आ गया । और व हस्तिनापुर पहुंच गये । बन्धुदत्त के पहुंचने पर माता पिता हर्षित हुये। लेकिन
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
जब कमलधी ने परिणाम के बारे में : छ पो रे मोई उन्ना नहीं दिया 1 बह फिर आयिका के पास गयी और उसने उससे भविष्यदत्त एक माह में प्रा जावेगा' यह बात कही।
बन्धुदत्त ने पाकर भविष्यदत्त को अपार सम्पत्ति को अपनी बतला दी। और सबको मान सम्मान कर अपना बना लिया। भविष्यानुरूपा के लिये कह दिया कि यह अपने तिलक द्वीप के राजा द्वारा मेंट में दी गई है । वह अभी कुआरी है। राजा को सब तरह से झूठ बोल कर अपना बना लिया और अपने विवाह की तयारी करने लगा। उधर भविष्यदत्त चन्द्रप्रमु भगवान की भक्ति अर्चना करने लगा। वहाँ एक देव विमान पर पाया और भविष्यदत्त से सब वृतान्त जानने के पश्चात् उसको विमान पर बिठला कर हस्तिनापुर ले पाया । भविष्यदत्त अपनी माता कमलश्री के पास गया और उसकी बन्दना की। वह सब परिजनों से मिला और पिता को साथ लेकर राजा से मेंट की तथा मेंट में बहुत सा सामान दिया। भविष्य दत्त ने राजा से सब वृत्तांत कहा । बन्धुदत्त द्वारा किये गये दुर्व्यवहार की दर्चा की। भयिष्यानुरूपा ने बन्धुदत्त द्वारा अपनी पत्नी बताये जाने का विरोध किया। राजसभा में राजा से एवं सभासदों से सब बीती बातों को बताया । राजा ने वास्तधिक बात को समझ कर बन्धुदत्त को मारना चाहा लेकिन भविष्यदत्त ने राजा को ऐसा करने से रोका । बन्धुदत्त हस्तिनापुर से निकाल दिया गया ।
बन्धुदत्त पोदनपुर पहुंचा और वहां राजा से कहा कि भविष्यदत्त के पास सिंघल देश की पद्मिनी है । वह प्रत्तीय लावण्यवती है। यह राजा के भोगने योग्य है वणिक पुत्र के नहीं । पोदनपुर का राजा विशाल सेना लेकर हस्तिनापुर आया और अपना दूत भेज कर राजा से पद्मिनी को देने के लिये कहा तथा प्राज्ञा के उल्लंघन पर नगर को नष्ट कर दिया जायेगा तथा राज्य पर अधिकार कर लिया जावेगा ऐसा कहा।
हो पठयो पोदनपुर घणी, तही को सेना न पिणी । भूपति बहुत भरै तस वंश, भुज राज निसंक अखंड । तुम लुह दीन्हो उपवेश, सुखस्यो भुजो चाहो देस ।
भवसरन्त के जो पश्मिणो, सो तुम मोकलि ज्यो लक्षणी ।
भविष्यदत्त स्वयं ने शत्रु राजा का चैलेन्ज स्वीकार किया तथा सेना लेकर सड़ने के लिये भागे बढ़ा। दोनों सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ और अन्त में भविष्य दत्त ने पोदनपुर के राजा को बांध लिया और हस्तिनापुर ले आया।
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भविष्णमः गाई
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भविष्यदस की वीरता से राजा प्रभावित हो गया और अपनी कन्या का भी उससे विवाह कर दिया।
जैन धर्म निहो कर, चाल मारग न्याय ।
सस सेवा सुरपति कर अंति सुर्ग माह ।। भविष्यदत्त को राज्य मुख भोगते हुये कितने ही वषं व्यतीत हो गये। कुछ समय पश्चात् माता के कहने से भविष्यदत्त ने पचमी व्रत ले लिया । भविष्यानुरूपा को दोहला हुआ और उसने तिलकाद्वीप जाकर चन्द्रप्रभु चस्मालय के दर्शनार्थ जाने की इच्छा व्यक्त की । उसी समय मनोवेग नाम का विद्याधर वहां आ गया और वह भविष्यदत्त को विमान में बैठाकर तिलकाद्वीप पहुंचा दिया । उन्होंने चारण मुनि के दर्शन कर श्रावक धर्म को भलीभांति सुना तथा चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र की भक्तिपूर्वक पूजा की। मुनिश्री ने स्वर्ग नरक का भी वर्णन किया । भविष्यानुरूपा के चार पुत्र सुप्रभ, स्वर्णप्रभ, सोमप्रभ, रूपप्रभ तथा दो पुत्री उत्पन्न हुई।
बहत समय पश्चात् हस्तिनापुर में विमल बुद्धि नामक मूनि का आगमन हुमा । भविष्यदत्त ने सपरिवार उनकी वन्दना की। मुनि ने विस्तारपूर्वक तत्वों का विवेचन किया। अन्त में भविष्यदत्त ससार से विरक्त होकर सपरिवार मुनि से संयम प्रत धारण कर लिया तथा अपने पुत्र को राजगद्दी सौंप कर मुनि दीक्षा धारण करली पौर पहिले स्वर्ग में तथा फिर चौथे भव में निर्वाण प्राप्त किया।
भविष्यदत्त चौपई कश्चि की बड़ी रचनामी में से है। यद्यपि काश्य में प्रमुख रूप में कथा का ही निर्वाह हुआ है लेकिन कवि ने बीच बीच में घटनाओं का विस्तृत वर्णन करके उन्हें काव्यात्मक रूप देने का प्रयास किया है। काव्य की भाषा एकदम सरल और बोलचाल की है । उसे हम राजस्थानी के अधिक निकट पाते हैं ।
कवि ने भविष्यदत्त चौपई का निर्माण दूहाड प्रदेश के प्राचीन नगर सांगानेर में किया था । रचना समाप्ति की निश्चित तिथि संवत् १६३३ कातिक सुदी चतुदर्शी थी। सांगानेर आमेर के शासक राजा भगवंतदास के प्रधीन था तथा वे अपने परिवार के साथ सुखचैन से राज्य करते थे ।'
१ देस हूढाहड़ शोभा घणी, पूजै त हा अली मन तणी । निर्मल तल नदी बहुफिरि, मुवस बस बहु सांगानेरी ।।१४।। चई दिसि वण्या भला बाजार, भरे पाटोला मोती हार । भवन उत्तंग जिणेसुर तणा, सोमै चंदवा तोरण घणा ।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल भविष्यदत्त पौपई राजस्थानी भाषा की रत्नना है । इस कुति में दस्तुबंध, चीपई एवं दोहा छन्द प्रमुख हैं ।
कवि ने भविष्यदत्त की बहन कथा को न गंक्षिप्त रूप में लिखी है और न विस्तार से । लेकिन इतना अवश्य है कि कुछ स्थानों को छोड़ कर वह उसमें काव्य चमत्कार उत्पन्न नहीं कर सका और सामान्य रूप से अपने पात्रों का निरूपण करता गया ।
८ परमहंस चौपई
प्रस्तुत कृति ब्रह्म रायमल्ल की अन्तिम कृति है। यह एक रूपक काव्य है जिसमें परमहंस प्रात्मा नायक है । रचना के प्रारम्भ में २५ पद्यों में जीव के स्वरूप का वर्णन किया गया है । इसके पश्चात् काव्य प्रारम्भ होता है ।
परमहंस की चेतना स्त्री है तथा उसके चार पुत्र है जिसके नाम है मुख, सत्ता बोच और चेतन । एक बार माया परमहंस के पास गयी और उसकी स्त्री बनने के लिये निवेदन किया । माया ने मीठी-मीठी बात करके परमहंस को राजी कर लिया और वह उसकी पटरानी बन गयी।
परमहंस सम कियो विचार, माया कु कर अंगीकार । पटराणो रामो कर भाव, परमहंस के मन प्रतीचाव ।
माया ने घर में प्रवेश करते ही पांचों इन्द्रियों पर अपना अधिकार कर लिया । वे अपने पति परमहंस के वातों की अवहेलना करने लगी। पापी मन ने अपने पिता को बांध कर बन्दी-ग्रह में डाल दिया।
मन पापी ज पाप चितयो, पिता बांघि तब यदि महि दयो।
इसके पश्चात् मन राजा राज्य करने लगे। राजकुमार भन ने दो नारियों के साथ विवाह कर लिया। उनके नाम थे प्रवृत्ति एवं निवृत्ति । दोनों ने बन्दी
राजा राज कर भगवतदास, राजकंवर रोवे बहु तास । परजा लोग सुली सुखवास, दुरवी दलीद्री पुरवै प्रास ।। सोलाहस तेतीसै सार, कातिक सुदि चौदसि सनिवार । स्वाति नक्षत्र सिद्धि सुभ जोग, पीडा दुख न व्याप रोग ।
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परमहंस गई
खाने में पड़े हुए परमहंस के दुख देखे । लेकिन वे उसे छुटकारा नहीं दिला सकी । मन की एक स्त्री प्रवृति ने मोह पुत्र को जन्म दिया जो जगत में पारों प्रोर निसर होकर फिरने लगा।
सो मोह सगलो संसार, धन कुटुम्ब मायो पसार ।
पति चार में फिराव सोई, घाल जाल म निकस कोई ॥४७!!
मन की दूसरी स्त्री निवृत्ति थी । उसने "विवेक' नाम के पुत्र को जन्म दिया । विवेक अपनी नीति के अनुसार काम करने लगा।
सब जीवन कुदे उपदेश, जिह थे माप्त रोग बलेस ।
कह विवेक सु रात विधार, सुलह इछा सुख संसार ।
मन राजा अपने पिता परमहंस को छोड कर माया के साथ रहने लगा । एक दिन माया ने मन से कह कर विवेक को भी बन्दी गृह में डाल दिया क्योंकि उससे भी माया को डर लगने लग गया था। निवृत्ति ने अपने श्वसुर परमहंस को सारी स्थिति समझायी और विवेक को छुड़ाने के लिये जोर देने लगी । परमहंस ने अपनी असमर्थता प्रकट की।
परमहंस जप सुन बहुः पह परपंच माया का सह ।
निसचं परन छ चेतना, सिह के पास जाहु संक्षीना ।।६।। __ नियति रानी चेतना के पास गई और उससे विवेक पुत्र छोड़ने की प्रार्थना करने लगी । प्रवृत्ति रानी ने इसका विरोध किया और मन राजा से निम्न प्रकार निवेदन करने लगी।
मोह पुत्र यारो पर बीर, मात पिता को सेवक धीर । स्वामी देई मोह के राज, सीरो सब तुम्हारो काज |
मन भी प्रवृत्ति रानी के बहकावे में आ गया और उसने मोह को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। मोह ने अपनी नगरी बसाई और निम्न साथियों के साथ राज्य करने लगा -
पुरी अज्ञान कोट चहुं पास, त्रिसना खाई सोत्र तास ।
मार' गति वरवाजा बण्या, दीस तहां विषै मन घई ।।७२।। मिल्या बरसन मंत्री ताप्त, सेवक आठ करम को वास । क्रोध मान उंभ परखंड, लोभ सहत तिहां निवस पंच ॥७३॥
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
पंत प्रमाद मंत्र तसु सरणा, तिहसु मोह कर रंग घना । रात दिवस ते सेवा कर मोह सनो चह रल्या करै ।।७४।। सातों विसन सुभ्र गती राज, जान नहीं काज अकाज । निगुणा संधि सभा असमान, सोभ दुरगति सिंघासन यान ।।७।। चबर इल रित विप्ररस बरसाल, छिन्त्र परोहित पठउ फुस्पाल ।
कुड कपट नन कोटबाल, पाखंडी पोल्पा रखवाल 1|७६।।
नगर में सभी व्यसनों की चौकड़ी जमने लगी। सभी तरह के अनैतिक कार्य होने लगे । दूसरी ओर कुमति में चेतना राजा से निवृत्ति के पुत्र विवेक को छोड़ने का प्राग्रह किया । लेकिन वहां उसकी दाल नहीं गली । तब वह मन के पास गयी पौर निम्न प्रकार परिचय दिया ।
बोली कुमती जोडीया हाथ, यौनती सुनो हमारी नाथ । सुरग तणो हु देवांगना, तेरा सुजस सुन्या हम घरणां ।।८।। मेरा मन बहु उपनो भाव, भली मात देखन को पाव ।।
छोड़ देव आई तुथ थान, तुम देखत सुख पाके जान ॥८॥
मन राजा को कुमाल की बातें बहुत रुचि कर लगी और उसे अपनी पटरानी बना ली । कुमति ने सर्व प्रथम मन से विवेक को छोड़ने का भाग्रह किया । मन ने तत्काल उसके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और विवेक को बन्धन मुक्त कर दिया ।
कांमी पुरुष ज कोई होई, कामनी कझो न मेट कोई । तिह को छांदो घाव घनो, हि शुभ काह कामी नर तनो ॥६५|
विवेक बंधन से मुक्त होकर चेतना माता के पास गया और उसके पांव खुए । विवेक को देख कर चारों ओर हर्ष छा गया। एक दिन चेतना ने निवृत्ति से कहा कि मोह पापी है दुष्ट स्वभाव का है तथा उसका स्वभाव' ही दूसरे को पीड़ा देना है इसलिये मोह के देश को ही छोड़ कर चला जाना चाहिये । निवृत्ति और यिवेक तत्काल वहां से चल दिये । जब वे प्राची दुर ही गये तो उन्हें हिंसा देश दिखायी दिया जिसमें सभी तरह के लोटे बुरे कार्य होते थे । कवि ने उसका निम्न प्रकार वर्णन किया है
दोस तह र व्योहार, उपरी उपरी मार मार । हांसि निमा तिहा पती ही होह, मार कोई सराहै लोई 1१०१।।
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परमहंस चौपई
वयां रहत परजा परमान, बाट बढाउन लह ठाय 1 कर विसास मारे ससु जोग, हिंसा बेस बस जो लोग ।।१०२।। बोल जको प्रसभाम, तिह स स्पागो तुम सनि जान ।
अधिउ झूठ एक बोले वाच, जिह ये टोकर भार सांच ॥१०३।।
उसमें सभी तरह की बुराइयां थी। हिंसा झूठ चोरी करने वालों की प्रशंसा होती थी। या तो यहां कसाई थे या फिर अत्यधिक विपन्न । नगर को देख कर दोनों को अत्यधिक वेदना हुई ।
निवृत्ति एवं विवेक फिर बढ़े | इसके पश्चात् वे 'मिथ्यात' नामक देश में पहुंचे । वहां सब उल्टी मान्यता वाले लोग थे। अन्ध विश्वास और मिच्या मान्यताओं में वे फंसे हुए थे।
रागसाहत सो मान वेब, तारन समरथ तरन सुए। कामनी संग सदा हो रह, तिह में सुख देवता कह ।। ११२।।
पीपल वेव पूज बहु भाई, तिहर्म पापी काटन जाई । लेई काठ से बालम जोग, महा मूळ मिण्याती लोग ।।१२१॥ गंगा तीरप कह सह कोई, तिहर्क सनांन मुकति पर होई । तिह में अशुचि सोच ते कर, मूढ लोग बेव विस्तर ।।१२२सा पूज वरष अंवसा तनो, सख संपत स्वामि वे धनो। महादेव कह बंदमा जाय, तिह नै पापी तुलित खाय ।। १२३||
कवि ने उस समय में व्याप्त लोक मूढतानों पर विस्तार से प्रकाश डाला है । जिन देवी देवताओं के आगे बलिदान होता था. उसकी भी कदि ने गहरी निन्दा की है तथा जोगियों की भस्मी में विश्वास करने वालों की कबि मजाक उड़ायी हैं । वे मद्य एवं मांस का भोजन करने वाले गुसाई जनों को भी मिध्यात्वी कहते हैं
निवृत्ति और विवेक "मिथ्यात' नगर की दयनीय स्थिति देख कर अत्यधिक दुखी हुये और वे दोनों आगे बढ़े । वे जिन शासन के देश पहुंचे और उसकी सुन्दरता से प्रसन्न होकर उसमें प्रवेश किया। जिन शासन नगर के निवासियों के सम्बन्ध में निम्न प्रकार वर्णन किया है !
लिहो भलो वीस संजोग, पानी छोण्या पौष सह लोग । मुनीवर बहु पाल आचार, पाप पुन्य को कर विचार॥१३२।।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
क्या बत्त तिहा कर नीषास, आस्म चिता मन को वास । संजम फूल ते सगते घना, सिंह का सुख भुजे भष्यईना |1१३३।। सभ भाव कोईल बोलत, जिम वाणी तिही वाख फलंत ।। सरस वचन बोल गुन जान, निपज नागवेल को पान ॥१३३॥ पान फूल तोहां बहु महकाई, मुनी ध्यान मधु वरत प्रपाई।
उद्यान सरोवर अधिक गहीर, तिह को थाग सह मुनि धीर ।।१३४।।
जिन शासन नगर के राजा का नाम विमल बुध था। एक दिन जब वह वन क्रीड़ा के लिये गया तो उसने नियत्ति एवं विवेक दोनों को देख लिया। दोनों को उसने बड़ा ग़म्मान दिया और फिर उन्हें अपने घर ले गया। वह दोनों का भोजन नादि से सम्मान किया । इसके पश्चात् राजा ने निवृत्ति से :जसके पुत्र विवेक की बडी भारी प्रशंसा की और कहा कि सुमति के साथ विवेक का विवाह हो जाना चाहिये । नित्ति ने विवेक के विवाह का निम्न शब्दों में उत्तर दिया
भन निवृश्य सनो हो राय, ने छ इसी तुम्हारो भाव ।
इक सोनो इफ हीरा जो, कहो विचार न कोल वापरो ।। १४४।। दोनों के विवाह की तय्यारी होने लगी---
चौरी मंडप रच्यो विसाल, सोभ तोरन मोत्यां माल । छापे वस्त्र पटजर सार चंदन थंभ सुगंष सुचार ॥१४६।। गावं श्रिया फर बहु कोड, वर कन्या को बांष्यो मोड ।।
लगन महरत बहुत उछाह, विवेक समति को भयो विवाह ।। १४७।।
निवृत्ति सुमति वधू को पाकर अत्यधिक प्रसन्न हुई। खूब दान दिया । एक दिन उसने विमलवुध से जाने की प्राज्ञा चाही। विमलबुध ने कहा कि वे प्रवचन नमर में जावे और वहां सुख चैन से जीवन व्यतीत करें।
सुम प्रबचन नग म चलो, होसी सही तुम्हारो भलो । बंबो जाय चरन परहंत, तिहरे सुख सुवसो अनंत ॥१५१।। तिहां विवेक बाई लह, भलो पुरुष सहु कोई कह ।
कोरत बहुत होत तुम तनी, सुख संपतो तोहां मिलती घनी ॥१५२॥
विमल बुध की बात मान कर निवृत्ति विवेक एवं सुमनि तीनों प्रबचन नगर के लिये रवाना हो गये और कितने ही दिन चलने के पश्चात् वे तीनों वहां पहुंचे ।
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पपईस चौपई प्रवचन नगर बहुत विशाल था । दया धर्म वहां निवास करते थे। सन जीवों को अपने समान समझा जाता था । अनाचार को स्वप्न में भी नहीं जानते थे । तथा सर्वदा व्रत शील संयम की पालना होती थी। प्रवचन नगर को वर्णन कवि के शब्दों में देखिये -
तिहां परिहंत देव को वास, इंद्र एक सो सेव तास । पाजा साठा बारा कोड, सुर नर खेचर नम कर जोड़ ।।१५६।।
मारगनाव लोक संचर, करमषकोई नबी करै ।। उपरी उपरी बेरन कास, जिम सिधालो सिंघाबास ।।१५७॥
उस नगर में कोट थे, सरोवर थे, जिनमें कमल खिले हये थे। चारों ओर दरवाजे थे तथा तोरण द्वार थे। वहीं समोसरन था । तीर्थकर के दर्शन से ही पुण्य बंध होता था। तीनों नगर के अन्दर गये और उन्होंने चारों ओर कलश लगे हुये देखे । जिन मन्दिर के दर्शन किये । उनके प्रानन्द की कोई सीमा नहीं रही। वहीं जिनेन्द्र का समोसरन था । चारों ओर अपार शान्ति थी। ईर्ष्या, कषाय एवं तुष का कहीं नाम भी नहीं था । निवृत्ति विवेक एवं सुमति के साथ ममक्सरन में गये तथा सीन प्रदिक्षणा देकर वहां बैठ गये। जिनेन्द्र की भाशीर्वादात्मक दिव्यध्वनि निम्न प्रकार खिरी
रही ईहां तुम मिभंय थान, मुजो बहु सुख तनां निधान ।
मन में चिंता मति कोई करो, ईहा थानक को वुष्टम हरी ॥२२५।।
इस प्रकार विवेक ने 'पाप नगर' का वृत्ताप्त सुनाया 1 जहां मोह राजा राज्य कर रहा है वहां का बुरा हाल है
मिभ्यातो बह कर कुकर्म, जाम नहीं जिनेश्वर धर्म, 1 बहुत जाति पाखंडी फिर, भूट लोक तस देशश करे ।।२३०॥ भयोलहा संकन कर, घन के काज सगा परहर ।
जै तो महा दुष्ट प्राचार, तो सह मोह राव परिवार ||२३३।। विवेक ने अपने आने का पूरा वनांत कहा
बीमस बोध की सांभली बात, तुम थानक प्राया जिन तात ।
कीयो पाछलो सह परगास, दौठो जिनवर पुगी पास !"
इधर मोह को पुत्र लाभ हुग्रा जो चौरासी लाख जीवों का शवु था। वह जिनेन्द्र की बात नहीं मानता था। उसने बहुत से तपस्वियों के तप का खंडन कर
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
दिया यहां तक कि ब्रह्मा, विष्णु एवं इन्द्र को भी नहीं छोडा । वह देश मिथ्यात देश है जहां जैन धर्म नहीं है, किन्तु वहां एकान्त मत का प्रचार है ।'
दुरारी पोर सत्यग्न नगर में देव शास्त्र गुरु में पूरी भक्ति थी तथा वहां सम्यग्दर्शन के पाठ अंगों की पालना होती थी । तीर्थंकर ने विवेक की बहुत प्रशंसा की और उसे पुण्य नगरी का राज्य दे दिया। पुण्य नगरी में प्रतिदिन भगवान की पूजा होती थी, चारों प्रकार के दान दिये जाते थे तथा शीलवत की पालना होती थी । विवेक सदलबल पुण्य नगर में निवास करने चले ।
तिथंकर जाण्यौ गुणातार, कोहों विरा विवेक कुमार। घरसन शाम वरन तर सार, घर बिधि सेन्या चली अयार ||२७०।। उपसम गण गढ़ चल्यो कुमार, तास छत्र सिर सो भवपार | सास मिसान वाज बहु भाति, सम बम सजन साथ पढोस ।।२७१।।
पुण्य नगर को विवेक ने देखा । तीन गुप्तियां जिस नगर का कोट थी, पांच समितियां ही मन्दिर थी तथा नियम रूपी कलश जिसके शिखरों पर सुशोभित था। द्वार पर आनन्द का तोरण था तथा कीति ही जिसकी ध्वजा घी जो चारों पोर उछल रही थी। चार संघ ही भावना के समान थे।
पुण्य नगरी में विवेक सुख से राज्य करने लगा। चारों भोर सुख शांति थी जो मुक्ति बोर एवं अन्त राय थे वे सब विवेक से दूर रह गये। मुक्ति का सबके लिये द्वार खुल गया--
विवेक राजा निकंट कर, जिनको आग्पा मम में धरं ।
सहत फुटंग विवेक भोवास, सुख में जातन जान काल ।। २८३।।
इसके पश्चात् दूसरा अध्याय प्रारम्भ होता है। कवि ने इस अध्याय का निम्न प्रकार प्रारम्भ किया है -
बोहा ब्रह्म राहमाल बंदिया को सास्त्र गुरु सार । घो र कथा आगे भई, सिंह को सुमो विचार ।।२८४।।
१ राज कर राजा मिथ्यात, जान नहीं जैनी की बात ।
मत एकांत तास उबरं, बोध महाभा अति हो करै ।।२५४।।
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चन्द्रगुप्त के सोलह स्वप्न
वांति कति सुख मित्र || जि०॥ लाडू इरि परि सोधियो ।। १३ ।। जिम पामउ निरवांण ।1जि०|| सांभरि नयार सुहामणो || १४ || भव्य महाजन लोग क्रिया भग्नो भावकतली ।।१५।। पालउ सब सुख होइ, ब्रह्म राहमल हम भरणउ ।।१६। धम्मं जिणेसर जिलेसर लाडू हो
सररण
।।१७।।
७३
उक्त रचना 'सांभर' में रची गयी थी। सांभर में कवि ने जेष्ठ जिनवर कथा को संवत् १६३० में निवद्ध की थी। इसलिये यह रचना भी उसी समय की मालूम देती है ।
१२. चन्द्रगुप्त के सोलह स्वप्न
जैन पुराण साहित्य में स्वप्नों का अत्यधिक महत्व माना गया है। तीर्थकर के गर्भ में आने के पूर्व उनकी माता को सोलह स्वप्न आते हैं और इन स्वप्नों के धनुसार ही उसे तीर्थंकर पुत्र होने का भान होता है। भरत सम्राट के स्वप्नों का भी पुराणों में खूब वर्णन मिलता है । प्रस्तुत कृति में सम्राट चन्द्रगुप्त को आने वाले सोलह स्वप्नों का वर्णन किया है। चन्द्रगुप्त हमारे देश के सम्राट थे तथा जैन धर्मानुयायी थे। सम्राट को जब स्वप्न भाये तो उन्होंने अपने गुरु भद्रबाहु से उनका फल जानना चाहा । उस समय भद्रबाहु ने जो उनका संक्षिप्त फल बतलाया उसी का कविवर रायमन ने प्रस्तुत कृति में वर्णन किया है ।
१. टूटी हुई डाली
२. अस्त होता हुआ सूर्य
५. उगते हुए चन्द्रमा में अनेक छेव ४. बारह फरण बाला सर्प
५. देव विमान गिरता हुआ
६. कूडे में कमन उगता हुआ
क्षत्रिय जाति को दीक्षा में विश्वास नहीं रहेगा ।
द्वादशांगत का ह्रास होगा तथा उसे जानने वाले कम रह जायेंगे ।
जिन शासन अनेक भागों में बंट जावेगा । बारह वर्ष का दुष्काल पड़ेगा साधु भ्रपने प्राचार से विमुख होंगे ! भविष्य में चारण ऋद्धिधारी मुनि नहीं होंगे ।
संयम धर्म केवल वैश्य जाति में रहेगा । ब्राह्मण और क्षत्रिय भ्रष्ट हो जायेंगे ।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल ७. नाचते हुए भूत
नीच जाति के देवो में मात्र होंगे तथा
जैन धर्म का ह्रास होगा। +-६. सूखा हुआ सरोवर तथा दक्षिण जहां-जहां तीर्थकरों के कल्याणक हुए हैं दिशा की ओर जल
वहाँ वहां इने गिने जैनधर्मावलम्बी रहेंगे ।
जैन धर्म दक्षिण में रहेगा । १०, चमकते हुए कीट
भविष्य में जैन धर्म कम हो जायेगा तथा 'प्रशिक्षा नोर दिया धर्मों का से यन करते
रहेंगे। ११. सोने के बर्तन में दूध पीता हुअा। ऊंची जाति में लक्ष्मी नहीं होगी लेकिन कुत्ता ।
नीच जाति के लोग लक्ष्मी का उपभोग
करेंगे। १२. हाथी पर बैठा हुअा बन्दर नीच जाति के हाथ में शासन होगा तथा
क्षात्रिय उसकी सेवा करेंगे। १३. सीमा को लांघता हुअा समुद्र राजा न्याय का मार्ग छोड़ देगा तथा प्रजा
को सूटकर खायेगा। १४, रयों में बसों के स्थान पर धोड़े मुषा दीक्षा लेंगे तथा वृद्ध माया में फंसे
१५. चूल से ढकी हुई रस्नों की राशि पंचम काल में साधुत्रों में परस्पर में विरोध
रहेगा। १६. जूझते हुए काले हाथी पंचम काल मेदिन प्रतिदिन कष्ट बढेंगे तथा
समय पर वृष्टि नहीं होगी। स्वप्नों का फल जान कर सम्राट चन्द्रगुप्त को जगत से वैराम्म हो गया और चैत्र सुदी ११ को अपने पुत्र को राज्य भार सौंप कर मुनि दीक्षा धारण कर ली। रचना काल-कुति में न रचनाकाल दिया हमा है और न रचना का स्थान ।
केवल कवि ने अपने नाम का निम्न प्रकार उल्लेख किया है - जिण पुराण माहि इम सुणी, ताहि विधि ब्रह्म रायमल भणी ॥२५॥
कृति में २५ पद्य हैं उनकी यह प्रारम्भिक रचना लगती है। राजस्थानी शैली की इसमें प्रमुखता है ।
१. आमेर शास्त्र भण्डार जयपुर, गुटका संख्या ४, पत्र संख्या ८४ से ८६
संवत् १७२४ लिखित पं० लिखमीदास ।
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जम्बू स्वामी चौपई १३. जम्बू स्वामी चौपई
ब्रह्म रायमल्ल का यह बिना संवत् काला प्रबन्ध कान्य है। इसमें भगवान् महावीर के पश्चात होने वाले अन्तिम केवली जम्ब स्वामी के जीवन का वर्णन किया गया है । जम्बू कुमार एक अंष्टि के पुत्र थे जिन्होंने अपनी नव विवाहित पाठ पत्नियों को छोड़ कर जिन दीक्षा घारग करली थी और अन्त में घोर तपस्या के पश्चात निर्वाण प्राप्त किया था। जम्बू स्वामी का जीवन जैन कवियों के लिये पर्याप्त प्राकर्षक रहा है इसलिये सभी भाषामों में इनके जीवन पर प्राधारित काव्य मिलते हैं।
प्रस्तुत कृति की एक मात्र पाण्डुलिपि जयपुर के दि. जैन मन्दिर संघीजी के शास्त्र भण्डार के एक गुटके में संग्रहीत है । लेखक ने जब सन् १९५८-५६ में इस मन्दिर के शास्त्रों की सूची बनायी थी तब उक्त रचना को देख कर उसका परिचय लिखा था । उस समय गुटके से विशेष नोटस् नहीं लिये जा सके लेकिन वर्तमान में वह गुटका अपने स्थान पर काफी खोज करने के पश्चात् भी उपलब्ध नहीं हो सका। इसी खोज में ग्रंथ प्रकाशन का कार्य भी कुछ समय के लिये बन्द रखा गया लेकिन उसे टूटने में सफलता नहीं मिल सकी । इसीलिये यहा कृति के नामोल्लेख के अतिरिक्त विस्तृत परिचय नहीं दिया जा सका । भविष्य में प्रस्तुत कृति या तो इसी भण्डार में अथवा अन्यत्र किसी भण्डार में उपलब्ध हो गयी तो उसका विस्तृत परिचय देने का प्रयास किया जावेगा ।
१४. चिन्तामणि जयमाल यह स्तवन प्रधान कृति है जिसकी एक प्रति जयपुर के दि. जैन मन्दिर के शास्त्र
भण्डार के गुटके में संग्रहीत है । भरतपुर के पंचायती जैन मन्दिर में भी उसकी एक पाण्डुलिपि उपलब्ध है।
१. राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रंथ सूची चतुर्थ भाग पृष्ठ संख्या ७१० २. राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रंथ सूची चतुर्थ भाग पृष्ठ संख्या
पंचम भाग
१०५७
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
१५. नेमिनिर्वाण यह भी लघुकृति है जिसमें २२ वें तीर्थकर नेमिनाथ का स्तवन मात्र है। उसकी
एक प्रति अजमेर के भट्टारकीय शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है।
मूल्यांकन- इस प्रकार महाफवि ब्रह्म रायमल्ल ने हिन्दी जगत् को १५ कृतियां मेंट करके साहित्य सेवा का एक अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया। राजस्थान के
से भारत पारों में मिल रही जमतों में हो सकता है और भी कृतियाँ मिल जावें । श्री महावीर क्षेत्र की ओर से प्रकाशित ग्रन्थ सुषियों में ब्रह्म रायमल्ल के नाम से कुछ रचनायें और भी दी हुई हैं लेकिन कृतियों के गहन अध्ययन के पश्चात् बे ब्रह्मा रायमल्ल की नहीं निकली । ऐसी कृतियों में प्रादित्यवार कथा एवं छियालीस ठाणा चर्चा के नाम उल्लेखनीय है । महाकवि ने अपनी सभी कृतियां स्वान्त ! सुखाय लिखी थी क्योंकि अन्य जन कवियों के समान कवि की कृतियों में न तो किसी श्रेष्टि के प्राग्रह का उलवेख है और न किसी भट्टारक के उपदेश का स्मरण किया है । नय प्रशस्तियों में कवि ने अपने गुध का, रचना समाप्ति काल वाले नगर का, नगर के तत्कालीन शासक का पोर वहां के जैन समाज, मन्दिर तथा व्यापार प्रादि की स्थिति का सामान्य उल्लेख किया है लेकिन बह अत्यधिक संक्षिप्त होने पर मी इतिहास की कड़ियों को जोड़ने वाला है तथा तत्कालीन सामाजिक एवं आर्थिक दशा की पोर प्रकाश डालता है । साथ ही में वह कवि के घुमक्कड़ जीवन का भी द्योतक है।
महाकवि की सभी रचनाएं कुछ सामान्य अन्तर लिये हुये एकसी घौली में लिखी गयी हैं । सात लघु रचनाओं के विषय में तो हमें कुछ नहीं कहना क्योंकि वे रचनायें प्रायः सामान्य स्तर की है और काव्य की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूरणं भी नहीं है । शेष भाठ रचनाएं सभी बड़ी रचनायें हैं और वे कवि की काव्य प्रतिभा की परिचायक है । ये सभी रचनायें रास शैली में लिखी गयी हैं पाहें उनके नाम के आगे रास लिखा हो अथवा चौपई एवं कथा लेकिन सभी रचनामों में कवि ने पाठकों की स्वाध्याय शक्ति का अधिक ध्यान रखा है और अपनी काव्य प्रतिभा लगाने का काम । इन सभी काथ्यों को देशा एवं समाज में काफी लोकप्रियता प्राप्त हुई क्योंकि राजस्थान के जैन ग्रंथागारों में ब्रह्म रायमल्ल के काव्यों को दो चार नहीं किन्तु पचासों प्रतियां मिलती है। सबसे अधिक पांडुलिपियां भविष्यदत्त चौपई,
१. राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रंथ सूची चतुर्थ माग पृष्ठ संख्या ७१२ वहीं
पृष्ठ संख्या ७६५
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भाषा की दृष्टि से
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श्रीपालरास, एवं मिश्वररास की मिलती है। जिससे इनकी लोकप्रियता का पता चलता है । पाठ बड़ी रचनामों में 'जम्मू-स्वामी रास' की एक पांडुलिपि जयपुर के संधीजी के मन्दिर में संग्रहीत थी । लेखक ने संघीजी के मन्दिर के शास्त्र भण्डार की ग्रंथ सूची बनाते समय उक्त रखना को नोट किया थी और उसका परिचय भी दिया था लेकिन पर्याप्त प्रयास करने पर भी वह पाण्डुलिपि प्राप्त नहीं हो मकी । परमहंस चौपई की सारे राजस्थान में केवल दो भण्डारों में पांडुलिपि प्राप्त हो सकी हैं। वे भण्डार हैं दौसा (जयपुर) एवं अजमेर का भट्टारकीय भण्डार । सभी सधु रचनायें गुटकों में अन्य पाठों के साथ संग्रहीत हैं । भाषा की दृष्टि से
भाषा की दृष्टि से महाकवि ब्रह्म रायमल्ल को राजस्थानी भाषा का कवि कहा जायेगा । लेकिन यह राजस्थानी हूवाड़ प्रदेश की भाषा है मारवार एवं मेवाड़ भाषा की नहीं। इसके अतिरिक्त यह राजस्थानी काव्यगत भाषा न होकर वाल की 41 है : पारमा एनं शिलान होकर बदलते रहते हैं। कवि ने रास संशक, कथा संज्जक एवं चौपई संशक सभी कृतियों में इसी बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया है । भाषा इतनी मधुर, स्वाभाविक एवं सरल है कि थोडा मी पढ़ा लिखा व्यक्ति कवि के काव्यों का सहजता से रसास्वादन कर कर सकता है । पद्यों के निर्माण में स्वाभाविकता है । उसका एक उदाहरण पेखिये
हो जावो बोल्या भारव स्वामो, हो तुम तो जी छो प्राकास्यां गामी । वीप अाई संचरौ जी, हो पूरब पश्चिम केवल शानी।
चोथो काल सदा रहेजी, हो तहको हमस्यौँ कहिंज्यो बातों ।।११०॥
इसी तरह एक स्थान पर 'हो हमने जी सीख देण न लागी' राजस्थानी भाषा पाठ का सुन्दर उदारण है' । कवि ने शब्दों एवं फियापदों को राजस्थानी छोलचाल की भाषा मेंपरिवर्तित करके उनका काथ्यों में प्रयोग किया है। ऐसे क्रियापदों में जाणिज्यो (श्रीपाल राम ७१) माणिस्यो (श्रीपाल रास ७३) ल्यायो (प्रद्युम्न रास ) ल्याया (नेमीश्वर रास २३) प्राइयो (श्रीपाल २०६) सुण्या (श्रीपाल २१७) जैसे पचासों क्रियायें हैं । कवि ने इसी तरह राजस्थानी शब्दों का प्रयोग
१. प्रद्य म्नरास पद्य संख्या १० २. वहीं पद्य संख्या १६
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
महुलता से किया है जिनके कारण कामों में सरसता मा गयी है। कुछ शब्द निम्न प्रकार हैहिन्दी शब्द
राजस्थानी शब्द उज्जयिनी
उजेणी दहेज
हाइजो जिनालय,
जिणाने
श्रावक
सरायक
स्नान.
सनान
पीछे स्त्री, पत्नी बौवन जीमनवार जामाता.
प तीया10 जोबन। ज्योणार जवाइ3 रोश
विधवा
३. हो तिह मैं मासँव देश विसाल, उजेणी नग्री भली ॥श्रीगाला ४. हो दीयो डाइजो अधिकु सुधार ॥श्रीपाल रास॥४० ५. गड जिणाले जगनाथ
वही ४२ t. हो धर्म सरावक जती को सुणों वही ४६ ७. करें समाम लए भरि नीर ८. चंदन पाहुप लगाए अंग
,५३ #. पर्छ भाप भोजन करे १०. हो तिया सहित राजा सिरीपाल थीपामराम ७० ११. साथि तिया सुभ जोबन वाल १२. सिरीपाल दीनी ज्योणार १३. रोज जवाई इहु सिरिपाल १४. हो देख्यौ रोड तरणो व्यवहारो
१२
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क्षणिक
ज्योतिषि
सास
प्रद्य ुम्न
पृथ्वी
स्वर्गं
भाषा की दृष्टि से
बाण्या
जोतिगी
१५. जो सुण्या बचन जे बाया कहा १६. हो लीयो राइ जोतिगी बुलाइ १७. हो सुंदरि बात सालुस्यों कही १८. रास भणौ परदवरण को जी १६. नारद पीरथी सहु फिरीजी २०-२१. सुगं अपरा सारिखी जी २२. हो रुपि बहरण जे होह कंवारी २३. हो दरजोधत घरि लेख पठायो २४ विद्या भुज्भ कियो घणो जी
सासु
परदेव
पोरथी १७
सुगं
अपरा
बहरण २३
15
अप्सरा
बहिन
चुपके
ध्यानं ३ प्र
दुर्योधन
दरजोधन 24
युद्ध
भुज्झ
+
करण कारक में 'से' के स्थान 'स्यों' का प्रयोग किया गया है तथा हमस्यौ कलत्रस्यो, कंतस्यों, बहुस्तो, गुरुस्यों श्रादि का प्रयोग कवि को अधिक प्रिय रहा है 1 संख्या वाचक शब्दों में पहली, दूजा, तीजा, चौषा जैसे शब्द प्रयोग में प्राये है ।
कवि ने अपने काव्यों में कुछ ठेठ राजस्वानी शब्दों का प्रयोग किया है जिससे काव्य रचना में एवं शब्दों के चयन में स्वाभाविकता आयी है । कुछ शब्द निम्न प्रकार है
१. सवासिणी - राजस्थान में इस शब्द का दूल्हा दुल्हन की विवाहित बहिन
"
श्रीपालराम १४६
१६४
२२६
f,
कु०
45
प्रद्य ुम्न रास १
PP
३५
17
"
७६
२१
३२
६०
१३२
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महाकवि बना रायमल्ल
के लिये प्रयोग किया जाता है । सवासिणी का विशेष सम्मान होता है तथा
उसे दुल्हिन की विशेष सम्हाल करनी पड़ती है। २. कुकरौ-यह शब्द कुत्ते के लिये प्रयुक्त होता है। गांवों में फुत्त को आज
भी कूकरा ही कहा जाता है । ३. छाने'--जो कार्य दूसरों के द्वारा बिना देखे किया जाता है उसे छान-छाने
काम करना कहा जाता है। ४. राउ--विधवा स्त्री राजस्थान में किसी महिला को रोंड कहना मानी देने के
बराबर है। ५. ठोकना-नमस्कार करना" ६, लुगाई-स्थी महिला ७, ज्योणार–सामूहिक भोजन। ८. बीसाई-बिल्ली12
__महाकवि ब्रह्म रायमल्ल के काव्यों को हम निम्न भागों में विभाजित कर सकते हैं -
१. पौराणिक ३. ऐतिहासिक ३. प्राध्यात्मिक ४, सामाजिक १. लघु काव्य
१. हो पहलौ जी राजा पंधीक धुष्ठि प्रय मरास ५ २. हो दूजा जी पणउ जिण की वाणी ३. हो तीजा जी पण गुरु मिरंगयो ४. चौथो काल सवा रहेजी.......! ५. गावं हो गीत सर्वासिणी, नार्थ जी अप्छरा करिवि सिंगार ॥नमीश्वररास||१४|| ६. कुकरी काम ते झाडिया महो गई जी वीलाई ॥नेमी।।५० '७हो राणी भर राउ डर माने, हो विद्या तीनि लेह यो छाने |पद्य म्नरास।।११६ *. राजा मन में चितब जी, हो देखौ रात तणा योहारो ॥१२३: पद्य म्मराप्त।।
६. घरण माता का ढोकिया जी १०. हो तौलग भामा मारि पटाई, हो गाये गीत डारिका लुगाई ।। प्रथम१५ ११. हो सप्ति भामा परि भयो कुमारो, भानुकुमार म्याह स्पोरणारी प्रिय न।।१४४ १२. अहो गई जी बिलाई मारग काटि ।। नेमीश्वर रास ।।६०॥
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भाषा अध्ययन
पौराणिक — कत्रि के पौराणिक काव्यों में श्रीपालरास, नेमीश्वररास, हनुमतकथा, प्रश्च स्तरास एवं सुदर्शनरास के नाम लिये जा सकते हैं। इन सभी काव्यों के नामक पौराणिक है और जिनकी कथा वस्तु का आधार महापुराण, पदपुरा और हरिवंशपुराण जैसे पुराण हैं लेकिन स्वयं कवि ने अपने काव्यों में कथा का श्राधार नहीं है। प्रमुख कथाको लोकप्रियता का होना है । कवि ने कहीं कथा का संक्षिप्तीकरण कर दिया है तो कहीं कथा को विस्तृत रूप देकर उसमें काव्यात्मक चमत्कार पैदा करना चाहा है । यद्यपि इन काव्यों में कथा वसांन कवि का मुख्य ध्येय रहा है लेकिन अपने काव्यों को लोकप्रिय बनाने के लिये उनमें भक्तिरस, शृंगाररस, एवं वीररम का पुट दिया है और उससे सभी काव्य श्राकर्षक बन गये हैं । नेमिनाथ २२ वें तीर्थंकर है तो निर्वाण प्राप्त करते ही हैं किन्तु श्रीपाल, हनुमान, प्रद्यम्न एवं सुदर्शन सभी नायक जीवन के अन्त में वैराग्य वारण कर तथा घोर तपस्या करके निर्वाण प्राप्त करते हैं । इन सभी के जीवन में अनेक बाधाएं श्राती हैं । श्रीपाल और प्रद्युम्न को तो जीवन में अनेक विपत्तियों का सामना करना पड़ता है लेकिन उनकी जिनेन्द्रभक्ति में प्रबल प्रस्था होने के कारण उन्हें सभी विपत्तियों से मुक्ति मिलती हैं । सुदर्शन की तो सूली पर चढ़ाने के लिये ले जाया जाता है लेकिन उसे भी अपने पूर्वोपार्जित कर्मों एवं जिनेन्द्र भक्ति के कारण चमत्कारिक रीति से सूली के स्थान पर सिहासन मिलता है । यद्यपि इनकी कथा का आधार पुरा है लेकिन काव्य में सभी लौकिक एवं सामाजिक तत्व विद्यमान हैं ।
८१
ऐतिहासिक जम्बु स्वामी भगवान महावीर की परम्परा में होने वाले अन्तिम केवली हैं जिन्हें इस युग में निर्वारण की प्राप्ति हुई थी। मगध प्रदेश की राजधानी राजगृह के एक श्रेष्ठी के यहां जम्बू कुमार का बचपन में ही सर्मा स्वामी के उपदेश से प्रभावित होकर विरक्त हो के आग्रह पर उन्होंने विवाह तो किया लेकिन विवाह के कुछ ही समय पश्चात् उन्होंने मुनि दीक्षा ले ली और ४० वर्ष तक देश के विभिन्न भागों में विहार करने के पश्चात् चौरासी मथुरा से निर्वाण प्राप्त किया। कवि ने अपने इस रास काव्य में तत्कालीन ऐतिहासिक तथ्यों का उल्लेख नहीं किया है ।
-
जन्म हुआ । गये । श्रपने कुटुम्बियों
आध्यात्मिक — परमहंस चौपई कवि का सबसे उत्कृष्ट रूपक काव्य है जिसके परमहंस नायक हैं तथा चेतना नायिका है। अन्य पात्रों में माया, मन, प्रवृत्ति एवं निवृत्ति, विवेक एवं ज्ञानावरणादि अष्ट कर्म हैं । कवि ने अत्यधिक व्यवस्थित रूप से अपने पात्रों को प्रस्तुत किया है काव्य का प्रमुख उद्देश्य मानव को प्रसत को
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५२
महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
हटा कर सत् की ओर ले जाना है। यही नहीं मिथ्यात्व के दोषों को बतलाना भी कवि का उद्देश्य रहा है। पाप नगरी एवं पुण्य नगरी के भेद को कधि ने बहुत ही स्पष्ट शब्दों में प्रस्तुत किया है। सामाजिक
राजा महाराजाओं अथवा तीर्थंकरों को कास्य का नायक बना कर उनके गुणानुवाद के अतिरिक्त सामान्य मानव के जीवन को लेकर काय रचना करना जैन कवियों की विशेषता रही है। ये वर्ग विहीन काव्य रचना में विश्वास रखते हैं तथा किसी भी जाति एवं वर्ग में पैदा होने पर भी यह मानव जीवन के उच्चतम ध्येय को प्राप्त कर सकता है इसका दिग्दर्शन कराना जैन कवियों को अभीष्ट रहा है। वैसे तो प्रायः सभी कान्यों में समाज के वातावरण, रीति-रिवाज एवं परम्परानों का वर्णन रहता है, लेकिन कुछ कान्यों में उक्त बातों का विस्तृत वर्णन मिलता है। भविष्यदत्त चौपई, जम्बूस्वामी चौपई जसे काव्य इस शैली की प्रमुख कृतियां हैं। कवि ने इन काव्यों में तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था का जो स्पष्ट वर्णन किया हैं जससे यह काव्य अधिक लोकप्रियता प्राप्त कर सके हैं। सामाजिक काव्यों के अतिरिक्त इनको हम जन सामान्य के कान्य भी वह मानते है । जैन कवि प्रत्येक ग्रात्मा में परमात्मा का रूप देखते हैं और प्रत्येक प्रात्मा से इसी परमात्मा पद को प्राप्त करने का प्राह्वान करते हैं ।
विविध
ब्रह्म रायमल्ल ने प्रबन्ध काव्यों के अतिरिक्त कुछ लघु कृतियां भी निबर की थी । ऐसी रचनाओं का विषय एक ही तरह का न होकर विविध है । निदोष सप्तमी कथा में सप्तमी प्रत के महात्म्य का वर्णन है तो चिन्तामणी जयमाल स्तुलि परक है । चन्द्रगुप्त के सोलह स्वप्न घटना परक है तो पंच गुरु की जयमाल पूजा संज्ञक रचना है । कवि ने अपनी लघु रचनाओं को विविध प्राख्यानों से निबद्ध किया है इसलिए सभी ६ लघु कुतियों को हम इस श्रेणी की रचनाओं में रख सकते हैं। भक्ति परक अध्ययन
महाकवि बह्म रायमल्ल का युग भक्तिकाल का चरमोत्कर्ष गुग माना जाता है। सूरदास, मीरा, तुलसीदास जैसे भक्त कवि ब्रह्म रायमल्ल के समकालीन कवि थे। सभी भक्त कवि उस युग में अपनी लेखनी एवं वाणी से जन-जन को राम एवं कृष्ण भक्ति में डुबो रहे थे तथा सगुण भक्ति धारा में प्राप्लावित करके देश में एक नया वातावरण बना रहे थे। उन भक्त कवियों ने उस युग में ऐसा सबल एवं
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भक्ति परख अध्ययन
बिस्तृत प्रवाह संचालित किया कि उसकी लपेट में न केवल वैष्णव एवं जैन ही पाये किन्सु देश में रहने वाले मुसलमान एवं अन्य जातियों के सदस्य भी उसी राग में अलाप लगाने लगे । जैन कवियों ने जिनेन्द्र भक्ति की प्रोर जिन भक्तों को प्राकृष्ट किया तथा वे अपनी कृतियों में जिन भक्ति की साधकता को सिद्ध करने में लगे रहे। ब्रह्म रायमल्ल के अतिरिक्त भट्टारक रतनकोति. भट्टारक कुमुदचन्द्र जैसे संतों ने भी जिन भक्ति को धार्मिक क्रियायों में सर्वोच्च स्थान दिया । १७ वीं शताब्दी के पश्चात जितने भी जैन कवि हुवे सभी ने किसी न किसी रूप में भगवान के गुणानुवाद करने पर बल दिया तथा भक्ति रस से प्रोत प्रोत पदों की रचना की ।
ब्रह्म रायमल्ल पुरे भक्त कवि थे। जिनेन्द्र भगवान की पूजा, स्तवन एवं गुणानुवाद करने में उनकी पूर्ण श्रद्धा थी । जिन भक्ति को प्रशित करने के एक मात्र साधन काव्य रचना में उनका अटूट विश्वास था। उन्होंने अपने काश्यों को तीर्थंकरों की स्तुति एवं वन्दना से प्रारम्भ क्रिया है। यही नहीं अपने पापको अपह प्रयाण कह-कर जिन भक्ति के प्रसाद को ही काव्य रचना में बहायक बतलाया है। ब्रह्म रायमल्ल कहते हैं कि न तो उन्होंने पुराण पड़े हैं और न वे तर्क शास्त्र एवं व्याकरण पढ़ सके है। बुद्धि भी अल्प है इसलिए वह उनके गुणों का वर्णन कैसे कर सकता है।
___कवि ने श्रीपाल रास में सिद्धचक पूजा के माहात्म्य का विशद वर्णन किया है । जिन पूजा को पुण्य की खान स्वीकार किया है। सिद्ध चक्र की पूजा करने से कभी रोग नहीं होता है । पूजा से शोक स्वयमेव विलीन हो जाता है। सिद्ध चक्र को पाठ दिन तक भक्ति एवं श्रद्धा पूर्वक जो पूजा करता है उसको श्रीपाल के समान ही उत्तम फल की प्राप्ति होती है ।
श्रीपाल जब बारह वर्ष की विदेश यात्रा पर जाने लगा तो मैना सुन्दरी ने उसे मरिहन्त भगवान का स्मरण करने का ही परामर्श दिया था ,
१. स्वामी गुणह तुम्हारा तणो विस्तार, स्वर नर फरिण नवि पाव हो पार ।
ते किम जाय मैं वर्णया, स्वामी हौं मरिख प्रति अपढ़ प्रयाग । ना मैं हो वीठा जी ग्रंथ पुराण, तर्क ब्याकर्ण में ना भण्या।
स्वामी थोड़ी जी बुधि विम करो बस्लामा ।। २. जिएवर पूज पुण्य की खानि ।।श्रीपालरास।। ५५ ।। ३. सिद्ध चक्र पूजा करी, हो रोग संग नवि व्या काल ।।५।।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल पो सुत सीखोई सुरिः स न लि जे माम अरहप्त । सत्य वचन अरहंत का, हो गुरु वदिज्यो महा निरंग 1 सिद्ध चक्र त सेविज्यो हो संजम गीत चालिज्यी पंथ रास।।७।।
श्रीपाल रास जिन पूजा एवं भक्ति के सुफल का एक सुन्दर काध्य है।' काव्य में कवि ने सम्यक्त्व की महिमा का विस्तृत वर्णन किया है तथा सभ्य रत्न को ही वैभव एवं ऐश्वर्य मिलने में मूल कारण दललाया है।
सुदर्शन रास में मंगलाचरण के रूप जो नौबीस तीर्थकरों को वन्दना की गई है वह भक्तिरस से अोतप्रोत है। सेठ सुदर्शन को सूली से सिंहासन मिलना सेठ द्वारा भगवान की पूजा भक्ति आदि का स्पष्ट फल है। इसी तरह भविष्यदत्त चौषई में भी प्रारम्भ में सभी तीर्थकरों का स्मरण किया है। मदनद्वीप में भविष्यदत्त को जिन मन्दिर क्या मिला मानों चिन्तामणि रत्न ही मिल गया । भविष्यदत्त ने पहिले पूर्ण मनोयोग ने जिनेंद्र स्तवन किया और फिर अपने कष्टों को दूर करने की प्रार्थना की।
जज स्वामी जग आधार, भव संसार उतारै पार तुम छौ सरणा साधार, मुझ संसार उतार पार भूला पंथ दिखावा हार, तुम छौ मुकती तरणा दातार ।।१६।।
जिनेन्द्र भगवान की जो प्रष्ट द्रव्य से पूजा करता है उसके जन्म जन्मान्तर के दुःख स्वयमेव दूर हो जाते हैं । पुष्पों के साथ पूजा करने से थावक जन्म का वास्तविक फल प्राप्त होता है । इसी प्रकार कवि ने सभी पाठ द्रव्यों के बारे में कहा है।
भविष्यदत्त जब मदन द्वीप में अकेला रह जाता है तो जिनेन्द्र स्तवन करके ही दुखों को भूल जाता है । भविष्यदत्त की स्त्री जब गर्भवती हो जाती है तो उसके
१. हो पाट दिवस करि पूजा ली, गयो कोड जिम प्रहि कंचुली ।
कामदेव काया भइ हो अंग रक्ष राजा सिरीपाल ।
सिद्ध चक्र पूजा करि हो, रोग सोग न व्याप काल ।। २. हो समिकित सहित पुत्र तुम आथि. इह विभूति आई तुम साथि ।। ३. जाठ दश्य पूज्यै जिण पाइ, जन्म जन्म को दुख पुलाइ ॥११:४३ ४. जिपावर चरण पहप पुजिवा, श्रावका जन्म तम्या फल लिया ।।
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शृङ्गार परख वर्णन
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तिलकपुर जाकर चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र की पूजा करने की इच्छा (दोहा) होती है' | हनुमत कथा में पारम्भ में चोवीस लोक स्तुति के साथ स्थान-स्थान पर जिन भक्ति की प्रशंसा की गयी है। जिनेन्द्र भगवान की पूजा से शुभ कर्म का बन्ध एवं अशुभ कर्म का क्षय होता है। राजा महेन्द्र नंदीश्वर द्वीप जाकर जिनेन्द्र भगवान से निर्वाण पथ का पथिक बनने की प्रार्थना करता है 1
भगति बंदना तेरी करें, मुकती कामणी निश्च वरं । नित उठ कर तुम्हारी सेव ताकौ पूर्व सुरपति देव ॥ ५१ ॥ जिरावर मोपरि करौ सनेह, कुर्गात कुशास्त्र निवारज एह ।
ओर न कछ मांगों तुम्ह पास, बेहु स्वामि बेकु बास ५२/७४
लेकिन ब्रह्म रायमल्ल को जिन भक्ति किसी संसारिक स्वार्थ के लिये नहीं है। और न ही उसने अपनी भक्ति के बदले में कुछ मांगा है। जिनेन्द्र भक्ति तो पुण्योत्पादक है और पुण्य के सहारे सभी विपत्तियां स्वयमेव दूर हो जाती है । प्रभाव प्राप्ति में बदल जाता है ।
श्रृंगार परक वर्णन
जैन काव्यों का प्रमुख उद्देश्य पाठकों को विरक्ति की ओर ले जाने का रहा है इसलिए हिन्दी जैन काव्यों में प्रेम का पर्यवसान वैराग्य में होता है यद्यपि काव्यों के नायक एवं नायिका कुछ समय के लिये गार्हस्थ जीवन व्यतीत करते हैं, युद्धों में विजय प्राप्त करते हैं, विदेश यात्राएं करते हैं तथा राज्य सुख भोगते हैं लेकिन अन्त में तीर्थंकर अथवा मुनि की शरण में जाते हैं, उनका उपदेश सुनते हैं और अन्त में संसार से उदासीन बन कर वैराग्य धारण कर लेते हैं। इसलिये जैन काव्यों का प्रमुख लक्ष्य न तो प्रेम दर्शन को अभिव्यक्त करना है और न दाम्पत्य प्रेम की महत्ता को काव्य का मुख्य विषय बनाना है। इन काव्यों में प्रेम विवाद और कठिनाइयों का चित्रण अवश्य मिलता है लेकिन अन्त में प्रेम की क्षणभंगुरला दिखला कर वैराग्य की प्रतिष्ठा की जाती है ।
१. सोग सबै छाडिउ तहि बार जिनवर चरण कियो जुहार ।
गुणग्राम भास्या बहु भाइ, जहि थे पाप कर्म क्षो जाइ ॥ १८:३०
२. स्वामी मेरी अँसो भाउ असो तिलक पुर
·
पट्टरिण जाउ ।
माठ भेद पूजा विस्तरी, जिरणबर भवरण
महीयौ करी ।। २८/४६
२. कीजै पूज चरण जिनराश, बंध धर्म अशुभ क्षो जाइ ॥ ३४ /७२
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
__ लेकिन हिन्दी अन कान्यों में शृगार परक तत्त्व अघवा वर्णन मिलता ही नही हो ऐसी बात हम नहीं कह सकते । जैन कवि प्रसंगवश अपने काव्यों में शृगार का भी वर्णन करते हैं और कभी कभी उल्लेखनीय सुटकी लेते हैं। उनके काव्य सयोग वियोग शृमा र दोनों से ही युक्त होते हैं ब्रह्म रायमल्ल के सभी कान्यों में श्रृंगार भावना का विकाल देखा जा सकता है। कवि ने अपने प्रथम काव्य श्रीपालरास से लेकर अन्तिम रूपक काव्य परमहंस चौपई तक किसी न किसी रूप में शृगाररस का वर्णन किया है और मानवीय भावनाओं को व्यक्त करने का सफल प्रयास किया है । इससे एक ओर काव्यों में सजीवत्ता पायी है तो दूसरी ओर मानव पक्ष को प्रस्तुत करने में भी वे दूर नहीं रहे हैं
श्रीपालरास में धवल सेट रणमंजूषा के रूप एवं लावण्य की देख कर उसके साथ भोग भोगने की तो लालसा से अपने मन्त्री से निम्न शब्दों में विचार व्यक्त मारता है .....
हो रण मंजसा सेवे कत, वरल से प्रति पीस क्त । नींव भुल तिरखा गइ, हो मंत्री जोग्य कही सह बात ।
मुम्बरि स्यौ मेलौ करो, हो कहीं मरो करो अपघात ।।२२।। धवल सेठ की दूती भी रैणमंजूपा को निम्न शब्दों में उसे समझाने लगती है.---
भोग भोगउ मन तरणा, हो मनुष्य जन्म संसारा पाई।
प्याले पीजे विलसोने, हो प्रवर जन्म की कही न जाइ ।।३३।। पवन जय जब मजना के सौन्दर्य के बारे में सुनता हैं तो वह कामातुर हो जाता है और मन्न एवं जल का त्याग कर बैसता है।' पवन जय का अजना के साथ विवाह तो हो जाता है लेकिन १२ वर्ष तक एक दूसरे से अलग रहते है। एक रात्रि को जब वह चकवा च कवी के विरहालाप को सुनता है तो उसे भी अंजना का स्मरण हो पाता है और वह भी बिरहाकुल हो जाता है और अजना से मिलने के लिये तड़फने लगता है। ब्रह्म रायमल्ल ने कामातुरो का उस काव्य में बहुत ही
१ पवनंजय सृणि सुदरि रुप, सुर कन्या थे अधिक अनूप ।
काम बारा वेधियों सरीर, तज तंबोल प्रश्न अह नीर ।।२।।
२ पवनंजय सुनि पंख णि बात, काम बारा तस बध्यो गात ।
चिता उपनी बहुप्त शरीर, रहे न चित्त एक भए धीर ||४||
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शृङ्गार परख वर्णन
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सुन्दर वरान विन्या है । वामी पुरुषों को अच्छा बुरा नहीं देखता । बड़े बड़े मृभट भी कातर दशा को प्राप्त हो जाते हैं । वह कामज्वर में उसी तरह जलने लगता है जैसे अग्नि में घी डालने से अग्नि प्रज्वलित हो जाती है। उने अन्न-जल जहर के समान लगने में सौर सपनी ममा ती दलाउसे अच्छी लगती है। वह कभी मुधित हो जाता है और कभी उसका शरीर शोक संतप्त हो जाता है । जसका मन एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता 1 वह अपने अंगों को मरोड़ता रहता है। कभी वह जंभाई लेता है तो कभी उसे नृत्य एवं संगीत सुनने की इच्छा होती है।' बारह मासा वर्णन
अन्य जैन कवियों के समान ब्रह्म रायमल्ल ने भी राजुल के शब्दों में बारह मासा का वर्णन किया है । कवि का यह वर्णन काफी स्वाभाविक एवं प्राकृतिक काम दशा के अनुकूल है 1 उसका बारह मासा श्रावण मास से प्रारम्भ होता है । श्रावण मास-श्रावण मास में घनघोर वर्षा होती है। मेघों की तीव्र गर्जना होनी रहती है । मोर भी नाचने लगता है। ऐसी स्थिति में राजुल नेमिनाथ से कहनी है
पवन कुमार भणौ तं क्षणी, सूनि हो मन्त्री बचह हम भयो । बकई एक हि रात वियोग, भरै विलाप अधिक दुख सोग ।।५०॥ कही अंजना किम जीवसी, छांर्ड भये वर्ष द्वादगी ।
यति अपराध भयौ है मोहि, मुझ समान मूरिख नही कोई ॥५१॥ १ जब कामी ने व्याप काम, जुगति प्रजुगति न जाणं ठाम । चित उपज बहुत सरीर, कातर होइ सुभट बरवीर ।।३।। कामणि रूप सुणे जे नाम, कामी चित्त रहैं नवि ठाम | काम बार पीडै तं क्षणा, सास उसास लेइ अति घणा || Ut काम उवर न्याप तसु, एह, वैस्वानर जिम दाझै देह । घड़ी एक चित्त घिर नहि देह, मो. अंग जंभाडी लेइ ।।५।। जन्न कामी की होइ अवाज. विष सम छोडे पाणी नाज । जाके शरीर काम को वास, कामगि कथा सुहावै तास ।।६।। कामनि कारजि हि लगे अंग, गीत नत्य भानै तिण अंग - काम बाण जौ हणे शरीर, मुर्छा ग्राइ पई घर बीर ।।७।। च्याप काम करै नर पाप, उपज देह मोग संता" । दुख भुजे रोवै नर जाम, जहि प्राइ कप काम ॥८॥
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
कि उसके शरीर में श्वास कैसे रह सकती है इसीलिए वह भी उन्हीं के पास रहेगी।"
८६
माद्रपद मास भाद्रपद मास में भी खूब वर्षा होती है। नदी नालों में खूब पानी बहता है । रात्रियां डरावनी लगती है । श्रवकगरण इस मास में व्रत एवं पूजा करते हैं। ऐसे महिने में हैं राजुल अकेली कैसे रह सकती है ?"
3
आज मास - श्रासीजे मास में पाछे बसरतो पाला गती लगता है। इस मास में पुरुष एवं स्त्री के टूटे हुये स्नेह भी जुड़ जाते हैं। दशराहे पर पुरुष और स्त्री भक्ति भाव से दूध दही और घृत की धारा से जिनेन्द्र भगवान की पूजा करते हैं । लेकिन हे स्वामिन् आप मुझे क्यों दुःख दे रहे हो ।
कार्तिक मास कार्तिक मास पुरुष और स्त्री दोनों को उदीप्त करने वाला है । चारों ओर स्वच्छ जल भरा रहता है जो स्वादिष्ट लगता है । इम मास में स्त्रियां अपना श्रृंगार करती है। इसी मास में देवता भी सोकर उठ जाते हैं। जिनेन्द्र भगवान पूजा भी की जाती है । हे स्वामिन् हमें छोड़ कर क्यों दुख दे रहे हो । मंगसिर मास- मंगसिर मास में अपने पति के साथ में पत्नी को यात्रा करनी चाहिय । चारों प्रकार के दान देने चाहिये। रात्रियां बड़ी होती हैं और दिन छोटे होते हैं राजुल नेमिनाथ से कह रहीं है कि उसका दुख कोई नहीं जानता है ।
१ अहो सावरगड वर सुवियार, गाजै हो मेघ अति घोर घार । श्रमलम लावे जी मोरटा, श्रहो मेरी जी काया में रहै न मासु । नेमि सेवि राजन मर्णे, स्वामी छाड़ हो नही जी तुम्हारी जी पास ।।८५
२ अहो भादवडी वर असमान, जे ताही व्रत ते तात जी थान । पूजा हो श्रावक जन रची, नदी हो नाला भरि चानं जो नीर | दीस जी राति रावणी, स्वामी तुम्ह बिना कैसी हो रहे जी सरीर |
ग्रहो कालिंग पुरिम तीया उदमाद रिमाली पान पाखी घणा स्वाद 1 करो हो सिंगार ते कामिनी, ग्रहो उड्डो जी देव जति तरणा जोग । पूजा सो कीर्ज जी जिया ती स्वामी हमकु जी दुख
तुम्ह तो जो विजोग १८८
कंत के साथि ।
वोळाजी होइ ।
ही मागिसिरां इक कीजं जी जात, तीरथ परिसि विवि दान दोर्जे सदा, अहो राति बडी दिन नेमि सेथी राजल भरणं, स्वामि मेरो हो दुख न जाणे जी कोई || ८६ ॥
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शृङ्गार परक वर्णन
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माघ मारा
पोष मास - पोष मास में तीथंकरों के कल्याणक होने के कारण नर नारी
पूजा करते हैं । मोतियों से चौक पूरा जाता है । स्त्रियां अयना गार करके भक्ति-भाव से जिनेन्द्र की भक्ति करती हैं । लेकिन मुझे तो विधाता ने दुःख ही दिया है ।। माघ पाराबाल पड़ता है। इस कारण वृक्ष और पौधे बर्फ से जल जाते हैं तथा नष्ट हो जाते हैं । हे स्वामिन प्रापने तो मेरी चिन्ता किये बिना ही साधु-दीक्षा धारण
कर ली । हे स्वामिन् ! प्रब मुझ पर भी दया करो ।' फाल्गुन मास-फाल्गुण मास में पिछलो सर्दी पड़ती है। बिना नेमि के यह
पापी जीव निकलता ही नहीं है, क्योंकि दोनों में इतना प्रधिक मोह हो गया है। तीनों लोकों का सारभूत अष्टालिका पर्व भी इसी मास में प्राता है , जब देवतागण
नंदीश्वर द्वीप जाते हैं । फागुरिंण पई हो पछेसा सोउ, नेमि विणा नीकसी पापी पा जोय । मोह हमारा तुम्ह सज्यो, अहो बस अष्टाहिका त्रिभुवन सार । दीप भविश्वर सुर करो, स्वामि हमस्यो जो प्रैसी करि हो कुमारी ॥१२॥ पैत्र मास - जब यंत्र के महीने में बसन्त ऋतु पाती है तो वृक्षा
स्त्री भी यूवती बन कर गीत गाने लगती है । बन में सभी पक्षी क्रीड़ा करते रहते हैं, क्योंकि उन्हें चारों और सब फूल खिले हुए दिखते हैं। कोयल मधुर शब्द सुनाती रहती है इस प्रकार चैत्र मास पूरा मस्ती का महीना है । ऐसे महीने में राजुल बिना नेमि के कैसे रह सकेगी।
1. अहो पोस मै पोस कल्याणक होई, पूजा जी नारि रचं सह कोई ।
पूरै जी चोक मोरयां तणा, अहो कर जी सिंगार गाव नरनारि । भावना भगति जिनबर तणो, प्रहो हमको जी दुःख दीन्ही करतारि ।। अहो माघ मांस घणा पड़ जी तुसार, बनसपती दाझि सर्व हुई छार । चित्त हमारो घिर किम रहै, ग्रहो तुम्ह तो जी जोग दिन्हो बन आइ । मेरी चिन्ता जी परहरी, स्वामि दया हो की अब जादौ जी राई ।६१॥ अहो चंत पावे जब मास बसंत, बुढी हो तरणी भी गावे हो गीत । छन में जी पंख क्रीडा करे, अहो दीसे जी सब फुली वणगइ। करी हो सबद अति कोकिला, अहो तुम्ह बिना किम रहे जादो जी राय ॥१३॥
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
वैसाख मास – वसान मास पाने पर पुरुष और स्त्री में विविध भाव
उत्पन्न होते हैं। वन में पक्षीगण क्रीडा करते हैं तथा स्त्रियां षट्रस व्यंजन तयार करती हैं, लेकिन हे स्वामी ! पाप तो घर-घर जाकर भिक्षा मांगते हो। यह कंजूसी आपने कबसे सीस्त्र ली ?'
जेठ मास - मवसे अधिक गर्मी जेठ में पड़ती है। हे स्वामी ! घर में
शीतल भोजन है, स्वर्ण के थाल है तथा पनि भक्तिपूर्वक खिलाने को तैयार है । घर में अपार सम्पत्ति है लेकिन पता नहीं आप दीन वचन कहते हुए घर-घर क्यों फिरते हैं ।
प्राप' जैसे व्यक्ति को कौन भला कहेगा ?२ प्राषाढ मास –प्राषाढ पाते हो पशु-पक्षी सब पर बना कर रहने लगते हैं
तथा परदेश में रहने वाले घर आ जाते हैं, लेकिन प्रापने तो प्रपनी जिद्द पकड़ ली है। प्राप पर मन सन्य का भी कोई असर नहीं होता। इसलिए मेरी प्रार्थना अपने चित्त में धारण करो।
ब्रह्म रायमल्ल ने राजुल की व्यथा को बहुत ही संपत भाषा में छन्दोबद्ध किया है। विरह-वेदना के साथ-साथ राजुल के शब्दों में कवि ने जो अन्य धार्मिक क्रियाओं का तथा नेमिनाथ की मुनि क्रिया का उल्लेख किया है उससे राजुल के कथन में स्वाभाविकता पा गई है । अन्त में राजुल नेमिनाथ से यही प्रार्थना करती है कि इस जन्म में जो कुछ भोग भोगना है उन्हें भोग ही लेना चाहिए क्योंकि अगला जन्म किसने देखा है । वास्तव में जब घर में खाने को खूब अन्न है तो लंघन करके भूखो
१. अहो मासि वैसाख पावे जब नाह, पुरिष तीया उपज बहु भाउ ।
वन में हो पंखि क्रीडा कर, अहो छह रस भोजन सुदरि नारि ।
भीख मांगत धरि धरि फिर, स्वामी योहु स्याणप तुम्ह कोण विचार ।१४। २. अहो जेठि मांसा प्रति तपति को काल, सीतल भोजन सोवन थास ।
करौ हो भगति प्रति कामिनी, अहो घर मैं जो संपदा बहुविधि होइ। दीन वचन धरि धरि फिर, स्वामि ता नरस्यो भलो कहै न कोई ।१५। ग्रहो मास भासाद्ध प्रावै जब जाई, पसूहो पंखि रहै सब घर छाई। परदेसी घरा मम फरे, अहो तुम्ह नै जीदई लगाई वाय। मंघ तंत्रानवि कलजी, स्वामि बात चित मै घरी जादो जी राई १६६
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शृङ्गार परक वर्णन
मरने से तो उल्टा पाप लगता है । इसके अतिरिक्त उस तरह मरने का भी क्या अर्थ है जिसको कोई लकड़ी देने वाला ही नहीं।
ब्रह्म रायमल्ल ने अपने काव्यों में शृङ्गार रस की और भी चुटकियां ली है। रुक्मिणी जब नाग पूजा के लिए उद्यान में गयी तो वहीं नाग बिब के पीछे ही कृष्ण जी बैठे हुए थे। दोनों के नेत्र से नेत्र मिलते ही एक-दूसरे में प्रेम हो गया ।
संभोग शृङ्गार ब्रह्म रायमल्ल ने अपने काब्यों में संभोग द्वार का भी असहा वर्णन किया
प्रद्युम्न की सुन्दरता पर कचनमाला मुग्ध हो जाती है और उसके साथ अपनी काम पिपासा पान करना चाहती है तथा उसे पाल कला कर निलंज बन कर सब कुछ करने की प्रार्थना करती है
हो भरणा मयणस्यौं घोचो लरजो हो, करि कुमार मन वाछित काजो। हम सरि कामणि को नहीं जी ।
ध्यान धरते हुए सेठ सुदर्शन को प्रभया रानी के महल में ले जाया जाता है । वहां अभया रानी विनयपूर्वक सेठ से संभोग की जिस तरह इच्छा प्रकट करती है यह तो लज्जा की सीमा को हो पार करना है। प्रभया रानी पहसे तो राग-रंग करती है और फिर सुदर्शन से इच्छानुसार काम-क्रीड़ा करने के लिए कहती है ।
महो पाई भी प्रभया जौ, बैठी हो पासि, रंग का वचन प्रति कहे जीवा सासि । सफल जनम स्वाभो तुम कोयो, महो अब हम उपरी कीजे हो भाउ । सुख मन बाँछित भोगऊ, स्वामी माणस जनम को लीजे हो लार १२३
१. महो असा जी वाराह मास कुमार रिति रिति भोग कीजै प्रतिसार ।
पाबता जन्म को को गिण, महो घर में जी नाज नावाने जी होय । पापि लांघण करि मरी, स्वामि मुवा थे लाकडी देई न कोई । १७॥
-नेमीश्वररास २. हो सुणी बात हसि तं खिणा उठिङ नेत्र नेत्रस्यो मिलि गया जी ।४३।
---प्रधुम्नरास
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
इसी प्रकार के और भी प्रसंग ब्रह्म रायमरुल के काव्यों में मिलते हैं । यद्यपि जन हिन्दी काव्यों का प्रमुख उद्देश्य शृङ्गार रस का वर्णन करना नहीं रहा है और उन्होंने अपने काव्यों में उसे विशेष महत्व भी नहीं दिया है किन्तु प्रसंगवश संयत शब्दों में श्रृंगार रस का वर्णन यत्र-तत्र अवश्य मिलता है।
वीर रस वर्णन हिन्दी जैन काव्य शान्त रस प्रधान है। उनके नायक एवं नायिका युद्ध से मदेव बपने का प्रयास करते हैं । यद्यपि श्रीपाल, नेमिनाथ, राजुल, हनुमान सभी क्षत्रिय कुमार हैं तथा नेमिनाथ के अतिरिक्त वे शासन भी करते हैं लेकिन वे युद्धप्रिय नहीं होते हुए भी युद्ध से घबरा कर भागते नहीं है और आवश्यकता पड़ने पर युद्ध का सहारा भी लेते हैं । इन काव्यों में ऐसे प्रसंग कितने ही स्थान पर पाते हैं जहाँ कवि को युद्ध का वर्णन करना पड़ता है। भविष्यवत तो श्रेष्ठ पुत्र होने पर भी युद्ध में विजय प्राप्त करता है ।
युद्ध के सबसे अधिक प्रसंग प्रद्युम्न के जीवन में प्राते हैं लेकिन प्रत्येक बार ही निर्णामक युद्ध होने के पूर्व ही शान्ति हो जाती है। लेकिन उससे प्रद्युम्न के युद्ध कौशल अथवा वीरता पर कोई भांच नहीं पाती । वह अपने शत्रु को उसी प्रकार ललकारता है तथा युद्ध की तैयारी करता है। प्रद्युम्न तो अपने पिता श्रीकृष्ण जी से भी युद्ध भूमि में ही अपनी बीरता दिखाने के पश्चात् मिलता है। प्रद्युम्म श्रीकृष्ण सहित बलराम और पांचों पाण्डवों को जिन शब्दों में युद्ध के लिये ललकारता है वे वीर रस से ओत-प्रोत है
हो परजन कहै घनष घरा ए, हो तेहि वैराटि छुड़ाई गाए । जबल छ तो पाई ज्यो जी, हो भीम मल्ल तुम्ह बड़ा भारी। रूपिणि वाहर लागि ज्यौ मी, हो के रालि घो गया हथियारो।३९। हो निकुल कुम्भ सोभ तुम्ह हाथे, हो कहि ज्यो बली पाडा साथे। अब बल देखो तुम्ह तरणो जो, हो सहदेव ज्योतिग जागे सारो।
कहिं रूपिणि किम छुटी मी जो, हो इहि ज्योति को कर विचारों।
प्रद्युम्न केवल शत्रु को लड़ाई के लिये ललकारता ही नहीं है किन्तु घनघोर युद्ध के लिये भी अपने प्रापको प्रस्तुत करता है
विद्या बल सह संजोईया जी, हो पहिलो चोट पयावा पाई। पाछे घोडा घालीया ओ, हो रड मुंबप्रति भई लाई ।७३।
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वीर रस वर्णन
ह
हो प्रसगरो मार प्रसवारो, हो रथ सेथी रथ जुरे झुझारो। हस्ती स्यो हस्ती भिडे जो, हो घगौ कहो तो होई विस्तारौ ।७४।
-प्रय म्नरात श्रीपाल को भी राज्य प्राप्ति के लिए अपने ही काका वीरदमन से युद्ध का सहारा लेना पड़ता है। दोनों हार में एक की माटी होती है जगी का एक वर्णन देखिए
हो भाटि मानियो रण संग्राम, प्रायो कोडी भज के ठाम | वास पाहिली सह कही, हो सिंघमा बजिया निसारण ।
सर किरणि अझ नहीं हो उडी खेय लागी प्रसमान १५७। हो घोडा भूमि खणे खुरसाल, हो जाणिकि उखटिश मेघ प्रकाल । रथ हस्ती बहु साखती, हो गई पक्ष को सेना घाली। सुभट संजोग संभालिया. हो पणी दुई राजा को मिली ।।८।
भविष्यदत्त तो श्रेष्ठ पुत्र था । लेकिन उसकी स्त्री को ही समपित करने के लिए पोदनपुर के राजा के दूत ने जब जोर दिया तो युद्ध के अतिरिक्त कोई चारा नहीं रहा । भविष्यदत्त स्वयं रणभूमि में उतरा और मुद्र में विजय प्राप्त की । इस मुख का एक वर्णन निम्न प्रकार है
मात र बहुत भाजि बी पोति, वंति तिसो ले छुनौ मोठि । एक सुभठ रण प्रायो सरं, तूटो सिर ठाडो घर फिर ।। एक सुभट के इहै सुभाउ, भागा मोग न घाल घार । जो प्रांनी अधिक असमान, भह रणो हा गिध मसारण ।।
ब्रह्म रायमल्ल के काल्यों के सभी नायक बीर हैं। लेकिन क्षमा, धर्म उनके जीवन में उतरा हुप्पा होता है। श्रीपाल भी समुद्री चोरों को बिना दपर दिये ही छोड़ देता है जो उसके दया भाव उदाहरण है
हो छोड्या घोर बिनो बहु कोयो, धया भाउ करि भोजन बोयो । मन पच काय मा करी हो हाथ जोडि बोल्या सह पोर । तुम समान उत्तम नहीं, हो हम पापी लोभी घण घोर ।।२।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
प्रकृति वर्णन जैन कवियों को प्रकृति वर्णन रादा अभीष्ट रहा है । महाकवि रल्ह ने अपने जिनदत्तचरित में स्थान-स्थान पर वृक्ष, लता एवं पुरुषों का बहुत ही उत्तम वर्णन किया है । ब्रह्म रायमल ने भी अपने काव्यों में अवसर मिलते ही प्रकृति का जो चित्रण किया है उससे काव्य की महत्ता में तो वृद्धि हुई ही है साथ ही वह कवि के विशाल ज्ञान का भी परिचायक है । कवि ने जिन काव्यों में प्रकृति चित्रण किया है उनमें भविष्यदत्त चौपई एवं हनुमंत कथा ये दो प्रमुख काव्य है ।
विद्याधरों के देश प्रादितपुर के चारों ओर घना जंगल था। विविध प्रकार के वृक्ष थे । नदी और सरोवर थे जिनमें कमल खिले हुए थे। कुबे और बावडियां श्रीं ओ जल से प्रोत-प्रोत थी । कवि ने कितने ही वृक्षों के नाम गिनाये है जो उस नगर की शोभा बढ़ात थे।
थन को सोभा अधिक विस्तार, राइ णिमहु वाती टूचार । धील कडह धोकं थकरीर, नौब के बगुल मणि गहोर ।। सालरि स्वरवास काविडा, सोसौं सागवान श्रद्धा । कर्पर धामण वेर सुचंग, नींबू, जांबू पर मालिग ।। प्रमृतफल कटहल बहु केलि, मंडप चढौ वास को केली । दार हरद प्रावला पतंग, चोच मोच नारिंग सुरंग ।। धोल, सुपारी कमरख धरणी, निब जां पावा फाण संचिचिणी । मिरी बिदाम लौंग प्रखरोट बहत जायफल फली समोट ।७। कुजो परयो साटौ जाई, चेलि सिंहाली चंपी राह ।
जुही पाडल बौलश्री कंद, चंबोलोक नयर सुचकंद ।। सिरकव करणी कर बीर, चंदन अगर तह बाल गहीर । केतकी केबढी बड़ी सुगंध, भमर बास रमहि प्रति प्रध ।
अंजना को गर्भ रहने पर उसकी सास ने घर से निकाल दिया । पिसा के घर गयी लेकिन वहां भी उसे सहारा नहीं मिला । अन्त में उसने बन की राह ली । जो
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प्रकृति वर्णन
अत्यधिक डरावना था कवि ने उसका सुन्दर वर्णन किया है। कुछ पंक्तियां निम्न प्रकार हैं-
वन अति अधिक महा भैभोत, सावज सिंध व परीत।
चीता रोड स्थाल शुकरी, ता वम मैं पहुंली सुन्दरी ॥१४॥ ६०॥
-हनुमत कथा
कवि ने लगा में सीता के चारों ओर जो सुरम्य उद्यान था उसका वर्णन भी
विभिन वृक्षों एवं फल-फूलों के नाम देकर किया है
नंदनवन देवरे व्योषाद, फुलित फुलिति भई वनराष्ट्र । कवली चोंच भांव नारिंग, दाल छहारी मामतु लिंग । कमरख कटहल कंस अनार, लोंग बिदाम सुपारी चार |१५|
कुआँ मरवौ जूही जाद, केतकी महुवो महकाइ पाडल बकुल बेलि सेवतो, वन सोभा दीसे बहु भंती |१६|
EX
वन में केवल वनस्पत्ति ही नहीं होती यहां वन जीव भी होते हैं | महाकवि
ने भविष्यदत्त चौपई में इसी का एक वर्णन निम्न प्रकार किया है
वन मै भीत अधिक प्रसराल, सुवर संवर रोझनिमाल ।
चीता सिंघ बाडा घणा, बाँदर रौद्र महिष साकरणा । १२४१
हस्ती जब फिर प्रसराल, सारबूल अष्टापद बाल । अजगर सयं हरण संचरं भवसवंत तिहि वन में फिरं । १२५ ।
॥
तिने बन में जाकर जिनेन्द्र भगवान की पूजा एवं वंदना की । कवि ने उस पूजा के लिए जो भ्रष्ट मंगल द्रव्यों के नाम गिनाये हैं उनमें प्राकृतिक वर्मन में बहुत माम्यता है ।
इस प्रकार और भी महा रायमल्ल के काव्यों में प्राकृतिक वर्णन हुआ है। जिससे कामों में स्वाभाविकता एवं सुन्दरता प्रायी है ।
१. घणी कहो ती होइ विस्तार, जाति लाख दश वनस्पति सार |
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल राजनैतिक स्थिति
ब्रह्म रायमल्ल के जीवन का उत्कर्ष काल संवत् १६०१ से १६४० तक रहा । इस अवधि में देश की राजनैलिक स्थिति में बराबर परिवर्तन होता रहा । इन ४० वर्षों में देहली के शासन पर एक के बाद दुसरे बादशाह होते गये । कुछ बादशाहों की तो स्वतः ही मृत्यु हो गयी और कुछ को युद्ध में पराजित होना पड़ा । प्रारम्भ के १२ वर्षों में शेरशाह सूरि एवं सलीमशाह सूरि का शासन तो फिर भी स्थिर रहा लेकिन उसके पश्चात देश में अगता फैल गयी। सूद पानहैप का उदय एवं प्रस्त, हुमायु द्वारा दिल्ली पर पुनः विजय एवं कुछ ही समय पश्चाद उसकी मृत्यु जैसी घटनाएं घटती गयीं पोर देश में अराजकवा के अतिरिक्त स्थायी शासन स्थापित नहीं हो सका। संवत् १६१३ (सन् १५५६) में अकबर देहली के सिंहासन पर बैठा लेकिन उसने भी अपने भापको मुसीबतों से घिरा पाया । चारों मोर प्रशांति थी । छोटे-छोटे शासन स्थापित हो रहे थे और उनमें भी परस्पर युद्ध हुआ करते थे । बादशाह अकबर ने देश में स्थिर एवं सशक्त शासन स्थापित करने में सफलता प्राप्त की और बह दीर्घ काल तक देश के बड़े भाग पर शासन करता रहा ।
राजस्थान के मेवाड़ के अतिरिक्त सभी राजाओं से अकबर ने मधुर संबंध स्थापित किये। सर्वप्रथम उसने भामेर के तत्कालीन राजा भारमल्ल से मित्रता स्थापित की और उसे पांच हजारी का मन सब का पद दिया । भारमल्ल के पश्चात् राजा भगवन्तदास ( १५७४-१५८६ ) प्रामेर के शासक बने । उनका भी मुगल दरबार से घनिष्ट संबंध रहा । ब्रह्म रायमल्ल ने राजा भगवन्त के शासन का अपने काव्य 'भविष्यदस्त चौपई' में उल्लेख किया है। कवि उस समय सांगानेर में थे जहां परस्पर में पूर्ण सद्भाव एवं व्यापारिक स्मृद्धि श्री। वहां बहुत बड़ी जंन बस्ती थी। हूँढार प्रदेश के प्रन्य नगरों में भी शांति थी । जब कवि टोडारायसिंह, झुझुनू, रणथम्भौर, सांभर एवं धोलपुर गये तो वहां भी कवि को किसी प्रकार की कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ा । कवि ने झुंझनू के शासक के नाम का उल्लेख नहीं किया तथा सांभर के शासक का नाम भी नहीं लिखा जिससे मालूम पड़ता है कि वे दोनों ही नगर के सामान्य शासक थे।
स्वयं कवि ने अपने काम्बों में तत्कालीन राजनैतिक स्थिति के बारे में कोई विशेष उल्लेख तो नहीं किया जिससे यह तो कहा जा सकता है कि स्वय कवि को किसी विशेष अराजकता अथवा दमन का सामना नहीं करना पड़ा तथा वे जहाँ भी जाते रहे उन्हें शान्त एवं धामिक वातावरण मिलता रहा ।
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राजनैतिक स्थिति
कवि ने अपनी कृतियों में जिन-जिन शासकों का नामोल्लेख किया है वे हैं सम्राट अकबर, राजा भगवन्तदास एवं राजा जगन्नाथ ।
सम्राट अकबर देश के मध्यकालीन इतिहास में सम्राट अकबर का नाम विशेषल : उल्लेखनीय है। वह एक शक्तिशाली एवं दृढ़ विस्तारवादी शासक था । उसने उदार नीति अपना कर हिन्दु काय जीवोगा प्रतिमा। शोर सोपूर्ण माता भी मिली। बह सभी धर्मों का प्रादर करता था इसलिये उसने हिन्दुओं पर लगने वाला तीर्थपात्री कर एवं जजिया कर समाप्त करने की घोषणा करके देश में लोकप्रियता प्राप्त की। वह समय-समय धामिक सन्तों की विचार गोष्ठियां सामन्त्रित करता था और उनके प्रवचन सुनता था। जंनाचार्य हीरविजयसूरि, विजयसेनसूरि, भानुचन्द्र उपाध्याय भ० जिनचन्द्र एव तत्कालीन अन्य भट्टारकों ने अकबर को जन धर्म के सिद्धान्तों की मोर प्राषित किया। जैनाचार्यों के प्रमाव से उसने पिंजब्जे में बन्द पक्षियों को मुक्त कर दिया एवं शिकार खेलने पर पाबन्दी लगादी तथा स्वयं ने मांस खाना भी बन्द कर दिया।' महाकषि बनारसीदास सो मकबर से इतने प्रभावित पे कि जब उन्होंने अकबर की मृत्यु के समाचार सुने तो वे एक दम बेहोश हो गये । २ अझ रायमल्ल ने श्रीपाल रास में संवत् १६३० (सन् १५७३) के सम्राट अकबर के शासन का सल्लेख करके रणथम्भौर की मुख शान्ति का वर्णन किया है । पाण्डे जिनदास ने भी अपने जम्बूस्वामी चरित में अनबर के मुशासन का उल्लेख किया है।४
राजा भगवन्तवास राजा भगवन्तदास मामेर के संवत् १६३१ से १६४६ तक शासक रहे। ये अकबर बादशाह के विश्वास एवं कृपापात्र शासकों में से थे । राजा भगवन्तधास संवत् १६३६ से १६४६ तक पंजाब के गवर्नर रहे और लाहौर में ही उनकी मृत्यू हो गयी । इनके १५ वर्ष के शासनकाल में तूंढाड प्रदेश में जन साहित्य एव जैन संस्कृति को शासन की ओर से प्रत्यधिक प्रश्रय मिला। उस समय प्रदेश में भट्टारकों का पूर्ण प्रभाव था । पम्पावती (चाटसू) में संवत् १६३२ में जब नरसेन कृन श्रीपालचरित की
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१. अकबर महान, पृष्ठ संख्या २०० २. अर्ध कथानक ३. श्रीपाल रास-अन्तिम प्रशस्ति ४. प्रशस्ति संग्रह-सम्पादक डॉ. कासलीवाल, पृष्ठ संख्या २१३
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
पाण्डुलिपि हुई थी तो चन्द्रकीति लस समय भट्टारक थे।' इस ग्रन्थ की पार्श्वनाथ के मन्दिर में प्रतिलिपि हुई थी। लिपिकार ने प्रशस्ति में राजा भगवन्तदास एवं भट्टारक चन्द्रकीति दोनों का उल्लेख किया है। इसके एक वर्ष पश्चात् ही मालपुरा ग्राम में जयमित्रहल के वर्षमान काव्य (अपभ्रंश) की प्रतिलिपि हुई थी। वहाँ श्रावकों की प्रच्छी बस्ती थी।
__ ब्रह्म रायमल्ल ने जब सांगानेर में प्रवास किया तो उस समय राजा भगवन्तदास ही वहाँ के शासक थे। सांगानेर उस समय व्यापार की दृष्टि से पूर्ण समृद्ध नगर पा । सभी तरह का व्यापार था तथा नगर में मुख शान्ति व्याप्त थी। निधन एर मुह समाज के कारन ही न गद पता गितारी पी। संवत् १६३५ में मालपुरा ग्राम में "द्रव्य संग्रह वृत्ति" ग्रन्थ को प्रतिलिपि की गयी थी। प्रतिलिपि करने वाले साह कर्मा गंगवाल ने लिखा है कि उस समय यद्यपि भगवन्तास राजा थे लेकिन मानसिंह ही उनकी ओर से राज्य का शासन चलाते थे।'
राजा जगन्नाथ राव राजा जगन्नाथ टोडारायसिंह एवं रणथम्भोर के शासक थे। ये भामेर के कछाबा शासको में से थे । बादशाह अकबर की इन पर पूर्ण कृपा पी। इन्होंने महाराणा प्रताप के विरुद्ध कितने ही युद्धों में भाग लिया था।
ब्रह्म रायमहल अपनी राजस्थान बिहार के अन्तिम चरण में संवत् १६३६ में टोडारायसिंह पहुंचा था । यहीं पर महाकवि ने परमहंस चौपई की रचना की थी। प्रस्तुत चौपई उनकी अन्तिम रचना है । महाकवि ने टोडारायसिंह का जैसा वर्णन किया है उससे पता चलता है कि राजा जगन्नाथ वीर एवं प्रतापी शासक थे तथा दान देने में वे जरा भी कंजूसी नहीं करते थे । राजा जगन्नाथ के शासन काल में ही टोडारायसिंह नगर के आदिनाथ चैत्यालय में पुष्पदन्त के आदिपुराण की प्रतिलिपि की गयी थी । जो भट्टारक देवेन्द्रकीति को भेंट देने के लिये लिखी गयी थी।
१. प्रशस्ति संग्रह-पृष्ठ संख्या १५८ २. वही, पृष्ठ संख्या १७० ३. परजा लोग सुखी सुखी सुख, दुखी दलिद्री पुरवे पास ।। ४, राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रन्थ सूची चतुर्थ भाग, पृष्ठ संख्या २४ ५. राज कर राजा जगन्नाथ, दान देत न खींचे हाथ । ६. प्रशस्ति संग्रह-डॉ० कासलीवाल, पृष्ठ ८९
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सामाजिक स्थिति
राजा जगन्नाथ के नाम का उल्लेख करने वाली राजस्थान के जैन ग्रन्थागारों में प्राज भी पचासों ग्रन्थ सुरक्षित रखे हुये हैं।
सामाजिक स्थिति सामाजिक दृष्टि से ब्रह्म रायमल्ल का समय प्रत्यधिक अस्थिर था देश में मुस्लिम शासन होने तथा धार्मिक बिद्वेषता को लिये हुये होने के कारण सामाज की स्थिति भी सामान्य नहीं थी | समाज पर भट्टारकों का प्रभाव व्याप्त था और धार्मिक एवं साहित्यिक क्षेत्र में उन्हीं का निर्देश चलता था। देहली के भट्टारक पट्ट पर भट्टारक धर्मचन्द्र (१५८१-१६०३) भट्टारक ललित कीति एवं भट्टारक चन्द्रकीति विराजमान थे | महाकवि का सम्बन्ध यद्यपि भट्टारकों से अधिक रहा होगा लेकिन उन्होंने अपना स्वतन्त्र व्यक्तित्त्व ही बनामे रखा ।
ब्रह्म रायमल्ल के समय में विवाह आदि अवसरों पर बड़ी-बड़ी जीमनबार होती थी 1 कवि ने ऐमी ही जीमनवारी का मधुम्न रास, भविष्यदत्त चौपई एवं श्रीपाल रास में वर्णन किया है । जब प्रद्युम्न सत्यभामा के घर गया तो वहाँ भानु कुमार के विवाह का जीमन हो रहा था। । हो सति भामा घरि गयो कुमारी, भानु कुमार ज्या ज्योणारी ॥ ४४ । ६३ ।
भविष्यदत्त जब बन्धुदत्त से वापिस पाकर मिला तब भी मिलन की खुशी में भविष्यदत्त ने जहाज के सभी वणिक पुत्रों को सामूहिक भोजन दिया था।
बाण्या सहित करी ज्यौरणार, पाम सुपारी वस्त्र प्रपार ।। ४४ । २६ ।
कवि ने उस समय के कुछ स्वादिष्ट व्यंजनों के नाम भी गिनाये हैं। ये सभी स्वादिष्ट भोजन कहलाते थे और उसके खाने के पश्चात् तृप्ति हो जाती थी।
घेवर पचधारी लापसी. नहि न जीमत प्रति मन खुसी। उजल बहुत मिठाई भली. जहि ने जीमन प्रति निरमली ॥६॥ खाय तोरइ विजन भांति, मेल्या बहुत राहता जाति । मंग मंगोरा खानि वालि, भात पकस्यो सुगंधी सासि ॥६४॥ सुरहि घ्रित महा मिरदोष, जिमत होइ बहुत संतोष । सिस्वरणि दही घोल बह खीर, भवसवंत मिभौ घरवीर ॥६॥१४॥
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
श्रीगाल भी जब रणमंजूका विवाह करके अपने जहाज पर पाया था तो उसने भी सभी को जिमाया था
हे बिउहर मष्टय भयो जैकार, सिरोपाल वोमी ज्योणार ॥११३।१७।।
उस समय भी बरातें सज-धज के साथ चढ़ती थी। बरात: लोग प्रासों में कज्जल मुख में पान, केशर चंदन एवं कुकम के तिलक लगाकर निकलते थे। बरात कभी-कभी एक-एक महिने तक रूकती थी।' खुल्हा सेहरा लगाते, गले में मोतियों की माला पहिनते । कानों और हाथों में कुण्डल पहिनते । महाकवि ब्रह्म रायमल्ल ने श्रीपाल रास, प्रद्युम्नरास, हनुमन्त कथा, भविष्यदत्त चौपई एवं नेमीश्वररास मभी काध्यों में एक से अधिक बार विवाह विधि का वर्णन किया है । सभी में प्रायः एक मा वर्णन छुपा है। उसके अनुसार ब्राह्मण फेरे कराया करते थे। भग्नि, ब्राह्मण एवं समाज को साक्षी में विवाह लग्न सम्पन्न होता था। श्रीपालरास में इसी तरह का वर्णन निम्न प्रकार है
हो लीयो राइ जीतिगी खुप्ताह, कन्या केरो लगन लिखाइ । मण्डप बेदी सुभ रची, हो अंव पत्र को बंधी माला कनक कलस बहु विसी षण्पा, हो छाए निर्मम वस्त्र विसास ॥१६४॥ हो गावे गीत तिया करि कोड, बस्त्र पठंबर बंधे मोड। फूलमल सोभा घणी हो, चोया चंदन वास महोडि ॥ वेदो विप्र हुलाइयो हो. जर कन्या बैठा करि जोरि ॥१६॥ हो भावरि सात फिरिस भई बाषि, भयो विवाह अग्नि दे साखि। राजा बीनों बाइजो हो कन्या हस्ति कनक के काग । वेस ग्राम बीमा घणा हो, विनती करि दोनो बहमान ॥१६६॥
--श्रीपाल रास राजघराने के विवाह के अतिरिक्त सामान्य नागरिकों के यहाँ भी विवाह उसी तरह धूमधाम से सम्पन्न होते थे । दहेज देने की प्रथा उस समय भी खूब प्रचलित
१. हो मास एक तहा रही बरातो, भोजन भगति करी घणा जी ॥३|| २. अहो घढियौ जी व्याण सिव देवि हो बाल, सोभा जी सेहुगे मोत्यां जी
माल। काना मी कुडल जगमग, अहो मुकट बग्यो होरा जी लाल मीश्वररास।।
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सामाजिक स्थिति
थी । धनपति और कमलश्री के विवाह का वर्णन भी इसी प्रकार का है
मेदिक बात मन में चिस्वई, पुत्री धनपति जोग व दई ॥ मण्डप वेदी रथया विसाल, तोरण मंध्या मोती माल ।।२७।।
बहु पक्ष बहु मंगलधार, कामिणि गावे गीत सुधार । वर कन्या कोरहो सिंगार, चोवा चंदन वस्त्र अपार ॥२८॥1
मा निमार कोरबा कन्या के बांभयो मोज । वेदी मंडप विप्र प्राइयो, पर कन्या हथलेवो दियो ।
खुवै पक्ष र वैट्टा वाति, भयो विवाह अग्नि दे सालि ।। पुत्रो बरन विन्ही मान, कंचन वस्त्र मान सनमानु |॥२९॥
समाज में शिक्षा का प्रचार था । सात वर्ष के बालक को पढ़ने भेज दिया जाता था। भविष्यदत्त चौपई में सात वर्ष के भविष्यदत्त को पढने भेजने के लिया लिखा है।' जैन समाज व्यापारिक समाज था । वह राज्य सेवा में जाने की अपेक्षा म्यापार करना अधिक पसन्द करता था। २० वर्ष से भी कम आयु के मवयुवक श्यापारी देश एवं विदेश में व्यापार के लिये निकल जाते थे। वे समूहों में जाते। बंधुदत्त एवं धवल सेठ के काफिले में सैकडों म्यापारी नवयुवक थे।'
दहेज
विवाह में कन्या पक्ष की ओर से दहेज देने की प्रथा थी। दहेज को 'डाइजा' कहा जाता था । श्रीपाल, भविष्यदत्त, पवनंजय सभी को दहेज में अपार सम्पत्ति मिली थी। दहेज में हाथी, घोड़ा, स्वर्ण, वस्त्राभूषण, दास, दासी और कभी-कभी भाषा राज्य भी दे दिया जाता था । लेकिन यह सब स्वत: ही दिया जाता था । बर पक्ष की ओर से कोई मांग नहीं होती थी। यह अवश्य है कि उस समय भी मातापिता को अपनी लडकी के लिये अच्छे वर प्राप्त करने की चिता रहती थी । अंजना
१. बालक सात वर्ष को भयो, पंडित मागे पदणी दियो । --भविष्यदत्त चौपई । २. प्रस्व हस्ती बहु डाइजो हो, बस्त्र पटवर बहु भाभणे ।
दासी दास दीया धणा हो, मणि माणिक्य जच्या सोवर्ण । श्रीपाल रास
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
के विवाह को उसके पिता को बहुत चिन्ता थी इसके लिये उसने अन जल और पान भी छोड़ दिये थे ।
चिन्ता अधिक भई सरीर, राज्या तंबोल न भरू मीर ।
राज कुंवार देवे सब तेहि, बात विचारन आ कोइ || ५४ । ७४ ।
कभी-कभी घर के चयन के लिये राजा लोग अपने मंत्रियों की सलाह लिया करते थे और उनमें से किसी एक बर के साथ राजकुमारी का विवाह कर दिया करते थे। अंजना के लिये पवनजय का चयन यादित्यपुर के राजा महेन्द्र द्वारा इसी प्रकार से किया गया था ।
भट्टाचारकों का प्रभुत्व
समाज पर भट्टारकों का पूर्ण प्रभाव था । उत्सव, विधान, पंचकल्याणक प्रतिष्ठा समारोह, व्रतोद्यापन आदि के सम्पन्न कराने में उनका प्रमुख योगदान रहता । इन समारोहों में या तो वे स्वयं ही सम्माननीय श्राध्यात्मिक सन्त के रूप में सम्मिलित होते या फिर उन्हीं के नाम से समारोह का आयोजन रहता था। भट्टारकों के प्रतिरिक्त संघ की प्रमुख साधुओं में मंडलाचार्य, ब्रह्मचारी आदि के नाम प्रमुख हैं। ने सभी ग्रन्थों को प्रतिलिपि करने का काम भी करते थे । सवत् १६३० अषाढ़ सुदी २ सोमवार को ब्रह्म रायमल्ल को भट्टारक सकलकीति विरचित यशोधर चरित्र की पाण्डुलिपि भेंट की गयी थी। भेंटकर्ता थे ठाकुरसी एवं उनकी धर्मपत्नी लक्षण राजस्थान में भट्टारक चन्द्रकीति संवत् १६२२ से १६६२ तक भट्टारक रहे। ब्रह्म रायमल्ल धीर भट्टारक चन्द्रकीति समकालीन थे ।
लेकिन व्रत उपवास एवं प्रतिष्ठा विधान के अतिरिक्त समाज में आध्यात्मिक साहित्य की भी मांग होने लगी थी। राजस्थान में ढूंढाड प्रदेश और उसमें भी
सत्यंजय मंत्री हम कहे, उहि ने पुत्रो दीजं नहीं ।
राजा बात सुनो हम तथी वर उत्तम मो जोग्य भंजनी । श्रादितपुर सो सुभमाल, कहै राज प्रहलाद भांवाल | रानी केतुमती घर भलो, इन्द्र सरोसा जोडी मिली । पवनंजय तसु बढद्ध कुमार, धम्मंवंत गुप्य समुद्र पार 1 कांति दिवाकर सोभे देह, सोलह वरना चन्द्रमुख || २. प्रशस्ति संग्रह-सम्पादक डॉ० कासलीवाल,
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सामाजिक स्थिति
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बैराठ एवं सांगानेर एवं टोडारायसिंह तथा उत्तर प्रदेश में आगरा इसके प्रमुख केन्द्र ये । समयसार एवं प्रवचन सार जैसे ग्रन्थों के स्वाध्याय की और लोगों की रूचि उत्पन्न हो रही थी । बैराठ में पं० राजमल्ल ने समयसार पर टीका लिखने के पश्चात् ब्रह्म रायमल्ल ने परमहंस चौपाई की रचना आध्यात्मिक भावना की प्रचार प्रसार की दृष्टि से की थी ।
I
भट्टारकों के प्रोत्साहन के कारण राजस्थान में प्रतिवर्ष कहीं न कहीं विम्ब प्रतिष्ठा समारोहों का आयोजन होता रहता था। संवत् १६०१ से १६४० तवः राजतीस से हुई। इन समारोहों के दो लाभ थे । एक तो समूची समाज के कार्यकर्ता भों, विद्वानों, साधु सन्तों एवं श्रावक-श्रावि कार्यों का परम्पर मिलना हो जाता था । एवं तव मन्दिरों का निर्माण कराया जाता था । यह इस बात का संकेत है कि आम जनता में ऐसे समारोहों के प्रति कितनी रूचि एवं श्रद्धा थी। समाज में प्रतिष्ठा कराने वालों का विशेष सम्मान होता था। इसके अतिरिक्त ग्रन्थों की प्रतिलिपि कराने की श्रावकों में अच्छी लगन थी । संवत् १६०१ से १६४० तक के लिये हुये सैकड़ों ग्रन्थ राजस्थान के प्रत्य भण्डारों में ग्राम भी संग्रहीत हैं। ग्रन्थों की स्वाध्याय करने वालों, प्रतिलिपि कराने वालों अथवा स्वयं करने वालों की बन्थों के अन्त में प्रशंसा की जाती थी ।'
प्रमुख जनजातियां
.
ब्रह्म रायमल्ल के समय में ढूंढाड़ प्रदेश में खण्डेलवाल एवं प्रग्रवाल जैन जातियों की प्रमुखता थी । सांगानेर, रणथम्भौर सांभर, टोडायसिंह धौलपुर जैसे नगर इन्हीं जाति विशेष जैन समाज से परिपूर्ण थे लेकिन देहली, रणथम्भौर, सांभर जैसे नगर खण्डेलवाल जैन समाज के लिये एवं देहली एवं भूतु प्रवाल जैन समाज के केन्द्र थे। स्वयं कवि ने न तो अपनी जाति के बारे में कुछ लिया और न किसी जाति विशेष की प्रशंसा हो की । हनुमंत कथा में कवि ने श्रावकों के सम्बन्ध में जो वर्णन दिया है वह तत्कालीन समाज का द्योतक है
श्रावक लोक बसे धनवंत, पूजा करे जयं अरिहंत ।
उपरा ऊपरी वयं न कास, जिम अमरेंदु स्वर्ग सुखवास ।
१. लिहइ लिहावई, पढ पढाव | जो मणि भाव, सो णरूपावर | बहुणिय पश्य, सासय सेपय ॥
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{૦૪
महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
श्र
शाही ठाण |
ठो ठो यह कथा पुराण, ठाम ठाम ठाम ठाम दीने बहु, दान देव सास्त्र गुर राखे मारा ॥ २१ ॥
धार्मिक तत्व
जैन काव्यो का प्रमुख उद्देश्य जीवन निर्माण का रहा है। जीवन का अन्तिम लक्ष्य निर्वाण प्राप्त करना है इसलिये निर्वाण प्राप्ति में जो साधन है उनका भी वर्णन रहना इन काव्यों की एक विशेषता रही है। जब तक मानव धार्मिक एवं सैद्धान्तिक दृष्टि से समुन्नत नहीं होगा तब तक वह दिशा विहीन होकर इधर उधर भटकता रहेगा। यही कारण है कि अधिकांश जैन विद्वानों ने अपनी अपनी कृतियों में फिर चाहे वह किसी भी भाषा में निबद्ध क्यों न हो, जैन सिद्धान्त का वर्णन किया है मौर नायक नायिका के जीवन में उन्हें पूर्ण रूप से उतारने का प्रयास किया हैं ।
ब्रह्म 'रायमल्ल ने अपने काव्यों में संक्षिप्त अथवा विस्तार से जैन सिद्धान्तों का वर्णन किया है । श्रीपाल रास में जैन सिद्धान्त का विस्तृत वर्णन न करने पर भी श्रीपाल द्वारा मुनि दीक्षा लेने तथा घोर तपस्या करने का वर्णन मिलता है।" इसी तरह प्रद्युम्नरास में भी भगवान नेमिनाथ द्वारा केवल्य प्राप्ति का वर्णन करके द्वारिका दहन की भविष्यवाणी का उल्लेख किया गया है । २ भविष्यदत्त कथा में चारों गतियों (देव, नारको, मनुष्य और तिर्यक्च ) पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है । काव्य में इस वर्णन को धर्म कथा के नाम से उल्लेख किया गया है । इसी काव्य में भागे 'चल कर श्रावक धर्म का वर्णन किया गया है। जिसमें सप्त तत्त्व, नवपदार्थ, षद्रव्य, पंचास्तिकाय पर सम्यक् श्रद्धा होना, ग्यारह प्रतिमा, बारह व्रत, अणुव्रत, पंच समिति तीन गुप्ति, षट् ग्रावश्यक, अठाईस मूलगुण आदि की विस्तृत चर्चा की गयी है । धर्मोपदेश सुनने के पश्चात् सिद्धान्तों के वर्णन करने का प्रमुख उद्देश्य नायक के जीवन में वैराग्य उत्पन्न करना है। भविष्यदत्त चौपाई में भविष्यदत्त निम्न प्रकार विचार करने लगा --
I
हो सिरिपालमुनि तप करि घोर तोड़े कर्म धातिया बोर | हो जिणवर बोलें केवलवाणी, हो बरस बार है परलो जणी । अग्नि दालिसी द्वारिका जी, हो दीपांइण व लागे आगे । नग्री लोग न ऊबरै जी, हो हलधर किस्न छूटि सो भाजे ||८||
धर्म कथा स्वामी विस्तरी, मुनिवर की बहु कीरत करी ||३१|| ५८ ||
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धार्मिक तत्व
भवसपस मनि भाई,
बोली दिसती रही। सह कुटुम्ब सम्पचा सार, जैसो बीज तरणो चमकार ।।२।। माई कर्म गषि धाल फंद, राख न सकही इन्द्र फरपीटा। जोय बहुत ही लीला कर, बंध कर्म सु लोया फिरं ॥२६।। घर' गति जीव फिर एकसो, नीच ऊंघ कुस पावं भलो । सुख दुःख बाट माही कोइ, ला जिसा फल भूज सोइ ॥२७॥
मुनि श्री के उपदेश के प्रभाव से भविष्यदत्त ने अपने पुत्र को राज्य भार देकर स्वयं ने वैराग्य धारण कर लिया । भविष्यदप्त के साथ उसके परिवार के अनेक जनों ने भी संयम एवं व्रत धारण किये।
हनुमन्त कथा में स्वयं हनुमाण रावण को बहुत ही शिक्षा प्रद एवं हितप्रद बाते सुनाते हैं और सीता को पुनः राम को देने का परामर्श देते हैं
पर नारो सौ संग जो कर, अपजस होइ नरक संचरं । सीण हमारी करो परमारिस, पठवौ तिया राम के धान ॥५६११६।।
रावण को हनुमान की शिक्षा अच्छी नहीं लगती और अपनी शक्ति एवं वैभव की डींग होकने लगता है । लेकिन हनुमान फिर रावण को समझाते है
सगै न कोई पुत्री मात, पुत्र कालन्त मित्र मरतात । सगौ न कोई किसको होग, स्वारथ पाप कर सह कोय ॥६६१.०॥ भये प्रमन्त च भूपाल, ते पणि भया काटन की पास । भूप ममन्स गया व बाई, प्रागं जाह बसापा गाइ ॥६७।।
इसी अवसर पर हनुमान बारह अनुप्रेक्षाओं के माध्यम से रावण को जगत् की। शरीर एवं धन दौलत की असारता एवं विनाशी स्वभाव पर प्रकाश डालता है। इस तरह सभी जैन काम्य अपने नायक एवं नायिका के चरित्र को समुज्वल एवं निर्दोष बना कर संयम भथवा गृह त्याग के पश्चात् समाप्त होते हैं ।
इन काव्यों में कथा के साथ साथ भी कभी कभी गहन चर्चा की चुटकी ले ली जाती है जो जैन सिद्धान्तों पर आधारित होती है । प्रधुम्म रास में नारद ऋषि पाप-पुण्य के रहस्य के बारे में जो भीठी चुटकी लेते हैं यह दिखने में सरल लेकिन गम्भीर अर्थ लिये हुये है
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
हो नारद जी सुनहु कुमारो, हो उपजे विणास इति संसारी । दुखि सुखि जीव सदा रहे जो, हो पाप पुण्य द्वे गैल न छाडे । सह परिसह तप करें जो हो पहू चे मुकति कर्म सहु तोड़े ||८०||
सम्यकत्व की महिमा सर्वोत्तम है। उसी के सहारे देव एवं इन्द्र के पद को प्राप्त किया जा सकता है । अनेक ऋद्धियाँ प्राप्त की जा सकती है तथा सर्वार्थसिद्धि एवं निर्वाण भी प्राप्त किया जा सकता है इसलिये मानव के सम्यग्दर्शन होना महान् पुण्य का सूचक है |
हो समकित केबल सुर धरणंद, समकित केवल उपर्ज इन्द्र area बल भौगर्व हो, समकित के अस उपजं रिधि । जीव सदा सुख भोगवे हो. समकित बल स
श
॥११४॥
- श्रीपाल रास
अलौकिक शक्ति वर्णन
ब्रह्म रायमल्ल ने अपने प्रायः सभी प्रमुख काव्यों में अलौकिक शक्तियों का वर्णन किया है । इन शक्तियों को नायक स्वयं अपने पुण्य से उपार्जित करता है । अथवा उसे पुण्यात्मा होने की वजह से 'दूसरों के द्वारा दे दी जाती है। क्या प्रद्युम्न और क्या भविष्यदत्त एवं श्रीपाल अथवा हनुमान सभी को अनेक ऋद्धि प्राप्त हैं और के इन्हीं के सहारे अनेक विपत्तियों पर विजय प्राप्त करते हैं। श्रीपाल राम में भ्रष्टान्हिका व्रताचरण से कुष्ठ रोग दूर होना, समुद्र को लांघ जाना, रंण मंजूषा की देवियों द्वारा सतीत्व की रक्षा करना श्रादि सभी में अलौकिकता का आभास मिलता है । प्रद्युम्न को तो सोलह गुफाओं में जाने पर अनेक ऋद्धियाँ प्राप्त हो जाती है तथा कंबनमाला से तीन विद्याएं प्राप्त होती है और वह इन्हीं विद्याओं के बलबूते पर कालसंवर, सत्य मामा एवं स्वयं अपने पिता श्रीकृष्ण जी को अपना पौरुष दिखलाने में सफल होता है । युद्ध में विद्या बल से शत्रुसेना को मृत्यु की नींद में सुला देना तथा यापस में मित्रता होने पर उसे पुनः जीवित कर देना एक साधारण सी बात है । इसी प्रकार भविष्यदत्त को भी ऋद्धियाँ प्राप्त हो जाती है और इन्हीं के सहारे विमान का निर्माण करके नन्दीश्वर द्वीप की अपनी पत्नी के साथ बन्दना करने जाता है। सेठ सुदर्शन का सूली से बच जाता एवं सूनी का सिंहासन बन जाना चमत्कारिक घटनाएँ है जिन्हें पढ़कर पाठक आश्चर्य में भर जाता है और स्वयं भी ऐसी अलोकिक शक्ति प्राप्त करने का प्रयास करने लगता है ।
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अलौकिक शक्ति वर्णन
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प्रद्युम्न को सोलह गुफानों से जो अनेक विधा प्राप्त हुई थी अहा रायमल्ल उनका निम्न प्रकार वर्णन किया है
हो कामदेव के पुन्य प्रभाए, हो बितर देव मिल्या सक्षु प्राए । करी मरण का वंदना जी, हो दीन्हा जी विद्या सणा भंडारी । छन सिंहासण पालिका जो, हो सथो धनष खडग हथियारों ।।१०।५८|| हो रहन सुवर्ण कीया बहुभाए, हो कर बीनती प्राग पाए । हम सेवक तुम रामई नी, हौ सोलह गुफा भले पायो । बितर देव संतोषिया जी, हो कंधण माला के मनि भायौ ।।११।।
छन्द
ब्रह्म रायमल्ल ने अपने काव्यों में सीमित किन्तु लोकप्रिय छन्दों का ही प्रयोग किया है। ये छन्द ६२., चौपई, शरबन्ध एवं ना! . रासायों में तथा प्रमुखतः श्रीपाल रास , प्रद्युम्नरास, नमीश्वररास में इन्हीं छन्द का प्रयोग हुया है । मेमिश्वर रास में स्वयं ब्रह्म रायमल्ल ने कहवाहा छन्द के प्रयोग किये जाने का उल्लेख किया है
भष्यो जो रासो सियदेवी का बालको । कडवाहा एक सौ प्रधिक पताल । भावजी भेव जुरा-जुदा छंद नाम इट्ट सम्ब शुभ वर्ण ।
कर जो कणियरा कहै भष भव धर्म जिनेसुर सम् ।।१४५।।
भविष्यदत्त चौपई में चौपई छन्द का प्रयोग हुआ है । केवल नाम मात्र के लिये कुछ वस्तु बंध छन्द भी पाया है । इसी तरह हनुमन्त कथा में भी चौपई छन्द की ही प्रमुखता है । दूहा एवं वस्तुबंध छन्द का बहुत ही कम प्रयोग हो सका है। परमहंस चौपई में भी केबल चौपई छन्द में पूरा काव्य निबद्ध किया गया है ।
सुभाषित एवं लोकोक्तियां
ब्रह्म रायमल्ल ने अपने समय में प्रचलित लोकोक्तियों एवं सुभापितों का अच्छा प्रयोग किया है। इनके प्रयोग से काव्यों में सजीवता मायी है । यही नहीं तत्कालीन समाज एवं श्राचार व्यवहार का भी पता चलता है। यहां कुछ सुभाषितों एवं लोकोक्तियों को प्रस्तुत किया जा रहा है
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल १–चा जिसौ तिसौ लुणे
श्रीपाल रास २–काग गलं किम सोभै हार ३.-गयो कोढ जिम महि केंचुली ४–मुबा साथि नवि मुवो कोइ ५–जीवत मांखी को मल ६–आयो हो नाम न पूजे हो भाई बाहरि बाबी जी पूजण जाई
मधुम्नरास ॥१८॥ ७-छोहिल को रालि करि करं पेट की प्रास | नेमीश्वररास ।१२२॥ --पुष्य पाए तस जैसा बर्व, तहि का तैसा फल भोगवं ।।
भविष्यदत्त ११३॥२३॥ ९-सुम अरु असुभ उपायो होड.
तहि का तैसा फल नर मुंजे सोइ । १०–जैसा कर्म उद हो पाइ, तेसो तहाँ बंधि ले जाई । ४०॥२६ ११-पाप पुण्य ते साथिहि फिर
४२।२६ १२ हो सो सही बुरा को बुरो १३–पोते पुण्य होइ अब घणो, होइ सफल कारिज इह तणों ।। हनुमंत कथा १४दास वेलि पर प्रांब चढ़ी, एक सिंघ पर पाखर पडी।। . ६६७५ १५-सुख दुख पर जामण मरण जिही थानकि लिख्यो होई ।
घडी महूरत एक खिण राखि न सक्फ कोह ।। , १४१८७ १६-जा दिन प्राय प्रापदा ता दिन मीत न कोई ।
माता पिता कुटुंब सहु ते फिरि बरी होइ ।। ॥ २६॥८६ १७–अंसो कर्म न कीजे कोइ, बंध पाप प्रधिको दुख होइ।।
जिणवर धर्म जो निद्या करं, संसार चतुर्गति तेई फिरै ।।, ५४६३ १८-जप तप संयम पाठ सहु पूजा विधि त्यौहार ।
जीव दया विष सह प्रफल, ज्यो दुरजन उपगार ।। नेमीश्वररास ॥६॥ १९—कामणी चरित ते गिण्या न जाइ ||८|| २०-जैनी की दीक्षा खांडा की धार ॥११६।। ,
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काव्यों के प्रमुख पात्र
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कायों के प्रमुख पाय
जैन काव्यों के प्रमुख पात्रों में ६३ मलाका महापुरुषों के अतिरिक्त पुण्य पुरुषों एवं सामान्य पुरुष एवं स्त्री भी प्रमुख पात्र के रूप में प्रस्तुत होते हैं। नायक एवं नायिकानों के साथ ही जो दूसरे पात्र पाते हैं वे भी राजा महाराजा, विद्याधर एवं परिवार के दूसरे सदस्य भी बारी-बारी से ग्राकर काव्य को आकर्षक बनाने में सहयोगी बनते हैं । ब्रह्म रायमल्ल ने अपनी कृतियों में पात्रों की संख्या में नं नो वृद्धि की है और न जिना पात्रों के कथानक को लम्बा करने का प्रयास किया गया । इन सभी पात्रों का परिचय प्रत्यन्त आवश्यक है जिससे उनके व्यक्तित्व की महानता को भी पाठक समझ सकें और व्यर्थ की ऊहापोह से बच सकें । अव यहाँ कुछ प्रमुख पात्रों का परिचय दिया जा रहा है
श्रीपाल रस १. श्रीपाल-श्रीपाल चम्पापुर के राजा अरिदमन के पुत्र थे। ये कोटिभट कहलाते थे । कुष्ठ रोग होने पर इन्होंने अपना राज्य अपने चाचा को सौंप कर
सं. अन्य कुटपियों ने सा५ चाना पड़ा। र अवस्था में ही इनका मैना सुन्दरी से विवाह होने पर सिद्ध चक्र विधान के गन्धोदक से इन्हें कुष्ठ रोग से मुक्ति मिली। विदेश में एक विद्याधर से जल तरंगिनी एवं शत्रु निवारिणी विधा प्राप्त की । अदल सेठ के रुके हुये जहाजों को चलाया एवं उन्हें चोरों से छुड़ाया । रेण मंजूषा नामक राज्य कन्या से विवाह होने पर इन्हें धोखे से ममुद्र में गिरा दिया गया लेकिन लकड़ी के सहारे तरते हुए एक द्वीप में जा पहुंचे। वहां उसने गुणमाला कन्या से विवाह किया । धवल सेठ के भाटों द्वारा इनकी जाति भाषा बताने पर इन्हें सूली की सजा दी गयी लेकिन रण मंजूषा ने इनको छुड़वाया । बारह वर्ष विदेश में घूमने के पश्चात् मैना सुन्दरी सहित अनेक वर्षों तक राज्य सुख प्राप्त किया तथा अन्त में दीक्षा प्राप्त कर निर्वाण प्राप्त किया ।
२. मैना सुन्दरी - मगध देश में उज्जनी के राजा की राजकुमारी थी। पिता ने वर्म की बलवत्ता का बखान करने पर क्रोधित होकर कुष्ठी श्रीपाल से विवाह कर दिया। लेकिन सिद्धचक्र विधान करके उसके गन्धोदक द्वारा पति का कुष्ठ रोग दूर करने में सफलता प्राप्त की । कितने ही वर्षों तक राज्य सुख भोगने के पश्चात् संसार से विरक्त होकर दीक्षा धारण कर सोलहवें स्वर्ग में देव हो गयी।
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नहाकर ब्रह्म रचना
३. रैण मनषा -- हंस द्वीप के राजा कनक केतु की पुत्री थी। सहस्रकूट चल्यालय के कपाट खोलने पर श्रीपाल से विवाह हो गया। धवल सेठ द्वारा शील मंग करने के प्रयास में वह अपने चारित्र पर दृढ़ रही और देवियों द्वारा उपसर्ग दूर किया गया । सैकड़ों वर्षों तक राज्य सपदा भोगने पर अन्त में दीक्षा लेकर स्वर्ग प्राप्त किथा ।
४. धवल सेठ-मगुकच्छ पट्टन का बड़ा व्यापारी एवं व्यापारिक जहाजी बेड़े का स्वामी । श्रीपाल की दूसरी स्त्री रणमंजूषा के शील भंग करने के प्रयास करने पर देवियों द्वारा घवल सेठ को प्रताड़ित किया गया । लेकिन राजा धनपाल के दरबार में श्रीपाल को अपने भाटों द्वारा भाण्ड पुत्र सिद्ध करने के प्रयत्न में फिर नीचा देखना पड़ा । अन्त में अपने घृणित पापों के कारण स्वमेव मृत्यु को प्राप्त हुश्रा।
५. गुणमाला - श्रीपाल की तीसरी पत्नी एवं राजा धनपाल की पुत्री । इसका विवाह सागर र कर पाने के पश्चात् श्रीपाल से हुा । पर्याप्त समय तक राज्य सुख भोगगे के पश्चात् दीक्षा लेकर स्वर्ग प्राप्त किया।
६, वौरवमन-श्रीपाल, का चाचा। कुष्ठ रोग होने पर श्रीपाल वीरदमन को राज्य भार सौंप कर बिदेश चला गया । श्रीपाल के वापस आने पर जब धीरदमन ने राज्य देने से इन्कार किया तो दोनों में युद्ध हुया और उसमें श्रीपाल की विजय हुई 1 अन्त में वीरधमन ने दीक्षा ग्रहण की ।
प्रद्य म्नरास ७. प्रद्य म्न - रुक्मिणी की कोख से पैदा होने वाला श्रीकृष्ण का पुत्र । जन्म के छठे दिन अपने पूर्व जन्म के शत्रु प्रसुर ने उसे चुरा कर शिला के नीचे दबा दिया । कालसंवर विद्याधर ने उसका लालन-पालन किया । यहां उसे कितनी ही अलौकिक विद्याएँ प्राप्त हुई' । युवा होने पर कालसवर की स्त्री कंचनमाला इस पर मोहित हो गई लेकिन प्रद्युम्न को अपने जाल में नहीं फंसा सकी। इस घटना के पश्चात् कालसंवर एवं प्रद्युम्न में युद्ध हुा । युद्ध में जीत कर नारद के साथ प्रद्युम्न द्वारिका लौट ग्राया तथा अपनी जन्म माता को अनेक कीडाओं मे प्रसन्न किया । काफी समय तक राज्य सुख भोगने के पश्चात् अन्त में दीक्षा धारण की पौर गिरनार पर्वत से मोक्ष प्राप्त किया ।
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काव्यों के प्रमुख पात्र
१११ ८. नारद -सभी क्षेत्रों एवं तीर्थों में भ्रमण करने वाले ऋषि । सत्यभामा के अमिमान को खण्डित करने के लिए श्रीकृष्ण को रुक्मिणी से विवाह करने के लिये प्रोत्साहित किया । प्रद्य म्न के अपहरण होने पर रुक्मिणी को धर्य बंधाया । कालसंबर को एवं श्रीकृष्ण शुर। के शा५ पु हाने ३: साविक ने परिचित करा कर युद्ध को टालने में सफलता प्राप्न की।
६. सक्मिणी--कुण्डलपुर के भीम राजा की रूपनावण्य युक्त पुत्री थी। श्रीकृष्ण ने इसका हरण करके विवाह किया था । प्रद्युम्न इसका पुत्र वा । राज्य सुख भोगने के पश्चात् नायिका दीक्षा ग्रहण कर स्वर्ग प्राप्त किया।
१.. भीष्मराज -कुण्डलपुर के राजा एवं रुक्मिणी के पिता ।
११. शिशुपाल – पाटलीपुत्र का राजा था। पहले फक्मिणी का विवाह इसी से निश्चित हुआ था । लेकिन श्रीकृष्ण द्वारा हर लिये जाने पर दोनों में युद्ध हुप्रा और अन्त में श्रीकृष्ण के हाथों मारा गया ।
१२. कालसंवर - विद्याधर राजा या । शिला तसे दबे हुये प्रद्युम्न को उठाकर उसे १६ वर्ष तक अपने यहां रखा था। प्रद्युम्न के साथ युद्ध में कालसंवर पराजित हुआ।
१३. कंचनमाला - कालसंवर की स्त्री थी । प्रारम्भ में प्रद्युम्न को उसी ने पाल-पोष कर बड़ा किया।
१४. श्रीकृष्ण-नव नारायणों में एक नारायण थे। रुक्मिणी को हर कर ले पाये और उसके साथ विवाह कर लिया। प्रद्युम्न इन्हीं का पुत्र या । तीर्थर नेमिनाथ के ये चचेरे भाई थे ।
१५. सत्यभामा-श्री कृष्ण की पत्नी । १६. धूमकेतु-प्रद्युम्न का पूर्वअन्म का शत्रु ।
मेमीश्वररास १७. समुदविनय नेमिनाथ के पिता थे। इन्होंने गिरनार पर्वत से मोक्ष प्राप्त किया।
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महाकवि ब्रह्ना रायमल्ल
१८. उग्रसेन-राजुल के पिता थे।
१६. नेमीश्वर-- २३ वे तीर्थङ्कर नेमिनाथ का ही दूसरा नाम है । ये श्री कृष्णजी के चचेरे भाई थे । जब ये विवाह के लिये तोरण द्वार पर पहुंचे तो उन्होंने एक ओर बहूत से पशु देखे जो बरातियों के लिए खाने के लिये वहां एकत्रित किये गये थे । नेमिनाथ करुणा होकर तोरण द्वार से वैराग्य लेने चले गये । दीर्घकाल तक तपस्या करने के पश्चात् इन्होंने गिरनार से परिनिर्वाण प्राप्त किया।
२०. राजुल–राजा उग्रसेन की लड़की थी। नेयिनाथ ने इनके साथ विवाह न करके बैराम्य धारण कर लिया था। राजुल ने भी नेमिनाथ के संघ में दीक्षा धारण करली और अन्त में घोर तपस्या करके स्वर्ग प्राप्त किया।
भविष्यदत्त चौपई २१. धनपति सेठ—कुरू जागल देश के हस्तिनापुर का नगर सेट था ।
२२. धनेश्वर सेठ- हस्तिनापुर नगर का दूसरा धनिक श्रेष्ठि था । घनश्री उतकी पत्नी थी।
२३. कमलधी-धनेश्वर सेठ की सुपुत्री एवं भविष्यदत्त की माता थी । कुछ समय पश्चात् धनेश्वर सेठ ने कमलश्री का परित्याग करके उसे धनपति सेठ के यहां भेज दिया । क्रमलश्री धार्मिक विचारों की महिला थी। भविष्मदत्त जब विदेश चला गया तब भी वह जित-भक्ति में लगी रहती थी। अन्त में प्रायिका दीक्षा लेकर घोर तप किया तथा स्त्री पर्याय से मुक्ति प्राप्त कर स्वर्ग प्राप्त किया तथा फिर दूसरे भव में जन्म धारण करके अन्त में निर्वाण प्राप्त किया।
२४. सरूपा-धनपति सेठ की द्वितीय पत्नि तथा बन्धुदत्त की माता ।
२५. भविष्यरत - धमपति सेठ का पुत्र था। माता का नाम कमलश्री था। ग्नपने छोटे भाई बन्धुदत्त के साथ विदेश में व्यापार के लिए गया । मार्ग में वन्धुदत उसे मदन द्वीप में अकेला छोड़कर भागे चला गया । भविष्यदत्त को इसी वीप में अनेक विद्याएँ, प्रपार संपत्ति एवं लावण्यवती भविष्यानुरूपा वधु मिली । जब बन्धुदत्त का जहाज पुनः इसी द्वीप में पाया तो भविष्यदत्त एवं उसकी पत्नी उसके
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काव्यों के प्रमुख पात्र
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साथ हो गये लेकिन भविष्यदत्त जब अपनी मुद्रिका वापिस लेने द्वीप में गया तो बन्धुदत्त उस छोड़ कर भागे बढ़ चला । भविष्यदत्त फिर अकेला रह गया । फिर एक देव उसे विमान में बिठा कर हस्तिनापुर ले ग्राया। यहां थाने पर उसने पोदनपुर के राजा को पुद्ध में हरा दिया और इस तरह हस्तिनापुर का राज्य भी उसे मिल गया । वपो तक राज्य सुख भोगने के पश्चात् भविष्यदत्त न मुनि दीक्षा ले ली और अन्त में तपस्या करके निर्माण प्राप्त किया ।
२६. भविष्यानुरूपा- भविष्यदत्त की पत्नी जो तिलक दीप से प्राप्त हुई थी]
२७. बन्धुवस.-भविष्यदत्त की दूसरी माता से उत्पन्न हुअा भाई । बन्धुदत्त मे भविष्यदत्त को दो बार धोखा दिया। उसे हस्तिनापुर के राजा ने देश से निर्वासित कर दिया था।
हनुमन्त कथा २८. प्रहला–प्रादित्यपुर के शासक एवं पदनजय के पिता थे। २६. महेन्द्र-सुमरू की पूर्व की भोर महंत देश का शासक तथा प्रजना का
पिता ।
३०. पवनजय-विद्याधर राजा प्रहलाद का पुत्र एव प्रजना का पति । १४ वर्ष तक अंजना से दूर रहने के पश्चात् जब यह रावण की सहायतार्थ सेना सहित जा रहा था तो चकवी कं विरह को देख कर उन्हें अंगना की याद मा गई और वह अपने साथी के साथ उससे मिलने चल दिया । शत्रु रोना पर विजय के पश्चात् जब वाह वापिस आया तो उस अंजना नहीं मिली अन्त में पर्याप्त खाज के पचात् अंजना हनुमान सहित मिली।
२१. मधुलता-अंजना की सहेली एवं दासी ।
३२. राबण-लंका का स्वामी तथा राक्षसों का अधिपति । अनेक विधानों का धारक । सीता का हरण करने के कारण राम के साथ युद्ध हुआ जिसमें वह नसण द्वारा मृत्यु को प्राप्त हुआ।
१. रहत तहा के दिन गया, बंधूदत्त प्रोहण पाहगा।
दमडौ एक न पूजी रयो, पाप जोग सगलो बोयो । २३॥ फाटा वस्त्र प्रति बुरा हाल, दुबल अस्ति उतरी स्वाल ।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
३३. सुग्रीव-कोकिन्दापुरी का राजा एवं राम का विश्वस्त सहायक ।
३४. हनुमान-अंजना का पुत्र था । सीता की खोज में लंका जाते हुये उसने जैन मुनियों को बचाया था । हनुमान राम का विश्वस्त सेवक था।
सुदर्शनरास ६५. घाडीवाहन---मंग नेश के राजा थे। रानी के बहकाने में आकर राजा ने सेठ सुदर्शन को मूली का प्रादेश दिया था ।
३६. अभया–अंग देश के राजा घाडीवाहन की रानी थी। कपिला ब्राह्मणी के चक्कर में आकर सेठ सुदर्शन से अपनी शारीरिक प्यास बुझाने की दृष्टि से उसे श्मशान में सामायिक करते हुए उठा कर अपने महल में मंगा लिया। सेठ सुदर्शन अपने चरित्र पर हड़ रहा 1 लेकिन रानी ने सेठ सुदर्शन पर शीलभंग का लांछन लगा दिया। लेकिन जव शील के महात्म्य से सुली का सिंहासन बन गया और रानी को मालूम हुआ तो वह अपघात करके मर गयी ।
३७. कपिला-वह ब्राह्मणी थी। सेठ सुदर्शन की सुन्दरता पर मुग्ध थी। दर्द का बहाना बनाकर सेठ सुदर्णन को अपने यहां बना लिया तथा काम ज्वर का नाम लेकर सेठ को फुसलाना चाहा लेकिन सुदर्शन उसे बहुत समझा कर कपिला के चंगुल से मुक्त हो गया । अन्त में कपिला नगर छोड़कर पाटलीपुत्र चली गयी।
३८. मनोरमा. -सेट सुदर्शन की धर्म पस्ति ।
३६. सेठ सुवर्शन-सुदर्शन चम्पा नगरी का नगर सठ या जो अपने चरित्र के लिये बह नगर भर में प्रसिद्ध था। कपिला ब्राह्मणी एवं प्रभया रानी दोनों के ही चंगुल में यह नहीं फैला । राजा ने रानी के बहकावे में आकर जब उसे सूली का प्रादेश दिया तो सुदर्शन ने सहर्ष स्वीकार कर लिया । लेकिन उसके शील के महात्म्य से वह सूली सिंहासन बन गयी। इसके पश्चात् कितने ही वर्षो तक घर में रहने के पश्चात् मुनि दीक्षा धारण करली और तपस्या करके निर्वाण प्राप्त किया ।
___ जम्बूस्वामोरास ४०. अम्बूस्वामी-भगवान महावीर के पश्चात होने वाले अन्तिम केवली । इनके पिता का नाम श्रेष्ठि ऋषभदत्त एवं माता का नाम पारिणी था । युवावस्था में इनका विवाह आठ कन्याश्नों से हो गया । लेकिन उनका मन संसार में नहीं लगा ।
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प्रदेश, ग्राम, नगर वर्णन
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इसलिये एक-एक पत्नि का परित्याग करके उन्होंने वैराग्य ले लिया तथा अन्त में घोर तपस्या के पश्चात् पहिले कंवल्य और फिर निर्वाण प्राप्त किया । जैन कवियों के लिये जम्बूस्वामी का जीवन बहुत प्रिय रहा है इसलिये सभी भाषाओं में उनके जीवन से सम्बन्धित रचनाएं मिली हैं । काव्यों में वरिणत प्रदेश, ग्राम एवं नगर
ब्रह्म रायमल्ल ने अपने काव्यों मे अनेक प्रदेशों, नगरों, ग्रामों एवं द्वीपों का का उल्लेख किया है। कुछ नगरों के सम्बन्ध में विस्तृत वर्णन किया है और कुछ का केबल नामोल्लेख मात्र किया है फिर भी ग्राम पर नगरों के प्रगान मे काव्यों में रोचकता एवं उत्सुकता आयी है। अधिकांश नगर ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक नगर हैं जिन्होंने देश की संस्कृति के विकास में भरपूर योगदान दिया है । ब्रह्म रायमल्स में भगुकच्छपट्टण,' मालवदेश, उज्जयिनी, रत्नद्वीप,४ अंगदेश,५ चम्पापुर, बलवहण, दलवणपट्टण, द्वारिका, कुण्डलपुर, हस्तीनामपुर, पुडरीक,१० मगध. देश, अयोध्या, २ प्रादितपुर, १३ बसन्तनगर,१४ लंका,पुण्डरीक कोकिदा, कुरूजांगलदेश , " पोदनपुर,१८ एवं वाराणसी श्रादि नगरों एवं प्रदेशों का उल्लेख
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१. श्रीपाल रास, ८० ! २. वही, ह। ३. वहीं, । ४. वहीं, ८३ । ५. वही, ११५ । ६. वहीं, १६३ । ७. प्रद्युम्नरास, ५।
ने मीश्वररास, ८ | ८. वही, २१।३६ । ९. भविष्यदस चौपई, १०-२० । १०, प्रद्युम्नरास, ८२। ११. वहीं, ८६ । १२. वहीं, ६३ । १६-१६. हनुमत कथा । १७. भविष्यदत्त चौपई, १०-२० । १८. वही। १६. निर्दोष सप्तमी कथा ।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल किया है तथा अपने पात्रों की जीवन घटनाओं का वर्णन किया है। कुछ नगरों का विस्तृत परिचय निम्न प्रकार है
भृगुकच्छपट्टण
सौराष्ट्र प्रान्त के वर्तमान भडौच नगर का नाम ही प्राचीन काल में भगुकच्छपट्टण था । यह नगर अन साहित्य, व्यापार एवं संस्कृति का प्रमुख केन्द्र माना जाता था।' श्रीपाल एवं धवल सेठ की प्रथम बार इसी नगर में भेट हुई थी। सेठ के जहाजी बेड़े में ५०० जहाज थे। जिनसागर सूरि ने अष्टकम् में भृगुकच्छ को सौराष्ट्र का नगर लिखा है । प्राचार्य चन्द्रको ति ने भडोच नगर में अपनी कितनी ही रचनाओं को समाप्त किया था। इसी तरह ब्रह्म अजित ने भुगुकच्छपुर के नेमिनाथ चैत्यालम में हनुमवचरित्र की रचना की थी।५ व्यवहार भाष्य में नगर का बड़ा महत्व बतलाया है।' कालकाचार्य ने भी इस नगर में विहार किया था।" गुणचन्द्र गणि ने प्रात भाषा में संवत् ११६८ में इसी नगर में पासणाहचरित की रचना समाप्त की थी।
मालववेश
मालवा और मालव एक ही नाम है। भारतीय साहित्यकारों एवं विशेषतः जैन साहित्यकारों के लिए मालव देश बहुत आकर्षण का देश रहा है । जैन पागम,
१. प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृष्ठ संख्या ३७३ । २. हो लघि देस बन गिरि नदी पाल । सागर तट्ट दाढीभयो हो मग, कच्छपटण सुचिसाल ।।८०३ श्रीपालरास ३. द्वीपे श्री भगुकन्छ बृद्ध नगरे सौराष्ट्रके सर्वत: ।।२।। ४. राजस्थान के जैन संत-~डा० कासलीवाल, पृ० १५७ । ५. वही, पृ. १६५। १. प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ. २१६ । ७. वही, पृ० ४५८ 1 ८. वही, पृ०५४६ ।
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प्रदेश, ग्राम, नगर वर्णन
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पुराण एवं काध्य साहित्य में इस प्रदेण का खूब उल्लेख मिलता है । प्राचार्य समंतभद्र में मालवा के विवानों को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा था । भट्टारक ज्ञानभूरण ने मालव जन पद के थावकों को सम्बोधित किया था। श्रीपाल मालव देश का राजा या। उज्जयिनी
उज्जयिनी नगरी संकों वर्षों तक मालव जन पद की राजधानी रही 1 जैन साहित्य एवं इतिहास में इस नगरी का नाम सदैव ही प्रमुख रूप से लिया जाता रहा । भगवान महावीर ने इसी नगरी के अतिमुक्तक श्मशान में रूद्र द्वारा किये गये घोर उपसर्ग पर विजय प्राप्त की थी। नागमों एवं अन्य साहित्य में उज्जयिनी से सम्बन्धित अनेक कथाएँ मिलती है । श्रीपाल राजा की रानपानी कलांग की गयी। चन्द्रगुप्त के शासनकाल में उज्जयिनी उसके राज्य का अंग थी तथा इस नगरी से भद्रबाहु के शिष्य विशाखाचार्य अपने संघ के साथ प्रयाग गये थे। भट्टारकों की भी यह नगरी केन्द्र रही थी । संवत् १६६६ में विष्णुकवि ने भविष्यदत्त चौपई की यहीं रचना की थी। रत्नद्वीप
श्रीपाल एवं भविष्यदत्त अपने समय में दोनों ही वहां व्यापार के लिये गये थे। यह कोई दक्षिण दिशा का छोटा द्वीप मालूम पड़ता है ।
अंगदेश एवं चम्पानगरी
अंगदेश एक जन पद था । चम्पा नगरी इराकी राजधानी थी। यह प्रार्य क्षेत्र में माता था और प्रायों के २५३ अनपदों में इसका प्रमुग्न स्थान था । श्रीपाल रास में अंगदेश एवं उपकी राजधानी चम्पा का निम्न प्रकार उल्लेख किया है
हा सुणि कोडीभड कर बलाग, अंगदेस चम्पापुरि थान । तासु धिरय राजइ. हो कुवापर तस तीया सुजाणि । तासु पुत्र सिरीपाल हा हो वचन हमारा जाणि प्रमाणि ॥११२॥
८. राजस्थान के जैन संत-डा० कासलीवाल, पृ. ४० । ६. संपतु सोरहस हूं गई, अधिकी तापर छासठि भई ।
पुरी उज्जैनी कविनि को दासु, विष्णु तहां करि रह्यो निवासु ।।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
सेट सुदर्शन भी अंगदेश का ही था । सुदर्शन रास में अंगदेश को धन-धान्यपूर्ण एवं जिन भवनों से युक्त देश कहा है ।'
दश पर
दशपट्टण अथवा दलवणपट्टण दशपुर के ही दूसरे नाम हैं । दशपुर पहले मन्दसौर का ही दूसरा नाम था । कवि राजशेखर ने दशपुर का उल्लेख पैशाषी भाषा के बोलने वालों का नगर बतलाने के लिये किया है । आवश्यकचूणि में दशपुर की उत्पत्ति का उल्लेख आया है। प्राचार्य समन्तभद्र संभवतः दशपुर में कुछ समय तक रहे थे।
द्वारिका
यादों की समुद्र तट पर स्थित प्रसिद्ध पौराणिक नगरी । इसी नगरी के शासक समुद्रविजय, वासुदेव एवं हलषर थे । २२ वें तीर्थकर नेमिनाथ की जन्म नगरी भी यही थी । कवि ने द्वारिका का वर्णन नेमीश्वररास एवं प्रद्युम्नरास दोनों में किया है ।
अहो क्षेत्र भरण पर नंबू दीपो । मन वारानीमती समद समीप सोभा याग पारो घणा । महो छपन जी कोद्धि जावो तो पासो। लोगति सुक्षीय लीसा करें
महो इन्द्रपुरी जिम करै हो विकास ॥८॥ नेमीवर रास दुर्वासा ऋषि के शाप से द्वारिका जल कर नष्ट हो गई थी।
१. अहो अंग देस प्रति भलो जी प्रधाना,
धनकण संपदा तणो जो निधान जिन भवण बन सरोवर घणा यहाँ चम्पा जो नग्री हो मध्य सुभ धान मुनिवर निबस जी प्रति घणा 1
स्वामी जी वासुपुज्य जी पहुंती निरवाण ॥ २. पम्परामायण (७-३५) । ३. प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ० २६ । ४. वही, पृ० २५० । ५. जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृ० १७४ ।
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प्रदेश, ग्राम, मगर वर्णन
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पादितपुर
सुमेरू के दक्षिण दिशा की ओर स्थित विद्याधरों का नगर था। नगर अपनी प्राकृतिक सौन्दर्य के लिये विख्यात था । पवनकुमार का पिता प्रहलाद इसी नगर का शासक था।
बसन्त नगर
सुमेरू के पूर्व दिशा की पोर स्थित विद्याघरों का दूसरा नगर । महेन्द्र इसी का शासक था । अंजना उसकी पुत्री थी। पडरीक
विदेह क्षेत्र का नगर जहाँ सीमन्धर स्वामी शाश्वत विराज कर धर्मोपदेश का पान कराते रहते हैं। लंका
भारत के दक्षिण की अोर स्थित लंका द्वीप बहु चिल द्वीप है। रावण यहाँ का राजा था। उसने सीता का अपहरण करके इसी द्वीप में लाकर रस्ना था । हनुमंत कथा में ब्रह्म रायमल्ल ने लंका वर्णन किया है। यह द्वीप त्रिकुटाचल पर्व की तलहटी में स्थित है ।' हस्तिनागपुर
हस्तिनापुर का ही दूसरा नाम है । यह नगर कुरूजांगल देश की राजधानी थी। ब्रह्म रायमल्ल ने इस नगर को स्वर्ग की नगरी के समान लिया है और उसका निम्न प्रकार विस्तृत वर्णन किया है। -
उत्तम कुर जंगल को देस, भली वस्त सहू भरिउ प्रसेस । वस्तु मनोहर लाहि जे घणी, पुजं तहां रली मन सणी । तह मैं हस्तनागपुर थान, सोभा जैसी सुर्ग धिमान । बाग बावडी तहो सोभा घणों, वृक्ष जाति बहु जाई न गिणों । मुनिवर नाथ धरे तहां इमाम, जाणे सोनो तिणो समान । परिगह संगत वा ईस, कर ध्यान प्रति महा जगीस ।। १११६
१. पद्मपुराण ५.१६७ ।
२. विष्यदत्तचौपई ।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
रिद्धिवंत मुनिवर प्रति घणा, यम फलं सह छह रिति तणा । कर घोर तप मन बच काय, उपजो केवल मुक्ति हौ साइ॥१२॥ क्षेत्री धान अवार होइ, दुष्खुशाल न जाणे कोह। सोम भली साल पोखरी, वीस निर्मल पामी भरी ॥१॥ पंयी गण तप्स भूख पलाई, सीतत नीर पक्ष फल खाई ॥१४॥ भन माहि जिग थामक घणा, माहै बिंब भला मिण तणा ।
व विधि पूजा श्रावक करै, गुर का बंधन स होया धरै ।१५॥ बान चारि तिहं पायां देइ, पात्र कुपात्र परीक्षा ले।। बिब प्रतिष्ठा मात्रा मार, खरच द्रव्य प्रापर्ण अपार ॥१६॥ कंघा मंबर पोल , मात महिर निस:: करि घरि रसी बधाषा होइ, कान परिउ महि मुरिस ने कोई ॥१७ । राणा राज कर मूपाल, जसो स्वर्ग इन्द्र घोवाल । पाल प्रजा चाले न्याइ, पुन्यवंत हपनापुर राइ ॥१८॥
प्रद्युम्न चरित में दुर्योधन को हस्तिनापुर का राजा लिखा है । जैन ग्रन्थों में हस्तिनापुर को देश की १. प्रसिद्ध राजधानियों एवं तीथों में गिनाया है ।
महाकवि की काव्य रचना के प्रमुख नगर
ब्रह्म रायमल्ल सन्त थे इसलिए वे भ्रमण किया ही करते थे । राजस्थान उनका प्रभुस्य प्रदेश था जिसके विभिन्न नगरों में उन्होंने विहार कर के साहित्यनिर्माण का पवित्र कार्य संपन्न किया था। कवि ने उन नगरों का रचना के अन्त में जो परिचय दिया है वह अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है तथा यह नगरों के व्यापार, प्राकृतिक सौन्दर्य एवं वहां की व्यवस्था के बारे में परिचय देने वाली है। हम यहाँ उन सभी नगरों का सामान्य परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं ---
रणथम्मौर
दूढाउ प्रदेश में रणथम्मौर का किला वीरता एवं बलिदान का प्रतीक है। उसके नाम से शोय एवं स्याग की कितनी ही कहानियां जुड़ी हुई हैं। 11 वीं सताब्दि से यह दुर्ग शाम्भरी के चौहान शासकों के अधीन था। इसके पश्चात रणथम्भौर ने
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महाकवि की काध्य रचना के प्रमुख नगर
कितने ही उतार चढ़ाव देखे । कभी उसफे तलवारों एवं तोपों की खुली चुनौती का सामना किया तो कमी उसने रक्षा के लिए हजारों लाखों वीरों को अपना खून बहाते देखा । हम्मीर राजा के साथ ही रणथम्भौर का भाग्य ने पलटा खाया और कभी यह मुसलिम बादशाहों की अधीन रहा तो कभी राजपूत मासकों ने उस पर अपनी पताका फहरायी । देहली के बादशाहों के लिए यह किला हमेशा ही सिरदर्द बना रहा । सम्राट अकबर इस पिले पर अधिकार किया तो वहाँ कुछ शान्ति रही मन्त में मुगल सम्राट शाह आलम ने इस किले को जयपुर के महाराजा सवाई माधोसिंह को दे दिया ।
रणथम्भौर जैनधर्म एवं संस्कृति का केन्द्र रहा । युद्धों एवं मारकाट के मध्य भी वहाँ कभी-कभी सांस्कृतिक कार्य होते रहे । 11 वीं शताब्दि में शाकम्भरी के सम्राट पृथ्वीराज (प्रथम) ने अन मन्दिरों में स्वर्ण कलश चढ़ाया था । 'सिद्धसेन सूरि ने राजस्थान के जिन पवित्र स्थानों का उल्लेख किया है उनमें रणथम्भौर का नाम भी सम्मिलित है।
राजा हम्मीर के शासन काल में भतारक धर्मचन्द्र ने किले में विशाल प्रतिष्ठा समारोह का प्रायोजन किया था २ और मन्दिर में धोबीसी की स्थापना करवायी थी । उसके शासन में जैन धर्म का चारों ओर अच्छा प्रभाव स्थापित था। हम्मीर के पश्चात् रणथम्भौर मुसलिम शासकों के आक्रमण का शिकार बनता रहा। सक्त J608 में पं० जिनदास ने शेरपुर के शान्तिनाथ चैत्यालय में होलीरेणुका चरित्र की रचना की थी। जिनदास रणथम्भौर के निकट नवलक्षपुर का रहने वाला था। इस अन्य की प्रतिलिपि रणथम्भौर में ही साह करमा द्वारा करवायी गई थी और प्राचार्य ललितकीति को भेंट में दी गई थी । इसके एक वर्ष पश्चात् संवत् 1609 में श्रीधर
१. रणथंभपुरे प्राणालेहेणं जस्स सरियेग । हेम धप दस मिसन निच्च नच्चाविया कित्ती ।।३।।
—पदमदेव कृत सदगुरूपद्धति २. सवत् माघ दि ५ श्री मूलसंघे सरस्वती गच्छे भट्टारक श्री धर्मचन्द्र जी
साहमल पीलमल चांदवाड भार्या भरवत सहरगढ रणथंभार श्री राजा
हम्मीर । ३. राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों को ग्रन्थ सूची चतुर्थ भाग, पृ० २१२,
पचायत मन्दिर भरतपुर ।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
के भविष्यदत्त चरित की प्रतिलिपि की गई। भविष्यदत्तरित प्रपन को कृति है। इसी वर्ष एक और ग्रंथ जिणदत्तचरिउ की प्रतिलिपि की गई। प्रस्तुत पांडुलिपि माचार्य ललितकीति को भेंट स्वरूप दी गई। उस समय साह दुलहा वहाँ के प्रमुख श्रावक थे।
संवत् 1630 में या इसके पूर्व ब्रह्म रायमल्ल रणथम्भौर पहुंचे थे । उस समय किले पर सम्राट अकबर का शासन था । तथा वहाँ अपेक्षाकृत शान्ति थी । इसी कारण कवि वहाँ श्रीपाल रास की रचना कर सके । ब्रह्म रायमस्ल वहाँ कितने समय तक रहे इस सम्बन्ध में तो कोई उल्लेख नहीं मिलता किन्तु कवि ने किले की समृद्धि की प्रशंसा की है तथा उसे धन तथा सम्पत्ति का खजाना कहा है । किले के चारों प्रोर पानी से भरे हुए सरोवर थे । यही नहीं वन उपवन उद्यान से वह युक्त था । किले में बहुत से जिन मन्दिर थे जो अतीव शोभायमान थे ।
संवत 1644 में भट्टारक सकलभूषण के षटकर्मोपदेश माला की प्रतिलिपि श्रीमती पानंती ने सम्पन्न करायी। उस समय यहाँ राव जगन्नाथ का शासन था । दुर्ग के चारों ओर शान्सि थी तथा वहाँ के निवासियों का ध्यान साहित्य प्रचार की ओर जाने लगा था। इसके पश्चात् संवत् 1659 में थी ऋषभदेव जी अग्रवाल के आग्रह से तत्वार्थसूत्र की प्रति की गई। इससे अग्रवाल जन समाज में पूर्ण प्रभाव था। राजा जगत्राथ ने टोडा के निवासी खीमसी को अपना मन्त्री बनाया जिन्होंने किले पर एक जिन मन्दिर का निर्माण कराया था। हरसोर
हरसोर की राजस्थान के प्राचीन नगरों में गणना की जाती है । जो नागौर जिले में पुष्कर से डेगाना जाने वाले बस सड़क पर स्थित है। 12 वीं शतादिद्र में यह नगर प्रसिद्धि पा चुका था। जिस प्रकार श्रीमाल से श्रीमाली तथा प्रोसिया से नोसवाल, खंडेला से खण्डेलवाल जाति का निकास हुया था उसी प्रकार हर मोर से हरसूरा जाति की उत्पत्ति हुई थी। इसी तरह हर्षपुरीय गच्छ का भी इमी नगर से उत्पत्ति हुई थी। हरसोर पर प्रारम्भ में शाकम्भरी के चौहानों का शासन था। चौहानों के पश्चात् हरसोर पर मुसलमानों का अधिकार हो गया ।।
1. Ancient Cities and Town, of Rajasthan by Dr. K. C. Jain, Page
328. 2. Ibid, Page 330.
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महाकवि की काव्य रचना के प्रमुख नगर
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संवत् 1628 में ब्रह्म रायमल्ल हरसोर पहुंचे और कहीं पर भादवा सृष्टी 2 बुधवार संवत् 1628 के दिन प्रधुम्नरास की रचना समाप्त की । कवि ने हरसोर का बहुत ही संक्षिप्त परिचय दिया है जो निम्न प्रकार है--
हो सोलहस पठविस विचारो, हो भादव सुदि दुतीया युधिवारो गढ हरसौर महा भलो जी, हो देवशास्त्र गुरू राखं मानो ।।1941
17 वीं शताब्दि के प्रथम चरण में हरसोर में श्रावकों की अच्छी वस्ती थी और वे देवशास्त्र गुरू तीनों को ही भक्ति करते थे।
जयपुर के पाटोदी के मन्दिर के शास्त्र भण्डार में संवत् 1662 को एक भविष्यदत्त चरित्र (श्रीधरकृत) की पांडुलिपि है जो जिसकी लिपि अजमेर में प्रजन जोशी द्वारा की गयी थी इसके दूसरे पोर लिखा हुआ है कि हरसोर में राजा सांवलदास के शासन काल में खण्डेलवाल देव एवं उसकी पत्नी देवलदे वारा ग्रन्थ की प्रतिलिपि करायी गयी थी।
झुंझन
झुझुनु शेखावाटी प्रदेश का प्रमुख नगर है । देहली के समीप होने के कारण यहाँ दिगम्बर जैन भट्टारको का बराबर आवागमन बना रहा। 15 वीं शताबिद में होने वाले चरित्रवर्द्धन का झुझनु के प्रदेश ही प्रमुख कार्य क्षेत्र था। नगर में दिगम्बर एवं प्रबेताम्बर दोनों ही का जोर था । संवत् 1516 में इसी नगर में भट्टारक जिनचन्द के एवं मुनि सहस्त्रकीत्ति के शिप्य तिहुणा ने त्रैलोक्यदीपक (वामदेव) की प्रतिलिपि करके अपने गुरू जिनचन्द्र को भेंट की । ग्रन्थ की प्रतिलिपि कराने वाले थे खण्डेलवाल जाति के सेठी गोत्र वाले संधी मोटना उसकी पत्नी साह एव उसके परिवार के अन्य सदस्यगण । पंचमी प्रत के उद्यापन के उपलक्ष में प्रस्तुत ग्रन्थ प्रतिलिपि करवाकर तत्कालीन भट्टारक जिन चन्द को भेंट स्वरूप दिया गया था ।
__ संवत् 1615 में ब्रह्म रायमल्ल भुमुनु पहुँचे । उनका वहाँ अच्छा स्वागत किया गया और इसी नगर में नेमीश्वररास समाप्त किया। कवि ने नगर का जो संक्षिप्त
१. राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की अन्य सूची, चतुर्थ भाग, पृ. १८४। २. राजस्थान के जैन साहित्य, पृ०६६। ३. स्वस्ति सं० १५१६ बर्षे ........... ............सद्गुरूवे प्रदत्त ।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल वर्णन किया है उससे पता चलता है कि नगर में चारों ओर बन उपयन थे । श्रावकों की संख्या नगर में विशेष थी। वैसे वहाँ सभी जातियों के लोग रहते थे । नगर का राजा चौहान जाति का था जो उदार एवं कुशल शासक था तथा सभी धर्मों का आदर करता था।
संवत् 1815 से पूर्व पाहाग मिषत टोमास गिजामा मन प्रोग में ही स्थित हैं । इससे भी पता चलता है कि उस समय तक यह प्रदेश जैन धर्मावलम्बियों का प्रमुख क्षेत्र था । धौलपुर
घोलपुर पहिले राजस्थान की एक छोटी जाट रियासत थी। वर्तमान में यह मवाई माधोपुर का उपजिला है। धौलपुर राजस्थान एवं मध्यप्रदेश का सीमावर्ती प्रदेश है । वैसे धौलपुर का प्राचीन इतिहास रहा है। 8 वीं शताब्दि से 17 वीं मताब्दि तसा यहाँ चौहान एवं तोमर राजपूतों का शासन रहा। कुछ समय के लिए सिकन्दर लोदी ने इस क्षेत्र को अपने राज्य में मिला लिया । खानुप्रा की लड़ाई के पश्चात् यह प्रदेश मुगलों के हाथ में आ गया और उसके पश्चात् मरहठायों ने इस पर अपना अधिकार कर लिया । सन् 1800 में धोनपुर, बाड़ी, राजाखेडा तथा सरमपुरा को मिलाकर एक नयी रियासत को जन्म दिया गया उसे महाराज राना वीरतसिंह को दे दिया गया। उनके पश्चात् मत्स्य प्रदेश निर्माण तक धौलपुर राज्य का शासन उन्हीं के वंशजों के हाथों में रहा ।
धौलपुर जैन धर्म की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण प्रदेश रहा है। अपभ्रश के महाकवि रइधु का धौलपुर प्रदेश से विशेष सम्बन्ध रहा था और उनका जन्म भी इसी प्रदेश में हुआ था । २ थी जिनहंससूरि (सं. 1524-82) ने धौलपुर में बादशाह को चमत्कार दिखला कर 500 कैदियों को छुड़वाया था ।
संवत् 1629 अथवा इसके पूर्व से ब्रह्म रायमल्ल स्वयं धौलपुर पहुंचे और वहाँ के श्रावक श्राविकानों को साहित्य एवं संस्कृति के प्रति जागरूकता के लिए प्रेरणा दो। ब्रह्म रायमल्ल ने नगर की सुन्दरता का यद्यपि अधिक वर्णन नहीं किया लेकिन जो
१. अहो सोलाह से पन्द्रह रच्योरास................""राशजी मान ।।४।। २. राजस्थान का जन साहित्य, पृ० १५५ । ३. वही, पृ. ६७३
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महाकवि की काव्य रचना के प्रमुख नगर कुछ किया है उमसे ज्ञात होता है कि उस समय नगर में सभी जातियों रहती थी सथा वह वन, उपवन, मन्दिर एवं मकानों की दृष्टि से नगर स्वर्ग समान मालूम होता श । कवि ने धौलपुर को घोलहरनग्र लिखा है।' जनों को घनी बस्ती थी और उनकी रुचि पूजा पाठ प्रादि में रहती थी। शाकम्भरी
वर्तमान सांभर का नाम ही शाकम्भरी रहा है। शाकम्भरी का उल्लेख संस्कृत, प्राकृत एवं अपनश के विभिन्न ग्रन्थों में मिलता है। शाकम्भरी देवी के पीठ के रूप में वर्तमान सांभर की प्राचीनता महाभारत काल तक तो चली ही जाती है : महाभारत (वनपर्व) देवी भागवती 7128, शिवपुराण (उमासंहिता) मार्कण्डेयपुराण
और मूर्ति रहस्म प्रादि पौराणिक अन्यों में शाकम्भरी को अवतार कायों में शतवार्षिकी अनावृष्ठि, चिन्ताकुन ऋषियों पर देवी का अनुग्रह, जलवृष्टि, शाकादि प्रसाद दान द्वारा धरणी के भरण पोषण यादि की कथाएं उल्लेखनीय हैं। वैष्णाव पुराणों में शाकम्भरी देवी के तीनों रूपों में शताक्षि, शाकम्भरी और दुर्गा का विवेचन मिलता है । देश में शाकम्भरी के सीन साधना पीर है । पहला सहारनपुर में दूसरा सीकर के पास एवं तीसरा सांभर में स्थित है। यों तो सांभर को शाकम्भरी का प्रसिद्ध साधना पीठ होने का गौरव प्राप्त है लेकिन इसमें स्थित प्रसिद्ध तीर्थस्थली देवदानी (देवयानी) के आधार पर भी इस नगर की परम्परा महाभारत काल तक चली जाती है।
जैन धर्म और जैन संस्कृति की दृष्टि में शाकम्भरी प्रारम्भ से ही महत्त्वपूर्ण नगर रहा । मारवाड़ प्रदेश का प्रवेश द्वार होने के कारण भी इस नगर बा अत्यधिक महत्त्व रहा। देहली एवं प्रागरा से आने वाले जनाचार्म शाकम्भरी में होकर ही
१. अहो घोलहर नग्र वन देहुरा थान,
देवपुर सोमं जी सर्व समान पोणि छत्तीस लीला कर
अहो करें पूजा नित जब परहंत । २. स्वादनि फलमूलानि भक्षणार्थ ददौ शिवा ।
शाकम्भरीति नामापि तद्धिनात् समभुम्लप । देवो भागवती ७।२८ भालियं स पुरवं तेषां, शाकेन फिल भारत । ततः शाकम्भरीत्येव नामा यस्याः प्रतिष्ठितम् । महाभारत बनपर्व
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल मारवाड़ में विहार करते थे। अजमेर, चित्तोड़, चाकसू, नागौर एवं प्रामेर में होने वाले भट्टारकों ने सांभर को अपने बिहार से खूब पाचन किया था । महाकवि वीर प्राशाधर, घनपाल एवं महेश्वरसूरि ने अपनी कृतियों में शाकम्भरी का बड़ी श्रद्धा के साथ उल्लेख किया है। हिन्दी के प्रसिद्ध जैन कवि ब्रह्म रायमल्ल ने संवत् 1625 में ज्येष्ठ जिनवर कथा एवं जिन लाडूगीत बी रचना सांभर में ही की थी। दोनों ही लघु रचनाएं हैं । नरायना से जो प्राचीन प्रतिमाएँ उपलब्ध हुई है ये इस प्रदेश एवं उसकी राजधानी सांभर में जैन संस्कृति की विशालता पर प्रकाश डालती हैं । संवद 1524 में यहां जिनचन्द्राचार्य कृत सिद्धान्तसार संग्रह की प्रतिलिपि की गई ।' संवत् 1750 में यहाँ भट्टारक रत्नकीति सांभर पधारे और श्राविका गोगलदे ने सूक्तमुक्तावली टीका की पांडुलिपि लिखवा कर उन्हें भेंट की थी। संवत् 1829 में अजमेर के भट्टारक विजयकीति के अम्नाय के हरिनारायण ने पुषणसार की प्रति करवा कर प० माणकचन्द को भेंट में दी थी। 19 वीं शताब्दी में यहाँ श्री रामलाल पहाडमा हुए जो अपने समय के अच्छे लिपिकार थे।
वर्तमान में नगर में 4 दिगम्बर जैन मन्दिर हैं जिन में विशाल एवं प्राचीन जिन प्रतिमाएं विराजमान है। नगर के धान मण्डी के मन्दिर को जो प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों का संग्रह है वह यहां के निवासियों की साहित्यिक रुचि की मोर समेत करने वाला है। नगर में इस युग में भी जैनों की अच्छी बस्ती है और वे अपने प्राचार व्यवहार तथा शिक्षा प्रादि की दृष्टि से प्रदेश में प्रमुख माने जाते हैं।
___ सांगानेर राजस्थान की राजधानी जयपुर से १३ किलोमीटर पर दक्षिण की ओर स्थित सांगानेर प्रदेश के प्राचीम नगरों में प्रमुख नगर माना जाता है । प्राचीन ग्रन्थों में इस नगर का नाम संग्रामपुर भी मिलता है । १० वीं शताब्दी के पूर्व में ही इस नगर के कभी अपने विकास की चरम सीमा पर पहुंच कर प्रसन्नता के प्रसून बरसाये तो कभी पतन की ओर दृष्टि डाल कर उसे आँसू भी बहाने पड़े। १२ वीं शताब्दी तक यह नगर अपने पूर्ण वैभव पर था । वहा विशाल मन्दिर थे । धवल एवं कलापुर्ण प्रासाद थे । व्यापार एवं उद्योग था । इसके साथ ही वहां थे-सभ्य एवं -...-...
१. राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रन्थ सूची, पंचम भाग, पृ० ८३ । २, वही, पृ० ७०६। ३. वहीं, पृ० २६० ।
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महाकवि की काम्य रचला के प्रमुख कार सुसंस्कृत नागरिक । सांगानेर (संग्रामपुर) के समीप ही चम्पावती (चाकमू) तक्षकगढ़ (टोडारायसिंह) एवं ग्राम्रगढ़ (यामेर) के राज्य थे जिन्हें उसकी समृद्धि एवं वैभव पर ई िथी। कालान्तर में नगर के भाग्य ने पलटा खाया और धीरे-धीरे वह वीरान नगर-सा बन गया। जिसमें संधी जी का जन मन्दिर एवं अन्य घरों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं रहा । मन्दिर के उत्तुंग शिखर ही नगर के वैभव के एक मात्र प्रतीक रह गये।
१६ वीं शताब्दी में भामेर के राज सिंहासन पर राजा पृथ्वी सिंह सुशोभित थे । वे वीर राजपूत थे तथा अपने राज्य की मीमाएँ बनाले के तीघ्र इच्छुक थे । उनके १२ राजकुमार थे जिन्हें पृथ्वीसिंह ने भामेर में ही एक-एक कोटडो (किले के रूप में) बनाने की स्वीकृति दे दी। इन्हीं १२ राजकुमारों में से एक राजकुमार ने सांगा जो वीरता एवं सूझ वाले थे । महाराजा पृथ्वीसिंह के पश्चात् महाराजा रतनसिंह धामेर के शासक बने । रतनसिंह की और राजकुमार सांगा की अधिक दिन तक नहीं बन सकी । राजकुमार सांगा बीकानेर के शासक जयसिंह के पास चले गये। कुछ ही समय में उसने वहाँ सेना एकत्रित की और शस्त्रों से पूर्ण सुसज्जित होकर मामेर की भोर चल दिया । मार्ग में मोजमाबाद के मैदान में ही दोनों सेनाओं में जमकर लड़ाई हुई और उस युद्ध में विजयश्री सांगा के हाथ लगी। राजकुमार सांगा पामेर की ओर चल पड़े । मार्ग में उसे एक उजड़ी हुई बस्ती दिखलाई दी। सांगा जैन मन्दिर की कला एवं उसकी भस्मता को देखकर प्रसन्न हो गया । मन्दिर में विराजमान पापर्वनाथ की प्रतिमा के दर्शन किये और उजड़ी हुई बस्ती को पुन: बसाने का संकल्प किया । यह १६ वीं शताब्दी के अन्तिम चरण की घटना है । बस्ती का नाम सांगा के नाम से संग्रामपुर के स्थान पर सांगानेर प्रसिद्ध हो गया । कुछ ही वर्षों में वह पुन: प्रच्छा नगर बन गया ।
सन् 1561 में जब मुगल बादशाह अकबर अजमेर के ल्याशा की दरगाह में अपनी भक्ति प्रदर्शित करने गये तो आमेर के राजा भारमल्ल ने उनका स्शगत सांगानेर में ही किया । महाराजा भगवन्तदास के शासन में हिन्दी के प्रसिद्ध कवि ब्रह्म रायमल्ल हुए जिन्होंने सांगानेर में ही सन् 1576 में भविष्यदस चौपई की रचना समाप्त की । सन् 1582 में जैनाचार्य हीरा विजय सूरि सम्राट अकबर के निमन्त्रण पर उनके दरबार में गये थे तो बे सांगानेर होकर ही देहली गये थे। सांगानेर निवासियों ने उनका हार्दिक स्वागत किया था। इसके पश्चात् यह नगर 16 वीं शताब्दि से 19 वीं शताब्दि तक विद्वानों का उल्लेखनीय केन्द्र रहा
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
सांगानेर का उल्लेख ब्रह्म रायमल्ल ने तो किया ही है इस नगर में खुशालचन्द काला (17 वीं शताब्दि), पुण्यकीति (संवत् 1660), जोधराजगोदीका (16 वीं17 वीं शताब्दि) हेमराज ।। (17 वीं शताब्दि) तथा किशनसिंह जैसे विद्वान् हुए । जयपुर बसने वो 50 वर्ष दान न राह नगर जैन मादित्यकों के लिए विशेष प्राकर्षण का केन्द्र रहा । ब्रह्म रायमल्ल ने सांगानेर के बारे में जो वर्णन किया है उससे पता चलता है कि उस समय यह नगर धन-धान्यपूर्ण था तथा चारों ओर पूर्ण सुख शान्ति थी । श्रावकों की यहाँ बस्ती की वे सभी धन सम्पत्ति युक्त थे । सबसे अच्छी बात यह थी कि उनमें प्रापस में पूर्ण मतक्य था। नगर में जो जैन मन्दिर थे उनके उन्नत शिखर प्राकाम को छूत थे। बाजार में जवाहरात का व्यापार खूब होता था। सांगानेर वाइड देश में विशेष शोभा युक्त था। शहर के पास ही नदी बहती थी पौर चारों ओर पूर्ण सुख-शान्ति व्याप्त थी।
विद्वानों के केन्द्र के साथ ही सांगानेर भट्टारकों का केन्द्र भी था । प्रामेर गद्दी होने के पश्चात् भी वे बराबर सांगानेर पाया करते थे। अभी तक जितनी भी प्रशस्तियो मिली है उनमें सभी में भट्टारकों का अत्यधिक श्रद्धा के साथ नामोल्लेख किया गया है । लेकिन भट्टारकों का विशेष विहार भट्टारक चन्द्रकीति (संवत् 1622-62 तक) से बढ़ा और भट्टारक देवेन्द्र कीति, भट्टारक नरेन्द्रकीति भट्टारत सुरेन्द्रकति, भट्टारक जगत्कोति, भट्टारक महेन्द्रकीति, भट्टारक सुखेन्द्रकीति आदि का विशेष आवागमन रहा । तेरहपन्थ के उदय के समय भट्टारक नरेन्द्रकीति वहीं सांगानेर में थे ।' खुशालचन्द काला लक्ष्मीदास के शिष्य थे जो स्वयं भट्टारक देवेन्द्रकीति के प्रमुख शिष्य थे।
देस ढूढाइ सोभा वणी, पूजे तवा प्रालि मण तणो । निर्मल तल नदी बह फिर. सुख में बसे बह सांगानेरि ।। बहुदिशि बण्या भला बाजार, भरै पटोला माती हार । भवन उसुग जिनेश्वर तणा. सौभ चंदवा तोरणा घणा । राजा राजे भगवन्तदास, राजेश्वर सेवाहि बढ तास । परजा लोग सुस्थी सब बसौ, दुशी दलित्री पुरव पास। श्रावक लोग बसै धनवन्त, पूजा करहि जपहि परिहन्त ।
उपरा ऊपरी वैर न फाम, जिहि अहिमिन्द मुश सुन्न नाम ।। J. भट्टारक प्रविरिके नरेन्द्रकीरति नाम ।
यह कुपन्थ तिनके समै नयो चल्यो अघ धरम ।।
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महाकवि की काव्य रचना के प्रमुख नगर!
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भट्टारकों एवं विद्वानों का केन्द्र होने के साथ ही यहाँ प्राचीन साहित्य का भारी संग्रह या । बड़े-बड़े शास्त्र भण्डार थे 1 तया उनमें प्राचीन ग्रन्थों को प्रतिलिपि करने के पूर्ण साधन थे। जयपुर के तेरहपन्थी मन्दिर (वड़ा), ठोलियों का मन्दिर, बधीचन्द जी का मन्दिर एवं गोधों के मन्दिर में जो शास्त्र भण्डार है वे सब पहिले सांगानेर के विभिन्न शास्त्र भण्डारों में थे। इसके अतिरिक्त यह नगर सुधारकों का भी केन्द्र था । दिगम्बर समाज के तेरहपस्थ का सबसे अधिक पोषण यही हश्रा तथा इसके मुख्य नेता अमरा भीसा ने जो हिन्दी के कवि जोधराज गोदीका के पिता थे । मस्तराम साह ने अपने ग्रन्थ मिथ्यात्व खण्डन पुस्तक में तेरहपन्थ एवं अमरचन्द के बारे में विस्तृत जानकारी दी है। जिसके अनुसार अपना भीमा को धन का अत्यधिक मुमान था तथा वह जिनवाणी का अविनय करता था इसलिए उसको वहाँ के श्रावको ने जिन मन्दिर से निकाल दिया इसके पश्चात् उसने तेरहपथ का प्रचार किया और अपना एक नया मन्दिर बनवा लिया ।
2.
युर निकटि बस एक पोर, सांगानेरि प्रादि त ठोर । सबे सुखी ता नगरी माहि. तिन में श्रावक सुवस साहि । बड़े-बड़े चैत्यालय जहा, ब्रह्मचार इक बस तहा। अमरचन्द ही ताको नाम, सोभित सकल गुननि का धाम । ताके विंगी मिली प्रावत पन्च, कथा सुनत तजि के परपन्च । तिनि मैं अमरा भौसा जाति, गोदीका यह व्योंक कहाति । धनको गरव अधिक तिन घरयो, जिरवाणा को भविनयकरयो। तब बालो श्रावकनि विचारि, जिन मन्दिर ते दया निकारि । जब उन कीन्हो क्रोध अनंत, कही चले हो नूनन पन्थ । तब वै अध्यातमी कितेक मिले, हादशा सर्व यकसे मिले । बनवो कछुयक लालच देवे, अपने मत में ग्राने छ छ । नयों देहरो ठान्यो और, पूजा पाठ रचे बर जो । सतरहे मेरु निडोसरै शाल, मत माधो प्रसं मध जाल । लोगनि मिति के मतो उपायो, तेरहपन्य नाम ठहरायो।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
उस समय सांगानेर के जैन समाज की बहत ख्याति बढ़ गयी थी तथा धार्मिक एवं सामाजिक मामलों को निबटाने की दृष्टि से भी वहां के प्रमुख श्रावकों के पास आते और उनसे मार्ग दर्शन चाहा जाता। कविवर जोधराज गोदीका के कारण सांगानेर को और भी प्रसिद्धि एवं लोकप्रियता प्राप्त हुई । उसने लिखा है कि हजारों नगरों में सांगानेर प्रमुख नगर था ।'
सांगानेर साहित्यिक केन्द्र के अतिरिक्त व्यापारिक केन्द्र था । जयपुर बसने के पूर्व इस नगर का बहुत महत्त्व था । बाहर के विद्वान् एवं व्यापारी यहाँ अाकर रहने लगते थे । हिन्दी के विद्वान् किशनसिंह (17-18 वीं शताब्दि) व्यापार के लिए ही रामपुरा छोड़कर सांगानेर पाकर रहने लगे थे। इसी तरह ब्रह्म रायमस्स (16 वीं शताब्दि) ने भी यहाँ काफी समय तक रहे थे । हेमराज द्वितीय सांगानेर के थे लेकिन फिर कामा जाकर रहने लगे थे ।
__सांगानेर में बड़ी भारी संख्या में ग्रन्थों की प्रतिलिपियों की गई जिससे यहाँ के समाज की साहित्यिक नियता का पता लगता है। संवत् १६०० में सांगा के गासन में भट्टारक वर्धमान देव कृत वरांग चरित्र की प्रतिलिपि की गयी थी । उसमें सांगा को 'राव' की उपाधि से सम्बोधित किया है । ' सांगानेर के पुनस्थापन के पश्चात् संवतोल्लेख वाली यह प्रथम पाण्डुलिपि है। इसी ग्रन्ध की पुनः संवत् १६३१ में प्रतिलिपि की गयी थी। उस समय नगर पर महाराजाधिराज भगवन्तसिंह का राज था। इसके पश्चात् प्रादिनाथ चैत्यालय में संस्कृत की प्रसिद्ध पुराण कृति हरिवंशपुराण की प्रतिलिपि की गयी। उस समय महाराजा मानसिंह का शासन था। संवत् १७१२ में प्राधिका चन्द्रश्री ने दिगम्बर जैन मन्दिर ठोलियो में चातुर्मास किया ! उनकी शिष्या नान्ही ने उस समय अष्टान्हिका प्रत रखा और उसके निमित
१. सागानेरि सुयान में, देश डूडाहडि सार ।
ता सम नहि को पोर पुर, देखे सहर हबार ।। २. उपनौ सौगानेरि को, अब कामागढ़ वास ।
पहा हेम दोहा रचे, स्वपर बुद्धि परकास || १. ग्रन्थ सूची प्रथम भाग- पृष्ठ संख्या ३८४ । २. पन्थ सूवी तृतीय भाग-पृष्ट संख्या ७५ ।
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महाकवि की काव्य रचना के प्रमुख नगर
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धर्मं परीक्षा की प्रति करवा कर मन्दिर में विराजमान की १८ वीं एवं १९ वीं शताब्दी में यहाँ ग्रन्थों को प्रतिलिपि करने का कार्य दरावर चलता रहा। जयपुर के ग्रन्थ भण्डारों से पचास से भी अधिक ऐसी पाण्डुलिपियाँ होगी जिनका लेखन कार्य इसी नगर में हुआ था। प्रतिलिपि करने वाले पण्डितों में पं० चोखनन्द, पं० रादाईराम गोधा एवं उनके शिष्य नानगराम का नाम उल्लेखनीय है ।
सांगानेर जैन एवं वैष्णव मन्दिरों की दृष्टि से भी उल्लेखनीय नगर है ।
पूर्व
में से
यहाँ का संत्री जी का जैन मन्दिर राजा के प्राचीन एक मन्दिर है। इस मन्दिर का निर्माण १० वीं शताब्दि में हुआ था। मन्दिर के संवत् १००१ का एक लेख अंकित है । ४ १००१ के पूर्व ही होना चाहिये ।
चौक में जो देदी है उसकी बांदरवाल में जिसके अनुसार मन्दिर का निर्माण सबत्
17
मन्दिर का द्वार अत्यधिक किन्नर - किशरिया विविध
उनके हाथ में फूलों की
इस मन्दिर की कला की तुलना मात्र के दिलवाडा के जैन मन्दिर से को जा सकती है । जिसका निर्माण इसके बाद में हुआ था। कला-पूर्ण हैं और चौक में दोनों ओर स्तम्भों पर वाध्य यन्त्रों के साथ नृत्य करती हुईं प्रदर्शित की गयी है। माला है तथा वे चंवर करते हुए दिखलाये गये है। दूसरे चौक में जो वेदी है उसके तोरणद्वार एवं बाँदरवाल अत्यधिक कला पूर्ण है और ऐसा लगता है जैसे कलाकार ने अपनी सम्पूर्ण कला उन्हीं में उडेल दी है । कलाकार के भाव एकदम स्पष्ट है और जिन्हें देखते ही दर्शक भाव विभोर हो जाता है। इसी चौक के दक्षिण की ओर गर्भगृह मे संवत् १९८६ की श्वेत पाषाण को भगवान पार्श्वनाथ की बहुत ही मनोज्ञ प्रतिमा है जिसके दर्शन मात्र से ही दर्शक के हृदय में अपूर्ण श्रद्धा उत्पन्न होती है । मन्दिर के द्वितीय चौक के द्वार के उत्तर की प्रोर 'ढोलामारू' का चित्र अंकित है । जिससे पता चलता है कि ११ वीं शताब्दि में भी ढोला मारु प्रत्यधिक लोकप्रिय था। मन्दिर के तीन शिखर सम्यक् श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र के प्रतीक है ।
जैन मन्दिर के प्रतिरिक्त यहाँ वा सांगा बाबा का मन्दिर भी अत्यधिक लोकप्रिय एवं इतिहास प्रसिद्ध मन्दिर है। जहाँ सांगा बाबा के चित्र को पूजा की जाती है । यहाँ एक सोगेश्वर महादेव का मन्दिर है जिसका निर्माण राजकुमार सांगा
३.
४.
ग्रन्थ सूची पंचम भाग - पृष्ठ संख्या ११६.
संवत् १००१ लिखित पण्डित तेजा शिष्य याचायं पूर्णचन्द्र ।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
ने कराया । एक जनश्रुति के अनुसार राजा मानसिंह की कहानी जुड़ी हुई है तभी से " सांगानेर का सांगा बाबा लाये राजा मान" के नाम से दोहा भी लोकप्रिय बन
गया।
१३२
सांगानेर आज भी हाथ से बने कागज एवं विशिष्ट कपड़े की छपाई के लिये प्रसिद्ध है। नगर का तेजी से विकास हो रहा है और इसकी आज जनसंख्या १६००० तक पहुँच गयीं है ।
तक्षकगढ़ (टोडारायसिंह )
टोडारायसिंह 'डाड प्रदेश के प्राचीन नगरों में गिना जाता है। शिलालेखों, ग्रन्थ प्रशस्तियों एवं मूर्तिलेखों में इस नगर के टोडारायत्तन, तोडागढ़, तक्षकगढ़, तक्षक दुर्ग आदि नाम मिलते हैं। वर्तमान में यह टोंक जिले में अवस्थित है तथा जयपुर से दक्षिण की भोर ६० मील है। नगर के चारों ओर परकोटा है तथा परकोटे में कितने ही खण्डहर भवन हैं जिनसे पता चलता है कि कभी यह नगर समृद्धशाली एवं राज्य की राजधानी रहा था। स्वयं तक्षकगढ़ नाम ही इस बात का द्योतक है कि यह नगर नाग जाति के शासकों का नगर था। मथुरा एवं पद्मावती में नाग जाति का भी उसी समय बसाया गया होगा । ७वीं शताब्दी में टोडारायसिंह चाटसू के गुहिल वंशीय शासकों द्वारा शासित था । १२ वीं शताब्दी में यह नगर अजमेर के चौहानों के अधीन आ गया। इसके पश्चात् टोडारायसिंह विभिन्न शासकों के प्रधीन चलता रहा इसमें देहली, आगरा एवं जयपुर के नाम उल्लेखनीय हैं। सोलंकियों के शासन में यह नगर विकास की ओर बढ़ने लगा |
यह
अकबर ने सोलंकियों से टोडारायसिंह को जीत लिया और आमेर के राजा भारमल के छोटे भाई जगन्नाथ को यहाँ का शासन भार सम्हला दिया। जगन्नाथ राम के शासनकाल में यहां बावडियों का निर्माण हुआ। स्वयं महाराजा ने भा अपने नाम की बावडी बनवायी। इसलिये टोडारायसिंह बावडी, दावडी, गट्टी और पट्टी के लिये प्रदेश भर प्रसिद्ध हो गया ।
टोडारायसिंह जैन साहित्य एवं संस्कृति की दृष्टि से प्रत्यधिक महत्त्वपूर्ण नगर माना जाता रहा। राजस्थान के जैन ग्रन्थ भण्डारों में सैंकडों ऐसी पाण्डुलिपियाँ
प्रजाति संग्रह- - डा० कासलीवाल - पृष्ठ संख्या ११३ ।
१.
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महाकवि की काव्य रचना के प्रमुख नगर १३३ हैं जिनकी प्रतिलिपि इसी नगर में हुई थी और उनके आधार पर इसे जैन साहित्य एवं संस्कृति का केन्द्र माना जा सकता है। सबसे अधिक प्रतिलिपियाँ १५ वीं शताब्दी से १८ वीं शताब्दी तक की मिलती है। संवत् १४६७ में वहीं प्रवचनगार की प्रति की गयी थी। संवत् १६१र में राव श्रीरामचन्द्र के सासन काल में पुष्पदन्त कृत
कुमार चौर' को प्रशस्ति की थी धी, इसी तरह संवत् १६६४ में जन्न यहाँ राव जगन्नाथ का शासन था, प्रादिपुराण (पुष्पदन्त कृत) को पाण्डुलिपि तैयार की गयी थी। ' संवत् १६३६ में हिन्दी के प्रसिद्ध कवि ब्रह्म रायमल का मागमन हुमा पोर उन्होंने अपनी आध्यात्मिक कृति परमहंस चौपई की रचना समाप्त की।
१८ वीं शताब्दी में यहां संस्कृति के दो उच्चकोटि के विद्वान् हुये । इनमें प्रथम विद्वान् पेमराज श्रेष्ठी के पुत्र वादिराज थे जिन्होंने इसी नगर में संवत १७२९ में वाग्भट्टालंकारावचूरि-कवि चन्द्रिका की रचना की थी। कवि वहाँ के राजा राजसिंह के मन्त्री थे जो भीमसिंह के पुत्र थे। बाधिराज के ही माई जगताप थे। ये भी संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान् थे। जगन्नाथ भट्टारक नरेन्द्रकीति के प्रिय शिष्य थे और उनके समय में टोडरायसिंह में संस्कृत ग्रन्थों का अच्छा पठन पाठन था ।
यहाँ का प्रसिद्ध प्राधिनाथ दि. जैन मन्दिर संवत् १५६५ में मंडलाचार्य धर्मचन्द्र के उपदेश से स्त्रण्डेलवाल जाति के श्रापकों ने निर्माण कराया था। उस समय नगर पर महाराजाधिराज सूर्य सेन के पुत्र सौदी सेन तथा उनके पुत्र पृथ्वीराज पूरणमल का शासन था। इसी मन्दिर में आदिनाथ की जो मूलनायक प्रनिमा है उसकी प्रतिष्ठा संवत् १५१६ में हुई थी। इस मन्दिर में संवत् ११३७ की प्राचीनतम
१. वही, पृष्ट ६ २. सोलामै छत्तीस बखान, ज्येष्ठ मावली तेरस जान ।
सोभैबार सनीमरवार, ग्रह नक्षत्र योग शुभसार ।। ६४४ ॥ देस भाबो तिह नागरवाल, तक्षिकग अति बन्यो विसाल ।
सोभ बाडी नाग सुचंग, कूप बावड़ी निरमरन अंग ।। ६४१ ।। ३. श्री राजसिंह नपति जयसिंह एवं श्रोतक्षकाख्य नगरी अहिल्लतल्पा ।
श्री बादिराज विशुधो ऊपर वादिराज, श्री सूत्रवृत्तिरिह नंदतु शार्कचन्द्रः । ४. आदिनाथ के मन्दिर में बंदी के पीछे की अंकित शिलालेख | ५. नादिनाथ के मन्दिर में तिवारे में दायी योर वेदी का लेख ।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल प्रतिमा है । यहाँ पाश्र्वनाथ की दो पांच फीट ऊंची प्रतिमाएँ हैं जो अत्यधिक मनोश हैं । इनमें से एक मति मन्दिर की मरम्मत करते समय प्राप्त हुई थी।
आदिनाय के समान ही नेमिनाथ का मन्दिर भी विशाल एवं प्राचीन है। इसमें नेमिनाथ स्वामी की मूलनायक प्रतिमा है जो प्रत्याधिक मनोहर एवं मनोज है। ग्राम में उत्तर-पश्चिम की ओर छतरियां हैं वहाँ भट्टारकों की निषेधिकाएं हैं। भट्टारक प्रभाचन्द्र की निषेधिका संवत् १५-६ में स्थापित की गगी थी। दूसरी निषेधिका संवत् १६४४ में स्थापित की गयी थी। इन निषधिकायों से ज्ञात होता है कि टोडारायसिंह कभी भट्टारकों की गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र रहा था ।
यहीं पहाड़ पर एक नशिया है वो कभी जन मन्दिर था तथा प्राजकल सार्वजनिक स्थान बना हुआ है । मन्दिर के द्वार पर संवत् १८५७ का एक लेख प्राज भी उपलब्ध है।
सवाई माधोपुर रणथम्भौर दुर्ग की छत्रछाया में बसा हुमा सवाई माधोपुर महाराजा सवाई माधोसिंह (१७००-६७) द्वारा संवत् १८१६ (१७६२) में बसाया हुआ प्राचीन नगर है । बाजकरन यह नगर जिला मुख्यालय है। चारों और घने जंगल एवं पर्वतमालामों से घिरा हुमा सवाई माधोपुर की प्राकृतिक छटा देखत ही बनती है। नगर के पास ही घने जंगल में शेरगढ़ है जो पहले अच्छी वस्ती थी। वह का जैन मन्दिर अपने प्राचीन वैभव की याद दिला रहे हैं।
सवाई माधोपुर जैन मन्दिरों एवं शास्त्र भण्डारों की दृष्टि से कभी समृद्ध नगर रहा था । यहाँ के मन्दिरों में प्राचीन मूतियां प्रतिष्ठापित हैं मुर्तियाँ भी विशाल एवं कलापूर्ण हैं घिससे पता चलता है कि कभी यह नगर जैन धर्म एवं सस्कृति का बड़ा केन्द्र या। संवद १८२६ में सम्पन्न पंचकल्याणक प्रतिष्ठा अपने ढंग की महत्त्वपूर्ण प्रतिष्ठा थी तथा जिसमें हजारों की संख्या में जैन प्रतिमायें सुदूर प्रान्तों से सायी जाकर प्रतिष्ठापित की गयी थी। इसके प्रतिष्ठापक घे दीथान संधी नन्दलाल प्रतिष्ठाकारक भष्ट्रारक सुरेन्द्र कौति थे । उस समय यहाँ पर जयपुर के महाराजा सवाई पृथ्वीसिह जी का पासन था ।
बर्तमान में यहाँ रणथम्भौर, शेरगढ़ तथा चमात्कार श्री के मन्दिर के अतिरिक्त ६ मन्दिर एवं चैत्यालय है ।
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महाकवि को काव्य रचना के प्रमुख नगर
दिगम्बर जैन मन्दिर दीवान जी का विशाल मन्दिर है । मन्दिर तीन शिखरों एवं चार कोनों में चार छत्रियों सहित है । मन्दिर में एक भौंहरा है जिसमें मूर्तियां विराजमान हैं। यही हस्तलिखित ग्रन्थों का भी अच्छा संग्रह है। जिसमें करीब 300 पांडुलिपियां होंगी ।
नगर का दूसरा प्रसिद्ध मन्दिर सांवला जी का है। सांपला बाबा की मूति मनोज्ञ एवं चमत्कारिक है। इसीलिए जब जयपुर राज्य में वैष्णव जैन उपद्रव हुये उस समय इस मन्दिर को लूटने का प्रयास किया गया था लेकिन मूर्ति की चमत्कार से उपद्रवी कुछ भी नहीं कर सके । इस मन्दिर में 13 वीं-14 वीं शताब्दी तक को मूतियाँ हैं।
पंचायती दिगम्बर जैन मन्दिर यहाँ का नवीन मन्दिर है। साम्प्रदायिक उपद्रव में पंचायती मन्दिर को भी लूटा गया तथा नष्ट किया गया । उसके स्थान पर इस मन्दिर का निर्माण कराया गया । यह पंचायती बड़ा मन्दिर पार्श्वनाथ जी का है इसमें हस्तलिखित ग्रन्थों का अच्छा संग्रह है। मुसावडियों के मन्दिर का निर्माण साम्प्रदायिक उपद्रव के बाद हुमा । यह नगर सेठ का मन्दिर है ।
सवाई भोघोपुर में जैन कवि चम्पाराम हुए जिन्होंने संवत् 1864 में भद्रबाहु चरित भाषा टीका लिस्त्री । चम्पाराम हीरालाल भावमा के पुत्र थे।1 संवत् 1825 में यहाँ द्रव्य संग्रह की प्रतिलिपि की गयी। इसी तरह पचासों मोर भी प्रतियां मिलती है जिनकी यह! प्रतिलिपि हुई थी।
देहली
गत सैकड़ों वर्षों से देहली को भारत का प्रमुख नगर रहने का सौभाग्य प्राप्त है । इसलिये यहां के नागरिकों ने यदि अच्छे दिन देख्न हैं तो उन्हें अनेक बार बुरे दिन भी देखने पड़े हैं। तैमूरसंग, नादिरशाह जैसे नुशंस प्राक्रमणकारियों में यहां के नागरिकों पर जो अत्याचार किये थे वह मुसलिम युग में नगर की संस्कृति एवं सभ्यता को मिटाने के जो बर्बर कार्य किये थे उन्हें याद करते ही पापाण हुदय भी दवित हो जाता है । लेकिन अनेक प्रत्याचारों, लूट, खसोट एवं विनाश कार्य होने पर
1. ग्रन्थ सूची भाग-3, पृष्ठ 212
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
भी यहां के नागरिकों ने कभी हिम्मत नहीं हारी और अपने साहस, सूझबूझ से संस्कृति एवं धार्मिक विकास में लगे रहे।
देहली में जन धर्म का प्रारम्भ से ही वर्चस्व रहा । जैनों की संख्या, साहित्यनिर्माण एवं धार्मिक तथा सांस्कृतिक समारोहों की दृष्टि से इसने देश का मार्गदर्शन किया है। राजपूत काल से भी अधिक सम्मान जैन श्रेष्ठियों का मुसलिम काल में रहा । अलाउद्दीन खिलजी के समय (१२६६-१३६६) में नगर सेठ पूर्णचन्द्र नामक श्रावक था । बादशाह की उस पर विशेष कृपा थी। सेठ पूर्णचन्द्र के प्राग्रह वश तत्कालीन दिगम्बर प्राचार्य माधवसेन देहली पाये शास्त्रार्थ में दो ब्राह्मण विद्वानों को हराया। फिरोजशाह तुगलक के समय देहली में भट्टारक गादी की स्थापना की गई। इसके बाद से देहली मट्टारकों का प्रमुख केन्द्र-स्थान बन गया । राजस्थान के विभिन्न जन-प्रय भण्डारों में १४वीं शताब्दी में देहली नगर में होने वाली पाण्डुलिपियों का संग्नह मिलता है। जयपुर, उदयपुर मादि नगरों के शास्त्र भण्डारों में १४ वीं एवं १५ श्रीं शताब्दी की जो पाण्डुलिपियां उपलब्ध होती हैं वे अधिकांश देहली में लिपिबद्ध की गई थी । अपनश के भी किताहीशी निहित को । प्रथों में ही हुई प्रशस्तियों के प्राधार पर देहली के जैनों में साहित्यिक प्रेम का पता लगता है । विबुध श्रीधर ने सबत् ११८६ को देहली में नट्टल साहू की प्रेरणा से पासणाटचरिउ की रचना की थी। उस समय यहां पर तोमरबंशीय शासक अनंगपाल का शासन था।
ब्रह्म रायमल्ल ने १६१३ में प्राचीन ग्रन्थों की प्रतिलिपि करके अपना साहित्यिक जीवन देहली में ही प्रारम्भ किया था। उस समय यहां भट्टारकों का चरमोत्कर्ष था। चारों पोर पामिका, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में उन्हीं का शासन चलता था । मुगल शासन में ही देहली में लाल मन्दिर का निर्माण हुआ जो जनों के महान् प्रभाव का द्योतक है। ब्रिटिश युग में भी जैनधमांवम्बियों ने शासन एवं सांस्कृतिक गतिविधियों में अपना प्रभाव रखा । आज भी देहली का जैन समाज साहित्यिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यधिक जागरूक माना जाता है।
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भविष्यदत्त चौपई
भविष्यदत्त चौपई महाकवि की प्रमुख कृति है। इसका रचना काल संवत १६३३ कार्तिक सुदि १४ शनिवार तथा रचना स्थान सांगानेर है । प्रस्तुत पाठ कृति का प्रारम्भिक अंश है । जो तीन पाण्डुलिपियों के प्राधार पर तैयार किया गया है । इन पाण्डुलिपियों का परिचय निम्न प्रकार है
क प्रति - पत्र संख्या ६६ । माकार Ex१।। इञ्च । लिपिकाल संवत् १७९६ पौष शुक्ला प्रतिपदा ।
प्राप्ति स्थान-साहित्य शोध विभाग, दि. जैन अ. क्षेत्र, श्री महावीरजी, अयपुर ।
विशेष-- प्रस्तुत पाण्डुलिपि एक गुटके में संग्रहीत है जिसमें ब्रा रायमल्ल की दूसरी कति हनुमंत कथा का भी संग्रह है । इसके अतिरिक्त सील रासा एवं दानसोल-तप-भावना की चौपई का सग्रह भी है लेकिन दोनों कृतियां ही भपूर्ण है। मुटका जीर्ण अवस्था में है।
ख प्रति - पत्र संख्या ६८ । आकार ७४७ इटच । लेखन काल --- संवत् १६६० भादवा बुदि शुक्रबार । प्राप्ति स्थान - साहित्य शोध विभाग, महावीर निकेतन, जयपुर ।
विशेष – प्रस्तुत पाण्डुलिपि एक गुटके में संग्रहीत है । जिसमें प्रारम्भ के १७ पृष्ठ नहीं है । उसमें चौपई को पद्य सख्या अलग-अलग न देकर एक साथ दी गई है जिनकी संख्या ६१५ दी हुई है। इस पाण्डुलिपि में ११५ वां पद्य निम्न प्रकार
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल दिया हुआ है जिसमें स्वयं महाकवि एवं साथ में उनके गुरु का स्मरण भी किया गया है
मंगल श्री अरहत जिणिद, मंगल अनन्तकोसि मुणिद । मंगल पढइ करई अखाण, मंगल ब्रह्म राइमल सुजाण ||१५||
पाण्डुलिपि की लेखक प्रशस्ति भी बहुत महत्वपूर्ण है। जिससे पता चलता है कि यह गुटका प्रागरा में बादशाह शाहजहाँ की हवेली में लिखा गया था। उस हवेली में जौता पाटणी रहते थे । वहाँ चन्द्रप्रभु का मन्दिर था । उस मन्दिर में छीतर गोदीका की पाण्डुलिपि थी जिसे देखकर प्रस्तुत पाण्डुलिपि तैयार की गयी थी । ग्रन्थ प्रशस्ति महत्त्वपूर्ण है जो निम्न प्रकार है -
संवत् १६६० बर्षे भादवा वद १ सुक्रबार । पोथी लिख्यते पोथी सा, जौता पाटणी दानुका को लिखी प्रागरा मध्ये पतिसाही थी साहिजहाँ की होली श्री जलाखो वोरची की मध्ये वाम जौता पाटणी। सुभं भवतु । श्री चन्द्रप्रभ के देहरं । सा. छीतर गोदीका की पोथी देखि लिखी ।
मनधरि कथा सुणे कोई, ताहि परि सुख संपति सुत होई । थोड़ी मति किया बलाण, भवसवंत पायो निर्वाण ॥१॥ प्रशोतमाति गंभीर, विश्व विद्या कृलग्रहं । भव्यौकसरणं जीयात, श्रीमद् सर्वशक्षासन ।।१॥
ग प्रति–पत्र संख्या ६६ । प्राकार ११४४ इश्च ।
लेखन काल--संवत् १७८४ जेठ बदि ७ सोमवार ।
प्राप्ति स्थान-महावीर भवन, जयपुर ।
प्रशस्ति-संवद १७८४ का जो बदि ७ सोमवार । प्रांबरि नगरे श्री मल्लिनाथ जिनालये | साहां का देहरामध्ये । भट्टारक जी श्री श्री श्री देवेन्द्रकीत्ति जी का सिषि पौडे दयाराम लिखितं जाति सोनी नराणा का बासी पोथी लिखी ।
प्रस्तुत पाण्डुलिपि में प्रारम्भ में मंगलाचरण एवं प्रारम्भिक में पद्यों की समया अलग-अलग दी गयी है। इसके पश्चात् पद्यों की संख्या एक साथ दी हुई है।
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अथ भविष्यदत्त चौपई लिख्यते ॥
मंगलाचरण
|| श्री वीतरागाय नमः ॥
स्वामी चंद्रप्रभ जिणनाथ । नि षण्यौ चंद्रमा तासु
।
चौबीस तीर्थङ्कर स्तवन
नम चरण धरि मस्तकि हाथ ॥
काया उज्जल अधिक उजासु ॥ १॥
प्रादिनाथ बंदौ जिणदेव । सुर नर फण मिलि पाए सेब अजितनाथ जे बंदौ भाद्र । दुःख वालि रोग सहज
|| २ ||
संभवनाथ नम गुणवंत भए सिद्ध सुख है भनंत । प्रभिनन्त्रण प्रणम बहु भाइ । रक्षा करो जीव छह काय ॥३॥
प्रणमु सुमति सुमति दातार । भवियरण भव उतारण पार । मंदौ प्रसप्रभु जिणराइ | बंदत असुभ कर्म छ जाई || ४ ||
हरितवर्ण जिरणचैव सुपास | बंदत पुरवं भवियम प्रास । चंद्रप्रभ का प्रणमी पाह कमल वर्ण सनिम्मेल काय ॥५॥
प्रणम पहुपदंत जिननाथ । मुक्ति रमणिस्यों कोन्हौ साथ । नम देव सीतल धरि ध्याम | मैणराई को मोडिजमान || ६ ||
जिस श्रेयांस व विभात । स्वामो करों करम को घास | बासपुजि बंदौ जगिसार । उप बुद्धि होइ बिसतार ||
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
नमो विमल जिन त्रिभुवन देव । जस पसाई विमल मति एव । प्रणमौ जिरण चीदह घर्मत | काटि कसे पात्यो सिव पंथ ||१०|
वंदो विधियों धर्म जिदि । करह से मर व फुरिंगद सांति नमो जिण मग वच काय । नाम लेत सह पातिग जाई || ११ ॥
कुंथनाथ जे बंद कोइ । तिहि के दुख दलित न होइ । अरहनाथ बंदु सुध भाइ । मेन बक पूजि र सिन पर साह ||१२||
महिल नमो ते तहि तप कीयो । कवरि कालि तहि संजम लोयो । मुनिसुव्रत बंदी घरि धीर सोमा सांवल वर्ग सरीर || १३ ॥
कुसमी मंदी नमिनाय । मुक्ति एमणिस्यों कीन्हो साथ । नेमिनाथ व गिरिनारि । तजि काया पती सिवहार || १४ || पारसनाथ करो चंदना | सह्या परिसा वीरनाथ जंबो जगिसार । राख्यो धम्मं तणं
सप्पा ||
फमठ व्यौहार ।। १५ ।।
जिर चौबीस कह्या जिरादेव । हुवा व छं होइसी एव ॥ तिसह नमः वचन मन काय नाम लेल सहु पालिंग बाइ ॥ १४ ॥
बिरह्माण तिथंकर बीस । मन बच काया नम जे सौस हुवा जेता मूढ केवली । ते सहु प्रणमौ मानंद रली ॥१५॥
बहु विधि प्रणमौ सारद माय । भूलो पाखर आणं ठाई । करौ इ प्रसाब वृधि जे लहो । भवसवंत को न कहो ॥ १६॥ मन बच काय नमौ गणवीर । चौदह से त्रेपन प्रतिधीर ॥ दीप ढाई चारित घरे ते सहु नमो विधि विस्तरं ॥ १७॥
देव सास्त्र गुरु बंबो भाइ । बुधि हरेन्द्र तम्ह तर्ण पसाह । ही मूरिख नवि जाणौ मेद लहो न घथं होइ बहु वेद ||१८||
देव सास्त्र गुरु को दे मान देव सास्त्र गुरु कुंड सहौ ।
तिहि नै उपने वृधि निधान ।। व्रत पंचमि को फल कहो ॥१६॥
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बस्तबंध
भविष्यदत्त चौपाई
सह
प्रथम बंधा देव अरहंत । नाम लेत दुजा मरणमौ सारदा नंगि पूर्व को भ्रयं
मुनिवर या मन मै बह आनंद I व्रत पंचमी प्रणमौ कमली
कौ नन्द
॥२०॥
पाप नास ।
भाषे गणधर ||
विषय प्रवेश
चौपई - जंबुदीप प्रति करें विकास | दोष असंख्य फिरया चहुं पास | चंद्र सूर्य द्वंद्वं सारो जाति । श्रावागमन कर दिनराति ॥ १४
मेर सुदर्सन जोजन लाख । तिहि गजयंत या बहुपासि । रिवर भवरण सासुता जहां जिनका जन्म कल्या एक तहां ||२||
पोदनपुर नगर वर्णन
मेरु भाग सुभ दक्षिण वसे । भरण क्षेत्र तहां उत्तम वसं ॥ चौप काल सुभ होइ । पुरिव सिलाका उपज लोइ ||३||
लिहि मै सुभ कुछ जंगल बेस । गढ पोदनपुर व प्रसेस ॥ तहा जिवर कल्याणक होइ । पायी दुखौ न दीसे कोइ ॥ ४३
मारण नाम न सुनजे जहां हाथ पाईं नवि छेदे कान |
खेलत सारि मारि जे तहां । सुभद्र खाय ते छेद पान शर
बंधन नाइ फूल बंधेर । बंधन कोई किसहा मं देह ।। कामणि ने काजल होइ । हिडे मनुक्ष न कालो होइ ||६||
सर्प परायो छिद्र जु गहे । कोई किसका छिद्र न कहै । गुंगो को न दो सुनि पर अपवाद रहे घरि मौनि ॥७॥
चोरी चोर न दीसे जहाँ । घडी मीर ने चोरों जहाँ
नासको किसी न ले । मन बच काइ मुनि वेह ||5||
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
उत्तम कुर जंगल को देस । भली वस्स सह भारत असेस । पस्त मनोहर लहि जे धणी । पुजे सहा रलो मन तणी ॥६॥ तह मैं हस्तनागपुर थांन । सोभा जैसी सुर्ग बिमान ।। बाग बाबड़ी तहां मोभा धणी । वृक्ष जाति बन्न जाई न गिणी ॥१०॥ मुनिवर नाथ धरै तहां ध्यान । जाणे सोनों तिणो समान । परिगहि संग तजे बाईस । करह ध्यान प्रति महा जगीस ॥११॥ रिशिपंत मुनिवर प्रतिधणा। वृक्ष फले सहु छरिति सरणा ॥ कर घोर लप मम बच काय 1 उपजे केवल मुक्ति हो जाई ॥१२॥ खेती ध्यान अठरा होई । दुप्रदु काल न जाणो कोई ॥ सोभे भली साल पोखरी । बोस निर्मल पाणी भरी १३|| माडि कमलणो कर विकास । माणिक रवि किमो प्रगास । पंथि जग सस भूख पलाई । सीतल मीर यस फल साई ॥१४॥ नन माहि जिण थानक घणा । मरहे विष भला मिण तणा । प्रविधि पुजा श्रावक करै । गुर का बचन ही धरं ॥१५॥ वान यार तिह पात्रा देइ । पात्र मात्र परीक्षा लेइ । शिव प्रतिष्टा जात्रा सार । खरचं प्रख्य प्रापरसो अपार ।।१६।। ऊंचा मंदर पौल पगार । साप्त भूमि उपरि दिसतार । धरि धरि रली बधाबा होई । कानि पडि नषि मुणि जे कोई ॥१७।। राजा नाम राज कर भुपाल । जैसो स्वर्ग इंच भोवाल । पालै प्रजा वाले न्याई । पुग्यवंत धणा पुर रा ॥१| चोर बाडन राखे ठाम । गा सिंध पीये बक ठाम । नेम धरम्म गरज प्राचार । पुण्य पाप को करें विचार ||१६।। राणी पहपावती सुजाणि । गुण लार्वाण रूप की खानि । दुःखो दलित नै वेवं धान । देव सास्त्र गुर राख मान ॥२०।। बसे एक तहां धनिपति साहु । जैन धर्म नपरि बहु भाउ । पूजा रान कर मनलाई । प्राठे चौसि अन्न न खाई ॥२१॥
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भविष्यदत्त चौपई
पोसौ सामाइक शुभ फर 1 मत मिच्यात नाम परिहरै ।। मुभ प्राचार सौलस्यों रहे। पुण्य उदै सुभ भोगस्यो गहे ।।२२।। बुजी सेठ धनेसुर बास । बहु लषमी तणे निवाप्त । सेठिनो नाम तास धमधी । गण लावण्य रूप घटु भरी ।।२३।। सेठ सेठिनी भोग भोग। पुत्री भई फर्म संजोग । कमलथी सुभ ताको नाम । बाणी सबै सामोद्रक ठाम ॥२४॥
रूप कला वेवेक चातुरी । सोभै स्वर्ग तणो अपछरी । जोवनयंत देखो तसु तात । पुत्री बहु बिचार बात ॥२५॥
पुत्री थान देह बह जोइ। कुल सुभ वो (उ) वरावरि होइ ॥
पर पर खोडिदेखि व्योपाई । पुत्री पिता विवाहै ताहि ॥२६॥ कमलश्री विवाह वर्णन
सेट्टि बात मन मैं चितवई । पुत्री धनपति जोगव दई । मडप बेधी रच्या विसाल । तोरण बंध्या मोती माल ।।२७।।
रहुं पक्ष बहु मंगलचार । कामणि गावं गीत सुचार । वर कन्या कीन्ही सिगार । चोवा चंदन बस्त अपार ॥२८।। नाचे तिया कर बह कोज । दर कन्या के बांध्यो मोड । बेवो मंडप विप्र प्राइयो । घर कन्या हपलेवो दीयो ॥२६।। दुवै पक्ष नर वटा वाखि । भयो बिबाह अग्नि दे सास्त्रि । पुत्रो वरन दोन्ही मान । कंचन बस्त्र मान सनमानु ।।३।। जानी सजन संतोषिया । बस्त्र कनक त्याहन बहु वीया ॥ हाय जोडि धनपतियों कही। कमलश्री सुझ दासी नई ॥३१।। छोडिउ मान घनेसुर कहो । पुत्री दई ' तिहि हारियो । प्रसौ लोक तरणों क्योहार । मोह जाल पडियो संसार ||३२।।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
नागा नाद निसाग धाउ । कमलश्री धरि ल्यायो साहु । तिया पुरिष बल भुज भोग | पहली सुभ साता संयोग ॥३३॥
वस्तुवन्ध
कमलनी सुख बहु कर, पूर्व पुन्य तस उवै पाइयो । स्वखमीवस गणनिलो, सेठ धनपति त पाईयो । लिहि का प्रक्षिर सिर ब्रह्मा, भयो विवाह संजोग । प्रवर का मार्ग भई से सहु को पयोग ॥३४॥
कमलथी का गार्हस्थ जीवन
सुखस्यों से सेटुिनि बतृ लाउ । बान पुण्य मनि प्रधिक उछाह । मुनि एकाचार्य पाईयो । कमल श्री सो परिगाहियो ||१|| पाई पखालि गंधोविक लेई । ऊंची प्रासण सण देई । माठ व्रख्य ससु थाली भरी। मुनिवर चरण पुजा करी ॥२॥ मन बच काया करि अंदना । फासू अन दीयो तखिणा । जैसी रिति तैसे माहार । मिहि पाहारे सुनि तप विसतार ।।
लेई आहार दे अक्ष वाम । सेहुनी सुख पायो मसमान । दीयो सिधासण मुमिवर जोग । हाथ जोडि बझतसु भोग ॥४॥
स्वामी बात एक सुपि कहो । पाजिका तणो वत कर सहो । मन को सांसो भानों बाप । जाइ हीया को सहु संताप ॥५॥
मुनिवर वात लही मन तणी । मुनि बोल्यो कमलो भणी । पुत्रो मन रख्या करि धीर । थार पुत्र होसी बरखोर ।।६।।
पुत्र तरणा मुख सारा भोगसी । अंति काल संजम लेईसी । मुण्या बबन मन हरिष्यो भयो । दक्षिण मुनिवर बन मैं गयो ।।७।।
कमलश्री मनि मानंद भयो । मुनिवर वधन गाठि बाधियो । पछिम विस जै उगे भाण । मुमिवर झूठ न करे वखाणि ॥६॥
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भविष्यदत्त चौपई
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सेट्र एक दिन सेवे तिया , उपनो गर्भ घनेस्वर घिया । उपनउ सुभ होहलो सुचंग , पुजा दान महोछा रंग ॥६॥
भविष्यबल का जन्म
गर्भ मास नव पूरे भयो , कमलथी बालक प्राइयो । पुत्र महोछा धनपति साह , दनि द्रव बहुत उछाह ॥१०॥ महाभिषेक जिनेश्वर पान , दुखी दलिद्री जोगे दान । मुणी बात पायो भूपाल , खरच्यो द्रव्य देखी भूवाल ।।११।। सजन लोग बधाई करी , गावे गीत तिया रसि भरी । घनपति के परि जायो नंद , हस्तनागपुर बहु प्रानंद ।।१२।। मायभगति पूजा मुनिगय . हाय जोडि बूझ सुभाछ । स्वामी बालक काहो नाम , पूर्ज महा मनोरथ काम ॥१३॥
बोल्यो मुनिवर काही विचारि , भविसदंत इहु नाम कुमार । पुन्यवंत इहु होसी वाल , दुर्जन दुष्ट तणो सिरिसाल ॥१४।। बंद्या मुनिबर घरि अाझ्या , मात पिता ने बहु सुख भया । अन पान रस पोखे बाल , द्वज चंद्र जिम बधे विसाल ॥१५॥
वालक बरस मात को भयो , पडित माग पठणो दीपो । कीया महोछा जिणवरि थानि , सजन जन बहु दीन्हा दान ॥१६॥
गुर को विनो अधिक बहु कर , मति सबुधि अधिक विसतर। घणा सास्त्र का जाण्या भेद , मानव बंध कर्म को छेद ॥१७॥
कमलश्री का परित्याग
एक दिबस कर्म को भाइ , उपनो क्रोध सेट प्रकुलाइ । कमलश्रीस्यों विनय भाव , मेरा घर थे वे गिउ जाउ ॥१८|| बार बार तुम से थी कहूं . तुमने दीठा सुख न लहूं । घी कहा करिजे मलाप , पूरबलों को प्रायो पाप ॥१६॥
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल तुम ने देखो जिम सपिणी , हे निरलज्ज निकसि तक्षणी । मेरी घर थे वेगी जाह , उपजे हीये बहुत विसदाहु ॥२०॥ कठिण बचन सुणि स्वामी तणा , कमलथी बोली क्षिणा । कोण कुकर्म मैं कीयो घणौ , जहि तम बहुत क्रोध उपनौ ।।२१।। स्वामी मन मै देखी जोइ , बिण अपराध न काढे कोइ । नाहक पस न घाले घाव' , तुम छो माणस को परिजाउ ।।२२।। स्वामी ज़ा को सुस्मि हो सुखी , थारं दुखि हूं गाढ़ी दुखी । माता पिता तुम बांषि बाहु , चित्त विचार करौ हो साह ।।२३।।
धनपति से कई सुणि मार , तुम सम लिया नहि संसार । कोइ मह मुक करो विकार , तहि थे थारो कर निसार ।।२४।। कमलश्री ले सास उसास , कंत क्रोध छाडिउ घरबास ! नेणा नीर कर असमान , चाली मातपिता के पानि ।।२५।।
घोहड़ा.- पाप पुन्य बंधन कर, तिसा उदी पं प्राइ ।
से तरु माली सींचही , तिसका सो फल खाइ ॥२६॥
जीवडी बंध सुभ असुम, फर हरिष विसमाद । कुसी पालो कीट बस्यौं, पडं मोह प्रमाद ।।२७।। कम्मह बंध्यो जीवडौ, माड़ो धणी पसार । मन दोहावै पापणी, पाव नहीं लगार ।।२।।
पापण कर्म बुरा कर, अर परन दे (वे) दोस । बाय तिसों जिसो लुण, हीया न कीजे सोम ॥२६॥
कमलश्री का माता-पिता के घर जाना जोप- कमल माता धरि गई , पौलि द्वारि ट्राती रही ।
देखि बिलखी मात तस तात होयडा मध्य विचारो बात ।।३।। जोमण याह नही कोइ काज , विण कोकी किम आइ प्राजि । कीयो कुकर्म ठाणि मति वुरी , तीह थे सेट तजी सुदरी ।।३१।।
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भविष्यदत्त चौपई भर की सुदरि प्राण प्राधार , तहि को पुत्र महा सुकमास । माता पिता विचारै जोई , विण अपराध न काढे कोई 41३२।। कर कुकरम सुता सुत कोइ , माता पिता ने बहु दुख होइ । रूनी माता के गलि लागि , हूं पिय काही कर्म प्रभागि ॥३३॥
में अपराध न कीयो कोइ , विण अपराध दियो दुख मोह । कोई कर्म उदै पाइयो , ताहि ये क्रोष कंत नै भयो ।।३।।
कहै माता कमलश्री सुणौ , सुध चित्त राखी प्रापणौ । सासू कंत दुख दे घणो , सरणाइ घर माता तणौ ॥३५॥ दुखि दलिट्री ने दिड दान , भोजन करी रही थिरथान । सुंदरि मात पिता परि बास , कर दुस्ख प्रति सास उसास ॥३६॥
बहु सुत मंत्री सेट्ठ को जाम , प्रायो सट्ट धनेश्वर ठाम । पंडित प्रधि मिलेक सुजाण हो चिन्ता पूर्व प्राण्ड ! १५०!!
कमलश्री तुम पुत्री जाणि , सजम सोल रूप को सांनि । नाहक सेठि निकालो दीयो , पूर्व असुभ उदै प्राइयो ।३।। तुम मन माहि संक मति घरी , सुदरि का मन कीयो बुरी । हंधमिपति यो समझा जाय , दिन दस पांच तुम्हारं थाय ।।३।।
बात कहि मंत्री धरि गयो , मात पिता ने बहु मुख भह्यो, ।
पुत्री ने बहु दीन्हीं मान , कनक बस्त्र मुभ सेज्या थांन ।।४।। भविष्यदत्त का ननिहाल जाना
कंवरि बिदा लीन्ही गुर नणी , भवसदंत प्रायो घर भणी । दीदी पिता कूर बहु चित्त , क्रोध सरीर ह रात्ता नेत्र ।।४१!। मवसर्दत दिठिन पडि मात ., पाासनिस्यों बुझी बात । ब्योरी बात सर्व तहि भन्यो, जाणि कहीयो वन को हण्यो ॥४२॥ ... बात विचारि कवर चालियो , नाना के घरि ठाढो भयो । माता माग हुषो खहो , जहाँ गाइ तहाँ बाछडौ ॥४३॥
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१४८
महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
भेटी माता रूदन बच करिउ , भवसदंत होयो गहि भरिउ । मात तणा आंसु पूछेइ । सीतल वचन संबोधन देइ ।।४४।।
माता मेरी जाणो बात . सुभ पर असुभ करम के साथि । कातर भूलि चित्त मति कर , पाप र पुन्य भोगया सरं ।।४५.।
वस्तुबन्ध
मंत क्रोध कीयो घणी, कमलश्री बहु सुस्त्र पायो । हसि हसि कर्म जु वंधिया, पूर्व पाप तसु उद मायो ।।
दुख सुख मनि मा घणी, चित्त कर अभिमान ।
पुत्र सहत सारह सुदरी, रहे पिता के पानि ।। धनदत्त सेठ
बस नन बाण्यो धनदत्त , दया दान प्रति कोमल चित्त । मत मिथ्यात सबै परिहर , जैन धर्म को निहचो कर ।।४।। तिमा मनोहर सील सुजाणि , गुण लावण्य रूप को खानि । सकति सहृति बहु विधि दे दान , देव सास्त्र गुरु राख्न मान ।।४७।। वणिक विणाणी भोग भोग , पुषी भई कमें संजोग । पुग्यौ चंद्र बण्यौ मुख सास , नणा सोभ कमल विकास ।।४।।
सजन लोग देखि सस रूप , सुर कन्या थे अधिक अनूप । जिणवर थांन महोछा कीयो , तहि को नाव सरूप दियो ॥४६॥
ज चंद्र जिम बधै मारि , देखि रूप तसु चित्त विचारि । वर व्योहार सुपुत्री भई , निस वासरि सहु निद्रा गई ॥५०॥
मंत्री धनपति को प्राइयो , वणिबर धनदलस्यो बोनयो । पुत्री तणी करी जाचना , मान बडा दीन्हा घणा ॥५१॥
स्वरूपा के साथ धनपति सेठ का विवाह
दुवै बराबरी कुल आचार , कगै बिबाहु न लावो वार । बात सुणी सह मंत्री तणी . घनपति जोगि दई सक्षणी ।।५।।
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भविष्यदत्त चौपई
१४३
लेना लेर सु मंत्री गयो , धनदति बणिस्यौ चिनको । च्याह तणा होई मंगलबार , कन्या बर नो बनौ बहुत सिगार ॥५॥
मडप बेदी कर विकास , कनक कलस मेल्हा सहपासि । वर कन्या ने भयो सनान , घोवा बदन फोकल पान ||५४।।
मई नफोरी नाद निसाण , बंदी जन बहु कर बखाण । धनपति ध्याहु पहृतो जहां , कबीर सरूप थानक तहां ।।५।। चौरी मांझि विप्र प्राइयो , लगन महरत सुभ साथियो । कन्या वर का जोड्या हाथ , मेल्हा पान सुपारी काय ||५६॥
भावारि चारि फिरायो सुभ साहु, अग्नि साखि दे भयो विवाहु । घनदत्त देवदाईशी घणी, हाथ छुडायो पुत्री तगी ।।५।।
भयो ब्याहु बहु मंगलवार , दान मान जोणार सुचार । जानी सहु संतोषिया समान , बस्त्र पटंबर फोफल पान १५८॥ साथि सरूपा घनपति ले, प्रायो धरि दान छह देव । सुख पायो बहु पानंद भयो , कमलश्ची ने बीसरि गयो ॥५६।।
भोगवि भोग देव समान , भोजन बस्त्र सुपारी पान ।
सुख सेथी के दिन गयो , गभं सरूपर ओगे रह्यो ।।६।। बन्धुवत्त का जन्म
जब पुरा हुवा नवमास , भयो पुत्र प्रति कर विकास । बालक जन्म महोछो कीयो , बहुत दान बंदी जन दीयों ॥६१1
कीयो महोछौ जिणवर थान , देव सास्त्र गुर दीन्ही मान । गीत नाद अति मंगलवार , बंधुदत्त तमु नाम कुमार ।। ६२।।
अन्न पान रस पोखे बाल , गुण चतुराइ बहुत विसाल । बालक पंडित प्रागे पढियो, गुरू को गुणाह प्रति पढियो ॥६३॥
साथि मित्री बदत्त कुमार , मन क्रीडा करि बात विचारि । बोल्यो मिश्र सेठ का नेद , मित्र मनोहर मनि प्रानंद ।।६४।।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल रत्नदीप जा जे व्यापारि , द्रव्य बिहजे अधिक अपार । दान पुन्य कीजे इह लोइ , मुनिष जन्म तस सफलो होइ ।।६५।। पिता तणी लखमी भोग , तहि का दोष कहो को कई। लखमी पिता मात सम जाणि, सेवत लहै दुख की सानि ॥६६॥
भूजी पापणी बर्व दाम , तहि को सर सबहि काम । खरफ हरस परत सुख लेइ , मान बडाइ सह कोई देव ॥६७।।
उदिम बिना न लख्मी सार , तहि थे उद्दिम करै कुमार । लख्मी जहाँ सुद्ध ब्यौहार , लखमी जहाँ सत्य प्रापार ||६||
सति की लीखमी विदाई, तिहि भ २५ हैआई. लखमी सदा सश्य को दासि , राति दिवस तिस्ट तहि पासी ॥६॥
बात हमारी हियर्ड घरौ , रत्न दीप जोग गम करो। सुण्या वचन सहुं मंत्री तणा , मन में प्राधिरज पायो घणों ।।७०॥ भली बात तुम्ह कहा विचारि , टिम कर मिलि चारि । बंधूदंत मित्रीह करी बात , पाए घरी पिता माहा मात ।।७१। बंधूदत्त पिता पं गयो , नमस्कार करि सो बोलियो । बीनती सुणों हमारी बात , तुमस्यों कहा चित की बात ॥७२॥ झठ बोलि जे बिढ़नौ दाम , ते सह कर प्रजुगतो काम ।। मन मै हरिषे मुत गुवार , तहि को अपजस जानि संसार ।।७३।।
बणिक पुत्र मार्ड व्यापार , खेती करसग कर गंधार |७४|
बन्धुदत द्वारा विदेश यात्रा का प्रस्ताव
मेरा विणा करण को भाउ , रत्नदीप प्रोहण पडि जाउ । पाणी द्रव्य विगज करि घणौं , दान पुन्य सरची पापणौ ।।७।।
पूजी प्रोहण दीजे तास , बणिवर चाल हमारे साथि । बड़ो पुत्र होइ बिडवं दाम , मात पिता से जिण का नाम ।।६।।
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पिता का परामर्श
संभल सेठ पुत्र की बात. हरियो चित विकास्य गात ।
हो पुत्र तुम्ह कुल आधार, पारो कहिया की ब्यौहार ।।७७॥
भविष्यदत्त चौपई
सीत बात दुख वारि घणा
नरकति पंप करावरि को
बन्धुदत्त का उत्तर
1
2
आगे सागर महा विषाद, हम तो बात बड़ी
मगरमछ भांति अगाध | सुनो, जाइ न बोडी पुन्य कोणी ॥७६॥ कष्ट कष्ट करिमेवं पार, बस्त न माणं लहे लगार 1 लेइ बस्त पार्छ बाहु, कम्मं जोग प्रोण स्रड भई ||८०||
तोम्यो रति का सुख विलास, बरि बंडा सुख मुजी तास । सीख हमारी हिमई घरी दान पुन्य धरि बेठा करो ||१||
.
बंधुदंत हसि बोहयो बात, बोनती एक सुणी होतात । बाप तपी में लखमी सुगी लोगा मात बराबर गिणी ॥६२॥
,
अब हम ऊपर करहु पसाउ धनपति सुषौ पुत्र को स्वाद
बन्धुवत्त की राजा से भेंट
बोरा डरिष हरे नागणी ।
तहि थे यारौ जुगतौ न हो ॥ ७८ ॥
तेरा वचन सही परमाण वणिक पुत्र जहाँ पंचर्स भयो,
रत्नदीप नं मेरो भाउ |
मन माहे पायो प्रह्लाद ||३||
7
'
लेहु किराण बस्त निवान | बंधुदंत की साथे दिया || १४ ||
"
राजा श्रा चाली बात बंधुदंत व्यापारा जात । राजा बोलं मन मै जोई, बणिवर पुत्र कुलाक्रम होय ||२५||
धनपति बंशुषस ले गयो राजा श्रामै ठाडो भयो । कोयो जुहार भेंट ले घरी, हाथ जोडिउ बनली करी ॥८६॥
2
राजा जी हम भाग्या होइ, रत्नदीप चाले सह कोई | राजा मन में कीयो विचार कीया सेठ्ठि बंधुदत्त कुमार ||७||
१५१
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
बीडा करि शाम वशियर मध्य सारथ बाहु । न माझि पट है बाजियो, बंधुदत्त सागरगम की यो
जहि को मन चालण को होइ, लेह बसत्र पाल सहु कोई । सुणि बात मन हरियो भयो, वाण्या बहुत किराणा सीयो
भविष्यदत्त द्वारा माता के सामने विदेश यात्रा का प्रस्ताव भवसदंत सह ब्यौरा सुण्यो वेगा जाय मातास्यो भो । हमने दुवो दीजे मात चाल बंधुदत्त का साथि ॥ ६० ॥
.
,
कोहड़ा
मोहि दीप देखण को भाउ, साथि पाल पंच सौ साहु । मनुषि जन्य संसारा याद, ताकी बस्तु देखिजे माई ||११||
कमलश्री के विचार
कहै बात सा मन में डरी।
1
बंधुदंत तुम ऐको तात HERI
पुत्र वचन सुणि कमलश्री हिय पुत्र बिचारी बात
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दुष्ट भाउ तुम उपरि करें बंधुदंत संग मति फिर तुमने बंरी करि करि गिणं, यह तो बात पुत्र नवि वर्णं ॥३॥
बेरी विसहर सारिखो, तिहि नीडं मत जाई । बेरी मारे डावदे, बिसहर पे खाई ॥१६४॥
देरी बिसहर जब मैं प करें महंत | बिसहर मंत्र उत्तरं, बेरी तंतन
मंत ॥६५॥
बैरी बट पाडो बागुस्यो, नाहर ऐना होई न भापणा, निचे करें
डाइणि चाड । विगाड़ || १६ | ।
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चोपाई — कमलश्री साँझली बात भवसदेत बोल्यो सुणि मात । जे कोइस्यों करें उठाउ, तब ले बेरी धाले धाउ ||३७॥
सुध नीति मारग मोहरं तहि को दुरजन कार्यों करें। जो है साथि पचसं साहु मुठ सोच को करसी च्याउ ||६८ ||
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भविष्यदत्त चौपई
होसी सही बुरा को बुरी , कहूं बात को डर मन करी ।
भल मलाइ होसी मात , देखि दीप पावु कुसलात Intell भविष्यदत्त द्वारा विवेश-प्रस्थान
नमसकरि माता नै करि चाल्यो , तक्षण बंधूदत्त न मिल्यो । भासी लघु भाईस्या बात , हम पण चाला तुम्हारे साथि ॥१०॥
बंधुदत्त मनि प्रानंद भयो , भाड तणा चरण बंदियो । अब बल हम हृते अनाथ, तुम चालता हम बहुत सुनाथ ।।१०१॥
तुम सह लाज गाज का धणी . स्वामी खिबमत करिस्या घणी । तुम सहु ताडा का प्रधान , मेरै पुज्य पिता को पानि ॥१०२।।
बन्धुदत्त को माता द्वारा सिखाना
ऐसह बात सुणी स्पणी , सृत नै मीख देइ पापिणी । बडो पुत्र इह घनपति तणो , लसी द्रव्य सबै प्रापणौ ॥१०३।।
भवसदत्त को करसी म्बास , जहिथें होइ जीव को नाम । धणी बात को करे पसार , वरी को कीजे संघार ||१०४||
विवेश यात्रा पर प्रस्थान
सुप्पा वचन जे माता कहो , मन मै दुष्टाई करि रह्यो । लीयो महुरत तिथि सुभवार , चाल्यो दीप न बंधुदत्त कुमार ।। १०५।। दही दो वणकि सावल दीया, सुगन सब मन बंदित भय।। पहुंचावण नाल्या सह लोग, दीयो नारेल बधुदत्त जोग ।।१०।। वणिवर चाल्या पंचसं साथ, मजन लोग मिल्या भरि बाथ । मिल्यो पुत्र ने सेठ परि गयो, अतर तर परवत बहु भयो ।।१०।। लंधी नंदी वाहाला खल, वन पर्वत दीठा असराल । चले बहुत दिवस वर वीर, कम जोग पकडी जल तीर ।।१०।। कोद विन लीयो विसराम, मुस्खस्यों समद नटि ठाम | लग्न महुरत ले सुभवार, इष्टदेव की पूजा सार १०।।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
दाम दिया घोवर ने घणा, खड़े करे प्रोहण आपणा । घीवर मन मै हरिष्यो भयो, वणिक बस्त प्रोहण में दियो ।।११०॥
बंद तक्षणा, सुभट चलाउलानी
घणा !
मगरधुज नाम पंच परमेष्टी लीया, समद मध्य प्रोहण चालिया ।।१११ ।।
कर्म जोगि बाजियों कुबाब, मोगर रालि रह्या सहि ठाम ! सुभ संजोग बहुत दिन गयो, दुष्ट सुभाइ पवन बाजियो ।। ११२ ।। लीयो मुदगर वेगि उचाइ, चाल्यो पोल पवन के भाइ । सबही के मन हरियो भयो, आगे मदनदीप देखियो ।। ११३ ।
मदन द्वीप में श्रागमन
षड लाकडी तहाँ उत्तम नीर, वृक्ष जाति फल गहर गंभीर | देख्यो थानक सोझा भली, सब ही मन की पुजं रत्नी ।। ११४ ।।
वणिकपुत्र सब ही उतरे, मार्ग पाणी वासण भरे । मीठा फल लीया भरि पूरि, पड लाकड़ी बहु लीया ठूर ।। ११५ ।।
भवसदंत फल लेवा गयो बंधुदंन्त पापी देखियो । बात विचारी माला तणी, मन मैं कुमति उपजी घणी ।। ११६ ।। लोग बुलाया बडहर तणा, बंधी धुजा बेग या | वणिक पुत्र तब बोल्या एव, भदसदत नै मात्रा देइ ।। ११७ ।।
बोल्यो पापी नेत्र चढाई, भबसवंत हमने न सुहाइ । पापी ने नवि लेस्था साथि, परतश सत्रु मारं साथि ।। ११८ ।।
भविष्यबस को वन में छोड़कर आगे बढ़ना
भवसदेत वन मै छाडियो, पापी सेठ पाँच प्रांसु भरें, जैसा काम
प्रोहण ने घालियो । नीच नवि करं ||११६ ।। भवसन्त फल ले प्राइमो देखउ पोत न दुख पाइयो । मन मै हीं सरेक करें कुमान, कहीं विधाता भूल्यो यान ॥ १२०॥ ॥
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भविष्यदत्त चौपई
प्रोहण दूरि जात देखिपा, कर उचौ करि हेला दिया। मनि पछितावा करी पुकार, हो फल लेबा गयो गंवार ।।१२१॥
भविष्यवत्त द्वारा पश्चाताप करना
मस्यौ माता कहै थी वात, इहि पापी को न करसी साथि । माता बचन अंग्यून्या सोई, तिहि का फल लागा मोहि ॥१२२।।
अथवा कर्म हमारा दोस, जीवडा मन में न करी रोस । जेसौ कर्म उपाचे कोइ, तैसों लाभ तिहीं नइ होइ ।।१२३॥
बन भभीत अधिक असराल, सुबर संबर रोझनि माल । चीता सिंघ दहाडा घणा, बांदर रीछ महिष माकणा ॥२४॥
हस्ती तुम तिर अमरा, वारन प्रयागर बाल । अजिगर सप्पं हरण संचर, भवसदंत तिहि वन मैं फिरै ।।१२।।
मुरछी प्राई भूमि गिरि पर्ड, चेत उसास्व वह तडफड । ऊंचा नीचा लेई उसास, सरणाद कोइ नबि तास ।।१२६।।
भाखत झांखत कर दुख घणी, दीठो थानक पाणी तणो । वृक्ष असोक सीला ठाम, भवसदंत लीयो विसराम ।।१२७।।
छोणि नीर दुनै करि लीये, हस्त पाइ मुख प्रखालियो । नाम पंच परमष्टो लीया, प्रतिष प्रभागि तनौं फल मेलिया ।।१२।।
पाच फल को कोयौ पाहार, जल प्राचमन लीयो कूमार । दिन गत गयो धाययो भाण. पथी सबद कर असयान ||१२६।।
बस्तुबन्ध
-
भाई बन मैं छाडियो, भयसदत्त बढ दुग्व पाइयो । महा भरण डरावणी, पूर्व कर्म तसृ उदै प्राई ।। पंच परम गुर हीये धरि तिही लीयो जोग अभिनास । वृख तले निद्रा भर भयो भानु परगास ॥१३०।।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल चौप:- गई रनि दिनिता ऊगियो, में कार जमीन कीयो ।
हाथ पाइ मुख प्रखालियो, नाम पंच परमेष्टी लीयो ।।१३।। ऊदिम करि चालियो कुमार, पंथ पुराणो दीठो सार । मन माई सो चिता कर, गगनदेव विद्याधर फिर ॥१३२॥ व्यापार जे पावं लोग, ते चढि जाइ पोत संजोग । भवसदत्त कीयो दृढ चित्त, चाल्यो बेगि पुराणी पंथ ।।१३३
मदन द्वीप का धर्णन
भाग पर्वत देखि उतंग, उपरि सोभा कोटि सुनंग । आगे गुप्ता देखि इक भलो, तिहि मै बाट मनोहर चली ।।१३४॥ चालत चालत प्राघो गयो, प्रागै उतिम वन देखियो । कुवा बावडी पुहे करताल, एक क्षेत्र देखि सुकमा । १३५।। फुलत फसत देखि बनराइ, भयो हरिष प्रति अंगि न माइ । छात्री मंडप देखी चौबगान, वैसक महा मनोहर थान ॥१३६।। गढ प्रागै देख्यो निर्वास, खाइ कोट खण्या पहुंपासि । खोलि कपाट भीतर गयो, मानिख नग्र सुनो देखियो ।।१३७।। देख्या मंदिर पौलि पगार, धन कण भरि तहाँ हाट बाजार । बस्न पदारथ बहुली जोई, सूनी मनिक्ष' न दोसै कोइ ।।१३८।। फिरत फिरत सो प्राघो गयो, राजा के मंदिर देखियो । महा सिंघासण सोना तो, छत्र चमर देख्या प्रति घणी ॥१३॥ द्रव्य तणी दीठा भंडार, बस्तकपुर प्राभरण पार ।
सध्या थान मनोहर सुघ, चोवा चंदन छास सुगंध ॥१४॥ जिन मन्दिर
सोयन कलस सिन्नर सोभंति, उपरि महाधुजा हलमंत । दोटा बहुत अंन का गरा, हस्ती वाजि पाइगा खरा ।।१४१॥
१. मनुष्य ।
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भविष्यदत्त चौपाई
देखित मासी प्राघो खडिउ, चंद्रप्रभु मंदिर दिठि पडिउ । महा सिखर बहुरत्न जडिड. जाणि विधाता श्रापण घडिउ || १४२ || चौरी मंडप वण्या सुचंग, चंदवा तोरण निर्मल रंग । सोधन थंभ सभा का यान, सोभा जैसी सुर्ग बीमान ।। १४३५ देखो बावडी उत्तम नीर, हाथ पाइ मुख धोये नीर । पंथ सोधमा करें कुमार, पंथ हुती मध्य उघाड्यो द्वार ।। १४४ ।।
जिन स्तवन एवं पूजा
♪
जय जयकार कीयो जगनाथ नभ्या चरण धरि मस्तकि हाथ । दीन्ही तीन जु परदक्षणा, गुण ग्राम भास्था जिनतणा ।। १४५।।
जे जे स्वामी जग आधार भष संसार उतारं पार 1 सुम हो सरणाइ साधार मुझ संसार उतारो पार ।। १४६ ।।
+
मूल्या पंथ दिखावण हार, तुम छो मूकति तथा दातार ।
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चरण जिणेसुर पुजा करें सुग्र अछरा निह वरं । बिनती सुणे हमारी नाथ, कुमती कुलात्र निरोधो साथ || १४८ ॥
की वंदना सरसी गयो, धोत्रति चमत्र समपन कोयो । धागे द्रव्य एकअ कोया, चंद्रप्रभ पूजा चालिया ॥१४६॥
बंधा जाई जिणेस्वर देव सनपने चरण पधारया एव । पाछे पुजा रचि विस्तार सोवन भारी नीर सुचार || १५० |
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1
महागंन जल माझि कपूर सर्व ऊपध मिले दूरि फामुनिल महा सुबारि जिनपद श्रागं दीन्ही धार
॥। १५१ ।।
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कुकम चंदन घसि बांवनी मझि कपूर मिलाये घणौ । बास सुगंधक चोली भरो जिनवर चरण चरचा करी
।।१५२।।
गरडोराइ भोग सुबास, सो दुतिया चंद्र उजास । अखिल वास भमर से गुंज, जिणपद आगे कीयो पुज ।। १५३ ।।
१५.७
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१५८
चंपो जुही पाडल जाह जास सुगंध भमर ले बास
J
महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
बीलश्री
करणी मही काइ ।
जिजपद श्रार्गे पोप सुबास ।। १५४ ।।
नालिकेर का कान्छाकुर
मिश्री दाख बिदाम खिजुरी ।
·
सोवन भाल हाथि करि लोयो जिणपत्र श्रागे नेवज दीयो ॥। १५५००
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श्रीमणि कपूर सुबास भई आरती बहुत उजास I रत्न खित्रित प्रारती लीयो जिण चरण या फेरियो ।। १५६१
अगर महा किसनागर सार चंदन सुभ बावनी तुषार । रहन धोपाईनी भरि खेईयो, जिण चरण श्रागं फेरियो ।। १५७
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1
नालिकेरि पुंगी दाडिमी मासूलिंग नीबू नारिंगी I नेणा देख्न विगास प्रपार जिन चरण आगे विसतार || १५८ ॥
.
चल चंदन अक्षत सुभमाल, नेवज दीप धूप विसाल उपरि नालिकेर मेल्हिया, जिन चरण मा फेरिया ।।१५६ ।।
प्रचुतेन्द्र द्वारा प्रश्न
·
भवसंदल करि पुजा भली पूगी सब ही मन की रली । दीठ मंडप उतिम अंम सूत तहाँ लियौ विश्राम ।। १६० ।।
1
पंथ श्रम बहू निद्रा भई, सुणडु कथा जे श्रा भई । पूर्व विदेह स् सांभामली जसोधर तिष्टं केवली ।। १६१ ।।
केवली भगवान द्वारा उतर
.
"
सुरनर फणि तमु आया सेव नमस्कार कर बैठा एव । अच्यत इंद्र तहि जोइया हाथ प्रसन एक दुर्भ जिननाथ ।।१६२ ॥
पहलौ धमिश्र (मिश्र) मुझ त
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रहे कहा सोयाक भणौ । केवली भद्र सुणि बात तहिको कही सर्व विरतांत ।। १६३ ।।
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क्षेत्र भरथ कुर जंगल देस
धनपति सेठ तणी तहा बास
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हस्तनागपुर बसें असेस 1
भवसदस नंदन स् तास ।। १६४ ।।
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भविष्यदत्त चौपई
१५६
प्रोरण घदित करण व्यापार , मदन दीप दौठो अतिसार । और भाव लघु भाइ कीयो , धिन धिन बं भाई को बीयो ।।१२।।
पंथ पुराणो देख्यो बाल , देख्यो तीलकपुर महा विसाल । चंद्र प्रभ को थानक जहां , सीतल मंडप सूतो तहां ॥१६६।।
कन्या भवसागर, द्वाः जहा तिम्सिी । कामणि संपति वस्त निधान , ले पहुच सी पिता के थानि ।।१६७।।
राजादेसी बहु मनमान । अर्सराज नसु कन्यादान । पंति कालि सो संजम लेइसी , तप कर सुभ थानक पहुंचसी ।।१६८।।
पूर्व भव के मित्र द्वारा सहायता
सुणी वात सुरपति सुख भयो , नमस्कार करि सो चानियो । भवसदंत सूतो तहां गयो , देखत मन मैं बहु सुख भयो ।। १६६।।
मन मैं इन्द्र विचार बात , सुतो नही जगाउं भ्रान । पडही डलो हाथि करि लीयो , अक्षर भीति लेख लेखियो ॥१७०।।
उद्दिम करि जागी हो मित , सावधान होइ कंचित । बेगौं उतर दिसने जाहु , मन्दिर मोभा बहुत उछाहु ॥१७१!!
पंच भूमि उत्त'ग प्रवास | कन्या एक रहै तहाँ बास । सा भवपाणहव तसु नाम, वाणी सर्व सामौद्रीक ठाम ।।१७२।।
परणों भोग कोतोहल करो , मंका को मन मै मत करो। पूर्व पुन्य पायो तुम तौँ , घोडो लिायी जाणि जो घणौं ।।१७।।
एतौ इंद्र लिस्य यो लेस्त्र गभाष', माणिभद में दोन्ही साख । तिया संपदा सहित कुमार , रच्या बीमाण बहुत विसनार ।। १७४।।
१. क मति-एतो इंद्र लिखयो लेख सभाष ।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल कुरजंगल हथणपुर नाम , छाडिउ मात पिता को ठाम मा माणिभद्र को बध्यो वाह , इंद्र सुरगि मनो बहुत उछाहु ॥१७॥ निद्रा तजि कुमर जागियों, तक्षण भीत दिसौं चित गयो । मन में अचिरज पायो घणों , वोहप्तो लेख तुरत ही तणौ ॥१७॥ भवसदत्त नौ भयो गुभान , आयो कोण पुरुष इहि यान ! वाचे लेख बहुत निरताइ , तिम तिम मन को सांसो जाइ ।।१७।। अभिप्राय लेख को लियो , तक्षण सुदरि मन्दिर गयो । भूमि पंचमी चढउ कुमार, प्रार्म अड्यो देखियो द्वार ||१||
भविष्यानरूपा में भेंट
भासदत्त बोलियो सुजाण , खोलि कपाट रूपोसाण । जन माई र बगर , है । ची रीता ॥१७६।।
सुणी बास मानियो गुमान , प्रायो पुरिष कोण इहि थान । मन मैं चिता उपनी श्रणी , सब सरीर चाली कापिणी ।१०।।
वन देवी कहै तस जोग , पुषी छोडि होया की सोग । सुभ साता पाइ तुम भली , तो थे जगति कंत की मिली ॥१८॥
करि बचन सुणि देवी तणा , जुगल कपाट खोलि तंक्षिण | भवसदंत भितरि चालियो , साच बचन तहिस्यों ऊधारियो ॥१८२सा
सिंघासण दीन्हो सुभठाम . थामा अंसरि ठानी जाय । देखि रूप मन भयो विकास , सुर्य देव मुभ यायो पास ॥१५३।।
अथवा देव जोतिगो कोइ . अंसा रूप मनिक्ष नदि तोइ ।। को इहु बन देवता सुचंग , दीसे सोभा निर्मल अंग ॥१४॥
सकसप विकलप मन मैं हाइ , को इहु कामदेव छ कोई ।। भवसर्वत्त देखि सस रूप , सुर कन्या थे अधिक अनुप ।।१८।।
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भविष्यदत्त चौपई
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कोज पाह मुगं अपधारा कोड, नाग कुमारि परतखि होइ। बन बेबी तिष्टं इहि मान, भवसवंत मनि भये गुमान ।। १८६।।
वैचो नरण न मटक फोx, तहि को अंग पसेव न होई । मलस्पी भूमि पर्या परणी, हि 4 माह सह! सुनिल || tv ।। भवसवंत बोलियो विद्यारि, बेगी बेहि पाचमन कुमारि । मन मैं संका करो न करे , विघना लिहयो न मेट कोह ।।१८६।।
सुगरि भणे सुरपी हो नाप , हम तुम बरसण नौ तन' बात । गैसो कुल काया को साम , पहली ही किम छोरी लाव ||१८६।।
से प्रगोट आचमन दियो , भवसरत मनि हरलो भयो । उपरा जपरी देइ सनमान , सुखस्यो तिष्ट उत्तिम थान || १०||
सुपरि मनि चिता उपमो , कीजे भक्ति पाहण! तणी । भोजन विजन महा रसाल , सनान सुगंधी पस्त्र सुकमाल ||१६१||
योवति पट्ट कली की सार , मिणवर प.जा कर कुमार । मा मायो सुदरि पान, पाव पक्षालिबह पीनों मान ।। १६२॥
गावी ये एकासीफा तणी, सोवन छोको सौभा घणी । सोवन पाल कचाला वियर, निर्मल पाणी लालिया ||१९३||
घेवर पचधारी लापसी, अहि ने जीमत प्रति मन खुसी । उज्जल बहुत मिाह भती, अहि ने जीमत पति मनरली || १६४:1
बाटा तोर बिजन भाति, मेरुवा बहस राइता जाति । मुग मंगोरा सानो शाल भात पहायों सुगंधी सालि ||१६||
१. तम क प्रति । २. पटकुल - स प्रसि । ३. जीका कप्रति । ४. मंओराब प्रति ।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
सुरहि नित महा' निरदोष, जिमत होइ बहत संतोष । सिखरणि बही घोल बन्छु खीर, भषसवंत जिमी बरवीर ।।१९६।।
पीयो भाचमन बीडा पान, चोया चंदन वास निधान । सौडि पालिको थानक सार, समाधान करि वीयो प्रहार ।।१६७।।
पाचे प्रापण भोजन कीयो, उत्तिम नीर प्राचमम लीयो । फोफल पान सुगंध चढाइ, भवप्लवंत नखि बैठी बाई' ।।१९।।
वस्तुबन्ध
तिलक पटण देखि सुविसाल, चंद्रप्रभ जिन पूजा कीन्ही ।' पूर्व मित्रेसुर प्रायो, लिखो लेख सुभ सीख दीन्ही ।।" सुभ साता प्राइ उदै, कन्या मिली भुजारिंग । निश गुण पोज दि , नाहरको नि १६६॥
चौपई - कबर भणे तुम सुदरि सुरणी , भासो मुझ संसो मन तणी ।।
उजड बसे नन कोण संजोग, बस्त बहुप्त नवि दरसे लोग ॥२०॥
भविष्यानुरूपा का परिचय
बोल सुंदर सुणो कुमार, कहाँ पाछिलो सह व्यौहार ।। मदन दीप जाणे सहु कोइ, बहु तिलकपुर परण होइ ।।२०१॥
राउ जसोन नगरी को नाथ, दुर्जन नर को कर निपात । बणिवर अस नाम भगदत, निधर्म दिश राखे चित्त ।।२०२॥
ताफै नागसेरणा कामणी, भगति देव गुरू भायक तणी । हौं तस पुत्री महा सरूप, नाम वियो भौसाणह' रूप ॥२०३।।
१. क प्रति सोहा । २. ज प्रति कोनी। ३. ग प्रति कोनो । ४. क एवं ग प्रति भानौ । ५. ख प्रति भौसानसरूप ।
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भविष्यदत्त चौप
असनवेग एक ' बितर सुट दया रहित प्रति महा निकष्ट । मन लोग सागर में दीघो, पापी तौ न कसक्यो होय || २०४ ।।
चारा पुन्य सण परभात, हाँ राखी बितर करि भाउ । सह सनबध पाछिल जाणि व्यंतर सहित रहाँ इहि धान ||२०||
स्वामी मस्यौ करो यखाग, कोंण देस पट्टण तुम धान । का नाम तुम पित्ता रु माय, कहो बास हम से बाइ ||२०६ ॥
भविष्यदस का परिचय
भवसवंत बोल्यो सुनि नारि, कहाँ बात सहु मनि अवधारि । भरय खेत्र कुरजंगल देस. हथरणापुर भूपाल नरेस ॥२०७॥
धनपति सेठ वसंतहि ठाम, तासु हीया कमलश्री नाम | भवसवंत हाँ तहि को बाल, सुख में जात न जाणे काल ॥ २०८ ॥
दूजं मात सरूपण पुत्त, पंडित नाम दियो बंधुत्त । प्रहण पूरि बीप चल्यो हो पण साथि वासु के मिल्यो । २०६ ॥
सो पापी मति हीणो भयो, मदन दीप मुझे छोटि गयो । कर्म जोगि पट्टण पाबियो इहि विधि तुम यानकि ग्राइयो ।।२१०॥
सुंदरि सुगी फजर की बात हरियो चित्त बिगायौगात । आयो सबैनां व्यौहार, दोउ बरावर कुल प्राचार ।।२११।।
भविष्यान रूपा का प्रस्ताव
बोली कामिणी सुणी कुमार, करहु हमारे श्रगीकार | भोग बिना नेइ दिन जाइ ते दिन ब न लेखे लाइ ।।२१२ ।।
मनुक्ष जन्म फल को सार बोसे सह संसार प्रसार । भोगि वन जाणे कोइ तेनर पसू बराबर होइ ।।२१३.१
१. क प्रति इव ।
१६३
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
सुणी बात खोलियो कुमार, सुषि कामिनि वृत्त को व्योहार । बान असा लीजे फोइ, श्रावक जनम अविर्था होइ ॥२१४॥
भविष्यदत्त का उत्सर
हम जिणवर व्रत चिता घरा, दान प्रदत्ता संग न करा । गुरू मुझ अडिग पाखड़ी बइ, मन बछ काया मानिए लइ ॥२१५।।
जो नर दान अवत्ता न लेइ, तहि को कीति इन्द्र करे। बान धदत्ता कीयो तिह्या संग, सत्य धोष मरि भयो भुजंग ॥२१६।।
नों बितर तुझ देसी मोहि, भोग विलास सर्व विधि हो । वचन हमारा जाणौ सार, श्रापक तणो कहो पाचार ॥२१७॥
असनबेग का आगमन
तो लग प्रसनयेगि पाइयो, बहुत क्रोध प्राइंषर किये। कोण पुरुष पायो मुझ थानि, तही पापी को घालो घाम ॥२१८।।
देव' बान सब मुझ से इरे, मेरा मन मैं को न सचर । भावं बहुत मनिषि की गंधि, सागर प्तहिन रालों बंधि ।।२१।।
भवसवंस उठीयो कलिकारि, पार वं बीच काहि वात विधारि । घणो कहा कीजे झंडाल, प्रायो सही तुहारी काल ।।२२।।
भवसदंत न धन्नु यल भयो, ठोकि कंघ सो सनमुख भयो । असनिगि देखियो कुमार, क्रोध सबै म्हालो तहि वार ।।२२१।।
दीयो असुर प्रवधि प्रय लोइ, मेरो मित्र पूर्वलो होइ ।
चितर बोले मणि हो मित्त, कहौं बात किम करो चित ॥२२२।। - - --- १. क ख प्रति - देव वारणा-मुझवी गरे । २. ख प्रति जीवाल।
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भविष्यदत्त चौपई
हो सन्यासी तस घर मित्त, सेव हमारी करी बहुत । गुण तुम तणा चिस मुझ रह्या, तुम वोठा हमि बहुत सुख सहा ।।२२३।। मन वछित वर मांगो धीर, ते सहु देस्यौ गहर गहोर 1 गोलो सुभट बहुत दे मान, ज्यों हमने दोन्ही वरदान ॥२२४।।
कन्या रत्न देहु हम जोग, हम तुम मिल्सा कर्म संजोग । वितर भणे न करो विषाद, मौ तुमने फीनो परसाव ।।२२।।
बन्धुदत्त और भविष्यानुरूपा का विवाह
व्याहु तरणी सामगरी फर, नग्र तरणो बहु सोभा घरे । करीवि कुर्वण ब्रह विसधार, चौरी मंब्य रच्या सोभार ॥२२६।।
गावै अपघरा करि बहु कोड, वर कन्या के बांध्यो मौड । साक्ष विप्र वैसांदर भयो, भवसबंत तीया कर यहियो १२२७।।
चौथौ फेरो करायौ कुमार, हाथ छुड़ाकरण को प्राचार । वितरि भारी पाणी लीयो, भवसवंत के करि मेल्हीयो ॥२२॥
कन्या नग्र दीयो सह साज, दोनो मदन दीप को राज । बस्त पदारथ भरित भंडार, मोती माणिक सोनी सार ।।२२६॥
बिनो भगीन गुण भारुया घणा, भबसवंत सेवा तुम सणा | नमसकार करि दोनों मान, वितर गयो प्रापण याम ॥२३०॥
भवसर्वत्त सुख सेवो घणी, पूर्व पून्य संच्यौ प्रापणों । सोया सहित बन क्रीडा करे, देव सासत्र गुरु निश्च धरै ।।२।।
इन्द्रपुरी जिम भुजे भोग, पीड़ा सुन्न न पाणै रोग । भक्सक्स इहि विधि सुकमाल, सुख मैं मात न जाणे काल ॥२३२॥
१. कब की । १. स्व पति सास्त्र ।
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बस्तुबन्ध
कमलश्री उरि उपरणौ, हस्तमागपुर जन्म पाइयो । माता वचन बीसfरियो, सत्रु साथि व्यापारियो ॥ मदन दीप मैं छाडियो, भाइ गयो पुलाइ ' । कामनि बहु संपति सही, साता उसे सुभाइ ॥२३३॥
महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
कमश्री की दशा
चीपई - कमलश्री घरि बहु दुख करें, पुत्र वियोग वित्त मनि धरे । असुर पात श बिलराइ, घड़ी इक मन रहे मठाइ | २३४||
पुत्र दुख माता विन द रात दिवस राति सीभूत हो जात । सह समझा पुर का आइ, उपरा उपरी कहूँ सुभाइ ||२५||
नत्र कामिनी से ग्राह, उपरा उपरी कहूँ सुभाइ । माता पुत्र विछोहोकीयो, तहि को पांप उदै थाइयो ।।२३६||
एक कामिनी कहे हंसति, पूर्व न लाभ्यो जिण प्ररहंत । कमलश्री बहू पावं तुख, मीठा नहीं पुत्र का सुख ॥ २३७॥
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बोले एक गालि करि देई. बाद जिसा लिसा फल लेइ । मन बकाया दान न दीयो तहि यि पुत्र विछोरा भयो ।। २३५||
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कमलजी की बोली मात, हे पुत्री मेरी सुण बात 'चलोखो' श्रजिका के ठाम, घडि प्यारि लोथो विश्राम ।। २३९॥
कमली का अार्थिका के पास जानা
कमलश्री मन हरणी भइ मात सहित प्रजिका पै गइ । माव भगति बहु बंधा पाह. बैठी यजिका मार्ग मा ||२४०३
१. कगं प्रति पुल ।
१. चालिजो ।
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भविष्यदत्त चौपई कुसल समाधि बुझी व्योहार, जैसो श्रावग जति प्राचार । कमलश्री दे मस्तकि हाथ, प्रणिका सेयो अझै बाप्त ॥२४१३॥
माता मोहि कर्म संजोग, पाजे दुख पुत्र हि जोग । राति विवस झोखत हो जाइ, चित्त एक क्षरण रहे न डाई ।।२४२॥
बोली जिका सुणो कुमारि, दुख सुख दुवै मिश्र संसा र । कबही होइ सुभ संजोग, कब हो तिहि को होइ वियोग ।।२४३।।
सगर चक्रधर अत्ति बलिचंड, सह घरती भुजे छहखंड : साठि सहल सुत ताहिक हुवा, एक बार सगला ही मुवा ।।२४४।।
कवही नर सुन लीला करे, कपही भीख मांगतो फिरं । कवही जीवीडो खाइ कपुर, कवही न लहै बलि को पूर ।।२४५।। पुन्य पाप तरु जैसा बोई, तहिका तसा फल भोगवे । झुठा जीव पसारा करे, करम फिर से फिरें ।।२४६।।
पुत्री मन मैं न करी सोग, मिलसी पूत्र कर्म संजोए । मन मैं दुख न कीजे कोइ, भावी' लिखा न मैट कोइ ।।२४७॥
कमलश्री अजिकास्वी भणे बीनती एक हमारी सुणी । व्रत धर्म कर दिख उपदेम, मिल पुत्र सहू बाई कलेस ।। २४०।।
श्रुत पंचमी का व्रत
मुखत अजिका कहै विचारि, वत उपदेस सुणों दणरि। श्रत पंचमी तो तसार, तहिकों कीजे अंगीकार ।।२४६॥
सब कमलथी बोली एच, व्रत पंचमी को कहिए भेव । कोण मास दिन कहि विधि नोइ, तहि को उसर दोजे मोहि ।।२०।।
१. क, ग–भयो। २. क ग प्रति-जैनधर्म दिठ उपदेश ।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल भण अभिका सुदरि सुणो, कहो निथार (थ) सद्यो व्रत तणौ। कातिग फागुन सुभ प्रापार, सुदिपांचे उपवास सु पाठ ॥२५॥
चौधि ऊजाप्ती करं सनान, धोवति परि जाइ जिण थान । जिण चौवीस म्हायण करेइ, माउ द्रव्य सुभ पूजा लेइ ॥२५२।।
देव सास्त्र गुरु पूर्ज पाइ, भगति बंदना करि घरि याइ । पाच पात्रां देई दान, मिष्ट मनोहर भोजन पान ॥२५३।।
एक भगति सुभ कर आहार, पाछै सबही कर निवार | राति भूमि सुभ सज्या करे, नाम जिणेसुर मन मैं धरै ।। २५४१५
देव सास्त्र गुरु प्रान्या लेइ, श्रुतं पांच उपवास करे ।। हाइ पचमो को परभात, पुरुष खलासा की सुणि बात ॥२५५।।
पोसौ सामाइक दिन गमै, प्रर्थ पुराण मध्य मन रमैं । सहि दिन बरी मित्र समानि, सौनों तिौं बराबरि जानि ।।२५६॥
करि जाग्रण गमै सुभ राति' करे सनान उदै परभति । जिणबर न्हायण पूजा विधि कर, पाछ प्राय घरि गम करें ।।२५७।।
दे पात्र जोग माहार, ममाधान बात व्यौहार । पार्छ एक भगति पारणी, निर्मल मन राख्ने प्रापणों ।। २५०।
सेत पंचमी को दिन मार, पंसठी' मास कर विस्तार । पूरै व्रत उद्यापन कर, महाभिषक पूजा विस्तर ॥२५॥
फल फूल ने बज चंदना, अगर कपूर मनोहर घणा । भामर कलस भेरि कसाल. चदयां तोरण घ्यजा विसाल ।।२६।।
जिणवर भणि महोछा करं, घृत सास्त्र पूजा विस्तरै । देइ जतीने सास्त्र लिखाद, पाटू बंधन निमल भाइ ।।२६१।।
१. क ग --गति । १. क पोसहि ख प्रति पोसदि ।
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भविष्यदत्त चौपाई
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गुर चरणा करि पूजा सार, चहु विधि संघ जोग आहार । जिथा जोगि वस्त्र सुभ दान, चोवा चंदन फोफल पान ॥२६२।।
उद्यापन की सकति न होइ, दूणौ त कर सह कोह। जैसी सकति तसो विस्तार, अषध' सास्त्रप्रभ पाहार ॥२६३।।
भाव मुघ अहि विधि व्रत कर, सो ना मुकति कामनी सुख लहै । पीड़ा दुख न व्यापं रोग, मिल पुत्र सहु जाइ विजोग ।।२६४।।
सुणी बात प्रजिका तणी, उपनी अंगि सोलार घणी । नमस्कार करि बारम्बार, कीयो व्रत को अंगीकार ॥२६५।।
फ्रा हान परित्र सार मरि जादा भीननी च्यारि ॥ दुखी पलिद्री देहु दान, व्रत पंचमी को बहु मान ।।२६६।।
मापिका को साथ लेकर मुनि के पास जाना
इहि विधि काल गमै सुदार, पुत्र तणी बहू' चिंता भणी ॥ एक दिन ले अखिका साथि, गइ जिणाल जाहा जगनाथ ।।२६७।।
जिणबर बिब बंद्या बहु भाइ, अजिका सहित मुनिवर में जाइ । करी बंदना मस्तकि हाथि, विनती एक सुणौ मुनिनाथ ।।२६८।। कमलश्री सुत दीपां गयो, तहिको बहुष्टि न सोधौ लहयो । पुत्र विजोग बहुत अकुलाह, रात्रि दिवस मन रहे न ठाइ ॥२६६।।
स्वामी तुम्है अवधि का जाण, बचन तुम्हारा महा प्रमाण ।
भवस दत्त छ कोणी थानि, हानि वृद्धि तसु करौ नखाण ।।२७०।। मुनि का वचन
मुनिवर भणे अवधि के भाइ, सुणी बात मन राखौ ठाइ । मदन दीप पहृतो कुसलात, पट तिलक महा विख्यात ||२७१।।
१. उखद ख प्रति । २. क ज प्रति श्री हीनि बुद्धि ।
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१७०
बस्तुबन्ध
महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
सुकर्म जोगि तहां बालक गयो, सुंदरि एक तह मेलो भयो । नगर सहित बहु संपत्ति लही, सत्य बचन तुम जाण सही || २७२ ॥
सुखस्य वारा बरस तहां रहे, वस्त पदारथ बहु विधि है । रुति' बसंत गास वैसाख, पांच दिवस उजालो पाख ॥ २७३ ॥
राति पाछिली विश्व जाणि, संपत्ति कार्मिणि बहुत सुजाण । कुसल प्रेम तुम मिलिसी श्राइ लोक तुम्हारा मन को जाइ ।1२७४ ॥
मुनिवर वचन सुण्या मन लाइ भयो हरष अति अंग न माइ । मुनिवर प्रजिका बंद्या बहु भाई, कमलश्री पहुंती निज दाइ ।। २७५॥
प्रीतम पुत्र विजोग प्रति, कमलश्री बहु दुख पाइयो । पूर्व कर्म कुमाइयो, पाछे सुंदरि उदे भइयो । बचन सुण्या मुनिवर तणां उपनो हरष अपार । भवदत्त जहि दीप थे, तहि को सुणी विचार ।। २७६।।
चौपई- कमलश्री दिन गिणती जाह, बरस मास वह रे मनलाई । या तो कथा हृयापुरि रहो, कहौ कथा जो तिलकपुर भई ॥ २७७॥
भविष्यानुरूपा का प्रश्न
एक दिन भोसाणह संत, बात पाछिली भासी कंत । पहली बात जके तुम कहो, ते सहु स्वामी वीसरि गई ।। २७८ ॥
कोण देस नम्र तुम तात, आया दहां कोण के साथि ।। विरांत कहे आपणी, जिम संसौ भाजं मन तो ।। २७६ ।।
भविष्यदत द्वारा मन में पश्चात्ताप करना
अवसदेत सुणि कामणि बात, पाय दुख पमीनों गात । पापी तसु कीयो विश्वास, माता की नवि पूरइ श्रस ||२०||
१. फ ग प्रति रति ।
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भविष्यदत्त चौपई
१७१
सींचे माली तर बह भाइ, तिस का पाछै सो फलु खाई। बहु उपगार कीयो मुझ मात, सा' तिहि की विसरि गयो बात ।।२८१।।
बारह वर्ष भोग मैं गया, मात पिता सहु विसरि गया । धन संपति सोइ जगि सार, क्रीज सजन तात उपगार ||२२||
हौं पापी मति हीणौं भयो, मात पिता न वि सीधी कीयो । कोइ किसको सगो न हाइ, स्वारथ श्राप कर सहु कोइ ।।२८६ ।।
पाबं द्रव्य तही को सार, जो पर जोग्य करै उपगार । जिणवर यानि पतिष्टा करेइ, दान पारि तिहुं पात्रां देइ ।।२८४।।
उदिम करिबि ईहां थे पली, सम्पति ने माता में मिली। भवसदत्त मनि सोची बात, कामिणीस्यौं भास घिरतांत ।।२८५॥
भविष्यदत्त द्वारा अपना परिचय देना
सह सनबंध सुणों कामिणी, बिधिस्यों बात कही पापणी । भरथ क्षेत्र हयणापुर थान, धनपति सेठ द्रव्य को निधान ।।२८६।
कमलथी तिहि को कामिनी, भगति देव गुर सास्त्रोतणी। भवसदंत है ताहि को लाल, सुख मैं जात न जाणों काल ।।२८८।।
दूजी तीया सेठिक जाणि, रूपणि नाम रूप की खानि । बंधुदस सहि को जाईयो, रत्नद्वीप विणिज ही चालियो ।।२८८।।
हम पणि सासु साथि गम कीयो, मदन दीप साथि ही प्राइयो । बंधुदत्त करि कूछ कुभाष, छाड्यों भदन दीप वन ठाउ ॥२८६।।
पापी आपण गयो पसाहि, छांडि गयो मुझ वस बन माहि । कर्म जोगि जुर्गों पंथ लइयो, पुन्य उद तुम मेलो भयो ।।२०।।
इह धरतांत हमारी जाणि, कर्म जोगि प्रायो इहि थान । कानि हिम कीजे कोइ, जहि थे हथणापुरि गम होइ ॥२६॥
१. ख प्रति-छाडिउ हो जद बासना माहि ।
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१७२
महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
उद्दिम मगली बाला सार, उदिम थे पावं सिवद्वार । उद्दिम कर कर्म फल होइ, बावं जिसा तसु फल जोइ ।।२६।।
उहिम करता हम न कोइ, उदिम करता सुगति होइ । उदिम करि जे चारित्र घर, तोडे कमें सिद्ध संचरं ।। २६३।।
सगली बाता उहिम भलो, संपति लेइ जल तीरां चली । पंथी प्रोहण आवत जात, हथणापुर जाजे तहि साथि ।। २६४।।
कामिनी सुणी कंत की बात, मान्यो बचन विकास्यों गात । चाली पंथ जहां सागर तीर, दास बेलि बन गहर गंभीर ।। २६५।।
मंडए दाख सु महा उत्तंग, बंधी घुजा मुभ अधिक सुचंग । नग्र मध्य जे बस्त निधान, माग्यो सच मंडप के थान ।।२६६।।
मोती माणिक बहुत कपर, चंदन बिस्नागर की जुर । जाति जाति का मेवा घणा, ढीगली आणि किया तहि तणा ।।२६७।।
भवसदत्तरू उभौसाण, सुखस्यौं सं तिष्ठो' मंडप थान ।। मुज भोग सही मन सणा, मुग देव जिम देवांगना ॥२६८।।
बन्धुदत्त के जहाज का प्रागमन
रहिता तहां केइ दिन गया, बंधूदत्त प्रोहण पाइया । दमडी एक न पूजी रहयो, पाप जोग सगलौ खोइयो ।॥२६॥
फटा वस्त्र अति बुरा हाल, दुर्वल प्रस्ति उतरी खाल । बंधुदत्त दूरि थे जोइ. जलधि तीर धुजी लहकाइ ।।३००।।
वाण्या वास्यों कर वखाण, देहायो जाइ कोण तहि थान । नाव वैसि वाण्या वालिया, भवसदत्त के धानकि गया ।।३०।।
मन माहै पालो कोइ, ईह को देव देवांगना होइ । नम्या चरण धरती धरि सीस, गौवरि महेम विसवावीस ।।३०२।।
१. क ग प्रति - निवस ।
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भौवष्यदत्त चौपई
सकलप विकलप वाया कर, उद दम मन मैं किम संघर्ष । तब लग वेगि पोत पाइयो, बंधुदत्त उतरि देखियो ।।३०३।।
सो अति मन मैं कर विचार, इह देवी इह नाग कुमार । चन मांई बन क्रीडा कर, दृष्ट जीव की संफ न धरै ।।३०४।।
के नाराण लिखमी होड, अमो रूप न दीस कोई । इहि परतसि गौरज्या महेस, चंद्र सहित जिम सोभै सेस ।।३०५॥
बाण्या सहित बिनो बहू कीया, भवसदत्त का पग बंदिया। कमल श्री सुत जागी बात, इह तो बंधुदत्त को साथ ॥३०६।।
मविष्यदत्त बंधुदत्त का मिलन
ले' प्रालिंगन बारंबार, मिल्या भाइ हरप अपार । कुसलखेम वुझी सहु सार, जसो सजन को प्योहार ॥३०७।।
हो स्वामी गति हीणो भयो, तु एकाकी बन मैं छाडियो ।। प्रेसी नबि कोई कर न वात, क्षिमा करो हम उपरि भ्रात ॥३०८।।
पाई हौं पछितायो घणो, जाण्यो ध्रिग जनम प्रापणी । तुम विजोग उपनो बहु सोग, विष मम छोडिये पव ही भोग ।। ३०६।।
राति दिवसि मुझ खीजत गयो विळती कोठी एक न लहयो । अंसा मन में उपनी बात, जे हौं चरि जास्यों कुसलात ।।३१० ।
मात पिता बुझौं करी मान, भवमदत्त छाडिउ कहि थान । मुझ ने उतर न पासी कोइ, अपन सहीस्योकालो होइ ।।३११
मेरो दुस्ट बस को हीयो, मैं एकाकी बन मैं वादियो। पुन्य घड़ी अब प्राइ भ्रात, जावत दुवै मिल्या कुसलान ।। ३१२॥
भ्रात वचन मुझ पागै भणी, जिम भाज संसो मन तणों। कोण नम ही छ बिसाल, कन्या रस्म लही सुकमाल ११३१३॥
१. क ग प्रति लीया नारेल ।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
बस्त अनोपम स्याया सार, तिहि को स्वामी करौ विचार । दुर्जन सुणे होयो प्रति हङ्ग, सजन सुन सुकीरति भष्मे ।।३१४॥
भविष्यदस का उत्सर
मवसदंरत सुणि भाई बात, इसि बोल्यो सुणि हो तु म्रात । शुभ पर असुभ उपायों होड, तिहि का फल नर मुजै. सोइ ।।३१५।।
कर्म बिना नबि कोय सार, कर्म विना नदि लहै लगार । जातो कर्म उद होय प्राइ, तसो ताहा बधि ले जाय ।। ३१६॥
हम पूर्व सुक्रत संग्रह्यो, मली बस्त को मेलो भयो । सुख दुख दाता को नवि जान, दीस सह कर्म विनाण |॥३१७।।
दु सुख दता को नहीं पा को नः सही। घटुंगति मध्य जीव संचरै, पाप पुन्य ते साथि हि फिर ॥३१॥
लाधो बस्स न करीजे हरष, गई बस्न को न करी दुग्न । बहु वात मध्यस्थु जु रहे, तिहि को सुजस इन्द्र वर्णवै ॥३१६,
कामणि जोगै दुचो दीयो, बंधुदत्त ने भोजन कीयो । बाण्या सहित करी ज्योणार, पान सुपारी बस्त्र अपार ॥३२०॥
सब दलिद्र तमु राल्फी चूरि, प्रोहण वसत्र दिया भरपूरि । भवसदत्त मनि नही गुमान, बंधुवसन दीनो मान ॥३२॥
बस्तुबंध
भली दीठो तिलकपुर थान, भवसदत्त बहु भोग कीन्हा । चन्द्रप्रभ जिन पूजा कीनी, तिया द्रव्य सहु साथि लीनी ।। सागर तटि तहि थिति करं, भाइ मिलियो माह । प्रबर कथा प्रागं भर, सबै सुणौँ मन लाइ ।।३२२ ।।
चौपई- भवसदत्त बोल्यो सुणि भ्रात, भली भई प्रायां कुसलात ।
बचन कहीं तुम भाग भलौ, तीया सहित हमने ले चलो ॥३२३।।
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I
भविष्यदत्त चौपर्छ
द्वादस वर्ष भोग में गया, मात पितान की सुधि न लहया । अब हमनं इव दीजे दान. ले चालहू हमणापुर थान ।। ३२४ ।।
बंधुदत सुणि भाई बात, हरषो चित विकास्यो गात । स्वामी ही सेवग तुम तण, भगति बंदना करिस्थों घणो ।। ३२५ ||
भविष्यदत एवं भविष्यानुरूपा का जहाज में चढ़ना
भवसत को दूर्व लीयो, सहु संमदाउ पोल मैं सामर तीर प्रहण खडौ, भवसदंत तिया सायिहि चढौ
भवदत्तस्य भासै तिया, बस्त दोह धीसरि भाइया | नागसेज्जा काममूंदडी, रही दाख मंडप तुलि पड़ी ।। ३२७||
भविष्यदत्त का पुनः द्वीप में जाना
दीयो ।
।। ३२६ ॥
ब्रेगि जानु ले मावो कंत, जहि विण क्षण एक रहे न चित । मान्यो बचन तिय। जे कह्यो, भगसवंत तहां उत्तरि गयो || ३२८ ||
बन्धुवत्त द्वारा पुनः विश्वासघात
बंश्रुदत्त बहू कुड कुमाइ, संक्षण प्रोण दीयो चलाइ । पापी सोची माहीं बात, पूजा कीयो विश्वासघात || ३२६ ।।
सज्या नागसूदडी लीयो, भक्सदंत तहि थानकि गयो । विठि न पडे तहां प्रोहण यांन, भयो कुमारि मन मांहि गुमान ॥३३० ।।
हो विधिना प्रति श्रचिरज भयो, प्रोहण थानक बीसरि गयो । सागर तीर फिरिउ तहि यान, दीसं नही पात सहिना ||३३१३।
उनी चदि देखें निरताय प्रोहण चाले सागर मांहि । उच कर करि सबद कराइ, प्रोण चाल्या तीरजि माइ ||३३२ ॥
भविष्यदत्त का मूच्छित होना
चित्त एक क्षण रहेन सरण नमि दीखे कोइ
ܕ
धीर, सूरछा भाइ पड़ी उरबीर । पढियो भूमि भरी जिम होइ ||३३३ ||
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महकवि ब्रह्म रायमल्ल
सीतल बाइ सरीर लागीयो, गइ मूळ उछि जागियो । दाख बोलि को मंडप जाहा, च्याल्यो भवसदत्त गयो ताहा ।।३३४॥
देखि कवर तहां सूनो थान, मन मैं दुख कर असमान ! मोह जडिउ बोल बाउलो, माउ कामनी वेगी मिलौ ।।३३।।
तहि थे चाली कमलश्री बाल, पसु जाति दी। दिकगल । हरण रोझ सूबर सांबरा, भैसा रीछ महिष अति बुरा ॥३३६।।
स्याहस्यौ तणी विनों करि घणौ, कहै संदेसो काम म तणो । चाल्यौ बेगि नग्न भै गयो, तहां सूनो थानक देखियो ।। ३३७॥
करता भोग गावता गीत, ते थानक दीठा भभीत । कामिणि धन ते विधना दीयो, पाछ सुपनो सौ करि गयो ।।३३८)।
सुमर सुख कामिणी तणा, तिमतिम दुख उपज प्रति घणा । फिरि फिर सबै नग्र देखियो, चंद्रप्रभ जिण मन्दिर गयो ।।३३६।।
सोग सबै छाडिउ तहिवार, जिणबर चरणा की यो जुहार । गुणग्राम भास्या बहु भाइ, जिहि थे पाप कम हो जाइ ।। ३४०॥
वोहड़ा हियडा संबर घोयड़ी, दुख न करी प्रतीच ।
कर्म नचावै जिम नचे, तिम तिम नाचं जीव ॥३४।।
सुख दुख जामण मरण प्रति, हि धानकि जो होइ। घड़ी महरत एक क्षण, राख सके नही कोइ ॥३४२।।
चौपई
भवसदत्त जिणवर के यान, भास कथा रूप भौसाण । कंत विजोग बहुत दुख कर, असुर धार नेत्रा थे झरं ॥३४३॥
बंधुदत्तस्यों बोल गालि, रे पापी फिरि मुग्व दिखालि ।
भाई ने बहु संकट धरै, अंसा कर्म नीष नवि करे ॥३४४।। भविष्यवत्त द्वारा चिन्तन
कर विसासघात ज कोई, नरक तणा दुख मुजे सोइ । पापी नै नबि आई दया, हरत परत तुझ तन्यो गया ।।३४५।।
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भविष्यदत्त चौपई
१७७
के हौं विधना कीना दुखी, पापी राकसि फाई न भखी । कार्मािण कंत बिछोहो कीयो, सो पाप मुझ उदै पाइयो ।।३४६।।
के भवगान्यो जिणवर देव, के मिथाती गुरु की सेव 1 के कुदान दीना बहु दाति, के में भोजन कीनौ राति ।।३४७।। पूर्व कंत परायो लीयो, तिहि मिषना मेरी छोनियो । मात्रा पुत्र विछोहो कोइ, विषना सजा लगाई मोहि ।।३४८।। सह पामरण दीन्हा रालि, तो तंवोल पान सह फालि ।
कहै कंत को सोधो कोइ, वस्त्र कनक सह मुकतो होइ ॥३४६।। वन्मुक्त्त की नितज्जता
बंधुदत्त कुण छोडी लाज, जाणों नही फाज प्रकाज । पापी के मन रहे न ठाइ, भाषज के नखि बैठौ माह ।।३५०॥ जिम कूकर परकावं पूछ, भावज हाय लगावै मुंछ । हे कामिणि करि दया पसाव, राखी बोल हमारी भाउ ॥३५१।।
भविष्यान क्या का विरोध
सुणि बोली कुलवंती नारि, रे पापी कहि बात विधारि । बडा भास की कामिणी होइ, माता जसी गिणे सह कोई ।।३५२।। कर्म इसा न कर कुल दाल, भावज घर ड्रम चिंडालु । रे मूरख मन रात्री दाइ, पाप जपाइ नरक गति जाइ ||३५३॥ पापी मद को अधीमयो, मान नहीं भाउज को कमी। जिम पापी मूडो मन कर, सिम तिम पोत अघो संघरं ।।३५४।।
सतवंती को सील सुभाइ, बुई पोत वणिक बिललाइ । उछल पवन झकौल नीर, बूट वाण्या बस्त गहीर ||३५||
रिसि करि प्राण्या बोल बात, तुम पापी सह बोल्यो साथ । पाहि हाय दुरि ले की यो, बचन कहि बहु निझटियो ।।३५६।।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
मौसाण-रूपस्यौ बिनती करं, तुम कोप साथा सब मरं । तुम सतर्वती निर्मल भाउ, हम उपरि करि छमा पसाय ॥३५७।।
जे पछिम दिस ऊगै भान, को नविभान सील निधान । मावा संक चित्ति मत करो, होसी सही कुरा को बुरौ ।।३५८।।
पण्यक पुत्र सह रख्या करं, बंधुदत्त नवि नख संचरं । भवसदत्त त्रिया क्षमा कराइ, तिम तिम प्रोहण चाल्या जाइ ॥३५।।
मती कर मन माहै चित. मुझ बिजोग मरिसी सुत कंत । हौं पणि मरिस्पों तासु बिजोग, असो भयो कर्म संजोग ॥३६०।।
भविष्यानुरुपा को स्पन
रंणि समं सूती सत भाइ, सुपनो को देवता पाई। हे सुदरि तुम न करो चित, मास एक मिलिसी तुझ कत ॥३६१॥ सुपनो सुभ कामिणी देखियो, सुभ मन धीर पापणो कीयो । मिलिसी कंत मास जे माद, प्राण हमारा रहसी ठाइ ॥३६२॥
जहाज का समुद्र तट पर प्राममन
चलत चलत केइ दिन गयो. प्रोहण सुमद तीर लागियो । बणिक उतर प्रोहण भार, बस्त किराणा चीर भंडार । ३६३॥
बालदि भरी बस्त बहु सार, बंधुदत्तस्यों वणिक कुमार । रसी रंग सब ही मनि भया, हथणापुरि तंगण पहचिया ॥३६४।।
बन्धुवत्त एवं धनपति मेठ का मिलन
पहृता ननि बधाई हार, बंधुदत्त आगम न्यौहार । सुणी बात धनपति सुख भयो, ले बाजा बहु सामहु गयो ॥३६५।।
भेदि पुत्र बहु भयो उल्लाह, बाज्या बहु नीसाण धाव । वणिक पुत्र बहु भयो उछाह, पुत्र नन में ल्यायो साहु ।।३६६।।
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भविष्यदत्त चौपई
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सजन लोग बहु संतोषिया, दुर्जन का मन काला भया। दिया संबोल सेठ बहु भाइ, कामणि गीत वधावा गाइ ॥३६७।।
चाल्या था जे वाण्या साथि, कमलश्री तसु घुझे बात । बंधुदत्त को बहु डरं कर, समाचार नवि को उचर ॥३६८।।
कमली का पुनः प्रायिका के पास जाना
कमलथी मनि भयो गुमान, गव बेगि जिका के धानि । नेत्र असरपात बहु कर, पुत्र विजोग दुख प्रति करे ।।३६॥
नमसकार करि बुझ बात, पुत्र हमागे न पायो मात । राम देह अधिक अकुलाइ, समाचार कोन कहै माय ।।३७०।।
अजिफा होली मूणि सूदरि, बेटा को तू ना हर करी । मुनिवर अवधि दिवस जो कही, पुत्र तुम्हारी माती सही ॥७॥
पछिम दिस जे उगे भाण, मुनिवर भूट न कर बखांग । कर्म जोगी परबत पणि फिर, मुनिवर मुख अठन नीस ॥३७२।।
अजिका बचन ब्रह्यो संतोष, जैसो मुनिवर पायो मोख । सुणी बात जे अर्जिका कही, कमलश्री निज थानकि गई ॥३७३।।
बंधूदत्त मिलिबा पाइयो, कमलश्री का पद वंदियो । कुसल नेम सहु बुझी सार, जैसो पुत्र मात व्यौहार ।।३७४।।
कमलश्री बुझ ये मान, भवसदत्त छाडिउ कहि धान 1 समाचार सूत साचा भाँ, जिम संसौ भार्ज मन तणो ।।३७५||
बंधुदत्त बोल्यो सुणि भाइ, कुसल क्षेम तिष्टं तहि यार । धन संपति तहि बहुली सही, बेगो तुमसे मिलसी सही ॥३७६ ।। हमने जैसी देखो इहां, तसो मुत ने जांणौ तहां । कमलभी सुणि बहु सुख भयो, बंधुदत्त निज मन्दिर गमौ ॥३७७।।
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महाकव ब्रह्म रायमल्ल
मन्तिम पाठ मूलसंघ सारद सुभ गछि, छोडि पारि फषाइ निरभंछि । अनंतकीत्ति मुनि गुणह निधान, तास तणी सिषि कीयो बखाण ।।१५।।
वरह्म राइमल थोडि बुधि, प्रखर पद को न लहै सुधि । जैसी मति दीनो अंकास, प्रत पंचमी को प्रगास ।।१६।।
बत पंचमी जं को करै, केवल उसमतहि ने फुरै । जे याह कथा सुण दे कान, काल लहदि पावं निर्वाण ॥१७॥
सोलाहस तेसीसा सार, कातिग सूदि चौदसि सनिवार । स्वाति नक्षत्र सिद्धि सुभ जोग, पीडा दुख न व्याप रोग ॥१८॥
देस ढूढाइड सोभा घणी, पूर्ज तहां अली मन तणी । निर्मल तल नदी बहु फिरि, सुबस बस बहुत सांगानेरि ॥१॥
बहु दिसि भलो वयो बाजार, भरे पटोला मोती हार । भवण उत्तग जिणेसुर तणा. सौभ चंदवो तोरण घणा ॥२०॥
राजा राज कर भगवंतदास, राजकंबर सेवै बहु तास । परजा लोग सुखी सुख बास, दुखी दलिद्री पूरै पास ।।२।। श्रावक लोक बस धनवंत, पूजा करे जो अरहंत । उपरा उपरी बैर न कास, जिम इंद्र सुर्ग सुखवास ॥२२।।
पाखर मात ज भूलो होइ, पंडित जन सह क्षभिज्यो मोहि । अति भयाण मति थोड़ी भई, कथा पंचमी व्रत की कही ।।२३ ।।
बार बार नवि भणी पसार, जग में जीव दया ब्रत सार । जो नर जीव दया की पाल, रोग सोग नवि च्या काल ।।२४।।
इति श्री भवसदंत चउपह. संपूर्ण ।
1. क प्रति कथा ।
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परमहंस चौपई रचना काल सं० १६३६
मोठ रुपण १३ शनिवार रचना स्थान तक्षकगढ (टोडारायसिंह)
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परमहंस चौपई
प्रारम्भ वोहा- परमहंस प्रती गुण निलो, जो बंद बहु भाइ
तीह को परगाह बरणऊ, सुनहु मविक मन लाई ॥२५॥ जाह समरन टूट सब कष्ट, करम तपा बहु भार । चहु गत मध्य फीरे नहीं, ऊतरे भव बल पार ॥२७॥
चौपई --- परमहंस राजा सुभ काज, घरं चतुसटय सखमी राज ।
नीसचय तीन लोक परमाण, जोम सोवरण पती गुन जाण ॥२८॥
बहालो सियाला जासों, दोलुह मधि रहछे तीसी । मोर कदर पती ढूढन जाई, घर घर भीतर रह्यो समाई ॥२६॥
परमहंस के स्त्री चेतना, नीरमल गुन पति सोभ घना। तीह की महीमा जाई न कही, परमहंस न मति बालही ।।३०।।
पुत्र च्यार सो प्रति घना, सुख सत्ता बोध चेतना । परमहंस सुख मुजे एव, सकसप विकलप रहतसु देव ।।३।। करत फिरत मया तिहाँ गई, परमहंस सु भेंट भई । मया भण बिनो कर घनो, स्वामी सुजस सुन्यो तुम तणों ।।३२।।
कोरत पसरी तीनु लोक, गुन अनंत तुम हरष न सोक । सुध सुभाव तुम्हारो रूप, निराकार सुख तीसट भूप ॥३३॥
सुन स्वामी मेरी बीनती, बहु कामणी तिन में हूं सती । हरिहर या द मोह, तप जप सील छोड दे सोह ॥३४॥
स्वामि हुं प्रती चतुर सुजान, पुरष कुपुरष कही परमान । लोभी ह्रकर वृझ बात, करै बीसास पछे तसु घात ॥३॥
मैं माया बहु जग धियो, ठाई सहत कोई न वीगयो । मै होबा में देख विमास, माई स्वामी तुम्हारे पास :३६॥
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
हाथ जोड वीनती करू अड़ी, हम तो अडग लई भाषडी । के तो परमहंस ने घरू, नहीं तर भकत कवारी मरूं ॥३७॥
सोटी वसत तू दीजे राल, जीह थे पाछे भाव गाल । खरी बसत को की नंगोकार, तिहं ते सुअसा लहै संसार ॥३८॥
परमहंस माया सुन बैन, उपनो हरष विकासे नैन । ईह सम भोग भोगलं घणो, सफल जमारोतो हम तणो ॥३६॥
परमहंस तव कियो विचार, माया कू कर मंगीकार । पटरांणी राखी कर भाव, परमहसके मन प्रती चाव ॥४०॥
दसु' प्राण सुत माया तणां, त्यांका भेद भाव है घणी । कर कलोल प्रापन रंग, जिम अटवी कर फिर सुचग ॥४१ ।।
स्पर्सना रसन घान घर कान, त्यांह का विर्षे अधिकह बान । पिता तणी नवी मान प्रान, फिर सु इच्छा थान कुथान ।।४२॥ मन पापी जु पाप चितयो, पिता बांधि तब बंदि महि दयो । परमहंस सवही राम भयो, सकल तिषाई मुरख हव गयो ।।३।।
राजा मन जु राज भोगवे, इंद्री सहोत जोर-प्रती हवै । राजकुवर परगी दव नारी, परवृत्यरु निरवस्य कुमारी ।।४४ ।।
पाई कुरि जहें वंदीखान, परमहंस दुख देखे जान । सकल दरसन चारीत वरने, तिह का दुख बरण कुन ।।४।।
मन की तीया प्रवृत्य गहीर, मोह पुत्र जायो घरवीर तीन लोक में तीह की गाज, सत्तर कोड़ा कोडी साज ॥४६ ।।
सो मोह सगलो संसार, धन कुटंब मांड्यो पसार । गति चार में फिरानै सोई, पाल जाल न निकसे कोई 11४७।।
दुजी कामनी सो मन तणी । निरवृस्प नारी सुलखणी । तीह के पुत्र भयो प्रती धीर, नांब विवेक सुगुनह गहीर ।।४८ ।।
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परमहंस चौपई
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भाव नीत मारग व्योहार, खोटो खरो परीस्या करें। देव सास्त्र गुरू जान मरम, श्रावक यती तणो सहु धरम ||४||
सब जीवन कु दे उपदेस, जिह थे नास रोग कलेस । कह विवेक सु बात विचार, सुलह इछा सुख संसार ।।५।।
वस्तुबंध-परमहंस बंदु प्रथम, जिह सुमरण सह पाप नास ।
दंसन णाण गुननीलो. दिष्ट केवल प्ररथ भास ॥ हिर विघा ति कीयो. कर माया ससंग ।।
तिह से मन सुत उपनो. चंचल अधिक सुचंग ॥५१॥ दोहा- मन के दर सुत उपना, मोह विबेक सुजाण ।
मोह प्रजा कु पीडबै, विवेक भलो गुण जान ॥५२।। चौपई- मन राजा अब बेटो बहै, भाया जोग देखन सहै ।
च्यारु पुत्र चेतना तनां, छोड गया नीसय पाटणी ॥५३।।
जाणे सव कुटंब कुसंग, माया तणो उछाह सुचंग । मन बेटो दीठो बलवंत, मन मोह माया बिहसंत ॥५४॥
....
.....
सोक दुवै माया चेतना. मोसा मसका सोक्या तां । उपरा उपरी कर विरुध ... ............... - ॥५५|| बेटा पास गई चेतना, परमहंस छोडी त खिणा । कोई किसका छिदन कहै, पुत्र सहित सुत्री सो रहे ॥५६।।
माया मनसु कहै हसंत मुनो बान मेरी गुनवत । थारो पुत्र विवेक कुमार, करपी घर में यकोकार ।।५७।।
सीख हमारी करज्यो एक, वेगा बंदी षांन इह देश । टुसट भाब ईह दीस वो, मान्य) सही बचन तुम तना ।।५८।।
सुनी बात तव माता तणी, तब बहन संका उपनी । मन प्रपंच मांडियो अनेक, तीन वाघ्यो साधु विवेक |१५.६ ।। तब निवृल्य सु बह दुषभरी, परमहंम मुवीनती करी । सुसरा मेरो पुष छुड़ाई, दोष विना बंध्यो मनराई ।।६।।
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१६६
महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
परमहंस जपं सुन बहु, एह परपंच माया का सहु । निराचं पटन छ चेतनां, तिह के पारा जाहु तंषीनां ।।६१||
व्योरो बात हमारी कही, थारो पुत्र छडाव सही । तव नीवृत्य गई तीनां, निसचे पटन जहाँ चेतना ॥२॥
सासु सना बंदीया पाई, बात कही दुख की वीरताई । राजा मन बंध्यो मुझ नंद, कवर विवेक अधिक गुनवंत ॥६३३॥
.. महंस तुम नाकार, कौस्या बात हो सो भली । हमने मात करो उपगार, छूटै जिम विवेक कुमार ॥६४।। सुनी दात जु निवृत्त्य तनी, प्रती चेतना दया उपनी । निबृत्य सेती कह सुभाई, पुत्र छुटाई करो उपाई ।।६।। प्रवति को प्रती हरष्यो हीयो, मेरो राज निकंटक भयो । मन राजा सु कह हसंत, मेरी बात सुनो गुणवंत ।।६६।। मोह पुव थारो वर पीर, माता पिता को सेवक धीर । स्वामी देइ मोहन राज, सीरो सब तुम्हारो काज ।।६७।। मन राजा प्रवृत्य वस भयो, राल्यो नहीं श्रीया को कयो ।
राज विभूति तनो सह साज, मोह बुला दीयो तिही राज ॥६८|| पाप नगरी का वर्णन
मोह राव सकुराई करें, दुरजन कोई घोर न धरै ॥ तह को अधिक तेज प्राताप, जाउ नगरी बसाचे पाप ।। ६६॥
पुरी अग्यान कोट चहु पास, त्रिसना पाई सोभ तास । च्यारू' गति दरवाजा वयां, दीस तिहां विषवन घणां ॥७०।।
जेता बहुल असध वर णाम, उचा मंदीर दीसे ठाम । कुप्राचार तणो चहुं वास, कोई कीसही को न वीसास ॥७१।।
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परमहल चौपई
मिथ्या दरसन मंत्री तास, सेवक पाठ करम को वास । क्रोध मान डंभ परपंच, लोभ राहत तिहा नीवसे पंच ।।७२॥
पंद्रह प्रमाद मंत्र तसु तणां, तिह सु मोह कर रंग धनां । रात दीवस ते सेवा कर, मोह तनी बहु रख्या करें ।।७।।
सातों विसन सुभ्र गती राज, जाने नही काज अकाज । निगुणां सघि सभा असमान, सौभै दुरगति सिंघासन धान ॥७४।।
चवर ढल रित विपरत वीसाल, छिद्र पुरोहीत पठतु कुस्याल । कूड कपट नम कोटवाल, पाखंडी पोल्या रषवाल ॥७॥
तिहको कुकवी रमोईदार, चोबीसु परिग्रह भंडार । कंदल कलह अन्न कोठार, नंदी देहह बोल अपार ।।७।।
प्रसत छागल्यो पावरोण, चोर खास तास वरचौर । महाकुसील पयादा तास, पाप नन में तिह को वास ।।७७।।
परमह सवल कमाई पचीस, पचपन मोह तनो मनसोस । ऐसो पाप नन को वास, भली वस्त को तोहां विनास ॥७८ ।।
निसचे नग्र पुत्र चेतना, तीह की बात सुनो भवीजना । निवृत्य पुत्र की वीनती फरी, तव चनना बात मन धरी ||६||
जहा सुमन राजा छ वली, तिल कुमति माप मोकली। दीन्ही सीगन्त्र बहुत नीरतार, दीजे वेग विबेक छुड़ाई
तुमच्छो कुमति ठगोरी प्रसी, मन राजा दीदै पघलसी । सोही कोज्यो चित विचार, छुट बेग विवेक कुमार ।।८१६॥
लीन्ही सीख कुलस्त तब गई, मन द्वारए आई ठाढी Hई । पोल्या नबह दीनो मान, प्रवृत मन राजा को थान ।।२।।
हाव भाव तीहां कोया पना, बहुतक चिरत कामनी तना । देखत मन प्रती भयो विकास, बीनो करी बहु चूड तास ।।३।।
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१५.
महाग पद मायाला
तुम छो कुन तुम्हारो नाम, दीसो चतुर केन थित ठांम । जिह कारन आई हम भणी, ते सह बात कहो मापणी ।।८४॥ बोली कुमति जोडीया हाथ. बीनती सुनो हमारी नाथ ।। सूरग तंणीहुं देवांगना, तेरा सुजस सुन्या हम घणां ।।८।। मेरा मन बहु उपनो भाव, भली बात देखन को चाव । छोर देव प्राई तुम थोन, तुम देखत सुख पायो जान ॥८६।।
मन राजा तसु सांभली बात, उपनो हरष विकास्यो गात । प्रगन संग लुणी गल जाई, मन राजा वोलो हस भाई ।।७।।
दीठी त्रीया धनी अवलोई, तुम सम रूपन दीठो कोई । सुदरी हम पे करो पसाव रालो बोल हमारो भाव ।।८।।
करो हमारो अंगीकार, पटरानी सुख भुजो सार । वरात विभुती हमारं धनो, तिहकी सुरनु खसमणी ।।८८ ॥ बोली कुमति सुनो मन जोन, कह्यो हमारो अंगीकार । पटतो हम तुम घर बा सोई, होई विधना लिख्यो न मेटै कोई IItail
बंध्यो पुत्र विवेक कुमार, ते लोडो ल्यावौ मती बार । बिह धरी बंदी खानो होई, भलो मनाव तिहां न कोई ||११||
मन बोल्यो मत करो विषाद, यह तुमने दीन्हों परसाद । साकुल काट होयो मुकलाई, तषिन गयो मात पं जाई ।।२।।
कामी पुरष ज कोई होई. कामनी कहो न मेटै कोई । तिह को छांदो छात्र धनो, इदह श्रुभ काह कामी नर तनो ॥१३॥
पायो निचे पटन ठाद, मात चेतना बंद्या पाव । कह्यो पालो सह व्योहार, सुखसु रहे विवेककुमार ||१४||
वस्तु बंध- देख पुन निवृत्य सुकमास, बहुत हरष उछाह कीन्हो ।
कीमो उपगारज चेतना, तासु बहुत सनमांन दोनो ।
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परमहंस चौपाई
सवही तस पुरली उपनो निचं पट्टन में रहे चौपई - निवृति सुं जं चेतना, सांभल बहु
निवृत्य
पापी मोह दुसद सुभाव,
जाई जे छोड मोह को रहो जाई तुम नीके जान,
सुख अभार । विवेककुमार ॥ वचना हम तनां । पर पीडा चितवन सुहाव ॥६६॥
देस जाई तुम्हारो सब कलेस । जिठ चारीतह सुभ जान ||६७ ॥
सांभली बात चेतना तनी, विवेक तिवृति चाल्या तंषिता । चलत पंथ जब प्राधा गया, हंसा देस असुभ दे दिया ||८|| पाप नगरी बोसे तह रूद्र ब्योहार उपरा उपरी मार मार हांसि नि तिही प्रती ही होई, मार कोई सराहे लोई ||६||
दया रहत परजा परमान बाट बढाउ न लहे ठांम । कर विसास मारं तसु जोग, हिंसा देस वसें जो लोग ॥११००१
बोलें जको मूंठ असमान, तिहसु त्यागो तुम सुनि जन । अधिक झूठ एह बोलं वाच, जि थे टांकर मारे मांच ।। १०१ ।।
मुखानंद मन मोही घरं, सचि तिहां नवि लगतो खोटो परख खरी जो लेई, तिहकी कीरत अधिक करे
फीर ।
।। १०२ ॥
चोरी कर बहु पार्ड वाट धुनी मुसे करें घन घाट I सिर्फ बिनो करं प्रविचार, तुम सम पुरुष नहीं संसार ।। १०३ ||
सति अनादि बहुत विगतरं जं कोई नर चोरी करें । सेवे वर्ष जू इंद्री तनां, तीह को करे भगत बंदना ॥ १०४ ॥
सेव विवे जे मूळ गंवार, विह उपर प्रानंद पार । रुद्र ध्यान रायों दिन जाई, कर प्रपच अति मारे भाई ॥१०५ ।।
सुखन कोई बड़ी सेई, तिने मार फांसी देई । परजा यसै साई रंक, मारत पाप करे नीक ||१०६ ॥
१८६
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
बाल ग्राम जीव बहु मरं पापी मनमें संक न करें । रूद्र ध्यान तीहां बहुत सुजान मारै तहां कीच रली घांन ॥१०७॥
प्रजि सिचाणां सिंघ तिहां फिरें, जीवत प्रांती नहीं उपरे । अंसो दीसे हंसा देस, भात पुत्र न भयो कलेस ॥ १०८ ॥
X
X
X X
दोहा - ब्रह्म
—
X
X
राईमल्ल बंदिया, कह्यो सास्त्र
बोर कथा आगे भई तिह को
चौपई करे राजे विवेक सुजान, सुभ समकित मंत्री परधान । नीको मलो देई उपदेस, तिहये नार्स रोग कलेस
||२८५ ||
सम्यकित मंत्री प्रति बलवंत, जे वृझते होई निश्चत । athi सीख सु देई विचार, तिथें भोजल उतरे पार || २८६ ॥
X
गुरू सार |
सुनो विचार || २८४ ॥
पट्टन तनो ग्यान कोटवाल, रण्पा करें वाल गोपाल । चार घवाउन को न संचर, पट्टन परजा लीला करं ||२७|
दुख सोक नवि जाणो कोई ग्यान तनों वल प्रति बिसतरं
दोहा - विवेकवि भांति सब पाप नगर व्योहार छं,
जैसी मुकति पुरी सभ होई दुर्जन दुष्टन लगतो फिरं ।। २६८ ।। कही, पुन नगर व्योहार ।। तिन को सुनो विचार ||२६||
मोह राव मन चितियो, मंत्री बैग बुलाई । राज हमारी दिठ भयो, कंटक गयो पुलाई ||२६||
कहै मोह मंत्री सुनो, मेरे मन ही कलेस I रात दीवति खटको हीये, भागो निवृत्य वाल ।।२९१।।
विवेक बेरी हम तनो, तिहको हम ने दुख । छांडि गयो सो सोचकरी, कदे न पाये सुख ||२२||
asो करि ईही छाडियो, दाब घाव सो बहु करें, पाछे
मन में बंर न पाई । तिह नै
पाई || २६३ ॥
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परमहंस चौपई
१६१
सर्प जे मरि पु भज गयो, सोध्यो नाही तास । नंदी कडाड रूषडो, जव तव होई विणास ॥२६४।।
सोध्यो कोज्यो सत्रु को, मंत्री करो बिचार । दाव घाव सोई फरो, मरही विवेक कुमार ।।२६।।
मन राजा भोलो . छांत मेगे गा ! मन में दया करी घणी, जान मापनो पुत्र ॥२६६।।
वैरी विसधर सारस्रो, तिह ये रहै सुचेत । मूढ़ जके दोला बहै, तास मरन को देत ॥२६७।।
मन राजा का पुत्र , मोह विवेक सुजांन । पूर्व प्रीत भई ईसो, मूसा सर्प समान ॥२६॥
वेगा चाकर मोकलो, सीधों लाव जाई ।
देस गांव पट्टन फिरो, बात कहो निरताई ॥२६॥ चौपई - कुड कपट इंडी पाखंड, विदा दीया च्यारो परचंड ।
देसही घरती बहुत असेस, पट्टन ग्राम गढ़ देस ॥३००।।
सब बाते बुझ निरताई, रहे विवेक कहो किहीं ठाई । बात भेद कोई नवी कहै, च्यारू मनमैं वहु दुख सहै ॥३-१।।
पंथी एक मिल्यो तिह ठोम, तिह के बहुत सरल परिणाम । तिह न मान बहुत कर दीयो, चलता बाट सरल बुझियो ।॥३०२।।
तुम परदेसा फिरता रहो, राजा देस वात बहु लहो। ककर विवेक रहै किही थान, तिह को हम कहो वखान ।।३०३।।
वोल्यो सरल सुनो हो मित्त, कवर विवेक तना विरतंत । पट्टन पुन्य महा सुविसाल, राज कर विवेक भोपाल ।।३०४।।
दान पुन्य चाल असमान, चोड चवाई नही तिहां पांन । सह परजा जिन शासन भक्ति, जुवा भादि विसन सह भक्ति ॥३.५।।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल सूणी बात सह पंथी तणी, अपनी अंगिसी लाई घणी । मान देई बुझी पनहार, कोंन नगर भास नर नार 11३०६।।
कौन धर्म चाल इस थान, तिह को हम सु करी बखान । तब बोली पटन को नार. बात सुनो हो पंथी चार ॥३०७।।
दोष अठारा रहत्त सुदेव, गुरू निगुष सुजानो एव । बाणी सहीत्त जु जिनवर कही, असो धर्म मन में सही ॥३०८।।
पाखडी मिथ्याति होई, जान न हेई नगर में सोई । बात सुनी तव फोरयों भेष, लगा देन धर्म को पेष ॥३०६।।
ध्यानी मोनी अति ही भया, तंपिन नगर मध्य चालिया । वोन र सुमधुरी शान, कप: रूपातीमो मन का 22.!!
दोहा- पिछी कमंडल' हाथ ले, भेष दिगम्बर घार ।
इर्या पंथ वहु सोधता, पहुतां नगर मंझार |॥३१॥
चौपई- भोजन काज नगर में फिर, तास भेद ले लों संचरें ।
कोटवाल ग्यानो मन धनी, चेष्टा दुरी देखी लिद तनी ।।१२।।
ग्यांन सुभट चारू बूझिया, भेय दिगम्बर फदि थे लीया । प्राया तुहै चोर न्योहार, दीस नहीं शुद्ध प्राचार ।।११३॥
वचन सुनत्त तव ही स्वल भल्या, तपिन नग्न मोझ थे चल्या । भागा दुष्ट डूम पाखड़, हत्या कूर पद परचंड ।।३१४।।
राव बिवेक समा सुभ घणी, कोटवाल प्रायौ तिहां मणौ । स्वामि एह तो जती म होई, कही राषका सेशु जोई ।६३१५।।
सांभली वचन विवेककुमार, कुड कपट वोल्या ति पार । सांची बात कही निरताई, मठ पहूं तो लिकपलि जाई॥३११।।
फूड कपट वोल्या तंपिणां, मन बचन विवेक हम तनां । पाप नगर दुष तनो निधान, राजा मोह बस तिहं पान ।। ३१०॥
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परमहंस चौपई तुम सोधै राजा मोकल्या, विदा लेई तिहां थे घल्या । सोध्या देस नगर गढ ग्राम, बहुत कष्ट पायो तुम धाम ।। ३१८।।
सेवक जिह को स्नाई गरास, सोधो कर रहे तिह पास । राजा विदा जिहां न करें, तिहां गया सेवक ने सरं ।।३१६।।
सुणि विबेक सोम मन राव, मोह दुष्ट को जाने भाव । कूड कपट तंषिन बंधिया, वंदीषानं तिहान दीया 1॥३२०॥
बहुत ग्यानन दीन्हों मान, अधिक बड़ाई बहु दे दान । सभा लोग सहु कीर्ति कर, ग्मांन इत्ती चोर न संघरं ॥३२१।।
भी पुन्य नगर में रयो, पाखंडी पाप नगर पाईयो । मोह राव ने कीयो, जुहार, पुन्य नगर भास्यों व्योहार ।३२२।।
सुणी राजा बीनती हम तणी, विकट नगर अति सोम घणी । नहीं लगाव तहां हम तणो, पुन्य नगर फिरि दौठो घणो ।।३२३।।
कोटवाल ग्यांन तिहां रहे, वात पराये मनकी लहै । कूड कपट बांध तषिणा. तिहरे दुख देखे घणां 11३२४॥
हम तो भाजपाईया ईहां, उभै सुभट तिहर हो रहा । मोह भने पाखंड कुमार, तुज सदा को भाजन हार ।।३२५।।
हुंभी फने छ बहुत उपाईं, समाचार सह कहमी आई । तो लग केतईक दिन गया, पापी नगर डम आइया ।। ३२६।।
मोह राव न कीयो जुहार, कहो पाछेलो सह व्योहार । स्वामि हम तिहां मोकल्या, तिह विवेक के सोधे चल्या ।।३२७।।
देस घनां वश्या निरत्ताई, पंथी यक मिल्यो तब भाई । समाचार व्योरो सह करो, पुन्मनगर विवेक जु तिहाँ रह्यो ।।३२८।।
जाई भेटयो देव जिनंद, देषि विवेक भयो प्रानन्द । दीन्हा वीडा वस्त निघान, पुन्य नगर दीनो शुभ ध्यान ।।३२६ ।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल बात सही हम पंथी कही. विवेक पुन्य नगर में सही 1 सुनत सुख उपनो अपार, पहुँतो तिहां विवेककुमार ||३३०॥ कोई दिन बन मांही रह्यो, पुन्यनगर मे छल कर लहो । लीन्हो ग्यान कोटवाल बुलाई. बुझि बात सबै निरताई ।।३३१॥ प्रणविर लोग जाणा तिहां बार, ले गयो तिहां विवेककुमार । कूड कपट तिहारो पिया, हम तो नगर माझ ही रह्या ।।१३२।।
भागो पाखंड पायो ईहा, हम तो भेद लीयो सहु तिहां । दोठा तिहाँ कोतुहल घणां, दाव घाव विवेक तां ।।३३३।।
बस्तुबंध
पुन्यपटन बस सुविसाल, टाइ ठाइ बहु पुन्य कोजे । देव पुज गुरू को बिनो, सामाइक पोसो करीजे ।
मन इन्दी तिहां निरोष कोजे, राजे छह विधि प्रोष । वाहिज भितर तप करें, सघ साघ ध्योहार सुणीजे ॥३३४।।
दोहा- श्रावक मुनि बहुचितवं महामंत्र नवकार ।
व्यंब पतिष्ठा जिन भवन, खरचे द्रव्य अपार ।।३३।।
श्रावक जात का बहु कहा, जेता बृत्त विधांन । अतिचार बिना कर, मन राख सुष ध्यान ॥३३६|
जिनवाणी प्रगट फर, कथा जे महापुरांन । सप्त तत्व नवपद कह्मा, सुनो भव्य दे कान ।।३३७।।
दिन प्रति पुन्य कर घणों, होई पाप को नास । परजा सर्व सुखी रहै, पुन्य नगर को बास ॥३३८।।
मिथ्या द्रष्टी पांच जे, सिंहां न सुणीजे नाम । घल दुहाई जिनतणी, देस नगर गढ ग्राम ॥३३६॥
थोडा विणज घणो नफो, प्रावक बहु संतोष । मन में सोई चित, जिहें थे पाजे मोल ॥३४।।
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परमहंस चौपई पुन्य नगर सोभा वणी, राजा ति हाँ विधेक । संक में माने काहु की, वस्त भंडार भनेक ||३४१॥
भने डंभ मुनि मोहजी, देस तुम्हारे बात । द्रव्य परायो लहजे, कर दिसास सुघात ॥३४२।।
बेटी बेच र द्रव्य ले, सब छत्तीसों पौंन । लोभ सरव परजा करे, चित न राख जान ।।३४३।।
कुछ कपट चाल घणों, घर न कर संताप । प्रसुघ किराणां बिणजजे, जिह थे उपज पाप ।।३४४।।
संसो सोग विजोग बहू, परजा कर पुकार । मारत रुद्र सदा रहै, न लहै सुख लगार ||३४५।।
पाप नगर में जे बसै, ते ता सर्प समान दम वात सगली कही, मोह सुनो दे कान ।।३४६।।
चौपई-- राजा मोष्ठ सुम्पो विरतंत, राब विवेक तणी सह बात ।
कह विवेक सुनो सहु कोई, मोह हमारो वरी होई ।।३४७।।
हम तो मोह कोम दुख दीयों, सिंह को वर्णन जाई न कह्यो। सुहे पांच मिलि कीयो विचार, जिह थे होई भलो व्योहार ।।३४८||
पांच भणे विवेकजी, सुनो जं कारज सारो भापनो । जिनवर पास बेग तुम जाहु, संजम स्त्री सु कोज्यो ब्याहु ।।३४६ ।।
मुनिवर पद लह महा सुचंग, जिथे वडा महल उत्तग । पा, मोह सु माडो राड, लूटदेस सहु करो उजाइ ॥३५०।।
मन राजा पिता वस कोरयो, सुभ ध्यान हीबडा में धरो। मदन मोह ईम मारो राई, काची ब्याधि टुटी सब जाई ।।३५१।।
समा विवेक पली इह बात, हम तुम मु भास पिरतांत । भलो होई तिम करो नरेस, तुम सुख लही इस महु देस ॥३५२।।
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महानि नह रावत
कहै डंभ सुन मोह विचार, सुने घियक तनो परवार । राय विवेक भयो वैराग, मुक्त तनो मुख जाप्यो मार्ग ।। ३५३ ।
राती समति तास गुरवंत, अग्घ सिंघासन सोमै संत । चडी कंवर सोभै वराग, दूजो संजम मोडे भाग ।।३५४।।
लोभ तीजो कंवर विचार, बाल मित्र प्रानंद अपार । मंत्री करणां पुत्री तास, दूगि मुलित्ता बहुत विकास ।।३५५।।
बडो सुभट समिकत परधान, सव ही सभा चतुराई जान । तिह का सेवग प्रति बलव ४, पसम विनवं सरल प्रचड ।।३५६।।
द्वादस नप संतोष समान, मन्यां सौभै अति असमांन । छत्र वयो गुरू को उपदेश, सति सिंघासन तासु नरेस ।।३५७।।
सिद्धि वुधि सुदर अनिनार, सोभ चंवर लावण हार । सील सनाह भागम प्रयोहार, क्रीया कपाल, अन्न कोठार ।:३५८।।
सप्त तत्व शुभ राज विभूति, पालं चतुर बिहु दिसि हुँती। राज करें विवेक मोवाल, मुख मैं जात न जाने काल ।।३५६।।
पही विवेक विभूति विचार, डंभ कहै मोह सुनिहार । सालि मोह इंभ की वात, विसमै भयो पसीनो गात ।।३६७।।
राजा मोह कोपर कहै, मुझ प्रागे विवेक किम रहै । तिहं मैं बन सिंध सु ईछा फिरं, तिह वनगज कसें संचरं ॥३६१।। जैले सूर कर प्रगास, तारा तनो नही तिहा बास । मोह तनो बरी जो होई, जीवत फिरती न सुणी कोई ।।३६२।।
मोह महा जिह कोहसाल, तिहुँ को पायो थेगो काल । मुझ सम लीब नही कोई जान, तीन लोक फिरि मोह ांन ।।३६३।।
बहु सेन्यां ले उपर चल्यो, जीवत विवेक सत्रु पाकष्डो । मकरधुज सुनि ठाढो भयो, देख्यो पिता हमारो कीयो ॥३६४।।
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परमहंस चौपई
मान बांधि विवेक गुलाव, बहुस दीवस न खालू माम । सांभलि पुत्र मोह की धात, तिव ही बहुत उल्हास्यो गात ||३६६।।
मोह भने सुनि मदन कुमार, तेरो ठांम नहीं व्योहार । नींद भूष तिस जाई न सही, वय वालक तुम जुम तो नहीं ॥३६६॥
मदन कुमार पितासु कहै, मेरा बल को भेदन लई। बालक सप्प इसे सुफुरंत, तिह को खायो तषिन मरंत ॥३६७॥
बालक रवि तिहां उदो कराई, अधकार सह जाई पुलाई । ग्रण्टापर को होई जवाल, ते जानज्यो सिंघ को काल ॥३६॥
सांभलि बचन मोह मुख भयो, पुत्र हाय कर वोडी दयो । मदन' बचन तेरा परमान, सेन्या ले चालो असमान ।। ३६६॥
कटक एक ठोकरि तषिना, अजस दमामा वाजं घनां । मोह पिता का बंधा पाई, मदन विवेक जीतबा जाई ।।३७१।
x x x x x x x x अंतिम पाठ
मूनसघ जुग तारन हार, सरव गछ गरको प्राचार । सकल कीति मुनिवर गुनवंत, तास मां ही गुन लहो न अंत ।।६४१॥
तिह को अमन नाव अति नंग रतनकीरत मुनि गुणा अभंग । अनन्तकीति तास सिष्य जान, बोले मुख थे अमृत वान 11६४२।।
तास सिष्य जिन चरणालीन, ब्रह्म राइमल बुधि को हीन । भाय भेद तिहां थोडौ लाहो, परमहंस की चौपई कयौ ।.६४३।।
अषिको वोछो भान्यो भाव, तिह को पंडित करो पसाब । सदी हुई सन्यासा मणं, भव भव धर्म जिनेसुर सणं ॥६४४॥
सोलासै यत्तीस वर्षान, जेष्ट सांवली तेरसजांन । सोम वार सनीसर बार, ग्रह नक्षत्र योग सुभसार ॥६४५।।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
विमल लिए घर पाल रात भज सोमे बाडीनाग सुचंग, कूप बावडी निर्मल भंग
चहुं दिसी वन्या अधिक बाधार भस्या पटंबर मोहती हार । जिन चल्पाला बहुत उतंग, चंदबा लोरन धुजा सुचंग ||६४७ ।।
विसाल ।
।। ६३६ ।।
श्रावक लोक व उपरा उपरी बैरनं कास,
घतवंत पूजा करें जर्व अरिहंत । जिम यह मंदिर सुरग
निवास ||६४५||
·
राज करं राजा जगनाथ दान देत नवी से पंदरासे पैंतीस सार पारसनाह मंदिर विसतार
हाथ |
||६४६ ।।
खंडेलवाल छाबडा गोल, चाहई संगही बहु पुन्यवंत । दान पुण्य साला प्रतिसार खरचे द्रव्य बहुत अपार ॥६५०।।
श्रावक पुन्य उपाये धनो लाभ लौयो बहु मोतनो । जो लग सुर चन्द्रमा अंस, नादी विरक्षो चाहड यंस ॥। ६५१ ।।
जो सग भरती सुभ भाकास तो लग तीष्टो टोडो बास । राजा परजा तिष्टौ चंग, जिन सासन को धर्म अभंग ।। ६५२ ॥
इति श्री परमहंस चौपई ब्रह्म राइमल कृत संपूर्णं ।
सुमं भवतु कम्यांनमस्तु, पोथी ब्रह्मजी सीमसागर जी पठानांथं लिखन्त पिं दयाचन्द सारोला मध्य संवत् १८४४ वर्षे कार्तिक स्यांम तिथी सनीसरवारे मध्या वेलायां ।
६
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श्रीपाल रास रचना काल-सं. १६३०
भाषाढ शुक्ला १३ शनिवार रचना स्थान-रणथम्भौर दुर्ग (राज.)
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श्रीपाल रास
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श्रीपाल रास । रचना काल संवत् १६३० अषाढ़ शुक्ला १३ 1 पद्य संख्या २९८ । लेखन काल संवत् १८वीं शताब्दि । प्राप्ति स्थान-महावीर भवन; अयपुर ।
मंगलाचरग
हो स्वामी प्रणमौ प्रादि जिणंद, बंदी अजित दोइ प्रति घंग । संभो बंदी जूगनिस्यो, हो अभिनंदन का प्रपउ पाद । सुमति नमो स्वामी सुमति दे, हो पदमप्रभ प्रणमो बहु भाइ ।
रास भी सिरीपाल कौ।।१।।
हो काया मन बन नमो सुपास. चन्द्रप्रभ सब पुरवी पास । पुहपदंत प्रणमी सदा, हो नमो जुगनिस्यो सीतल देव । श्रीपास प्रणंमो सदा, हो बासुपूजि बंदी घर वीर :२।।
हो विमलनाथ प्रणमो करि माव, नमो प्रनमुसि भुवन राव 1 घरमनाथ जिन बंदिस्यौ, हो सांति नमत मनि होई विकास । युथं जिनेस्वर वैदियो, हो अरह नमल सह तूटै पाप ।।
रास भणौ ।।३।।
हो मल्लि नमो जगि त्रिभुवनसार, सुबत नमत होड भव पार । नमि प्रणमौ इकिसस, हो नेमिनाथ बंदी गिरनारि । पासणाह जिण वदिस्यां, हो नमो वीर उतरीउ भव पार ।।४।।
हो सारटमाता नमो मन लाइ, करि प्रकास मति त्रिभुवन माइ। कोही भह गुण बिस्तगै, हो सिद्धन व्रत कीनो सार । कोट कलेस सद गये, हो अनि पहुती भव पार ।।५।।
तिहण नव कोडि मुणित, प्रणमौ स्वामी करि प्राणंद । तिरिक्षण वंत जे ह्या, हो मनि जिन तारन नाव म्मान 1 काटि कम मिव पुरि गया, हो वचन जिनेसर करि परमान |1६11
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
हो देव शास्त्र गुरु बंबा भाइ, बुधि होइ तुम तनी पसा | कुमति कसे सन उपजी, हो मैना सुंदरी शुभ श्रीपाल । सिद्ध चक्र व सेवियो, हो कोडि गुणी करि पूज विसाय ||७||
हो जंबू दीप प्रतिकरं विकास, दीप असंख्या फिरिया पास लूण समदस्यों नेढीयो हो जोजन लाख वर्णो विस्तार | मेरू मधि प्रति सोभिता हो भोग भूमि गिरि नदी पार ||
राजा पहुपाल एवं उनका परिवार
हो दक्षण दिशा मेरू की जाणि, भग्य क्षेत्र अति नीकं दाणि । देश ग्राम पट्टण घणा, हो तिह में मालव देरा विशाल | उजेणो नग्री भली, राज करें राजा पुहपाल ||रास ||९||
होट्टतीया तस सुंदर माल सामोद्रिक गुण वणी विशाल । रुप अपरा सारिखी हो पुत्री दोइ तासु घरि जाणि । सुरदार जेही सही हो मँणासुंदरि शील मुजाणि ॥ रास ||१०||
हो एक दिन राजा गुहपाल, सुर सुंदरी घाली सोम विप्र ग्रागँ भने हो देव शास्त्र गुरू ल पछि पुराण भिध्यात का, हो जह थे पट् काया को
चटसाल ।
न भेद । रास ।। ११
हो तर्क शास्त्र पढिया बहु भाय पढत पढन व्याकरण जाय । समरित सहित बहु भण्या हो तहि ये होह जीव को घात । मत मिध्यात पदेश दे, हो जाएं नहीं जैनि की बात || रास।।१२।।
हो लडो मेणासुंदरि जाणि, देव शास्त्र गुरू रास्ते मान । समपर मुनि श्रागे भर्ण हो कर्म ग्राट तंशो प्रस्ताल | भाव भेद जाण्या सर्व, हो श्रास्रय क्रमं जीवन काल || रास ।। १३ । सुरसुंदरी से इच्छित वर के बारे में
पूछना
हो एक दिन राजा पुहपाल, सुर सुंदरी साज्यी बनवाल । देख विचार चित में, हो पुत्रीयों जये करि भाव । मन वांछित हमस्यौ कहो, हो सो तुमनं हु व्याहे राउ |रास | १॥
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सुरसुन्दरी का उत्तर
विवाह
श्रीपाल रास
हो सुदरि बोली सुणि तात, तुम्हस्यो कहुं चित्त की बात । नागछत्र पुर राजई, हो तिहस्यों मेरो करिजे व्याह । घणी बात कहणी नहीं, हो तहि उपरि मेरो बहु भाउ ।।स। १५८
हो सूणि राजा मोराउ बुलाइ, सुरसुंदरि तसु दोन्ही व्याहि । प्रस्व हस्ती बढ्न बाइ हो वस्त्र पटंबर बहु प्राभवं । दासी दास दा घणा हो, मणि माणिक जड्या सोवर्ण ॥ रास | १६ |
I
मैनासुन्दरी से इच्छित वर के लिये पूछना
हो एकै दिन मँणासुंदरि आठ द्रश्य ले
थाली भरी ।
जिणवर पूजण सा चली हो जिण गुरू मन जिणवाणी गुरुमुख सुणी, हो हरष नासु के श्रंगिन भाइ || राम । १७।०
मैनासुंदरी का उत्तर
श्राण्यो वरां पिताने राजा गंधोदक सुभ
देइ |
बंदि 1
२०३
हो फूलमाल गंधोदक लेई, लेहु पिता सुत श्रासिका हो लह ग्रासिका भगतियों हो मन वच काय बहुत मानादि ||रास ! १८ ॥
भाइ ।
हो लघु पुत्रस्य जप राउ, हौ व्याहौ वर जाको हो सुता बात कहि मन हरणी, हो मेणासुंदरी जंपं तात ।
वचन जुगता तुम्ह कला हो कर्म लिएको सो मिलिसी कंस ||रास | १६३८
हो सुभ अरू अशुभ कर्म के बंधि, घरि ले जाइ जीव ने कंधि ।
रावण हारो को नहीं हो पिला मात वर्ध फुल कन्या तहिनं वरे करें स्नेह जिम देहरू छ
सु माँ । |रास || २०१
हो जीव कर्म के भयो सुभाइ कर्म ग्रन्थ्यो चहुं गति जाइ । जीव सौ बल को नहीं ही जीव विचारै प्रपौ जाए । सकल विकलप सह तभी हो निर्जर कर्म मुकति पक्ष होह ||२१||
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
हो मनस्थित घर बेस्या लेइ, ते सुख महा नरक पद देई । कुल कम्पा इछ नहीं, हो सुभ प्ररु असुभ कर्म के भाइ ।
या जिसो तिसो लुण, हो ति कालि तसा फल खाइ ॥रासा२२॥ पिता का क्रोधित होना तथा अपनी इच्छानुसार विवाह करने का निश्चय करना
हो होए कोप करि सुबरि तात, पुत्री हो राली मेरी बात । देखो कर्म किसो फलो, हो गलल कोढ़ होइ जाको अंग । मैणा सुधरि व्याहिस्यो, ही कम सुता को देखों रंग ॥रासा२३॥
हो राजा मन में मती उपाइ, ऐक विनि वन फोड़ा जाइ । सिरीपाल तहि देखियो, हो रक्षक अंग सातसै साथ। कोढ़ प्रहारा पुरिया, हो तुरंग बाल का पीछी हाथि ।। रास॥२४॥
हो बहरी व्यौंची कोड कुजाति, खसरी कंडू ते यह भांति । सोइल पथरी बोदरी, हो बडी बाउ जहि बैसे माफ । कोद मसूरि उजारिग जे, हो बैंहै गलं जिम काक ||२||
हो कोढ उदंबर सेत सरीर. दार कोड प्रति दुःख गहीर । खुसन्यौ बाल रहै महाँ, भो चोदी कोढ़ उपजे माल । गलत कोढ़ अंगुलि घुवं, हो निकल हाड उपी खाल ।।२६।।
हो इहि विधि कोढ़ रह्या भरपूरि, कोढी एक बहाव तूर । एक संख धुनि उच्चर, हो बावै इक सोगी असमान । एक वाथै को करी, हो एक देह घरगू को तास ।।राप्त।२७॥ हो कोही एक छत्र सिरिताणि, कोढी गाइ न विद बखाणि । इक न कीव कोढी घला, हो लाठी करि ले कोढी रक। मार मार घुनि उन्नर, हो कर न नीच कहूं को संक ॥२८॥ हो इस विधि कोही वह विकराल, बेसर दिउ राज सिरिपाल । प्रावत राना देखयो, हो मन माह अति करे विचार । पुत्री इहर्न व्याहिस्मो हो, देखो कर्म तणो व्योहार ।।२६।।
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थोपाल रास
हो त श्रीस्थी बोल्यो रास, इहते देह राहरपन हाउ । वर सुदरि प्राइयो, हो बन माहै छ भानो सराइ । मंत्री कहिए सुभरस्यो, हो डेरौ तासु में प्राइ ॥३०॥
हो राज बचन सुणि मंत्री गयो, सिरीपालस्यौ तिहि बीनयो । विनी भगति भासोणे घणो, हो देइ उतारी मंत्री जाष्ट्र । राजास्यो बोनसी कर. हो असौ बुझती होइन राइ ॥३१।
हो कहूं फह्यो रावल में जाइ, हो भयो सोक अति नाज न खाइ । राजा की प्रति सहु गइ, हो कोडी ने किम सुंदरि बैई। अपजस जग में विस्तर, हो अंसा कर्म न नीच करै ।।३।।
हो भणे मंत्री पुणि राउ विचार, काग गरी किम सौभ हार । यात प्रगती तुम करो. हो कहां मंगासुदरि सुकमाल ।। कहां कोढीवर तुम्ह जोडयो, हो रानुचंद्र पढ़तर नोवाल :।३३।।
हो मुण्या बचन अप पहपाल राज विभूति भली सिरोपाल । राजा के घोडा घणा, हो इहर्फ बेसर गदहा प्रावि ।
राजा के सेवक घणा, हो कोढी के भला सात सै साथि ।।३४।। श्रीपाल के साय विवाह
हो लगन महरत वेगि लिखाइ, बेदी मंडप सोभा लाइ । वस्त्र पटंबर तारिणया, हो वर कन्या ने तेल चहोडि । सोल सिंगार जु सानिया, हो बैशा बेदी नंमल जोति ॥३२॥
हो बाभण भणे वेब झणकार, कामिणो गावं गीत सुचार। भाट भणे बिडवावलो. हो र कन्या देखे नप सप । मनि पछिलाश बहु कर, हो मैं पापी अति करी विरूप ।। ३६।।
हो असा कर्म नीच नवि कर, हो देख रुप छिप प्राप्त भएँ । चोसे कर्म बिटबना हो, फर्म राम राजण करि छार । हरि हर ब्रह्म विबिया, हो कर्म किया करों सिंघार ।।३७॥
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
योग मेरी
बीनकर्मी ।
2
पंडि गहि भूरल करें. हो छती वस्त कौ करे विजोग दूरि व पंदा करं, हो ए सहकर्म तथा संयोग ||३८||
हो कोढी उपण कोण सुबेस, कहां उजेरणी भयो प्रवेस । कर्म जोग हमने मिस्यो, हो कोठी सुंदरि भयो विवाह ! समु सिमल जुडी मिलं, हो तिम इहु भयो फर्म को भाउ | 113
हो दीयो डाइनो अधिक सुधार, घोडा हस्ती कमक प्रवार । वासी दास दीया घणा, हो छत्र पालिकी बहुत जडाउ । नगरी बाहरि घर दीया हो सोरीवाल सुंदरि छ |||४०||
हो अंगरक्ष जेता या साथ दान मान दे जोड्या हाथ । जाती सह संतोषीया हो भइ नफंगे नाव निलाण विदा करी सौरीपाल को हो ले भायो सुंदरि निज यान ||रास | ४१ ॥
हो सुंदर बात करूं परिधर, सिरोपाल की सेवा करं । मन डोल राने सदा हो देव गुरू की भक्ति करें | मत मिथ्यात राज्य सबै हो धर्म कुधमं परीक्षा लेइ ||रास | ४२ ||
1
मैदा सुन्दरी द्वारा जिन पूजा करना
हो एक दिन पिय ने ले साथ गई जिणाले जगनाथ । देव शास्त्र गुरू बबिया, हो जिलवर चरणा पूज करंड आठ द्रश्य लीया मला, हो मन बच काया भाउ करे |रास | ४३ ॥
मुनिराज से कोढ दूर होने का उपाय पूछना
हो पाछे गुरु का पूज्या पाउ, हाथ जोडि गुरूस्थौ भणों, हो
को उदंबर उपन हो, करि उपगार जाड़ सह रोग । रास । ४४ ।।
मुनिराज का उत्तर
सिरीपाल ले बैठी भाइ । स्वामी कर्म कंन के जोग ।
पापणौ ।
हो मुनिवर भी सुंदरी सुखी जीव कर्म भुजे घावे जिसौ तीसौ लुगौ, हो जिनवर धर्म एक माधार । चहुं गति प्राणी बुडती हो, नाव समान उतारण पार ||रास | ४५ ।।
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श्रीपाल रास
हो धर्म सरावक जतो को सुरो, थावक धर्म सुगं सुख धणौ । जतो धर्म शिवगुरि लहै, हो पाठ मूल गुणस्यो समत । बारह व्रत अति निनला, हो ते पास करि सुधौ खित ॥४६॥
घोष अठारा रहित देष, गुरू निरगंय सुजाणोए । वाणी जिणमुख नीतरी हो एता को विद निश्ची फरें । सकलप विकलय सह समे, हो मत मिथ्यात सर्व परिहर ।।७।।
हो सुणी बात हरष्या भया, हो समकित सुब व्रत सह लया । धर्म जिणेसुर को सही, हो मैसा सुपरि जप सात । व्रत भलों उपदेस द्यो, हो जहिं थे होइ रोग की धात ||४||
हो मुनिवर बोले सुपी कुमारि, सिनुसक्र गरमो संसारि । सिद्धचक प्रत तुम्ह करौ, हो अाठ दिवस पूजो मनसाइ । पाठ द्वन्ध ले निर्मला, हो कोढ फलेस व्याधि सहुजाइ ।।४।।
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हो सुण्या वचन बत ले बहु भाइ, हो भयो हरष प्रति अगि न माई । मुनी वंवि धरि माइया, हो करे सनान लए भरि नीर । कक चंदन वाचना, हो पहरे महा पटवर वीर रास ५०|
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सिद्धचक्र की पूजा करना
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हो सिद्धचक्र थाली लिरिल जंग, वीजा अक्षर निर्मल मंत्र । पंचामृत रस आणीया, हो जिण चौवीस न्हावण कोइ । पाठ द्रव्य जिण पूजिया, हो भाउ भगति पुहपांजलि देइ ।।५।। हो सित प्राई फागुन दिन सार, सिद्धचक्र को रच्यो विचार । बावन कोठा मांडली, हो जिणवर बिब मेलि वह पाम । पाठ भेद पूमा करी, हो केसरि मध्म कपूर सुवास ।।१२।।
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हो आठौ दिवसि पूज प्रति रंग, चंदन पहप लगाए ग्रंग। अगरक्ष सिरीपालस्यो हो जिण गंधोदक सीनि सरीर । असि पाऊसा मंत्र जपि, हो ब्रह्मचर्य पालं यरवीर ||||
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
हो नवमी दीनि दस गुणौ विचार, जिण पूजा करि अधिक सुचार । मनोमि पहलै करी, हो दशमी दिनि सौ गुणों पसार । चंदन गंधोदक लया, दो देह सभट लावै प्रतिसार ॥५४॥
हो ग्यारसि दिनि सहस गुणी जाणि, जिणवर पूज पुण्य को खानि । अंदन अंग लगाइयो, ही दस सहम बारसि विस्तार । तेरसि लाख गुणी कही, हो पूजा कर रोग सह छार ।।५।।
हो पूजा लाख दस गुणी जाणा, घौदपि विनि पहल परमाणि । कोडि गुणी पुन्यो कही, पाठ दिवस वाजित्रा दान । नृषि कर बहु कामिनी हो, गावं जियगुण सरल साद ।।१६।।
कुष्ठ रोग का दूर होना
हो पाठ दिवस करि पूजा रली. गयो कोढ जिम अहि कंचुली । कामदेव काया भइ, हो अंगरक्ष राजा सिरीपाल । सिद्धचक्र पूजा करी, हो राग सोग नवि व्यापं काल ॥५७।।
हो देवशास्त्र गुरू करि वदना, सिरीपाल मुंदरि तक्षणा । साथि अंगरक्षक सातसं, हो करि पूजा माया निज थान । दुर्वल दुखीति पोषया, हो पात्र तिनि चहुं विधि दे दान ।।५।।
हो सुदरि बर राजा सिरोपाल, सुख मैं जासन जाणो काल । इंद्र जैम सुख मोग हो देव मास्त्र गुरू को प्रति भक्त । मत मिथ्यात न मरदहै, हो दुराचार विस्न सह तिस्त ।।५।।
हो सिद्धचक्र पूजा करि सार, द्वारापेषण दान प्रहार । पछं आप भोजन करे, हो पर कामिनी देख निज मात । सत्य वचन बोले सदा, हो सरस जीत को करे न धात ।। ६०॥
हो दब्य परायो लेइ न जाण, परिगह तणो कर परमाण । कर अणुव्रत भावना हो, गुणव्रत तीन्यौ पालै सार । माइक पोसौ करें, हो अतिथिभाग संझेखन चार ।।१।।
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श्रीपाल रास
हो इहि विधि काल गर्म दिन राति चौरासी लस जीवह जाति । मन वच काह क्षमा करें. हो जस बोलं मंदी जन षणा । धर्म कथा में दिन गर्म हो धीर चित्त राखे श्रापणी ॥ ६२ ॥ मरता से मिलन
हो पुत्र गए से कुं दामाद, आई सीरीपाल के टाइ 1 कोडभड माता मिल्यो, हो मेणासु दरि बंदे सासु । वस्त्र कनक दीन्हा घणा, हो मनि हरषी प्रति भयो विकास ।। ६३॥
हो भोजन भगत करी बहु भाई, बूझी बात सबै निरताइ । नम्र देव कुल पछिलो, हो सासू कहीं बहुस्यो वात सह सनयंत्र जुं पाटिली, हो सुण्यो सुंदरी हरस्यो मात ।। ६४ ।।
पुहपाल द्वारा श्रीपाल को देखना
हो एक दिन राजा बन गयो, सुंदरि सहित सुभट देखीयो । मन मैं चिन्ता उपनी हो कोण पुरषि हु पुत्री थान । बात जुगती प्रति मई, हो राजा के मनि भयो गुमान ।। ६५ ।।
हो राजा मुख बिलखो देखियो, अभिप्राय मंत्री लेखियो । ह.भ जोडिदित करें. हो स्वामी सुंदरि शील मुजाणि । पुरष जवाइ तुम्ह तो हो गयो कोढ पुण्य के प्रमाणि ।। ६६ ।।
हो सुणी बात मनि भयौ विकास, गयो वेग पुत्री के पास । उठि कोडिभड भेटियो हो सुंदरि आइ सात बंदियो । राजा पुत्रीयों भ, हो सुभ को उदो कर्म तुम दियो ॥६७॥
लेहि ।
हो भराउ सिरीपाल सुणहि ग्रामो राज उगी हम उपरि किरपा करो, हो कोडीभड जपे सुणि माम I राज भोगऊ भाषण हो, हमने नहीं राजस्यों काम ||६८ ||
हो राजा दीना वस्त्र जाउ, चिनी भगति करि निर्मल भाउ । पुत्री पुरिष सतोषीया हो, भयो हरण भति अंगिन माइ । कर्म सुप्ता को परखीयो हो वंक्षण गयो आपण ठार ||६९ ॥
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
हो तीया सहित राजा सिरीपाल, सुख में जातन जाणे काल । पर्व चारि पोसौ करे, हो जस बोल बंदी जन घणो । पिता नाउ कोइन ले, नाम लेह सब ससुरा तगी ॥७०।
हो सृण दुख पागै श्रीपाल, पिता नाम को भयौ प्रजान । माम ससुर के जाणिज्यो, हो धन कलस्यो नाही काम । पिता न्यास को ना सहै, हो नम उजेणी छोडो बास ॥७१॥
हो देखो विलख बदन सुन्दरी, भणे कंतस्थौ चिता भरी। स्वामि बात कही मन तणी, चिंता कवण बिलख मुख एहु । सहु सरीर दुर्बल भयो, हो कही बात जिम जाइ संदेहु ।।७२।।
है. मग पुनःनिगरि बाल, अष्टि चिंता वे दुर्बल गात । नग्र उजेणी थे चलों, हो रलदीप सुभ देखौं जाइ । द्रव्य प्राणिस्यो अति घणों, हो दान पुण्य स्लरची मन लाइ ।।७३11
हो मणासुदरि जंप कंत, तुम्ह धिणु इक क्षण रहै न चित्त । साथि लेइ हमने चलो, हो तक कोडीभई हसि उवरै ।। फल लागा राम ने, हो साथि सियान लियो फिरै ।।७४।।
हो मैणासुन्दरि जप कंत, स्वामी अवधि करौ परमाण । ते दिन हमस्यौ बीनज, हो भणं सुभट सुदरी सुजाणि । वरष बारह पाइयो, हो बचन हमारा निश्च जाणि ||७५३
हो सुदरि सोख देइ सुणि कंत, नाम राखि जे मनि अरहत । सत्य बचन परहंत का, हो गुरु बंदिज्यों महा निरगंथ । सिद्धचक्र व्रत सेविज्यों, हो संजम शील मालिज्यों पंच ॥७६।।
हो दुराचारि दासी कूढणी, मसवासी मिथ्या दृष्टिणी । बेस्या परकामिमि तजी, हो पुरुष परायो जो प्राचरं । सावधान रहिज्यौ सदा, हो भूलि विसास तासु मत कर ॥७॥
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श्रीपाल रास
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हो पणो कहा करिजे पालाप, उपजे बुद्धि सकीज्यो पाप । माता नै मत वसिरौ हो हमस्यौ स्नेह तजे मत कंत । धर्म जिणेसर समरिज्यो, हो दिन पूजा कीजी परहंत ॥७८।।
हो कोडीभड बोल्यो सुंदरी, माता की बहु सेवा करी । अगरक्ष जे सात सै, हो भोजन वस्त्र देइ बहु भाइ । विनी भक्ति को घणो, हो पूजा दान करो मन लाइ ।।७।।
हो माता धरण बंदि घरवीर, चल्यो दीप ने साहस धीर । मन माहे संका नहीं. हो तंधि देस वन गिरि नदि खाल । सागर तट्ट वाढौ भयो, हो भृगकछ पटण सुविसाल ३०॥
हो घवघ सेठित माश बाह, पोहण पूर्ति गरी राम्। रत्नदीप ने गम कीयो, दो पोत न चले कर्म के माइ। निमित ज्ञान मुनि बुझीयो, लक्षण सहित नर ठेल्या जाइ ।।१।।
हो सेटि भर्ण नर ल्याऊ जोइ, लक्षण अंगि बतीस जु होइ । अणिक पुत्र लेबा गया, हो कोटौभड दीठौं बरबीर । होए हरष उपनौ घणो, हो बोल्या धणिक सुणो हो धीर ।।२।।
हो घबल सेठि तहाँ वेगा चलो, सी में काम होइ सह भलो । रत्नदीप प्रोहण चल हो, सिरीपाल मन चित बात । रत्नदीप हम जाइयो, हो पायो वणिक पुत्र के साथ ।।३।।
हो देखि सेटि मन हरक्षो भयो, घस्न दान कंचन बह दीयो। कोडाभडस्यौं वोन, हो पोत समूह ठेलि करवीर । सेवा मांगी आपमी, हो तुम्ह प्रसादि उत्तरो जल तीर IIEI
हो भासं सुभट सेट्टि भिलो, सुभट सहस दस मको जीवलो। एतो हमनं देइज्यो, हो वणिक भणे मांगी निरताइ । बात पाजूगती तुम कहो, हो भूषं दइके दीन्हां जाइ ।।८।।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल हो भणे सुभट सेट्टि जी सुणी, कारिज सारी तुम्ह तणी । सेवा दीज्यो हम तणी, हो गाइ गल जे घटा होइ । मोल कर सब दूध को, हो एह बात जाणं महु कोई ।।८६ |
हो नाम पंच परमेट्टी लीया, कोठीभड़ प्रोहण ठेलिया । पाणि गगन नारा दल्या, हो लोड टोपरी सिरह पराइ । धीमर जतन कर घणो, हो न तु मेरंड पक्ष ले जाइ ||७||
जब प्रोहण या घेरो चल्या, लाल चोर पापी बिच मिल्या । लागा पाइ परोहण, हो घबल सेठि तब सन्मुख गयो । सुभट' लडाइ बहु करें, हो भागा फातर को नवि रह्यो ।।८।।
हो धवल सेठि रण जाइ न सको, चोरी सेहि बंधि करि लयो। सुमट लड़ाई हारीया, हो कोडीभडस्यौ करी पुकार । सेटि बंघि प्रोहण लया, हो वीर अबै कयौ करि उपगार ॥८६।।
हो लेइ घनष चल्यो सरीपाल, बाण वृष्टि बरस असराल । कोडीभड रणि प्रागलो, हो भागा कहां छुटिस्यो नीच । हो पाइ सही तुम्हारी मीच, रास भणी सिरीपाल को ||१०॥
हो वोरा बण रालि महु झाडि, सिरीपालस्यो माडी राडि । कोडीभह रण जीसियो, हो उपरो उपरी चोर बंधाइ । गोष्टि परोहण प्राणिया, हो जीत्या सत्र निसाण बजाइ ॥१॥
हो छोडा चोर बिनो बहु कीयो, दया भाउ करि भोजन दीयो । मन वच फाय क्षमा करी, हो हाथ जाठि बोल्या सह चोर तुम समान उत्सम नहीं हो हम पापी लोभी पण घोर ॥१२॥
हो सात परोहण लिहु बरवीर, मघि वस्त प्रति गहर गहीर । तुम थे सेवा चूक छो, हो बहुडि सेठिस्यो करि व्यापार । प्राप दिसावर की ला, हो उपरा उपरी स्नेह सुधार ॥६३||
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श्रीपाल रास
हो सीरीपाल बंद्यो बहु भाउ, पता चोर पापणं टाइ । रली रंग बिड हरि भया, हो सेट्ठि सुभट ने दीनो मान । बहु उपगार न बीसरो, हो हमने दीयौ जीउ को दान ॥६४||
हो वस्त्र कनक दीना करि भाउ, बोल्यो घवल बिनो करि साहु । धर्मपुत्र छो हम तणा, हो रोना सत्र करौ सत स्वर ।।६५|
दोहबा--कोटपाल बणिवर कह्यो, नाइ मुइ सुनाइ ।
एता मित्र जुनी फरी, जे होड सर्व संधार ॥९॥
हो बंधी धुजा बहुत विस्तारि, चल्या परोहण समदम झारि । कर्म जोग्य तट गहतियो, हो दीट्ठो रलदीप सुम तुगा । सहसकूट तहां सोभितो, हो ताफी महमा कही न जाइ ॥७॥
हो प्रोहण से उत्तरी सिरीपाल, गयो जहां जिग भवण विसाल । गुरू पं लीनी प्रानडी, हो देखौं जहां जिणेमुर थान । देव पूजि भोजन करो, हो मनुष्य जन्म को फल परमाण || E८||
हो सहमबूट सोमा बहु भांति बध्यो पीट चन्द्रमणि कान्ति । कनक यंभ चह दिसी दण्या, प्लो पचयणं मणि वेदी जरित 1 सिला सिंचासणि सोभितो, ही जाणि विधाता प्रापण घडि III
हो पदमाग मणि यादलगार, पाचि पना विचि विचि विस्तार | कनक कलस सिखरां ठयो, हो उनले घुमा अधिक प्राकाश । दीदी सोमा प्रति घणी, हो सिर्शपाल मनि भयो विकास ।।१०॥
हो ब्रज कपाट अड्या सुभ दी र, मघि भूमि जिण बित्र बट्ट । तक्षण करस्मो टे लीयो, हो प्रालि तूठि उडिउ द्वार । जिण प्रतिमा देली भली हो पुती मधि कीयो जै कार ॥१०॥
हो परदक्षणा दइ तिहु बार, गुण ग्राम पनि अधिक विधार । भाव भगति जिण बंदीया, हो करि स्नान पहने सुम चीर । जिग्ण चरण पूजा करी. हो झारी हाथ लइ भरि नीर ।।१२।।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
हो जल चंदन प्रक्षन सुभ माल, नेवज दीप धप भरी थाल । नालिकेर फल बहु लीया, हो पहुपांजलि रघि जोड्या हाथ । जिणवर गुण भास्या घणा, हो जैज स्वामी त्रिभुवन नाथ ।।१०३1।
हो जिणवर चरण पूजि बहुभाइ बंदि जिणेसुर बिड हरि जाइ । विद्याधर इक प्राइयो, हो सिरीपालम्यो जप ताम । हम उपरि किरपा करी, हो मन वांछित सह पूर्ण काम ॥१४॥
हो सिरीपास बुझ करि मान, कौम नाम तुम्ह कोण सुथान । कोण काजु हमस्यों कहो, हो विद्याधर बोल करि भाउ । विदितप्रभ मुझ नाम छ, हो रत्नदीप सुभ मेरी संत ॥१०५।।
हो रैणमजुमा पुत्री जाणि, गुण लावण्य पुण्य की सानि । देखि रूप मुनि बुझीयो, हो पुत्री को वर कही विचार । अवधि जाणि मुनि बोलियो, हो सहसकूट उचाई द्वार ।।१०।।
हो सो तुम सूता परणिसी प्राई, साच क्वन सह जाणी राइ । हम सेवक ईहा छोडियो, हो देखा तुम अति पुष्य निवास । जाइ बेगि हमस्यौँ कह,यो, हो पाए सुभट तुमारं पास ।।१०७।।
हो अब हम उपरि करह पसाउ, रंणमजूसा करो विवाह । मुनि का वचन भया सही, हो रचि सुभ मण्डप चौरी चार । वस्त्र पटंबर छाइया हो, कनक कलस मेल्हा चहू बार ||१०||
हो अंव पत्र की बंधी माल. हरिन बस रोपिया विसाल । कन्या पर सिंगारिया, हो चौवा चंदन तेल चहीडि । विप्र वेद धुनि उच्चर, हो तीया पुरिप बैट्ठा कर जोडि ||१०६
हो 'रणमंजूषा अरु सिरीपाल, बार सात फिरियो भोवाल । अग्नि विप्न साखी भयो, हो भया महोछा मंगलाकार । दे विद्याधर डाइजो, हो हस्ती घोडा कनक प्रापार ।।११०॥
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थोपाल रास
हो बाजा बरगू भेरि निसाण, सहनाइ झालरि प्रसमान । वर सुदरि ले चालियो हो, चारण बोल विद बखाण । रली रंग ते प्रति घणा, हो संक्षण गयो परोहण थान ।।११।।
हो घवल सेट्टि देखी सिरीपाल, साथि तीया सुभ जोवन बाल । मन में हरष भयो घणौं, हो बाणिक पुत्र सब भयो पानंद । बर कामिनी सोभा वणी हो जाणिकि सोभै रहणिचन्द ॥११२।।
हो विडहर महम भयो जैकार, सिरीपाल दीनो ज्योणार । तथा जुगति सन्तोषीया, हो कनके वस्त्र दीना बह दान । हाथ जोरि विनती करी हो धवल सेटि नै दीनो मान ।।११३।।
हो एक दिनि सिरीपारस हंसत, रेणमजूसा बुझे कंत । कोण देस थे ग्राइमा हो माता पिता कोण तुम द्वाम । कोण जाति स्वामी कहो, हो निच कोणा तुम्हारी नाम ॥११॥
हो मुणि कोडीमड करे. बखाण, मंगदेस चंपापुरि थान । सास सिधरथ राजइ, हो कुदापड तसु तीया सुजाणि । तास पुत्र सिरोपाल हों, हो वचन हमारा जाणि प्रमाणि ।।११५॥
हो भउ मिघरथ राजा तात, राज लीयो तसु नहुई भ्रात । बालपण हम काडिया, हो निस्यो कोड कर्म के भाइ । देस माम छाड्या घणा, हो ना उजेणी पहुता प्राइ ।।११।।
हो प्रजापाल राजा ति यानि, मणासुन्दरि मृता सुजाणि । राजा सा हमको दह, हो भयो विवाह कर्म सजोय । सिद्धचक्र पूजा करी, हो तासु पुण्य भागौ सङ्घ रोग ।।११७।।
हो हमस्यौ कहै बान गोपाल, राज जवाइ इहु सिरीपाल । नाम पिता को को न लेहो, मेरा मन में उपज्यो सोग । कामणि सेवक छाडिया, हो भृगुकछ पटणि सेटि संजोग ॥११८|
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
हो पाए इहां सेढि के साथ, सहस कूट दीट्ठी जिणनाथ । पिता तुम्हारो पाइयो, हो हम तुम्ह भयो विवाह संयोग । कहीं बात सहु पाछिली, हो सुभ अरु अशुभ कर्म को जोग ।।११।। हो रैणामंजूसा सी बहु बात, हरस्या चित्र विकास्वा गात । कंत तणी सेवा कर, हो नृति गीत गाने अति रंग । मन माह भरतार को, हो छार्ड नहीं एक क्षण संग ॥१२॥ हो मोहण पूरि वस्त बहु लेइ, धवलसेटिठ घर न चलाई । साथि परोहण पंस, हो देवे रणमजुसा रंग । धवल सेठ्ठि मन चित, हो इहि कामिनीस्यों की मंग ।।११।। हो रणमंजूसा सेगे कंत, घवल सेलि अति पीसे दस । नोंद मुरब तिरषा गई, हो मंत्री जोग्य कही सह बात । सदरिस्यौ मेलौ करो, हो कहीं मरी कगै अपघात ।।१२२।।
हो सुणी बात मंत्री दे सीख, पंव लोक मैं थारी लीक । धेसी मनि मत चितन, हो कीचक गौ द्रोपदी मंग । एह कथा जगि जाणिजे, हो भीमराय तस कीमो भंग ।।१२३।।
मक तणा दुख भोगने, हो जो नर शील न पाले सार । हरत परत दून्यो गम, हो मरे प्रवटी मुन्ड गवार १२४।। हो रावण गयो सिया परसंग, लरथमणि तासु कीयो सिर भंग ।
हो घरम पृत थारो सिर्गपाल, परतषि माया उपरि काल । तासु घरणि किम सेविस्यौ, हो पुत्र घणि पुत्री सम जाणि । परकाििण माता गम, हो भवियण ते पहचं निरवाणि ।।१२।। हो दिन प्रति कलह करावत जाइ, नारद सीधी सील सुभाव । कम तोडि शिवपुरि गयो, हो सीता राखो दिद कर सील । पग्नि कुड पाणी भया, हो भविजण सोल म करिज्यो दोल ।।१२६|| है सेटिड मुणो मंत्री की बात, पायो दुःख पसीज्यो मात । हाथ जोच्चि यिनती कर, हो लाख टका पहली त्यो गेक । सरि हम मेलौ करो. हो जाय हमारा मन को सोक । १२७॥
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श्रीपाल रास
हो मंत्री भयो लोभ को भाउ, सुत्रट मरण को रष्यों उपाउ । धीमर सहु समझाइयो, हो छल करि घीमर करें पुकार । चोर परोहण भइया, हो उछल मोटा मछ मपार ।। १२६ ।।
हो सुषि पुकार प्रति गहर गहीर, देखण लागो दह दिसा | हो पापी पापमा पारित प्रीणनी ।
हो पडिउ सुभट सागर में जाइ रास भणो सिरीपाल को ।। १२६॥
हो जे था प्रोहणि वणिक विसाल, सागर पडिउ देखि सिरीपाल । मन में दुःख पायो घण हो रैणमंजूसा करे पुकार । सिर कूट हीयो हर्णे, हो कहगी कोडी भड भरतार ॥ १३०॥
हो सुंदरी दुःख लागी बहु कर्ण, तज्या तंबोल प्रत श्राभरण | नेणा नीर भुरें घणो हो धवल सेट्ठि तब मंत्र उपाइ । क्षण पद्दठ कुटणी, हो रैणमंजुसास्यो कहि जाइ ।। १३१ । ।
हो गइ [ कूटणी सुंदरि पासि कहे कपट करि बात विसासि । सुता बात मेरी सुणी, हो मुवा साथि नवि भूषो कोई । जामण मरण अनादि को, हो को किसकी सभी न कोई ।। १३२ ।।
हो मन को छांडि सुंदरी सोग, घवल सेट्ठि मेलो तुम जोग । भोग भोगऊ मन तणा, हो मनुष्य जन्म संसारा ६ | वाजे पीजे बिलसीजे, हो ग्रवर जनम की कहीं न जाइ ।। १३३ ।।
हो सुणि सुंदरी कूटणि बात हो उपनो दुःख पसीनो गात | कोप करिबि सा चीनवी हो नत्र थे वेगि जाहि अब रोड । पाप बचन तें भासिया, हो इसा बोल थे होसी भांइ ॥। १३४ ।।
हो नख ये कुटणी द उठाई ग्राम सेट्टि सुदरी ट्टाइ । हाथ जोडि वीनती करें, हो हम उपरि करि दया पसाउ । काम अग्नि तनु बालीयो हो राख्यं बोल हमारो भाउ || १३||
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महकवि ब्रह्म रायमल्ल
हो मुणि बोली कोडी'भड नारि, पुत्र घरणि पुत्री जिसी हो । इह तो खर सूवर प्राचार, माता भगनि घिया ना गिणे । हो पापी करं संग व्योहार, हो राम भण सिरीपाल को ॥१३६।।
हो जहि के मात वहण प्रिय होइ, तिह काए परणात मन हो । तु सुहणा वर सारियो, हो देव धर्म कुल छोडी लाज । हल परत दूज्यों गया, हो सोचे नाहीं काज भकाज ११३७१॥
हो जहि नर नारी सीख सुभाउ, तास होइ सुर्गी ले छाउ । सुर नर पद पूजा करें, हो क्रौरति पसर तीन्यो लोक । मुकति तणा सुख भोगनी, हो पावागवण न व्यानै रोग ।।१३।।
हो जे नर नारि शोल कर होण, ते नर नरक दुःख करि खीण । ताती पुसली लोह की, हो ससुर देव तुमु कठि लगाइ । कुर वचन मुव थे कहै, हो पर कामिनि इह सेऊ पाह ।।१३६।।
हो पापी सेट्टि न माने बात. रणमंजूना को गहि हाथ । पाप करत साकै नहीं, हो माया तब जिण सासण देव । घवल सेटि दिठ बंधीयो, हो कोप करिवि बहु बोल्या एव ।।१४।।
हो ज्वालामालिणी देवी प्राइ, दीनी प्रोहण अग्नि लगाइ । रोहिणि प्रौधौ टंकियो, हो विष्टा मुख मै दीनी ठेलि । खात धमुका प्रति हणे, हो सांकल तौष गला में मेलि ।।१४१।।
हो वातकुमार जब तब पाइ, दीनो अधिको पवन चलाइ । जल कनोल वहु उछल, हो धक्केसरि प्रति कीनो कोप । प्रोहण फेरै चक्रायो, हो अंधकार करियो पारोप ॥१४२।।
हो अंचा तात छडकै तेलि, मूत नासिका दीनो ठुलि । छेदन भेदन दुःख सहै, हो मणिभद्र भायो तिह ठाई । मार मार मुखि उच्चरं, हो घपल सेट्ठि मुखि लाइ ॥१४||
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श्रीपाल रास
हो देखि सेट्टि कंपिबि सह लोग, हो गाली देह जप तमु जोग । पापी प्रजुति ते करा, समुदि प्राणि बोल्यो सह साथ । सुदरि चरणा ढोक घो, हो धीनति करि बहु जोडो हाथ ।।१४४॥
हो धवल सेट्ठि तब जोड्या हाथ, क्षमा करो हम उपरि मात । हम अपराच कीयो घणों, हो प्रोहण में जे वणिक कुमार । चरण बंदि विनती करो, हो माता तुम ये होड़ बार ||१५||
हो सुण्या बचन जे बाण्या..
कमा, रणमजूसा उपणी दया । कोप विषाद सबै तज्यो, को दीयो देवतो सुन्दरि मान । पूजा करि चरणा तणी, हो तक्षण गया पापणं थान ॥१४६॥
हो पडिज सुभट जो सभुद मझारि, कहाँ कथा सुभ बात विचारि । नमोकार मनि समरीयो, हो उपहरी उच्चाल्यो बरवीर । नमसकार मुख थे कहे, हो सागर मुजह तिरं अत्ति धीर ।।१४७।।
हो जिण को माम वर्ष प्रतिसार, जिण के नाम तिरं भवपार । सिंघ सर्प पीई नहीं, हो जिण के नाम जाइ सह रोग । सूल सफोदर शाकिनी, हो पाच सूर्ग तणा बहु भाग ।।१४।।
हो मिण के नाइ अग्नि होइ नीर, बिण के नाई होइ विसखीर । सत्र मित्र होइन परण, हो गूज नाहि भूत पिमाघ । राज चोर पीई नहीं, हो जिणि के नाम सासुतो वाउ ।। १४६।।
हो जिम के नाइ होइ धरि रिद्धि, जिष्य के नाम काज सह सिद्धि । सुर नर सहु सेवा करे, हो मागर प्रति गहीर है पाई ।। परबत बांबी सारिखो, हो जिण के नाम होइ सुभ लाइ ।।१५१।।
हो जिन के नाम पाप थे छूटिय, खोटा बेडी सकुल सूटि । सर्प माल होइ परणवं, हो मजन लोग कर सह काणि । जिण के नाम गुणां चढ़, हो जिण के नाम + में को होइ हाणि ॥१५२॥
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
हो सिरीपाल जिणवर समदेव, नीर भुजह बलि पाछो दे । संक भ मान चित में, हो सुभट जाई सागर में चल्यो । काठ एक पान पडिड, हो जाणिक मित्र पूर्विलो मिल्यौ ।।१५३॥
हो पौड काठ बेष्टो बरबीर, जस कलोल उचलं महीर । पंच परम गुरु मुद्धि कहै, हो मगरमछ बहु फिर समीप । खाई न सके ही सुभट नै, हो कर्म जोग इक दीमो दीप ॥१५४।।
हो पुण्य बंध प्रति साहस घोर, कम जोगि पाइ जलतीर । उतरि समुद्र टाढी भयो, हो राजा सेवक राक्षा तीर । कोडीभड तहि देखीयो, हो जलधि मुजह बलि उतरीउ धीर ॥१५॥
हो सिरीपाल का बंद्या पाच, भयो हरष प्रति मंगि न माह । विनो भगति गाढी करी, त्यांह स्यो सुभट भग दे मान । साच वचन हमस्यौ कहो, हो स ण कोण पुरयान !।१५।।
हो वोल्या किंकर सुगि सिरीपाल, दलवणपटण सुविसाल । सोभा इंद्रपुरी जिसी, हो राज कर राजा घनपाम । गुनमाल तसु कामिनी, हो कंठ सुकंठ पुत्र सकमाल ॥१५॥
हो गुणमाला इक पुत्री जाणि, गुण लावण्य रूप को खानि । राजा मुनिवर बुझीयो, हो स्वामी गुणमाला भरतार । निमिती कहि कोण तणी, हो जिन मन को सह जाइ विकार ।।१५८।।
हो मुनिवर भणं अवधि को जाण, तिर समुद्द मावं तुम थान । नाम तास सिरीपाल कहै, हो गुणमाला सो परणं माइ । कोडी भड पुणि ही मिली, हो इही कादसो भुकतिहि जाइ ॥१५६।।
हो राजा सृणि मुनि का भाषीया, हम तो समद तीर राखीया । फर्म जोग तुम आइया, हो दरसण भयो तुम्हारी पाजु । समुद्द मुषह बलि परीयो, हो मन वांछित सह पूगे काज ।।१६।।
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भोपाल रास
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हो कहि सनबंध राउ प गयो, नमस्कार करि तहि धीनयो । स्वामी सो नर प्राइयो, हो समुह भुअह बल उत्तरि पार । मुनि का वचन भया सही, हो आणड बेगि मलाउताहि ॥१६१।।
हो भयो दृश्ष घनपाल, गयो सामुही जहाँ सिरीपाल । ननउ छाडिउ जुगतिस्यों, हे भेरि न फेरी नाद निसाण । साहण सेना साखती, हो चारण बोले विडद बखाण ॥१६॥
हो भेटिड कंठ लगाइ नरिंद, हो वह राउ मनि भयो आनंद । कुसल दिनौ बुभ षणी, हो उपरा उपरि दीनी मान । कोडीभड कुंजर घढिउ, हो गया बेगि दलपट्टण थान ॥१६३।।
हो लीयो राइ जोतिगी खुलाइ, कन्या केरी लगन लिखाइ । मंडप बेदी सुभ रची हो मंच पत्र को बंधी माल । कनक कलस चहूं दिसि वण्या, हो छाए निर्मल बस्थ विसाल ।।१६।।
हो गावं गीत तिया करि कोड, बस्त्र पटेबर बंध्ये मोड । फल माल मोमा घणी, हो चोदा चंदन वास पहोडि । बेदी विप्र बुलाइयो, हो वर कन्या बंटवा कर जोति ॥१६॥
हो भांबरि सात फिरिउ चहुँ वाखि, भयो विवाह मग्नि दे साखि । राजा दीनौ डाइजो, हो कन्या हस्ति कनक के काण । देस ग्राम दीना घणा, हो विनती करि दीनी बहुमान ।।१६६॥
हो दिनती करि जंपे धनपाल, मेरो बचन मानि सिरीपाल । राब हमारी भोगऊ, हो कोडीभउ बोल मुणि माम । राजा तुमारो भोगऊ. हो हमने नहीं राजस्यो काम ॥१६७।।
हो चिनो करि जपं नरनाथ, सबै भंडार सुम्हारे हाथ । दान पुण्य पूजा करो, हो सुसर बचन मान्यो सिरोपाल । तिमा सहित सुल भोगवं, हो सुख में जास न जायं काल ।।१६८॥
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
हो कर्म जोग के दिन गया, धवल सेठि मोहण माविया । जलधि तीर तह थिति करी, हो लइ भेट बहु राजा जोग । वस्त्र कनक हीरा लया, हो सेठि सहित खिडहर का लोग ||१६॥
हो पढ़ता जहां राउ धनपाल, प्राग मेल्हि भेट भरि थाल । राजा चरण जुहारिया, हो दोनी राह धणेरौ मान । कुसल क्षेम बुझी सके, हो बैट्ठा सेट्ठि सभा के धान ।।१७।।
हो तब जप राजा धनपाल, भेटि उठाइ ले हु सरीपाल । घवल सेठि संबोल यो, हो सुभट तंबोल दे सुर भार । बणिक जके प्रोहण तणा, हो बक्ल मेट्रि देखें निरताइ ।।१७१॥
मोमेट्रिक तणो पति कसम्मोहीमो, पिरोलमाग में दीयो। इह थानक किम माइयो, हो विदा लेह थानकि चालिया । उपरा उपरी बीनवं, हो इहु तो सिरीपाल प्राविया ।।१७२॥
हो पुरूष एक रावल महिलो, बूझ सहु वितांत पाश्चिलो । सिरीपाल इहु कोण छ, हो राजा सेवक बोल्यो कोछ । सागर तिरि इह प्राधियो, हो राजा तणो जवाइ होइ ।।१३।
हो बात सुणत मन मैं कोपिया, तक्षण प्रोहण थानक गया। वणिकपुत्र चंठा मत, हो अब कोई चिंतक ऊपाइ । मरण होइ सिरीपाल को, हो काची व्याधि दुटि सह जाइ ।।१७४।।
हो मन मै मतो सेटुिऊ ट्राणियो, म एक क्षण प्राणिया । राज सभा सुम गम करो, हो नाचहु गावहु पिंगस छद । भगल सांग कोज्यौ घणा, हो राजा के मान होइ आनंद ।।१७।।
हो राजा सुमन दान करेइ, सिरीपाल नै दुऊ देह । तक प्रपंच तुम उद्विणीच्यो, हो सिरीपालस्यो करि ज्यो संग । बहत सगाई काहिष्यो, हो लास दाम देस्यो तुम जोग ॥१७॥
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श्रीपाल रास
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सो सेटि वचन सुणि हरसर भया, राजा सभा डूम सा गया । असर मांगमो सउर्फ, हो गाने गाये गीर हु : स्वांग मनोहर प्रति कर, हो विद्या मयल कर सिर चंग ।।१७७।।
हो राजा देखि बहुत हरिपीयो, सिसेपाल में दुक दीयो । धुम जोग दान द्यो, हो सिरीपाल दान बुलाइ । डुमा पाखंड मोडियो, हो रहा सुभट नै कठि लगाइ ।।१८।।
हो एक ड्रमही उट्ठी रोई, मेरी सगी भत्तौजी होइ । एक डूमबी बीनब, हो इह मेरी पुत्री भरतार । बहुत दिवस थे पाइयो, हो कामि तजि किम गयो यार ॥१७॥
हो एक डुमड़ी कर पुकार, पुष दोइ जाया इक बार । शालि पोसि मोटा किया, हो करी लडाइ भोजन जोग । समुद माझ लहुन पडिज, हो लाघो प्रावें कर्म के जोय ॥1॥
हो छूम एक बोल बिसंत, इहु मेरी मागजी कंत । बहुत दिवस मिलिबो भयो, हो एक डूमठी भणे रिसाद । सिरीपाल प्रावह मिली, हो मेरी बहण पुत्र तु प्राहि ॥१८॥
हो एक डुमडी तोझ गाल, छोडि कहाँ भागा सिरीपाल । बालपणे मुझ दुख दीयो, हो परणी नारिन छोडे कोह । बात प्रजुगती ते करी, हो पर न जीच तो छोडौ तोहि ।।१२।।
हो सुणि रारा डूम को शत, उपनी दुख पसीनो गात । कोटपाल सेथी भणी, हो सिरीपाल ने सूसी देहू । बात अजुगती बहु करी, हो बंधी बेगि वस्त्र सह मेहु ॥१५३॥
हो कोटपाल सुणि राजा बात, बंधि सुभष्ट के मुको लात । सूत्री जोन चलाइयो, हो गुणमाला तब लाधी सार । स्दन कर मस्तक घुणे. हो तंभन रास्या सह सिंगार ॥१४॥
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
हो यह बेगि थी जहां भरतार हो कंत कंत कहिके पुकार । चरण बंदि बीनती करें हो स्वामी कहो कोण विरतांत । जहि कारण तुम बीया, हो कोण दोप थे तेरी घात ।। १६५॥
हो फोडीभर बोलं सुणि नारि, जीव कर्म मिथत संसारि । पाप पुण्य लागा फिरें, हो जैसो कर्म उ होइ बाइ | जीव बहुत लालच करें, हो नहि तं तहां धि ले जाई ।। १८६०
हो गुणमाला जप सुणि कंत, दोर्स सुभट महा बलवंत गोत जाति कहि प्राणी, हो बोल्या सुभट जूम हम जात । मरु जाति कैसी कहीं, हो राजा के पति अपनी भ्रांति ।।१८७।।
हो तव गुणमाला करें बखाण, कही जाति के नजो पराण । संत्री भाजं मन तण, कोडीभड जंप तुणि नारि । संसी बारी भांनिमी. हो तीया एक प्रोम मारि ।। १६८ ।।
हो वचन सुपत तहां गइ गुणमाल, रंणमजूता मोहनि वाल । नमसकार करि बीन, हां सखी मोकली हो सिरीयल | जाति गोत तहि की कहो, हो सागर तिरि आयो सुकुमान ||१= ६०
हो रैणमंजूसा जंप भखी, सिरीपाल के दुखि हुं दुखी । सिरीपाल की कामिनी, हो चलहु वेगि जहां के राज संसो भान मन तणी, हो मनवंछित सह पूर्ग काज ।। १६० ।।
I
हो गई दुत्रं घौ जहां नरनाथ, नमस्कार करि जोड्या हाथ । रैणमंजूसा बीनवं, हो सिरीपाल को गोत उत्तग राउ सित्ररथ पुत्र यो हो अंग देस चंपापुर
F
लग ।। १६१ ।।
नाम वखणि 1
हो रत्नदीप विद्याघर जाणि विदितप्रभ तसु इंद्र जेम सुख भोगवे, हो रैणमंजूमा लिहू की घीया । सिरीपाल हो व्याहि दो, हो कंचन रत्न |इजी टीमा ।।१६२३९
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श्रीपाल रास
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हो करि बिषाहर्षि ल्याइयो, धवल सेट्टि परन पनियो । रूप हमारो देखियो, हो पापी सेट्टि रफयो भनि कूज । सिरीपाल जलि रालियो, हो कामी सेठि बिकल मति मूढ ॥१९३| हो सह विरतांत पाछिला काहया, सेदि जके प्रपंच ठालिया । बात विचारो चित्त में, हो सहू सनमंघ पाछिलो सुन्यो । मनि पछितावा बहु कर, हो जाणिकि भयो वन को हपो IIII हो तक्षण गयो राउ धनपाल, करि उछाह पाण्यो सिरीपाल । गोवलि गूढी उछली, हो नयज छाडिउ घुजा विसाल ।
दुर्य तिया मन हरषि भई, हो रेणमंजूसा प्ररू सुणमाल ||१६|| राजा द्वारा श्रीपाल से क्षमा याचना करना
हो राजा क्रोध मान सह छोट, सिरीपाल मागे कर जोसि । द्वाही रहि विनती कर, हो क्षमा करो हमस्यो घरधीर ।। हम पापी जाणो नहीं, हो तुम कुलवंत सुभद बरवीर ॥१६॥
हो सुणि जंप कोडीभड जाण, राजा विकल बिवेक प्रयान । हीए बात सोची नही, हो कही हुम किम सागर तिर । राजा पुत्री क्युबरै, हो मुनि का वचन प्रतीति न कर ॥१७॥ हो रणमंजसा हरष न भाइ, सिरीपाल का बंधा पाह । राज लोक में गम कोयो, हो राण्या कीयो बहुत सम्मान । भोजन दीनी भगति स्यो, हो वस्त्र जड़ाउ पटंबर दान ||१t-It
घचल सेठ को बन्दी बनाना
हो राजा किंकर पठया घणा, भाणी इंघि घवल सेठि तक्षणा । चंधि सेठि ले प्राइया, हो मारत राजन संका करें । भूस दीयो बहु नासिका, हो प्रधिो मुख पग ऊंचा करै ॥२६॥
है भणे सुभट सुणि राजा बात, मेरो सेठि धर्म को तात । हम उपरि किरपा करो, हो छोडतु सेट्टि दया करि भार । बाथै जिसो लुणे, हो राखौ बाल हमारी राउ ॥२०।।
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महाशि रुझ रायगड हो वचन सुणत बांण्या छोडियो, मिरीपाल सहु लेखो लीयो । am wifi fon, i her.. - En को । : म तपो राखो नहीं, हो धर्म नीति भारग व्यवहार ॥२०॥
हो 'प्रोहण जेता सहु कुमार, सिरीपान दीनी ज्यु णार । भोजन भगति करी घणी. हो वस्त्र तंबोल दीया बहु भाइ । हाथ जोडि विनती करै हो मेरी क्षमा बचन मन फाय ।।२०२।।
घवल सेठ का मरण
हो सुभट बिनौ ज़ब दीठी घणी, जाणि धिगस्त जन्म आपणो । हीमो फाटि वाण्यो मुस्रो, हो परधन परतीय इंछे कोपू । नरक दुःस्त्र देखे घणा, हो केवलि कह्यो सुणहु सह कोइ ।।२०३।।
हो सत्यकोष परघन के संग, गयो द्रव्य मार भयो भुजंग । नरग तणा दुख भोगया, हो रावण परतीय मांडोग्रा । नरक तीसर उपनो, हो सब कुटूब को भयो विणास ॥२०४॥
हो कीचक कीयो द्रोपदी संग, भीमराइ झीयो ससु भंग । ब्रह्म विटंबि तिलोतमा, हो कोढणि राव जसोघर मारि । नीत कुबडौ सेवीयो, हो पा की सरकि कन नै मारि ।।२०५।।
हो बहुत जके नर नारी भया, परघन परकामिनी थे गया । पट दरसन में सहु कहै, हो जे नर परधन परतिम तिक्त । सगं मुक्त सुख भोगवे, हो सुर नर विद्या घटत सुभक्त ॥२०६।।
हो रणमंजूसा स्यो गुणमाल, हो महासुख भू सिरीपाल । काल जात जाणे नहीं, हो तो लग दूल प्राइयो । कोडीभड तह वंदियो, हो कुकुण देस नाम सुभ कसा ॥२०७।।
हे राजा तहां बसै असरासि, दुर्जन दुष्टि न दोसे पासि । जस माला तसु कामिनी, हो पुत्री पाठ महा सुकुपाल 1 इच्छा पुरै मन तणी हो तासु जोग परणं सिरोपाल |॥२०॥
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श्रीपाल राम
२२।
हो चालहु वेगि न खावह वार, हस्ती पैसि होइ असवार । राजा निमित्ति बुझीयो, हो दलवटण राजा धनपाल । सुपुत्रि जो परणिसी, हो ए पुत्री परण सिरीपाल ॥२०६।।
श्रीपाल का कुकरण देश को गमन
हो सध्या बचन मनि हरषो भयो, कूकण देमि वेगि मो गयो । राजा सन्मुख भाइयो, हो बरगू नाद निसाणा घाउ । नग्र मक्त सोभा की, हे भेट घरह ल पहगत । २००।।
प्राठों कन्यानों द्वारा समस्या रखना एवं श्रीपाल द्वारा उनको पूर्ति करना
हो माठौं काया साही भाइ, ममस्या जुदी जुदी महि कही। सुभग गोरि बोली बडो, हो कोडीपड सुणि मेरी बुधि । तीन पदा प्राग कहो, हो साहस जहां तहां ही सिद्धि ॥२११।।
हो सुण्या बचन बोल वरवीर, सुण कुमारि चित्त करि धीर । सस सरीर हस्यौ रहो, सर्द कम तसी ही बुधि । उदिम तउ न छोडि जे, हो साहस जहां तहा ही निद्धि ।।२१२।।
हो गौरि सिंगार भणे मुणि भव, मयो सर्व पेखतां मश्च । कोडिभड सुणि बोलियो, हा मुणहु कुमरि मन राखो हाइ । तीनि पदा आमै कहाँ हो मन पारा को संसो जाइ ।।२१३१
हो दान पूजनवि पर उपगार, भोग पभाग न भुज्या पार । मे में करतां जनम गो, हो इहि विरोध क्रिमण सघो दन्छ । जून राज पसवणो, हो गया तासु पंखेना सम्व ॥२१४.।
हो पोलोमी भाम्बियो गढि. तेग कमी मियाप्त सुमिठ्ठ । सुणि कोडी भड होलियो, हो पोलो भी कान ६ मुग्यो । तीनि पदा भामे कहो, हो जाइ सम्व संसं मन तण ।।२१।।
हो देव शास्त्र गुरू लहयो न भेन, अहि ये होइ कम को छेद । मत मिध्यास जु सरदह, हो समक्ति सझो नहीं उतक्टि। अन धर्म रस ना पियो, हो तिह नरतो मिथ्यात सुमिट्ट ।।२१६॥
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
हो रणा देवी भणे मबीह, ते नर तो पंचाइण सीह । सुणि कोठीभर वोलियो, हो शील बिहणा लेह मलोह । जे चारिता निर्मला, ते नर तो पंचाइण सीह ।।२१७।। हो सोमा देवी कहै विचार, कोघ धर्म जग तारण हार । सुपि कोढीमड बोलियो, हो ग्यारह प्रतिमा प्रावक सार । तेरह विषि पत मुनि तणा, हो कुण धम्म जगि तारण हार ॥२१।।
हो संपद बालो वचन सुभाg, सो सी तिरता बिg । सिरीपाल उत्तर दीयो, हो दीप भवाइ मध्य पटु । बुरी पराइ ना कहै हो सो नर तौज विरला दट्टि ॥२१६।। हो चंद्र लेख सुभ षण भणेह, सो नर तो तिह काई करे । सुभट फेरि उत्तर दीयो, हो वरष इक्यासी को नर होइ । चौद बरष कन्या बरं, सौ मर तो तहि कोइ करे ।।२२०॥
हो बोलो पदमा देषि सुभग, एता कारण कहं न लग । सुणि कोडीभड घोलियो, हो कायर लीयो हाय खडग 1 दुहगी जोबन सूक सर, एतौ कारण कहूं न लग ।।२२१॥
पाठ कन्याओं का श्रीपाल के साथ विवाह
हो सिरीपास जब उत्तर दीयो, पाठी का मन हरण्यो भयो । राजा लगन लिखाइयो, हो वेदी मंडप बहुत उछाह । विप्न अग्नि साखी दीया, हो कोडीभड को भयो विवाह ।।२२२।।
हो आठ सहस परणी सिरीपाल, तहि को कौण कर बगजाल । घोडा हस्ती को गिण, हो सेव कर ठाडा भो बाल । इन्द्र जेम सुख भोगवं, हो सुख में जातम जाण काल ॥२२३।।
हो एक दिवस चित सिरीपाल, सुख में बार बरस गो काल । मणासुदरि बीसरिउ, हो दुख करिसी कुदापहु माइ । सु'दरि संजम लेइसी, हो तजौं प्रमाद मिली अब जाइ ।।२२४।।
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श्रीपाल रास
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हो पाठ सहस राणी ली साथ, पाठ सहस सेवे नरनाथ । प्रसू हस्ती रथ पालिकी, हो भेरि नाद निसाणां घाउ ।
प्रा विचि 'अ, दो बड़ती ना लेगी दार !!२२५।। मैनासुवरी को चिन्ता
हो सुदरि बात सासुस्यो कही, बारा बरस अवधि को गई। कोडीभड़ नवि पाइयो, हो इह बाइ प्राजि की राति । बिकलप सकसम सहु तजो, हो निश्च दोध्या ल्यौ परभात्ति ।।२२६।। हो कु'दापहज सुणि बहु. नन प्राइ देबिउ छ कह । कोण कर्म धावै उदै, हो दिन इस चित घोर करि राखि । धीर सह कारिज सरै, हो पुत्री मेरो कह्यो न नासि । २२७॥
हो सेना सइ छाडी तहि टाइ, हो गयो सुभट जह कुदा माछ । माता सेथी चीनयो, हो माता वेगो खोलो द्वारि । सिरीपाल हो पाइयो, हो दांडहु सहु मन तणा विकार ॥२२८।।
मनास दरी से मिलन
हो सुण्या वचन जब सासू बहु, मन का वंछित पूगा सह । देगि कपादि उधाडिया, हो सिरीपाल घर भितरि पाइ। चरण मात का ढोकिया, हो भयो हरष प्रति अंगि न माइ ।।२२।।
है मणासुदरी बंद्यो कंत, सासु पासि बैट्ठी विहसंत । फुसल स्नेह बुझी सबै, हो जप सुभट पाछिली बात । जसी विधि संपति लही, ते तो कह्यो सबै विरतांत ।।२३०॥
हो मणासुदरि कुदा माइ, संक्षण ल्यायो सेना टाइ । राज लोक में ले गयो, हो पाठ सप्हस थी जे बर नारि । सासु तणा पद बंदिया, हो चस्त्र जडाउ भेट भो धारि ।।२३।।
हो पर्छ बंदि मणासुदरी, वस्त्र प्रनेक भेट ले धरी । भक्ति विनो कीना घो, हो कनक हस्ति रथ तिया के काग । माता जोग्य दिखालियां, हो दूर देस की बस्त निधान ||१३२॥
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२३०
महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
हो क्षमा तप मन हरपो भगे, सुभ साता तहि तुम न दियो । सिरीपाल स्यौं विनवे, हो पुष पुण्य थे सुरगति होइ । किति इक राज विभूतिया, हो मुक्ति धर्म थे पहुंचे लोई ।।२३३।।
सम्यकत्व की महिमा
हो समकित के बल सुर घरणेद, समकित कंबल उपजे इंद्र । चक्रवति बल भोगवं, हो समकित केवल उपजे रिधि ! जीव सदा सुख भोगवं, हो समिकित बलि मरवारथ सिद्धि ।।२३।। हो समकित सुध ब्रत पालेइ, ताको मुकति तिया परणेइ । सुरपति किंकर सारिखा, हो दोष पठारा रहित सु देव । सति वचन जिनवर तणा, हो गुर निरगंथ सु जाणी एक ॥२३५।।
हो समिकिन सहित पुत्र तुम प्राथि, इह विभूति पाई तुम मायि । घणी अचंभी को नही, हो सुण्या वचन माता का सार । मन मैं सुख पायो घणो, हो नमसकार करि बारंबार ।।२३६।।
उज्जयिनो के राजा द्वारा श्रीपाल को पराधीनता स्वीकार करना
हो पठयो दुत सूसर के पासि, छोष्ठि उजेणी जीव ले न्हासि । वेगि भाइ चरणा पडी, हो तल बेट्टणी कंवल बंधि। तिण पूलो दातां गहो, हो पाउ धालि कुहाडी कधि ।। १३७॥
हो सुभ बचन सुणि चाल्यो दूत, पंहतो राजा पामि तुरतु । नमसकार करि बोलियो, हो बंध कूहाडी कबल प्रोति । वेगि बालि सेवा करो, हो के तू भाजि उजेणी छोडि ॥२३८।।
हो वचन सुण्या राजा पर जल्यो, जाणिकि वैसादर धित ढल्यो । अहंकार मरि बोलियो, हो स्वामी तेरो कोण गुटेक । बड़ी बात मुख थे कहे, हो मुझको पतक्षो जाइ क्षण क ।।२३६।।
हो दूत राउस्यो विनती कर, इसौ के गर्व मत हियैह घर । प्रहंकार नीको नहीं. हो अहंकार थे रावण गयो । लखमण राम निपातियो, हो लंका राज भभीषण दियो ।।२४०।।
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श्रीपाल रास
जुरासिथ अति करतो मान, नाराण तमु हाल्यो घाण । प्रहंकार की नहीं, हो भरण गर्व अति करतो पणो । चक्रवति पद भोगवे, हो बाहोलि मान्यो तिहि तणौ ।।२४१।। दो मंत्री कहे पर द. पडका मोभी हो देश । बली सहित जोडी किसो, दलबल दीस अधिक अपार | मानो वचन बसीह को हो, हो सीस ही नन संघार ।।२४२॥ हो सुण्या बचन मंत्री का राइ. दान भान दे दूत बुलाई। बोसीगडस्यो बीनिक, हो मान्यो पचन तुम्हारो कलो । सेक साथि हि दीयो, हो संक्षण सिरीपाल पे गयो ।२४॥ हो भेट सुभट के प्राग धरी, नगरीपति की विनती करी । गपन तुमारा मानिया, हो सेवक बचन सुणत सुख भयो । बहुडि तासु उत्तर दियो, हो कुजर चहि मिलिबा पाविज्यो ।।२४४।। हो तक्षण जाइ स्वामित्यो कह्या, सुण्या वचन तब बहु सुख लह्यो । अंरापति चदि चालियो, हो मिल्या दुर्व मनि भयो प्रानंद । दुवै एक गज वैट्ठिया, हो जिम माकास सुर सुमपन्द ।।२४।। हो वाजा बाजि निसाणा घाउ, पद्भुत दुवं नन में राउ । घरि घरि बघावणो, हो नति कर बहु जोवन बाल । सजन लोग अनंदियो, हो भाली भई प्रापी सिरीपाल ॥२४६।।
हो अंगरक्ष पहलासं सात, दान मान बुझो कुसलात । वस्त्र कनक दीना पणा, हो मदन सुदरी कुदा माइ । मणि माणिक्य दीना घणा, अगणित वस्त्र सुकहीन जाइ ।।२४७।।
हो जथा जोगि नमी को लोग, वस्त्र जडाउदी बह भोग । सह मन में हरसा भया, हो करि ज्योणार सदेह तकौल । 'विनो भगति करि बोलियो, हो पान सुपारी कूक रोल ॥२४॥
हो सुख मैं कितउक बोतं काल, ममम भूमि समरो सिरीयल । सुसर तमो दुवो लायो, हो छोड़ा हस्तो परे पलान । रप वैवि राणी चलो, हो मगणि बोले विष खाए ॥२४६।।
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२३२
महाकवि ब्रह्म रायमल्ल श्रीपाल का चम्पापुरी पहुंचना
हो पा सहस नुप सेवा कर, दुर्जन कोड धीर न करें। गगन सूर सूझ नही, हो बाजे नाव मिसागा पाउ । कानि पडिउ सुरिण जे नहीं, हो सम्पापुरी पहुं तो राज ॥२५०।।
हो काको वीररमम तह रहे, दुर्जन को तप देखिन सके । भाट बसीट्ठ जु मोकल्यो, हो जाइकहो पायो सिरीपाल । बाल पण तुम काठियो, हो पाठ सहस सेवे भोवाल ॥२५॥
हो छोडि नम्र सेवा करि प्राउ, पाम बोदट्ठा हो खाउ । राजरोति सह परहरी, हो कोई ना न सेवा करें । तो हमने दूसरण नहीं, निश्च जौरा मुखि संचर ॥२५२।।
हो सुणी बात गौ भाट बसोट्ठ, राज सभा प्रति सुंदर दोठ । कर ऊचर करि बोलियो हो पाई बंसि भया मोबाल । बान विउव अखाणिया, हो पार्छ कह्यो राउ सिरोपाल ।।२५३।।
हो बात सुणत ननि कसक्यो साल, कहिर माट कोण सिरोपाल । यसिंह मार को नहीं, हो भणे भाट तुम मुणों नरेस । बालपणो तुम कादियो, हो पायो फिरि बहलो परदेस ।।२५४।।
हो तो लग चोह जु चोरी कर, सो लग धनी नाइ संचर । जीवत मास्त्री को गिल, हो अब राब को छोडो भाउ । चलहु बेगि सेवा करो, हो खेत घी का हरि हाउ ॥२५॥
हो वीरवमन बोलै सुरिंग भार, ते कायो हो दोहो जाट । मुख संभालि बोलो नहीं, हो धरणी आपणास्यों कहि जाइ । राति बेगि तू भाजि जे, के रण संग्राम करौ बढि पाइ ।।२५६॥
हो भादि मानियो रण संग्राम, प्रायो कोडोभा के ठाम । यात पाछिली सह कहो, हो सिडा बाजिया निसारण । सुर किरण सी महीं, हो सकी खेह सागो असमान ।।२५७॥
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श्रीपास राम
२३३
हो घोड़ा भूमि खण खुरताल, हो माणिकि उसटिउ मेघ पकाल | रय हस्ती बहु साखती, हो भनु पक्ष को सेना चली। सुभट संजोग संभालिया, हो मणी दुई राजा को मिली ॥२५८।।
है बसि मतं बोल परधान, सेना होइ निर्चसी घाप । इह तो बात वर्ण नहीं, हो राजा दुवै करिसी जुध ।
जो जीते सो हम धणी, हो विणसै सगली बात विरुद्ध ।।२५६।। श्रीपाल एवं वीरदमन के बीच युद्ध
हो बात विचारी मुस्यो फही, हा दहूं भूपती मानिांव लाइ। दुवै सुभट जोडौ करं, हो बहुविधि जुद्ध मल्ल को भयो । सिरिपाल रणि मागलो, हो वीर दमन तक्षिण बंधियो ।।२६॥
हो करि जुहार सेवक महु प्राइ, लियो राज चंपापुरि लाई । वीर दमस तव छोडियो, हो उत्तम क्षमा करी कर जोडि । पूजि पिता इहु राजल्यो, हो बध सह धूक हमारी खोडि ॥२६॥
हो वीर दमन जपे तजि मान, पुण्यवंत तुम गुणह निधाम । राष भोग मुजी घणी, हो हमसौ लेस्या संजम भार । राज विभूति न सामुतो, ही सो बीज तणो चमकार ||२६
हो उत्तम क्षमा सबन स्यौ करी, वीर दमन जिन दीक्षा धरी। बारह विधि तप बहु करें, हो तेरह विधि पाल चारित्त । दस विधि धर्म गुणा चढिउ, हो तिण सोनी सम नाठयो वित्त ।।२६३।।
हो कर राज राजा श्रीपाल, सुख मै जासन आण काम । इन्द्र जेम सुख भोगवं, हो चोर चघाई न राखै नाम । धावक प्रत पाल सदा, हो गाई सिंध पात्र इक ठाम ।।२६४।।
हो सभा थान बैठो सिरीपाल, माली मेल्हि कूल की माल : नस्या घरण विनती करी, हो स्वामी थारं पुण्य प्रभाइ । श्रुत सागर मुनि पाइयो, हो वन की सोभा कही न जाइ ॥२६५।।
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२३४
महाकवि ब्रह्म रायमल्ल धुतसागर मुनि द्वारा श्रीपाल के पर्व जन्म का वर्णन
हो मुणी बात मन हरषो भयो, दान मान माली ने दियो । मुनिवर बंदन चालियों, हो राज लोक चाल्मो सह साथ । ब९ आउंबरि बन गयो, हो नया चरण दे मस्तिक हाथ ॥२६६।।
हो धर्मवृद्धि मुनि दीनी भार, जहि थे पाप सर्व क्षो जाइ । हूँ विधि धर्म पयासियो, हो श्रावक धर्मसर्ग सुख देइ । जती धर्म शिवपुरि लहै हो बहुडि न पावागमण करेह ।।२६७।।
हो हाथि जोडि जप तमि मान, स्वामी तुहे अवधि के जाण । कहौ भवतिर पाछिला, हो राज प्रष्टि कणि पापहि भयो । कोड उदेवर नीकम्पो, हो प्रवल सेट्ठि सागर मै दीयो 1।२६।।
हो कोण पाप थे ड्रम जु फह्यो, पाछ राज पिता को लह्यो । गागर हिरिलु , हो म जारि गाउ । कोढ कलंक सबै गयो, हो ते सह बात कहो मुनिराउ ॥२६६।।
हो सुणी बात अतसागर भणे, सावधान होइ राज सुणं । कहीं भवांतर पछिला, हो भरत क्षेत्र विद्याधर सेणि । रत्नसंचपुर सोभितो, हो बस राउ श्रीकांत सुतेरिण ॥२७०।।
हो पर तोया ताफ श्रीमती, दान पुण्य व्रत सोभै सतौ । जनधर्म निश्चौ करं, हो राजा विकल विर्ष रस लूछ । धर्म भेद जाण नहीं, हो सुखस्यो काल गर्म पिय मूघ ।।२७१।।
हो राउ एक बिनि बम मैं गयो, गुप्ति समधि मुनि देखोयो । भाव भगति करि बंदियो, हो बिधि धर्म सूपयो करि भाउ । बन लोया नायक तणा, हो ,दि मुनि धरि पहुतौ राउ ।।२७२।।
हो बहुत विनस बत पालि प्रभंग, मिथ्या त्यांफो कोयो संग । भ्रष्ट भयो व्रत छाडिया, हो राज भ्रष्ट तिहि पापिहि भयो । मुनियर राल्यो ताल मैं, हो तेरिण पापि सामर मैं पियो ॥२७३।।
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श्रीपाल रास
हो कोटी मुनिवर सेथी कहारे, तासु पाव थे कोढी भयो । मुनिवर जल थे काठियो हो नहि समुद्र पैरि नोकल्यो । नीच नीच मुनिस्यों को हो सहि थे ड्रमा मा मिल्यो ॥ २७४ ॥ ।
हो सेवक हूता सातसे साथ, कोढी त्यह भारयौ भुमि नाथ | अगरक्ष ए सात सं, हो पायें जिसो तिसा फल खाइ मन में प्रारति मत करो, हो अंतकाल तेसो गति जाइ ।।२७५॥
हो श्रीमती सुरगी कल की बात, पाय दुख पसीनों गात । कालो मुख भरतार की हो पालि व्रत कापी करि भंग । अती जोग्य बाधा करो, हो मिथ्या तार्क पडियों संग ।।२७६॥
हो कहूं कहो राजास्यो जाई, राणी श्रपान नवि लाई । तुम मरचार सर्व सुब्या तंक्षण राज तियापं जाइ । निया करि बहु प्रापणी, हो नाहक मुनी विराध्या जा६ ।। २७७ ।।
हो फरि दिलासा राणी तशी दंड लेख संक्षण जिन मंदिर गया, हो देव शास्त्र गुरु बंधा पाठ द्रव्य पूजा करी, हो मुनिवर पासि बईठ्ठा
चाल्या मुनि भणी ।
माझ |
६ ।। २७६ ।।
जति नाय ।
हो बोले राज जोडिया हाथ, बिनती एक सु हम थे चूक पढौ चरणी, हो आवक व्रत को कोनों भंग | मुनिवर ने बाधा करी हो भयो पाप मिध्याती संग ||२७||
हो हाँ पापी भति होलो भयो, पाप पुण्य को सेवन लह्यौ । विकल वर्ण व्रत छांडिया हो यहि व्रत थे सहु हार्स पाप । तो व्रत सुभ उपवेसि जे, हो मेरा मन को जाइ संताप ||२०||
हो सुमि भर्ण सुणि राउ विचार, सिद्ध पत्र व्रत त्रिभुवणि सार । पूर्व पाप सहू को करें, हो कालिंग फागुण सुभ प्राषाष्ट । ग्रा विवस पूजा कर, हो भने जिणेसुर मुख को पाठ || २५१||
२३५
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२३६
महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
हो रागो सह राजा व्रत लियो, अतीयार रहित व्रत कियो ।
मत मिष्यात सर्व तभ्यो, हो मरण काल लीयो सन्यास । । सजिया प्रारा समाधिस्पो, हो सुरपति स्वर्ग ग्यारहवं वास ॥२२॥
हरे से सन्यास श्रीमती मुई. पंत इंद्र इन्द्राको भइ । इंद्र पाउ सर भोगद, हो सुभरणा मत हृषि भयो । कुवाप सुन प्रवतरिउ. हो इह सिरोपाल राउतू भयो ।।२८३11
हो श्रीमती राणी फिरी बह काल, मैणा नगरि भई विसाल । इंद्राणी पद भोगयो, हो राजा एक भयांतर लागि । पाप पुण्य ब्योरी कहो. हो स्नेह र पूर्विल प्रमाणि ।।२४।।
हो सुग्यौ भवांतर हरयो भयो, नमसकार करि धरने गयो । सुखस्यो काल गर्भ सबा, हो वेव सास्त्र गुरू पूजा करें । समायका पोसो धरै, हो वचन जिणेसुर हिय धरै ॥२८५।।
श्रीपाल का वराग्य होना
हो सुखस्यो कित तक बीतौ काल, वन श्रीडा चान्यो सिरीपाल । राज लोक सह साधि ले, हो हस्ती कोच गल्यो देखियो । मन मैं संका उपनी, हो जन्म हमारी नाहक गयो ॥२८६।।
हो त्यो नहीं विर्ष रस रुद, कामिणी मीच गल्यो मतिमूठ । मदिरा मोह विटंगियो, हो मे मे फर झाला पडत । सह्या नहीं सुख सासुता, हो फिरिउ मूड बहुगति मै पडिउ ॥२८७।।
हो दीस जम्यो संपदा रासि, ते साहु दिल मोह को पासि । जीवन छूट मापुडी, हो कोइ घय चिति जे उपाउ । बंधरण तूट कम का, हो ले तप भाज प्रातम भाउ ॥२८॥
हो परिगह भार पुत्र नै दियो, क्षण जाइ मुनि बंदियो । हाथ जोडि विनती करं, हो स्वामी रक्षा करहु पसाउ | जीव सासुप्ता सुख लहै, हो पा प्रणाम सदा तुम भाउ ॥२८६।।
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श्रीपाल रास
२३७
हो प्रदाईस मूस गुणासार, सन परिगह को कोयो निवार । भेष दिगम्बर धारियो, हो मणासुदरि तजि घर भार । वत लीया प्रजिका तथा, हो जाण्यो सबै पथिर संसार ।। २६०।।
हो सिरिपाल मुनि तप करि घोर, लोर्ड कर्म धातिमा घोर । निमल केबल रानी, जो ज्ञान को कुर
: पूजा करि चरण तणी, हो संक्षण गयो पापणं ठाइ ॥२६१।।
हो त ज्या मुनी चौदा गुणबाण, भयो सिट पहतो निर्वाण । सुख संवे प्रति सासुता, हो जामण मरण नही जुरा बाल । रोग विजोगन संघर, हो जोति सरूप न ग्याप काल ॥२६२।।
हो मणासुदरि तप करि मुई, दसमै स सुरपति भई । लिंग कामिणी छेदियो, हो अवह जके मुनि प्रजिका भया । गहि जैसी तय कियो, हो तहि तहि तैसा सुख पाविया ||२६||
अन्य प्रशस्ति
हो मूलसंध मुनि प्रगटी जाणि, कीरति अनंत सील की खानि । तास तणो सिष्य जाणिज्यो, हो ब्रह्म रायमल्ल दिढकरि चित्त । भाउ भेद जान नहीं, हो तहि दीठो सिरीपाल चरित्र २६४||
हो सोलह तीसौ सुभ वर्ष, हो मास प्रसाद भण्यौ करि हर्ष । तिथि तेरमि सित सोभनी, हो अनुराधा नक्षत्र सुभ सार । कर्ण जोग दीसे भला, हो सोभनवार शनिश्चर बार ॥२६५।।
हो रणथ समर सोभ कविलास, मरीया नीर ताल पहुं पास । माग बिहरि बाडी धणी, हो धन कण संपति तणो निधान । साहि अकबर राज हो, सोभै घणा जिणेसुर थान ॥२६६ ।।
हो श्रावक लोग बसे धनवंत, पूजा कर जयं प्ररहत । दान चारि सुभ सक्रतिस्यौ, हो श्रावक व्रत पाल मन लाइ । पोसा सामाइक सदा, हो मत मिथ्यात न लगता जा २६७।।
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२३८
महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
हो इसे अधिक छितवे छंद, कविपण तासु प्रति मंद | पद अक्षर की सुधि नही हो जैसी मति दोनो श्रीकास । पंडित कोइ मति इसी तैसी मति कोनो परगास ॥२६५॥
रास भणी सिरोपाल को 11
इति श्रीपाल रास समाप्त
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प्रद्युम्न रास रचनाकाल संवत १६२८
भादवा सुदी २ बुधवार रचनास्थान-इरसोरगढ़
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प्रद्युम्न रास
मंगलाचरण
हो तीर्थकर बंद्यो जगिनाहो, हो जिह समिरण मनि होई उमा हो । हूषा प्रवछ होइस्यजी, हो त्याह को मान रह्यो भरि पूरे । गुण छियल मोभ भला जी, हो दोष अट्ठारह कीया दूरे ।।
रास मणो परदवणको जो ॥१॥
हो दुजा जी पणउ जिण की वाणी, हो तोन्यौ जी लोक नणी थिति जानी मरिख थे पंडित कर जी, हो मत मिथ्यात कीयो तहि दरे। हादसांग गुण प्रति भला जी, हो प्रल्या बचन जहि रल्या दूरे ॥२२॥
हो तीजाजी पणउ गुरू निरंगयो, हो भूला जी भाव दिखावण पंथो । तिहऊण नव कोडि छ जी, हो भजण तारण नाव समानो । तिरिययंता जे कह्मा जी, हो जिणवर वाणी कर बखाण ॥३॥
हो देव साहब गुरू वंद्या भाए, हो भूलोजी ग्राखर प्रणो हाय । कामदेव गुण विस्तरो जी, हो हो मूरख प्रति अपन प्रयाण । भाव भेद जागौ नही जी, हो घोडी जी बुधि किम करो बखाण ।।।
प्रारम्भ
हो क्षेत्र भरथ इह जंबु दीपो, हो नन द्वारिका समद समीयो । सा निरमापी देवता जी, हो जोजन बाराह के बिस्तारे । सोभा इंद्रपुरी जिसी जी, हो राज कर जादमा कुमार ॥५।। रास
हो पाहली जी राजी अधीक वृष्टि, हो जैन सरावक समिकित दृष्टि । इस कुमार धरि प्रति भली जी, हो सूता एक कुता सुकमाला 1 रूपि अपछरा सारिखी जी, हो पांडुराय सा परणी बाला ॥
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૨૪૨
महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
हो लहुडो जी पुत्र तासु बसुदेव, हो देव सास्त्र गुर जाणं सेऊ । रोहिणी देवी कामिणी जी, हो रूपकला अपलरा समानी । मिनन नियो को, ह
त्याना त्रिभुवन जापी 11७।।
हो नारायण बलिभद्रति पुत्रो, हो दुवै महाभउ दुवै मित्रो । पुरिष सलाका मै गिण्या जी, हो जैन धरम उपरि बहुभाउ ।
मन मिथ्पात न सरदह जी, हो दुर्गन दुष्ट न राखं द्वाऊ ||८|| नारद ऋषि का प्रागमन
हो एक दिन ते किस्न दिवाणो, हो नारद रिषि प्रायो तिह थाने । करी जादमा बंदनी जी, हो दीन्ही अधिक जामा मानो । हाथ जोडि ठाढा भया जी, हो कनक सिंघासन ऊची जी थानी 1१६।।
हो जादो कोल्या नारद स्वामी, हो तुम्ह तो जी छो प्राकासां गामी । 'दीप अढाई संचरी जी, हो पूर्व पछिम केवल जानी । चौथो काल सदा रहै जी,हो तह की हमस्यौ कहि ज्यो बातो ।।१।।
हो नारद खोल्यो जादौ राऊ, सुणो कथा करि निर्मल भाऊ । सुभ को संवो है सही जी, हो गूरब पछिम केवल जाणी। समोसरण बारा सभा जी, हो भवियण सुर्ण जिणेसुर वाणी ॥११॥
हो जहि भबि को मन पर्ट वियांस, वाणी सुणतां सासी नास । 'सभा लोग संतोषि जं जी, हो जती सराबग दह विधि धर्म । मागम प्रध्यातम कझा जी, हो कथा सुणत माज सहु भो ॥१२।।
हो सुणी जादमा नारद बातो, हो हरियो चित्त विकास्यो गातो। सभा लोग संतोषिया जी, हो नारद राज लोक में चाल्यो । सतिभामा धरि संचरी जी, हो गवंती तिहि दिस नहाल्यो ।॥१३॥
हो रिषि भास सति भामा राणी, हो करि सिंगार तु प्रति मरवाणी। गरब पहारी छ दई जी, हो देव गुरा की भगति न जाणी । मदि मोह सूझ नहीं जो, हो मूरिख प्रापो पाप बखाणे ||१४||
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सत्यभामा का उत्तर
प्रद्युम्न रास
हो देवि मर्ण मुनि तप लीजे, हो तप करि चारि कषायन कीजें | मान करत तप फल नही जी, हो मान विना जिणवरि तप भास्यो । तुम्ह सौ मान तजी नहीं जी, हो कहिने जो मुकति किमी परिजास्यौ । १५ ।
हो भ रिषिसुर देवि अभागी हो हमने जी सोख देण तु लागी । पाप धर्म जाणं नही जो, ही मुक्त ने जी मान दान सहु भा 1 सुर नर सह सेवा करें जी. हो सीनि लोक मुझ मे सह कर्प ||१६|
हो मुनिस्यो भणे नारायण धरणी, हो उपसम धर्म जती को करणी । सत्रु मित्र सम करि गिणे जी, सोनो तिनो बराबर जाणो । आणई छोउ भोजन करे जी हां सो मुनिवर पहुंचं निर्वाणि ॥ १७॥
हो सुणी बात नारद पर जलियो, हो जाणिकि त अग्निस्थों मिलियौं । मन में चिता अति करें जो हो भामा लेई समद में राली । कामिण हत्या थे डरो जी, हो के इह अग्नि मछि परिजाली ||१८ ॥
हो नारदि हियई बात वित्रारी, हो नाराइग आणी नारी । इहि थे रूपि जु भगली जो हो सोकि त दुखि धर्ण विरं । राति दिवस कुदि वो करं जी. हो बहुडि पराया मरमन नूरी || १
नारद ऋषि का प्रस्थान
२४३
हो बात विचार रिषीसुर चाल्यो, हो विद्याधर को देस निहाल् भामा सम का मिणी नही जी, हो मन में भयो प्रधिक अभिमानो | हियर्ड चिता बहु करें जी, हो तजी नींद यस पाणी छानो २०
हो भूमि गोचरी राजा ठामो, हो पटण देस नम्र गढ शमी । नारद परिथी सङ्घ फिरी जी, भायो चलि कुंडलपुर ठाए । दोडी सोमा नम्र को जी, हो राज करें तहा भीषम राए ||२१||
हो श्रीमती पटि तिया घरि सोहै, हो रूप कला सुर सुंदरि मोह | रूप पुत्र रूपहि भलो जो हो सुता रुत्रिमणी रूपि अपारो । सुगं प्रपचरा सारिखी जो हो, सो भीषम के परिवारे ।। २२ ।।
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२४४
महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
हो भीषम भगत सुमति हि पार्टी हो आयो जी मुनिवर भिक्षा काले । भोजन दीन्हे भगतियौ जी, हो तिहि औसार रुकमिणी पधारी । मुनिवर बंधो भाउम्यो, हो मुबाजी जोवन देखि कुमारी ||२३||
हो मुनिवर रूणि मुजा बुझे, हो स्वामी जी ज्ञान तीनि तुम्ह सू । कोण रूपिणी परणिसी जी, हो मुनिवर भ अवधि तहि जाणो । किन लोया याह होई सी जी, हो सोला सहस ऊपर पटराणी ॥२४॥
पोल्स्यो कहियो ।
हो बात कही तो रूपिणि वर हरि मुनि कह्यो जी, हो भषिम हंस बोल सुणि बाई । किस्न नीच घरि पोलियो जी, हो भव लग वाले माई चराई ||२५||
)
हो सोमलपुर सोभै सबिसालो, हो राजकरें भेषज भोवालो | मद्रीराणी तिहि त जी, हो तिहि के पुत्र भलो सिपालो । तीनि चखिस्यो जाइयों जो हो दुतिया जी चंद्र जिम बंधे कुमारो ||२६||
?
हो भेषज राजा मुनिवर बू, होसी जो ज्ञान तीनि सुसू । वर्ष तीज किम जाड़ सोजी, हो मुनिवर बात रावस्यो भागौ । ति के हाथि मरण सहजी हो हाथ छिवत चखि तीजी जासी ||२७||
हो मद्री के मनि उपनी संका, हो चाली जी पुत्र लीयो करि शंका ! बालक ने लीयो फिरं जी, हो आई जी चली द्वारिका |ए ।
हाथ लगामो किस्न की जी, हो तीजी नेत्र सो गयो पलाए ||२रार
हो हाढी सम जोड़े हाथों, हो पुत्र भीख दिह जादीनाथ । इसि नाराईण बोलियो जी, हो गुनहु एकसउ छोडी माती । बोल हमारी छे सही जी, हो पार्टी करी सहीस्यो धातो ॥२६॥
हो पुत्र लेई मंदी घरि आई हो तिने पुत्री दीन्हीं हो बाई । बोल हमारी किम चले जी, हो महाबली सो सिसपालो | रूपकला गुण चातुरी जी, हो दुर्जन दुष्ट तणे सिर सालो ||३०||
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प्रद्युम्न रास
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नारद का कुअलपुर प्रागमन
हो तहि पोसरि तहां नारद गईयो, हो भीषम वंदि विनी बहु कीयो । सिंघासण थानक दीयो जी. हो रूप कुमार मुनीवरि दीट्ठी । मन में सुख पायो घणो जी, हो असौ रूप नवि धरणी दोहो ॥३१॥
हो नारदि मन में बात विचारी, हो रूपि बहण जै होइ कंबारी। काज हमारा सह सर जी, हो खिण एक भीषम रावलि गईयो। नमस्कार राण्या कोयौ जी, हो कनक सिपासण सणो दीयो ।।३।।
हो नारद प्राइ रूपिणि बेस्यो, हो देखि रूप हियर्ड प्रानयो । नारदि दीन्ही पासिका जी, हो होजे किस्न तणी पटराणी । सोला सहस सेवा कर जी, हो सुणी रूपणी नारद धाणी ॥३३॥
हो मुनि विचार मन माहि कीयो, हो रूपिणी तणो रूप लिखि लीयो । किस्न सभा तक्षण गयो जी, हो नारायण बंद्यो मुनिराज ।
मनी लेख हरिने दीयो, हो देखि लेख मनि भयो उछाहो ।। ३४।। नारद द्वारा श्रीकृष्ण के सामने प्रस्ताव
हो नारायण मुनिस्यो हसि बाल, हो नही कामिणी इहि के तोले । नारि प्रसी नवि रवि तले जी, हो ईस्यौ सप होश देव मारी। नाग अपछरा सारिग्वी जी, हो के यौह रूप जोतिमा नारी ॥३५॥
हो नारद होल हरी नरेसो, हो कुडलपुर शुभ बस असेसो । भीषम राजा राजई जी, हो तह के सुता रूपिणी जाण । तासु रूप लिखि प्राणियो जी, हो सोभ नारायण के राणि ॥३६
हो तो लग भीषमि लगन लिखायौ, हो कन्या केरी व्याह रचायो । हो रूपिणि पिति चिना भई जी. भूवा जाणि करि को भाउ । वधन मुनीसुर की सही जी, हो किस्न बुलावण रच्ची उपाउ ॥३७॥ हो समाचार सहु छान लिखिया, हो गूढ़ बचन ते मुख थे कहिया । जाहु दूत द्वारामती जी, हो लेख हाथि नाराईण देज्यो । रूपिणि चिता बहु कर जी, हो व्योरो मुखा खानि सहु कहिल्यो ॥६॥
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
हो चोरी से सो चल्यो बमोट्ठो, हो नन द्वारिका सुंदरि दीठी । नाराईण धरि संचरोउ जी, हो चीरी देई बिनो बहकीयो । समाचार कह्या मुख तणाजी, हो वाचत लेख हरिषियो हो यो ।।३६॥
हो माघ उजाली माई जाणो, हो गोघलक सुभ लग्न पणास्त्रौ । बेगा हो बधन में प्राईज्यो जी, हो नागि पूजिया रूपिणि पाप । से करि घरह पधारिज्यो जी, अंबात तुम्हरे मनि भावे ।।४।।
हो लग्न दिवस को प्रायौ काली, हो व्याह करण चाल्यो सिसपानी । सजन सेना साखती जी, हो बाषि सेख हरि बन में प्रायो । नागदेव थानक जहां जी, हो हरी मापण रूप छिपायो ।।४१।।
हो ताहि प्रोसरि रुपिणि तहा पाई. हो नाग देव की पूज रचाई 1 हाथ जोडि विनती करै जी, हो जे छ सकस देवता साचो। नाराइण अब भाइज्यो जी, हो फुरिज्यो सही तुम्हारी वाचो ।।४।।
रूक्मिणी हरण
हो नाग बिध पाछै हरि बछौं, हो सुणी बात हसि तखिण उठिऊ । नेत्र नेत्रस्यौ मिली गया जी, हो उपरा उपरी बहुत सनेहो । रथि बसाणी रूपिणी जी, हो चल्यो द्वारिका नरहरि देउ ॥४३॥1
हो मेषज पुत्र पहिउ सिसपालो, हो जाणिकि उलटिल मेघ अकालो । सूर किरिणि सूझ नहीं जी, हो बखतर जीन रंगावलि टोपो।। होका हाकि सुभट करं जी, हो रूपिणि हरण भयो अप्ति कीयो ।।४।।
हो कुडलपुर में लाची सारो, ठाइ ठाइ वपडि पुकारो । रूपिणि ने हरि ले गयो जी, हो राजा जी भीषम बाहर सागौ। साठि सहस रथ जोतिया जी, हो तीनि लाख घोड़ा बुर बागी ॥४५।।
हो साठि सहस राज घंटा बागो, हो बाहर सबल पुठि बहु लागी। रूपिणि नै डर ऊपनी जी, हो नाराइण स्यो भणे कुमारी। दल बल साहण प्राईयाजी, हो स्वामी किम होईसी उबारो ॥४६॥
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प्रद्युम्न रास
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हो सुणी बात हसि फिस्न कस्लाणो, हो मेरा जो बल को मरम न जाणो । देखि तमासा हम तणा जी, हो ताड विष देखिउ परचंडौ । हरि बाणस्यो छेदियोजी, हो पडिऊ भूमि भयो सतखंडो ।।४७||
हो रूपिणि वात हरिस्यौ भासी, हो भाई रूप हमारी राखी । इह पसाऊ हमनं करो जी, हो मान्यो जी किस्नि तीया को बोलो। प्रभ दान दोन्ही सही जी, हो रूपिणि को मन भयो भडोलो ॥४॥
हो तालग बाहर नीडी पाई, हो रूपिणि दिसि तुह पर भाई। सिसिपाला दिसि हो फिरौ जी, हो हरिस्यौ भणे पार सिसिपालो। खाटो मीठो अब लहै जी, हो भागौ कहां छुटिसी ग्वालो ४६||
हो किस्न भणं तू जाह सिमपालो, हो तेरो धात न करस्यु बालो। बोल हमारो ना चल जी, हो माता मद्री बोल बुलायो । गुनह एकसउ छोष्ठिस्यो बी, हो पाछ जी मरण तुम्हारो भायो ॥५०॥
हो हरिस्यो भणे बहुडि सिसपाल, हो प्रायोजी सही तुम्हारो काल । हा हा कीया न छुटिसि जो, तू छ नीच ग्वाल को ग्वासी । देम देस को कात्रियौ जी, हो सिंघ गुफा क्यो पैसे स्यालो ॥५१।।
हो बोल एकसऊ गिण्या असेसो, हो खच्यो धनध कान लग सो। सिर छेरो सिसपाल को जी, हो म कुमार साथि करि लीयो। रेवत पर्वति ते गया जी, हो ब्याहु रूपिणि कसौ कीयो ॥१२।।
द्वारिका प्रागमन
हो हलधर किस्न द्वारिका प्राया, हो जीस्या जी सत्रु निसा ग बजाया । हलपर के पानकि गया जी, हो किस्नि लीयो रुपिणि उगालो । महा सुगंध सुहाउणी जी, हो गयो जहाँ सतिमामा थानो ॥५३।।
हो बंधितं वो मिस्या करि सोये, हो कास सुगंध भ्रमर मन मौहो । हो भामा आँचल छोष्ठियो जी, हो हाथि उगाल लेई बहु वासो । हम ये काई छिपायो जी, हो जाग्यो किस्न कीयो बहु हासी ।।४।।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
हो ससिभामा केसोस्यो रिसाई, हो ग्वाल पाण की बात न जाई । मभिप्राहु मनि जाणियो जी, हो ज तुम्ह प्राणी परणि कुमारी। हमनं तिया दिवालि ज्यौ जी, हो जे छ तुम्हन अधिक पियारी ।।५५।।
हो बोल किस्न भली यह बातो, हो बन मै चलङ्ग देविको जातो । रूपिणि पूजा प्राईसी जी, हो पाछ केसी मंत्र उपायौ । बन मै रूपिणि ले गयो जी, हो घोलो खीरोदक फहरायो 1५५६॥
हो बैणी देवी के थान, हो ऊपरि फूल दीया असमाने । सतिभामा प्रागम भयो जी, हो वेवी भोले घरगा लागी । पूजा करिसा वीनवे जी, हमनै हरि के करौ सुहागी ॥५७।।
हो हसि बोल हरि सुणि सतिमामा, हो मनाछित तुम्ह पुरवं कामौ । सकल देधि इह सुख कर जी, हो जाणि कूड सहिभामा स्यौ। ए प्रपंच सहु सुम्ह तणा जी, हो हाड हमारा जीभा ने हास ।।५८।।
हो रूपिणि नमसकार उठि कीयो, हो गौरा तण मामा ने दीयो । दुवं सोकि सायां मिली जी, हो भामा का मंदिर के कार्छ । मंदिर महा कराईयो जी, हो रहे रूपिणी दीन्हीं मानो ॥१६॥
हो एक दिवसि हरि मंत्र ऊपायो, हो दरजोधन घरि लेख पायो । जाह दूत हश्रणापुरि जाहो, थारं जी पुत्री छ दषि माला । रूपिणी भामा सुत भर्ण जी, हो तिहन इह परमाज्यो जाला ।।६।।
हो दूत चाल्यौ हथणापुरि गईयो, हो लेख हाथि दरजोधन दीया। तुम्ह छौ मोटा राजईजी, हो मान्यौ वचन भयो प्रहलादो। राजा दूत संतोषियौ जी, हो वचन हरी का महा प्रसादौ ।।६।।
हो मांगी जी बिदा दूत घरि आयो, हो नाराईण न लेख वनायो। नाराईण मनि हरिषीयौ जी, हो हरी दूत पठयो तिया थाने । रूपिणि भामात्यो कह्यो जी, हो कम प्रापणी तुम्ह पतिवाणी ॥६२।।
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प्रद्युम्न रास
हो जो पहली तिया पुन जणेसी, सो पूजी को सिर मुंडेसी । दरजोधन धिवा परणिसीजी, हो मानी बात हरी की भावी । सौक्यां होड ईसी पड़ी जी, हो हलघर जेट्ट दीयो त हा साखी ।।६३।। हो चौथो स्तान रूपिणीयो, हो रिति को दान किम्नि जी दीयो । रहिक गर्भ भीषम सुता जी, हो भामा गर्म रह्यो तिहि बारी। दहूं सौकि मन हरिपियो जी, हो भया महोछा मंगलधारो ॥६४।। हो गर्म तणा पूरा नव मासो, हो रूपिणि पूगी मन की मासो । पुत्र महाभड जीयौजी, हो सूतौ जहां देवकी कुमारो ।
टेब दड़ी थाली भरी जी दो खिा गयो बधात मारो !!६५।। सत्यभामा एक रूक्मिणी के पुत्रोत्पत्ति
हो सतिभामा जायौ सुत भानौ, हो गयौ बधाऊ हरि के पाने । रूपिणि सेवक दिदि गई जी, हो सेबकि हरि नै दही बंदायो। पुत्र रूपिणी के भमौ जी, हो दान मान सेवक ने दीया ।।६६॥ हो पाछे सति मामा के आयो, हो दान मान तिहिन पणि दीयो । रली रंग हवा घणा जी, हो नन द्वारिका भयो उछाहो । घरि घरि गावै कामणी जी, हो मनि हरिक्षा सह जादो राउ ।।६।। हो धूमकेत को खल्यौ विमानो, हो गनन पंथि द्वारमति थानो। स्वपिणि मन्दिर ऊपरै जी, हो रह्य सूचि नवि चालो प्रायो ।
सत्र मित्र मुनि छ सही जी, ही बितर चित्ताह बिनार बातो॥६८।। प्रद्युम्न का हरण
हो उतरि भूमि देखियो कुमारी, हो मन माहै सो कर बिचारो। सत्रु हमारी इहु मही जी, हो मात कल्हा सो लीयो उचाए । गगन पंथि ले संचारक जी, हो बालक राल्यो सागर माये ॥६६।
हो पार्छ चित्ति विचारी बातो, हो मांस पिर बह करी न Bातो । बन भै भीत सिंघ घणा स्यालो, ताक्षिक सिला तलि चंपियोगी । हो बिन्तर गयो जहां निज प्राली...................॥७॥
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
काल संवर को बालक की प्राप्ति
हो तिहि मौसरि काल सजर प्रायो, हो खल्मौ विमान न चले चलायो । संक्षण धरली ऊतरौ जी, दीठी जी सीला बहु लेई ऊमासो। करस्यो उप हरी करी जी, हो माहे बालक कर विकासो ॥१॥
हो विद्याधर सो बालक लीयो, हो जिम निधि लांचा हरिष हीयो । सामोद्रिक गुण आगली जी, हो कंचण माला बुलाई राणी।। बालक लौ हु तुम्ह नै दोमो जी, ही राणी बाले निर्मल वाणी ।।७२।।
हो थार जो पुत्र पांच सारो, हो इहि बासक को कर प्रहारो। ते दुख जाईन में सह्या जी, हो सूणि बोलो संबर नरनाहीं । हम पाछै इह राजई जी, हो जाणी जी सही हमारी बोलो ।।७३।
हो कंचन माला बालक लीयो हो परि चालण को दिम कीयो। रचि बिमाण सोभा धणी जी, हो वंटा बुवर मोती माला। बालक ने ले चालीया जी. हो मेघकूट गढ़ अधिक रसानो ॥७४।।
हो राजा जो बालक मदिरि प्राण्यौ, हो बालक जन्म महोछो काप्यो । दीन दुखी यो देक्षा घणा जी, हा राजा जी मन में कर विचारो। कामदेव औतार छ जी, हो नाम दीयो परदमन कुमारी ७५॥
हा इह तो कथा इहां हो जामो, हो नम्र द्वारिका बात वस्त्राणो । जे दुख पाया रूपिणी जी, हो बालक सेज्या धानि न दी । रूदन करै हरि कामिणी जी, हो घूर्ण सीस दुवं कर पीट ।१७६।।
हो राजा जी भीखम तणी कुमारी, हो हिइडौ सिर कूट प्रति भारी। दोस जी खरी इराक्षणी जी, हो सुगी बात किस्न के दिवाणि । मुख तंबोल हरि रालीयोजी. हो हाहाकार भयो असमाने ।।७।।
हो हरि जी बान विचौर जोई, तीन खंड में बनी न कोई। पुत्र हमारी जो हर जी, हो हरि रूपाणि के मन्दिर प्रायो । सांत वचन प्रतिबोध दे जी, हो ठाई ठाई लिखि लेख पठायो ७८॥
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प्रद्युम्न रास
नारद ऋषि का श्रागमन
हो तो लग नारद मुनिवर प्रायो हो सुणी बात तिहि बहु दुख पायो । रूपिण मंदिर संचरिउजी, हो मुनि आगम सुनि हरि तिया जागी | नमसकार विधि स्पों कीयौ जी, हो स्वामी हो विधना जी की प्रभा ॥१७६॥
हो नारव जपे सुबहु कुमारी, हो उपर्ज बिगर्म हि संसारी | दुखि सुखि जीव सदा रहे जी, हो पाप पुण्य द्वं गल सह परीसाह तप कर जी, हो पहुंचे मुकति कर्म सहु
न खोडे । तोर्ड ||5|
हो पुत्री हो श्राकासां गामी, हो बुभिसी बाद केली स्वामी । दीप ढाई ही फिरी जी, हो मनि विसमाई करें पतराणी । बालक सोधी हो करुजी, हो नारद नाम सहीस्यो जाणी ।। ८१||
नारद का प्रस्थान
हो बात कही मुनि गिगनाहवडियो हो जापिकि सुगि गरब पंउिडियौ नदी नम्र छांया घणा जी हो पूर्व विदेह पुली देखो । पुंडरीक प्रति भलो जी, हो नाक नमी की यो प्रवेसी !!
सभा लोक प्रविरिज भयो जी, हो पदमनाम पुछ चकेमो । हो श्रीमंधर तहां जिणवर नाथो. हो वंद्या चरण के सिरि हाथो । इह सरूप माणस तणो भी हो फोट समान नर कोण सुदेसो ॥८३॥
हो सुनो सुर केवल बाणी, हो दखिण दिला मेर को जाणी । भरय क्षेत्र द्वारामती जी, हो नवमी हरि तिहि के सुत बायाँ । धूमकेत हरि ले गयो जी, हो तासु गए से बूझणधाय ॥४॥
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हो पदम नाम व मोदालो हो कौण बेर थे हरियो बालो । पूर्वभवांतर सहु कहो जी, हो भणं केवली सुनो। नख बैट्ठौ नारद सुगं जो हो कहो पछिलो सड्डू सनबधो ॥६५॥ प्रद्युम्न के पूर्व भावों का वर्णन
हो मगह देस तहा सालीग्रामो हो विप्र सोमदत्त से मुटुमां । अग्नि बाई सुत तिहि तथा जी, हो विद्या गर्द करें प्रतिभारी ॥ मुनिवरस्यो भेटा मई जी, हो मुनिवर भास अवधि विचारी ॥८६॥
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महकवि ब्रह्म रायमल्ल
हो विद्या गर्व न कीज बालो, हो इहि नगरी वनि था तुम्हस्यलो । चर्म जोत भविण कीयौ जी, हो मह वेदना मरणह पायो । सोमदत्त घरि उपना जो, हो वाल जाट धरि देखो पाए ।।०७।।
हो छोष्ठि पिण्यात अणुनत लीया, हो दान चारि तिह पात्रा दीया । करूणा समिकित पालियौ जी, हो मरण समै तजि यासी मनो। प्राण समाधिस्यो छोडियाजी, हो हुआ देवते सुगि उपनो ॥८॥
हो पूरी प्राऊ तहां थे प्राया, हो सागर सेट्टि तणे सुत जाया । सेत्र भरथ अमरापुरी जी, हो पूरण मणिभद्र तसु नामो । अत पाल्या श्रावक तणाजी, हो छूटा प्राण गया सुरक्षामो ||८६॥
हो पूरी प्राऊ तहां थे भईया, हो नन अजोध्या ते अवतारिया । हेम नाम राजा बस जी, हो मधू कीट उपना तसु नंदो । राजा हो मनि हरिषिऊ भयोजी, हो रूपकला गुण पून्यो चंदो |180 ||
हो हेम भपती दिक्षा लीनी, हो राज विभूति मनु ने दीन्ही । राजा पिता को भोगवजी, हो एक दिवसि बनि क्रीडा जाए। भीम महाबलि बसि कीयौ जी, हो बटपुर बीरसेनि के द्वगए ।। ६१॥
ही वीरसेन दोन्ही वह मानो, हो भोजन वस्त्र सिंघासन थानो। मधुकोटक संतोपिया जी, हो मधु राजा चंद्राभा राणी । वीरसेणि की हरि लई जी, हो मधु प्रतिवात अजुगता ठाणी ॥६२)
हो वीरसेणि तब बहु दुःख पायो, हो कामिनी काज अजोध्या आयो। तारन मेले कामिणीजी, हो वीरसेणि मनि कर विचारो।। तापस का व्रत प्राचरमा जी, हो ध्रिग धिग जप इहु संसारो ।।५।।
हो मधु प्रति प्राणियो बंधि अन्याई, हो तलवर बोल सुणहु गुसाई । परकामिणि इहु भोगवे जो, हो मधु राजा जो तलि यारो । इहि नै सूलि पाईज्यो जी, हो भनाई को एह विचारो ॥६४11
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प्रद्युम्न रास
हो चंद्राभा मधु से थी जं, हो बात सुणत मुझ हिडोकं 1 बात विचारो आपणी जी, हो हमने कहैत किम हरिल्यायो । पर कार्मिणि तुम्ह भोगवी जी, हो कोई अभ्यासूनी द्यो जे ||१५|1
हो तीया वचन सुणि मधुवर वीरो, हो चली कंपणी अधिक सरीरो । कर्म अजुगतो हम कोयो जी, हो पुत्र बुलाइ दीयो राहु राजो | भाऊ मुख संजम लीयो जी, हो करें घोर तपु मातम काज ॥६६॥
२५३
हो एक मास को धरि सन्यासी हो उपनों सगं सोलहै बासो | इंद्र विभूति सुभोगवंजी, हो, रूपिणि के सुत उपनोजी, हो तिहि
ग्राउ तहां थे चाहयौ ।
पूरी घूमकेत ले गईयाँ 11६७
हो वितरि प्राणि सिलातलि चंपिक, हो तिहि पापी को हीयो न कंपिल | आप थानकि गयो जी, दो कर्म जोगि काल संवर प्रायौ । देखि मिला ऊसास ले जी, हो सिला तलि थे बालक घरी ल्यायो ॥ ६८ ॥
हो कंचनमाला बालक लीयो, हो पूर्वस्नेह महोधी कीयो । चंद्राभासी कंचणाजी, हो मधु को जीव रूपिणी बालो । पूर्ववैरि तिहि हरि लियो जी, हो बित्तर वीरसेन भोवाली ॥६६॥
हो रूपिणि बालक मुकति गामी, हो सोलाह गुफा जीति होई स्वामी । पाछे द्वारिका पहुचिराजी हो मात पिता ने मिलिसी जाइ । सोलह वर्ष पर्छ सही जी, हो दरजोवन धिइ परणी जाए । १०
हो सह सनबंध जिणेसुरि कहियो, हो नादि सुण्यो बहुत सुख लहियो । नमसकार करि चालीयो जी, हो मेधकूट गढ संवर राऊ । कंचनमाला कामिणी जी, हो देखि कबर मुनि भयो उछाहो ॥१०१॥
नारद का पुनः द्वारिका बाकर समझना
हो णि मुनि द्वारिका गईयो, हो रूपिणि मंदिर संचरी जी । हो समाचार ब्योरो को जी, रूपिणि घसंह भयौ आनंदो | stafa गुडी उछली जी, हो मनि हरिसा सहु नादी नंद ॥ १०२ ॥
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
हो रूपिणिस्यो सुनि बात पयासी, हो सोलह बरस गयां धरि पासी। रीता सरवर अलि भरै जी, हो सूका बन फूल पसमानो । दुध पिर तुम्ह अंचला जी, हो तो जाणी साची महाण ।।१०३।।
हो बात सुणी प्रति हरिक्षो होयो, हो नमसकार नारद ने कीयो । सफल जन्म मेरो कोयौ जी, हो इह तो कथा वारिका जाणी।।
कामदेव संवर घरी जी, ही सुणौ तासु की कथा बखाणी ।।१०४।। काल संघर के यहां प्रद्युम्न का बडा होना
हो सिंघ भूपतीस्यो करि खति, ही संवरि राजा मांडी गते । पुत्र पंचर्स मोकल्या जी, हो जाह बेगि सिंघ भूपति मारी। देखो पोरिष तुम्ह तणो जी, हो ले बीडी चढि चल्या कुमारो ॥१०५।
हो संघ भूपती आगे हारया, हो केई भागा के रिण में मारया । संबर दुख पायो घणो जी, हो चाल्यौ राक दमामो झयो। कामदेव प्राडी फिरिउजी, हो देखो पिता हमारो कीयो ॥१०६।।
हो गर्यो काम जहां सिंघ नरेसो, हो पर सुभट झिडिपई प्रसेसा । कामदेव रिणि प्रागलो जी, हो नागपासि से राली कामो । सिंध भूपती बंधियो जी, हो तंखिण गयौ पिता के गामो ।।१०।।
हो नममकार संबर नै कीयो, हो राजा सिंध बंषि करि दीयो । संवर वरांह बघावणो जी, हो जाण्यो पुत्रि कीया जे काजो। परजा लोक बुलाईया जी, हो साखि देई दीन्हो जुगराजो ॥१०८।।
छो पुत्र पंचसं संबर केरा, हो दुष्ट भउ पति करे धणेरा । मेणसरिस जीते नहीं जी, हो सोलाह गुफा तहां से दीयो । बितर निवस अति घणा जी, हो कातर नर को फाट हीयौ ।।१०६॥
हो कामदेव के पुन्य प्रभाए, हो बितर देव मिल्या सह पाए । करी मैा की बंदना जी, हो दीन्हा जी मिद्या तणा भंडारी । छत्र सिषासन पालिकीजी, हो मेथी घनष खडग हथियारों ॥१०
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प्रद्युम्न रास हो रत्न सुवर्ण दीया बहु भाए, हो कर वीनती मार्ग प्राए । हम संवा तुम्ह राजई जी, हो सोसाह गुफा भले प्रायो। बितर देव संतोपिया जी, हो कंघणमाला के मनि भायौ ॥११॥
हो नमसकार माता ने कोयो, हो राणी अजरामर सुत कह्यिो । रूप मयण को देखियो जी, हो मन माहै सा करै विचारो। ईसा पुरिस नै भोगव जी, हो तिहि कामणि को फल जमारौ ॥११२।।
हो भणे मयणस्यौ छोडी लाजो, हो करि कुमार मन बंछित काजो । हम सरि कामिणि को नहीं जो, हो भणं भयण इहु बचन अजुगतो । महा नरक को कारणो जी, माता ने किम से पुत्तो ॥११॥
हो राणी सहु सनबंध बखायो, हो राजा तू सिलतलि थे प्राण्यो। छोलि हमारी थालियो जी, हो इसी बात को दोष न कीजै । कुति हमारी को नही जी, हो मनुष्य जन्म को लाही बीजं ॥११॥
हो ऊतर दोन्ही रूपिणि बालो, हो राजा जी मस्तकि अपरि कालो। जीवत मास्त्री को गिले जी, हो जिहि को खाजे लूण रूपागी । तिहि को बूरो न चितिज जी, हो कहा बचन इम केवल वाणी ११५|
हो राणी भगै राउ डर मान, हो विषा तीनि लेहु पो छन । राऊ न तुम्हस्यो नीतिसी जो, मैयण भणे सुणि मात विचारो । जुगती होई सुहो करो जी, हो झूठ न जाणो धोल हमारो ॥११५||
हो विद्या चढी काम के हाथो, हो हो बालक सुम्ह राणी माती । नमसकार करि बीनव जी, हो ईक माता अरू भई भुराणी । विद्या दान दीयौ घणौ जी, हो पुत्र जोगि सो काज बखाणी ॥११७।।
हो कंचणमाला बहु दुख करियो, हो विद्या दोन्ही कामन सरियो । बात दुहुँ विधि बोगटीजी, ही पस्नी पित्ति र बात विचारी । हरत परत दूग्यो गयो जी, कूकार खाधी टाकर मारी ॥११॥
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महाकवि ब्रह्म राममल्ल
हो पुत्र पंचर्स लीया बुलाइ, हो सार बेगि काम तं जाए । ते मन में हरषा भया जी, हो मयण सेई बन क्रीडा चत्या । मांझिबाउडी चंगियो जी, हो ऊपरि मोटा पाथर राज्या ।।११।।
हो कामदेव ते सह पाकडिया, मयण नम्र में आइयो जी । हो राणी नेत्र रूबिर अति चूर्वे, करि प्रपंच तनु पडियों जी । हो हम ने पापी मेणा बिगो रास भणौ परदवण को जी ॥ १२०॥
2
हो राजा मार्ग भई पुकारो, हो कोटी भयो परदमन कुमारी । मेरो अंग विलूरियो जी, हो संबरि राइ कोप बहू कोयौ । मात करो परदमन को जी, हो सह सेवक नं दूषौ दीयों ।। १२१ ।।
हो सेवक जाई मैयणस्यो लागा, हो केई जी भागा के रिणी मारया | आप राज संबर चढिउजी हो कामदेव संवर बहु मिडिया । विद्या ज्यु कोयो घणीजी, हो जाणिकि माता कुंजर जुडिया ।।१२२ ॥
हो जब राजा की सेना भागो, हो विद्या तीनि तीया पे मांगी। विद्या तो ले गर्यो कुमारी । रात तणा व्योहारो ॥ १२३॥
राणी मनि बिलखी भई जो हो राजा मन में ति जी, हो देखी
हो संबार बाण जाई नवि संघिउ, नागपासि स्यौ तंक्षण बंधिउ । कामदेव रिणि जीती जी, हो तो लग नारद मुनिवर प्रायो । मैर्याणि मुनी का पद नम्या जी, हो हरिष दुहुं के अंगिन भावे ।। १२४ ॥
3
हो नारद भणे मयण सुणि कते हो तुम्ह तो जो करियो काम अजुगती । स्वामी गुरु क्रिम बंधि जं जी, हो पालि पोसि जहि कीया ठाठो | राम चरण निस बंदि जंजी, हो बिनो भगति प्रति कीजे गाढी ।। १२५ ।।
हो सुणी बात राजा छोडित, हो नमसकार करि कर जोडिउ । हम थे चूक घणी पड़ी जी, हो संचर राई बहुत सुख पायो । समाचार नारद कहै जी, हो कामदेव ने लेवा भायो ।। १२६ ।।
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प्रद्युम्न रास
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हो घर न गमन कर हरि बालो, हो गयौ जहां थी कंचणमाली । चरण मात का ढोकिया जी, हो हमिस्यौ करिज्ये खिमा पसाउ । हम बालक तुम्ह पोषिया जी, हो हमने चलण द्वारिका भाउ ।।३२७।। हो नमसकार राजा ने कीयो, हो मान बहुत बह लौ दीयो । हम बालक था तुम्ह तणाजी, हो हम द्वारिका चलण को भाउ । भला प्रसाद सु तुम्ह तणा जी, ही पूर्व स्नेह तो मत राऊ ।।१२।। हो रचौ विमाण मुनि बहु मणि जडियो, हो तोड मयण भूमि गिरि पडियो । बहुडि रच्यो तिहि तोडियो जी, हो नारद भण न करहु उपा ।
बिलंब करण बेला नहीं जी, हो बरी तुम्हारी भान विबहो ।।१२६।। विमान पर चढकर द्वारिका के लिये प्रस्थान
हो रच्यो विमाण महामणि जडियो, हो नारद सहित मयण चदि पलिये। नमसकार भवधारि ज्यो जी, हो बढि विमान गनि असमानो। नम देस सागर नदी जी, हो परचत दीप महागढ़ थानो ॥१०॥
हो आगे करो देखि बरातो, इह नरात कोणे तगी जी। हो एक भणं दरोधन जानो, नम्र द्वारिका जाईसी जी । हो दधिमाला ने याहै भानो, रास भणी परक्ष्मण कोसजी ।।१३।।
प्रद्युम्न द्वारा कौतुक करना
हो भील रूप करि वाढी प्रागं, हो पौकी दाण हमारा लागे । इह चौकी भीला तणी जी, हो करो लोग भणं करि हासी । कोण बात घाणकि कही जी, हो इह तो जी जान हरी के जासी ।।१३।।
हो हरि को एक द्वारिका गांउ, हो हम घाणक बन खंड का राज ।
सो थे हम राजई जी, हो जानी बोल कायौ लागे । साचा वचन तुम्ह भाखि ज्यो जी, हो दमडी एक अधिक मत मांगी ।१३३।
हो टाउँ वस्त भली होई सारो, हो सो स्यां इह लाग हमारो । तब तुम्ह में पहचाई स्यां जी, हो जानी बोल्या करि बह रीसो। भली बस्त इह लाहिली जी, हो कहने जी किस्न पुत्र तिया लेस्यौ । १३४.
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
हो मीलरूप बोल बलिवंतो हो लेस्यौ जी लाडी साही तुरंतो । सुणि कैरो ने रिस भई जी हो जात लोग घाणक स्यो लागा । भल लडाइ जी कीयो जी, हो बाडी तजि सहि कैरो भागा ॥१३५॥
होतात बसणे होतंक्षण गयो द्वारिका थाने । बाहरि बन में गम कौयो जी, हो भने मयश कहि मालाकरी | इहु बन कुणकराईयो जी, हो वन सतिभामा किस्न पियारी ॥१३६॥
हो माया का घोड़ा करि मयणो, हो मालीस्यौ बोले सुभ बइणो । लहु सोना को दो जी, हो घोडा दोई चराऊण देजरे । भूखा दिन दुहुहुंणा जी, हो दाम वारि श्रधिके राले जो ॥१३७॥
हो घोड तोडि कोर्यों बन छारो, हो माली रादलि गयो पुकारो। भान कुवरस्यो बोनवं जी, हो घोडा देखण आयो भानो ! मयण विप्र बूढो भयो जी, हो घोडा ले बाढी चौगानो ॥१३८ ||
हो म मान वंभण कहि मोलो, हो याह घोडा की कार्योो भोलो । बूढो बंभण बोलियो जी, हो बार एक तू चढि दोडावं । टाट ताजी परखिजे जी, हो मोल कहो जं तुम्ह मनि भावे |||३६||
ही भानकुमार चढ्यौ हसि घोटे, हो पडिउ भूमि जब घोडी दोर्ड । यूको बंभण बोलियो, हो तुम्ह तो कहिज्यौ किस्न कुमारो । गदहो को प्रसवार छं जी, हो घोडा तणी न जाणं सारो ।।१४० ।।
हो भान भर्ण सुणि विप्र विचारो हो फेरी धोड़ा करि असवारी | वित्र बात हंसि बोलियो जी, हो नौसे बरष विमासी लागा । कहि जजमान किसी करो जी, हो देह तथा सगला वल भागा ।। १४१ ।।
हो भणे भान किं मेरे हो करि मसवारी घोडा फेरो | कंधे पग दे सो चढिक जी, हो फेरया जी घोडा चाबका दीया | भाषा ऊभी रालियो जी, हो माया का घोडा दूरि कीया ॥ १४२ ॥
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प्रद्युम्न रास
हो गयो जती होई जहां पणिहारी, हो कमंडल भरण देह जादौ मागे। पाणी सहु कमंडलि गिल्मो जी. हो पणिहारी बहु कर पुकारी। प्राणि पोहट फोडियो भी, हो चास्या खाल नीरकी धारो । १४३।।
हो सतिभामा परि गयो कुमारो, भानकुमार ध्यान न्यौपारो । वित कर बूको भयो जो, हो छिटिक्या होठ निकस्या संतो। मुंजिहाथ उगमग कर जी, हो मंठो मंडप माह हंसतो ॥१४४
हो भणे विष सुरिण भामा बातो, हो मूखा डासो सूट माती । भोजन यार घरि घणों जी, हो बंभण मजि प्रधाई जिराई। इंद्री पोखं विन का जी. हो तो मन पंडित भार्ग पाये ॥१४५।।
हो नमसकार सतिभामा कीयो, पापो चास बसणं दीयो। पंसि विप्र भोजन करी जी, हो सालि वालि प्रित घणा पसे । भोजन सह मिशार को जी, हो थाली भोजन टाकन वोसे ।।१४६।।
हो पाणी ले सगलौ पौयोजो, हो पाछ विन सराफज बीया । लहू भोजन तू पापी वीरें, हो घालि अंगुली करी अकारी । घर प्रोगस्य छाविहि भरयो जो, हो भन्न गधा न जाई सहारी ।।१४।।
हो पाछप ब्रह्मचारी कोया, हो दीरघ दंत थर हरै होयो। स्थामवगं बूढो भयौ , हो पायो वेगि रूपिणी थाने । नमसकार माता कायौ जो, हो पंचसि बाल्यो दूध प्रासमाने ।।१४८।।
हो नतो भणे मुझ डोले काया. हो गाढी भोजन ऊपरि माया । माता भोजन बेगि घो जी, हो बालि ही जीवन जोगो । खाहै पागि बल नही जी, हो रूपि दुख पुत्र को बिजोगो ।।१४।।
हो ला नारायण ने कोया, हो पाई वोई जती नै गैया । भूख जाइ छह मास की जो, हो जती भणे मुझ भूस्ख धणेरी । ला च्यारि बहुष्टि बीया जी, हो माता मुष न जाई हमारी ।।१५०॥
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
हो भने जो किम सिली मातो. हो कुण वुख ये दुर्बल गातो । हिवडा की चिंता कहो जो, हो रूपिणी मन को भणे सत्तापो । चित्रासह हिया तरी जो हो सुबह बात स्वामी गुरु बापरे ।।१५१ ॥
"
हो जाया पुत्र असुर हडि लोयो, हो नारवि जाई गएसी कोयो । श्रीमंधर जिरा बुझियो जी. हो जिनवरि संबर घरोह बतायो । विद्याधन रोजी हो सोल१55
हो स्वामी प्राजि अवधि बिन केरो हो श्रजौह न प्रायौ बालक मेरो । परिपूर बिन बाजि को जी, हो तहि थे छिता दुर्बल गतो । प्राण जाहि सौ प्रति भला जो हो सक्यो तंबोल प्रश्न सहु नीरो ।।१५३ ।।
हो जती म ख म करि प्रयागी हो हमने जो पुत्र श्रावणो जालो । करो काजु जो तुम्ह कहौ जी, हो रूपिणि मन में करे विचारी । प्रहीण वीसे जती जी, हो ईसी पुत्र किम होई हमारो ।। १५४ ।।
हो बात रूपिणी मन मैं आणी हो मुनि वचन पुगी सह नाली | दूध अंचलों वालीयी जी, हो कामदेव मनि करे विचारों । माता दुख पार्ने घणौ जो हो प्रगट रूप तब भयो कुमारी |११५५॥
हो नमस्कार करि चरणां लागौ हो भीषम पुत्री को दुख भागौ । असुरवात आनंद का जो हो बुझें बात हरिष करि मातो । सहसंबर का घर तो को, हो मयण मूल को कह्यो विलांस ।। १५६॥
हो भर्ण मात पनि कंचनमालो, हो बालक सुख दीठा बहु कालो । मैर रूप बालक भयो की, ही घाई मात का श्रांचल चूखे । क्षिण ठाकौ क्षिणि गिरि पई जी, हो रोब हंस क्षण में रूसे ।। १५७॥
हो अरण एक हूं को डोले, हो वचन सुहावा तोतला बोले | धति भरिक माता मिले जी. हो रूपिलि के मनि भयो विकासो । बालक का सुख भोगया जो हो मयण मात की पूरी आसो || १५वा
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हो तो लग भामा नारि पठाई, हो गाणे गोत द्वारिका लगाई। सिर पूण रुपिणि तो जो हो मयण भणं मां कोष विचारो। गावत मौत किसी जी,
ह र कि हमारा ५६॥
हो पहली जी पुत्र सौय जणेसी, हो सा जी को सिर भूसी । पुत्र होज पहली पड़ी जी, हो कामदेव सब मंत्र उपायौ । माया को करि रूपिणी जी, हो पौलि द्वारण बडो जी ॥१६॥
हो उपरा ऊपरी मूधि सिर बालो, हो नाक कान लुणि ले भथालो । गावत घाली चौहट मो, हो ताली पोटि हस सह लोगो । नाक कान सिर मुंडिया जो, हो कुरण विधाता भयो विजोगो ॥११।।
हो सति मामा देख्यो व्योहारो, हो जेटु श्लोस्यो कर पुकारो । देखि बात रूपिणि घरि जाय, हो देसि बली रूपिणि घरि गइयो । हो देण बह ने बोलस्या जी, हो विन रूप प्राढी पछि रहियो ॥१२॥
हो हलघर भणं विप्र सुणि भाई, हो छोडि द्वार प्राधेरौ जाई । हलधर स्यौ बंभण भणं जी, हे देव भूख हम परे संताए । रूपिणी घणौ जिमाईमौ जी, हो मैंड एक मुझ गयो न जाई ।।१६३।।
हो हलधर बंभण सेथी लागौ, हो उटि विप्र को ताण्यो पागो । बैभणि पग पसारियो जी, हो गयौ हली के साथि हि लागो ।।१६४॥
हो छोडि पग बलिभद्र विवासं, हो इहु अचिरज मुझन बहु भास । इह दीस कोई बली जी, हो मयण प्रपंच एक तब कीयो । रूपिणि ने हडिले चल्यो जी, हो पास्ति विमानि गगनि संगरियो ॥१६॥
हो बंटा जादी सभा दिवाणो, हो कामदेव जप करि मानो । किस्न तीया हडि ले चल्यो जी, हो तुम्ह सहु राजा विस्व बुलायो । नेजा बांध चमर काजी, हो जे बल छ तो माइ छुडायो ।।१६।।
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
हो कहिल्यो जी तुम्ह बलिभद्र झुझारो, हो बाना पालि होइ असवारो। रूपणि नै हुं ले चल्यो जी, हो पोरिष छ तो माई छुद्धाजं । क बाना सह रालि यो जी, हो पाछ श्री मुख तु किसो दिखासौ ॥१६॥
-
हो तुम्ह बसदेव कहै रणिस्तरा, हो विद्याधर जीतिया धणेरा । देखो पौरिष तुम्ह सणोजी, हो माराइण छ पुत्र तुम्हारों । तासु तीया k ले चल्यो जी, हो देखो जी बल ई कितउ एक थारो॥१९८|
हो घरजन कई घनषधर राए, हो तहि बैराटि छुटाई गाए । जे बल छ तो भाई ज्यो जी, हो भीम मल्ल तुम्ह बड़ा भुभारो। रूपिणि बाहर लागि ज्यौ जी, हो के रालि द्यो गदा हथियारों ॥१६६।।
हो निकुल कुत सोभे तुम्ह हाथे, हो कहि ज्यो बलि पांडवां साथ । अब बल देखो तुम्ह तणो जी, हो सहदेव ज्योतिग जाणं सारो। कहि रूपिणि क्रिम छुटि सी जी, हो इहि ज्योतिग को करहु विचारों ।१७०
हो नाराइण तिह बडा राणी, हो राजा मान सह तुम्ह ग्राण । कहि ज्यो मोटा राजई जी, हो जिहि की कामिणि हडि ले जाजे । पांची मैं पति किम लहै औ, हो पोरिष छै तो पाई छुराजे ।।१७१।।
हो सुणी बात जादो सह कोद्या, हो थर हरि मेरू कुलाचल कंग्या । नाराइण बहर बढिऊ जी, हो छपन कोडि की सेना चाली। घुरैह दमामा रिण तणा जी, हो डस्या नाग सह घरती हालो ।।१७२।।
हो देखि मयण मति बाहर गाढी, हो रूपिणि नारद की नय छोडी । विद्यादल सह संजोईया जी, हो पहिलो चोट पयांदा पाई। पाछ घोडा घालीया जी, हो रूस मूड प्रति भई लडाई ।।१७३।।
हो प्रसवारा मारं मसवारा, हो रथ सेथी रथ जुई मुझारो । हस्तीस्यो हस्ती भिडेजी, हो घणो कहीं तो होई विस्तारो। किस्त तणो सह दल हण्यौजी, हो नाराइण मनि कर विधारो ॥१४॥
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हो करि दाहिण गदा जब लीयो, हो तब रूपिणि को धमक्यौ होयो । नारद सेयी बीनवजी, हो 5 पुत्र उहाँ भरतारो । दुहं माहि काइ भरं जी, हो बात दुई घर जाई हमारो ।।१७।।
हो नारद प्राद किस्नस्यो बोल्यो, हो कहि नै गदा किषि उपरि तोल । इह परदमन कुमार जी, हो पाई आई मवग समझाए । मायुध सगला रालि धो जी, हो चरण पिता का ढोको गाए ॥१७६।।
हो हरि परदमन रालि हथियारो, हो मिल्या दुर्व प्राणंद प्रपारो। कुसल समाधि दुहु कही जी, हो धाजं नाद निसागा घाउ । मयण कटक ठाढी कोयौ जी, हो पुत्र सहित धरि पहती राऊ ॥१७७॥
हो हरि रूपिणि न मिलियो नंदो, हो सह जादौ न भयो मानयो । द्वारामती बघावणी जी, हो बंध्या तोरण मोती माला । धरि धरि गावं कामिनी जी, हो धरि परि नाचे बहु उंदि काला ॥१७॥
हो गिण्यो महुर्त लगन सिखायौ, हो कामदेव को ध्याह रचायो। पौरी मंडप अति दण्या जी, हो रूपिणि मंविरि होई अषावा । सतिभामा बिलखी गई जी, हो गावी कामिणी गीत सुहावा ॥१७॥
हो दरजोधन कन्या परणाचे, हो सजन समाई लेख पलाया । उदधिमास को माड हो जी, हो मेधकूट तिहा लेख पठायो । विनों भगति लिखि जुमति स्यो, हो कंचण माला संबर प्रायो ॥१०॥
हो कन्या वर के लेस लगायो, हो घोवा चंदन वस्त्र पहराया । चौरी विप्र खुलाईयो जी, हो बंभण भग बेद झुणकारी । वेसांदर साखी भयो जी, हो उदधिमाल बर भयण कुमारो ॥१८॥
हो वर कन्या भावरि फिरि चारे, हो दरजोधन करि गहि ती झारी । हाथ छुड़ावण धीय तणो जी, हो रप हस्ती कंचण के कानो। छत्र बबर दासी घणी जी, ही करमदेव ने दोन्ही दानो ।।१२॥
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हो कामदेव जयमाला ध्याह्यो, हो सजन लोक मिल्या तिहि ठाए । अथा जोगि पहिराईया जी, हो मास एक तहा रही बरातो। भोजन भगति करी घणी जी हो सह को धरि पहतो कुसलातो ।।१५।।
हो कामदेव को भयो विबाहो, हो रूपिणि के मनि भयो उछाहो । बहुदल आणी हरिषस्मौ जी, हो दुर्जन दुष्ट न बात सुहाई । सजन पाते हरिषीया जी, हो रूपिणि आनंद अगिन माई ।।१४।।
हा लोग दारिका हरि भो वालो, हो सुख में जातन जाण्यो कालो । इंद्र जेम सुख भोगवैजी, हो नेमिकूमार भयौ बैरागी । बंध्या पर छुटाईया जी, हो संयम लीमो व्याहु घे भागौ ।।१८५।।
हो केवल णाणी भयो जिणंदो, हो केवलि पूजा विधिस्यौ इंदो । समोसरण बारह सभा जी, हो सुरनर विद्याधर सहु भाया । वाणी उपली केबली जी, हो श्रावक धर्म सुणो सह प्राए II
||
हे हलो भण दे मस्तिक हाथो, हो प्रस्न एक बूझो जिणनाथो । संसौ भाजे मन तणो जी, हो द्वारामती किस्न की राजो। केतो काल सुखी रहे जी, हो छपन्न कोडि जादो सहु साजी ।।१८७।।
हो जिणवर बोल केवल वाणी, हो बरस बारहै परली जाणी । पग्नि दाझि सी द्वारिका जी, हो दीपाइण थे लागं पाये । नपी लोग न ऊबरं जी, हो हलधर किस्न छूटिसी भाजे .।१८।।
हो जाणि केवली साची जातो, हो पाया दुख पसीज्यो गातो । केवल भाख्यो ते सही, हो केसो भणं धर्म सट्ट कीज्यो। अहि को मन बरागि छ जी, हो छोडि मोहनी दक्षा लीज्यो ।।१८६।
हो कामदेव अरु संबु कुमारो, हो जाण्यो सहु संसारू असारो। मांगी सीख पिता तणो जी, हो नेमीसुर 4 संजम लीयो । मोह विकल्प सह तज्या जी, हो सह परिगह ने पाणी दीयो । १६०।
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प्रद्युम्न रास
हो अधिर संपदा रूपिणि जाणी, हो जब सांभली जिणेसुर वाणी । नाराण हूनी लीयोनी हो तथा लीया व्रत सारो । साडी एक मुक्कतो कीयो जी, हो सह परिग्रह को कीयों निवारो ॥१६१॥
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हो मयक मुनीसुर तप करि घोरो, हो घाति श्रघाति कम्मे हृणि सूरो । सिद्धता सुख भोगवं जी, हो सौ रूपिणि मरतो भन्न निषेध्यो । सुगि सोलैह देवता जी, हो समिति के बलि स्त्रीलिंग छेद्यो ।। १६२ || प्रन्थ प्रशस्ति
ही मूलसंघ मुनि प्रगटी लोई, हो अनंतकीर्ति जाणं सह कोइ । तासु तणो सिषि जाणिज्य जी, हो ब्रह्म राद्दमलि कीयो बखाणी ॥ १६३॥
हो सोलह अठबीस विचारो हो भादवा सुदि दुतीया बुधवारी । गढ हरसौर महाभलो जी, हो तिमे भलो जिणेसुर थानो । श्रीवंत लोग बसे भला जी हो देव सास्त्र गुरू राख मानो ।। १६४ ।।
हो कडचा एकसी अधिक पंचाणू हो रास रहस परदमन बखाणो । भाव भेद जुवाजी हो, जैसी मति दोन्ही प्रकासो | पंडित कोई मत हंसी जी, हो जंसी मति कीन्ही परमासो ||१६|| रास भणौ परदवण को जी ।
इति श्री परदमनरास समाप्त ।
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कविवर भट्टारक त्रिभुवन कीर्ति व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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कविवर त्रिभुवनकीर्ति
जीवन परिचय एवं मूल्यांकन
विक्रम की १७वीं शताब्दी के प्रथम पाद में होने वाले हिन्दी जैन कवियों में निमुवन कीति दूसरे कवि हैं जिनका परिचय प्रस्तुत भाग में दिया जा रहा है। सत्रहवीं शताब्दी हिन्दी के बीसों जैन कवि हुए हैं जिन्होंने हिन्दी में काव्य रचना करके उसके प्रचार प्रसार में सर्वाधिक योग दिया। बास्तब में इस शताब्दी के जैन कवि भी प्राकृत, संस्कृत एवं प्रप्रभ्रण में काव्य रचना बन्द करके हिन्दी की ओर भापित हो रहे थे। यही कारण में ए. में जाने काधि हुये जिनका नामोस्लेख भी हिन्दी के इतिहास में नहीं हो सका है। उनके विस्तृत परिचय का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता । त्रिभुवनकीर्ति भी ऐसे ही एक अजात कवि हैं जिनके सम्बन्ध में क्या हिन्दी जगत् और क्या जैन जगद दोनों ही अपरिचित से हैं।
त्रिभुवनकीलि जन परम्परा के सन्त कवि थे। लेकिन उनके जन्म, मातापिता, अध्ययन एवं दीक्षा के बारे में कोई परिचय उपलब्ध नहीं होता। वैसे जैन सन्त का जीवन अपनाने के पश्चात् एक श्रावक को दूसरा ही जन्म मिलता है। वह अपने प्रथम जीबन को पूर्णतः भुला देता है तथा माता-पिता, सम्बन्धी प्रादि उसके पराये बन जाते हैं । यही नहीं उसका नाम भी परिवर्तित हो जाता है। उसका उद्देश्य केवल आत्मचिंतन मात्र रह जाता है । साहित्य संरचना भी गौण हो जाती है। यही कारण है कि जैनाचार्यो, भट्टारकों एवं अन्य सन्त कवियों का हमें विशेष परियम नहीं मिलता । त्रिभुवनकीर्ति भी ऐसे ही सन्त कवि हैं जिनकी गृहस्थावस्था के सम्बन्ध में हमें भभी तक कोई जानकारी उपलब्ध नहीं हुई है।
विभुवनकोति भट्टारकीय परम्परा के रामसेनान्वय भट्टारक उदयसेन के शिष्य थे। इसी परम्परा में भट्टारक सोमकीति, भट्टारक विजयसेन, भट्टारक कमलकीर्ति एवं भट्टारक यश कीति जैसे भट्टारक हुए थे जिनका उल्लेख स्वय त्रिमुधनकीति ने अपनी कृतियों में किया है।'
१. नंदियह गच्छ मझार, रायसेनान्वयि हुया 1
श्रीसोमकीति विषयसेन, कमलकीरति पशकीरति हवस। जीपंधर रास ।
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कविवर त्रिभुवनकोति
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भट्टारक सोमकीर्ति अच्छे विद्वान एवं साहित्य निर्माता थे । संस्कृत एवं हिन्दी देनों में ही उनकी कृतियां उपलब्ध होती है ।" स्वयं त्रिभुवनकीर्ति ने उन्हें "ज्ञान विज्ञान, प्रागला सान्त्र तथा भण्डार" के विशेषण से प्रलंकृत किया है । सोमकीति के शिष्य थे विजयसेन जो पूर्णतः प्राध्यात्मिक संत थे तथा आत्म साधना में पंडित अमाशीन एवं गुणों के राशि थे यही कारण है कि उनका यशः चारों ओर फैल गया था । ३ विजयसेन का अन्यत्र वीरसेन भी नाम मिलता है। विजयसेन के पश्चात् मशः कीर्ति ए और उनके पश्चात् उदयसेन । उदयसेन त्रिभुवनकीर्ति के गुरु थे । त्रिभुवनकीति ने अपने गुरु को चारित्र-भार-धुरंधर, वादीर भंजन एवं वाणी जन मन मोहक" श्रादि विशेषणों से सम्बोधित किया है। उदयसेन अपने समय के प्रख्यात भट्टारक थे । वे शास्त्रार्थ करते और अपने मधुर वाणी से सबका अपनी मोर प्राकृष्ट कर लेते थे । यही कारण है कि स्वयं कवि ने भी स्वतः ही इनके चरणों में रहकर अपने जीवन निर्माण की इच्छा व्यक्त की थी।
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त्रिभुवनकीर्ति ने उदयसेन का शिष्यत्व कब स्वीकार किया इसके बारे में कोई उल्लेख नहीं मिलता लेकिन उन्होंने अपने गुरु के समीप ही विद्याध्ययन किया होगा तथा शास्त्रों का मर्म समझा होगा । ब्रह्म कृष्णदास ने अपने मुनिसुव्रत पुराण में उदयसेन एव त्रिभुवनकोति का निम्न पद्य में परिचय दिया है
कमलपतिरिवाभूत्मदुदयाद्यं तसेन ।
उदित विशदपट्टे सूर्यशैलेन तुल्ये ।
त्रिभुवनपतिनाथ ह्यदयासक्तचेता । त्रिभुवनकीर्तिर्नाम तत्पट्टधारी ।।१२ ।।
१. विस्तृत परिचय के लिए देखिये राजस्थान के जैन सन्त व्यक्तित्व एवं कृतिस्व, पृ० ३१ से ४० ।
२. ग्रन्थ प्रशस्ति जम्बू स्वामी रास ।
३. तसू पट्टि प्रति रूयडा विजयसेन जयवंत ।
तप जप ध्यानं मंडिया, क्षमावंत, गुणवंत ॥
मही मंडल महिमा घणा, महीयलि मोटु नाम || जम्बूस्वामी रात
४. एक पट्टावली में विजयसेन को यशः कीर्ति बतलाया गया है ।
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जाबन परिचय एव मल्याकन
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उक्त परिचय से ज्ञात होता है कि त्रिभुवनकोति उदयसेन के पश्चाद भट्टारका गादी पर सुशाभित हुए थे।
त्रिभुवनकीति की प्रभा तक दो कृतियां उपलब्ध हुई है। ये दोनों ही हिन्दी की रचनायें हैं । निमबनकीति के नाम से एक और संस्कृत रचना थ तस्कंध पूजा दि. जन मन्दिर सम्भवनाथ उदयपुर के ग्रन्थ भण्डार में संग्रहीत है । पूजा बहुत छोटो है लेकिन यह इन्हीं त्रिभुवनकीति की है अथवा अन्य किसी त्रिभुवनकीति की इसके बारे में कोई निश्चित जानकारी नहीं मिलती।
त्रिभूवनकीति भट्टारक ये । साहित्य एवं संस्कृति के प्रचार प्रसार के लिए वे बराबर सिंहार करते रहते थे । गुजरात, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, उसर प्रदेश एवं देहली भादि प्रदेश इनके विहार के मुख्य प्रदेश थे । यही कारण है इनके कास्यों की भाषा पूर्णत: राजस्थानी अथवा गुजराती न होकर गुजराती प्रभादित राजस्थानी है।
मावन्धर रास
त्रिभूवनकीति की प्रथम रचना "जीवंधर स" है। यह एक प्रबन्ध काग्य है जिसमें 'जीबंधर' के जीवन को प्रस्तुत किया गया है। जीवघर का जीवन जैन फबियों को बहुत प्रिय रहा है । अपभ्रंश, संस्कृत एवं हिन्दी के कितने ही कवियों ने उसके जीवन को अपने अपने काम में शन्दोबद्ध किया है । ऐसे कृतियों में महाकवि हरिचन्द्र का जीवंघरचम्पू, भट्टार के शुभचन्द्र का जीवंधर चरित्र, महाकवि राघू का जीवघर चरिउ (अपभ्रंश) प्र. जिन दास का जीवघर रात, भट्टारक यश कीति का जीवंधर प्रबन्ध, दौलतराम कासलीवाव का जीवथर चरित्र (समी हिन्धी) के नाम उल्लेखनीय है । त्रिभुवन कीति का जीवंधर रास भी उसी 'खला' में निबद्ध एक प्रबन्ध काध्य है।
जीवन्धर रास संवत १६०६ की रचना है।' रचना स्थान कल्पवल्ली मगर
१. श्री कल्पवल्लीनगरे गरिष्ठ, श्रीबह्मचारीश्वर एव कृष्णः । कंठावलम्यूजितपुरमाल. प्रवर्द्धमानो हितमाततानि ।। ६८ ।।
मुनिसुव्रत पुराम
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काववर त्रिभुवन कत्ति
है जो १६ वी १७ वी शताब्दी में साहित्य निर्माण का प्रमुख केन्द्र था। २. कृष्णदास ने भी कल्पवल्ली नगर में ही मुनिसुत्रत पुराण की रचना की थी।
जीवंधर रास प्रबन्ध काल्प है। जीवंधर उसका नायक है । जीबंधर राजपुत्र है लेकिन उनका जन्म शमशान में होता है। उसका लालन पालन उसकी स्वयं माता द्वारा न होकर दूसरी महिला द्वारा होता है । युवा होने पर जीवघर पराक्रम के अनेक कार्य करता है । अन्त में अपना राज्य प्राप्त करने में भी सफल होता है । काफी समय तक राज्य सुख भोगने के पश्चात् वह वैराग्य धारण करता है और प्रन्स में कंधल्य प्राप्त करके निवांण झा यक बन आता है । पूरी कथा निम्न प्रकार है
कथा भाग
एक बार जब महाधीर राजगृह प्राये तो पाये तो राजा श्रेणिक अपने प्रजाजनों के साथ उनके दर्शनार्थ गये । मार्ग में जब राजा श्रेणिक ने एक गुफा में समाघिस्य मुनि के सम्बन्ध में जानना चाहा तो भगवान महावीर ने उस मुनि को जीवंधर कहा तथा उसके जीवन का निम्न प्रकार वर्णन किया---
जम्बूद्वीप में भरत क्षेत्र के हेमागढ़ देश की राजधानी थी राजपुरी नगरी । उसके राजा का नाम सत्संघर एवं राणी का नाम विजया था। उनके दो मन्त्री थे। एक कालागार एवं दूसरा धर्मदस । एक बार वहाँ एक अवधिमानी मुनि का प्रागमन हुया । वे सब उनकी वंदना के लिए गये मुनि ने सभी को नियम दिये । एक भारवाह ने भी मुनि से अन देने की याचना की। मुनि धी उसे पूर्णिमा के दिन ब्रह्मचर्य व्रत पालन का नियम दिया। उसी नगर में दो गैश्याएं थी एक पद्मावती एवं दूसरी देव दत्ता थी । एक दिन जब वह लकड़ी का भारा लेकर जा रहा था तो पद्मावती उसे देखकर क्रोधित हो गयो धौर उस पर थू के दिया । तथा कहा कि उसके शरीर का मोल पांच दीनार है । भारवाह गरीब था लेकिन वेश्या के कहने को सहन नहीं कर सका । उसने पांच दीनारों का संग्रह किया और वेश्या के पास पला गया । उस दिन पूर्णिमा थी इसलिये उसका लिया हुया व्रत भंग हो गया।
२. कल्पवल्ली मझार संवत सोलछहोत्तरि ।
राम रच्यउ मनोहार रिद्ध हयो संघहरि ।।
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जीवन परिचय एव मल्यांकन
२७३
एक बार रानी ने पांच स्वप्न देने । प्रातः काल होने पर राजा ने जब स्वप्नों का फल' बतलाया और कहा कि रानी के पुत्र होगा किन्तु उसका पिता पदि उसका मुख देख ले तो तत्काल उसकी मृत्यु हो जायेगी । इससे रानी एवं राजा दोनों को ही गम्भीर चिन्ता उत्पन्न हुई । गर्भ बहने लगा पौर रानी को प्रकाश भ्रमण की इन्वा हुई । राजा ने मयूर यंत्र की रचना करके रानी की इच्छा पूरी की । राजा रामी के प्रेम में ही रहने लगा और समस्त राज्य काष्टांगार को सौंप दिया। लेकिन काष्टांगार को इतने से ही सन्तोष नहीं हुा । उसने धर्मदत्त मन्त्री को बन्दीग्रह में डाल दिया पोर वह सेना लेकर राजा के घात के लिए भागे बढ़ा । राजा को जब मन्त्री की कुटिलता का भान हुमा तो उसने गर्भवती सनी को मयूर यंत्र में बिठाकर प्राफाश में उडा दिया और स्वयं वैराग्य चारण कर ध्यान करने लगा लिया लेकिन काष्ठागार को यह भी सहन नही हुप्रा । शुभ ध्यान में लवलीन राजा की हत्या कर दी गयी । उधर रानी का विमान प्रमशान में उतर गया और वहीं उसके पुत्र उत्पन्न हो गया । उसी दिन नगर की सेठानी सुनन्दा के मृत पुत्र उत्पन्न हुआ। जब उसे दाह संस्कार के लिए श्मशान में लाया गया तो रानी ने अपना पुत्र उसे दे दिया । सेठ गंधोत्कट ने पुत्र प्राप्ति पर खूब उत्सव मनाया और उसका नाम जीयपर रखा। सनी सिद्धार्थ सहायता से अपने भाई के पास चली गई।
मेघमुर में बेचरों का निवास था । वहाँ सभी जिनधर्म का पालन करते थे । वहां का राजा लोकपाल था । मन पटल को देखने के पश्चात् राजा को वैराग्य हो गया पौर उसने मुनि दीक्षा धारण कर ली । एक बार जब मुनि श्राहार को ये तो दही एव चूर्ण का प्राहार लेने से उन्हें भस्म व्यापि हो गयी । म्याधि के प्रभाव से वे भाहार के लिए निरन्तर घूमने लगे। एक बार वे गंधोत्कट सेठ के यहाँ गये । उनकी क्षुघा बहुत सा कच्चा पक्का पाहार करने पर भी शान्त नहीं हुई। लेकिन जीवन्धर के हाथ से पाहार लेते ही उसकी व्याधि दूर हो गयी । इससे वह मुनि जीवन्धर से बड़ा प्रभावित हुया और वहीं ठहर कर उसे छंद पुराण, नाटक, ज्योतिष प्रायुर्वेद मादि सभी विधाएँ सिखला दी। मुनि ने जीवघर को उसके माता-पिता के सम्बन्ध में वास्तविकता से परिचय कराया । अन्त मे बे मुनि वहां से अपने गुरु के पास प्राचित लेने के लिये पल दिये।
इसके पश्चात. जीवन्धर के पराक्रम की कहानी प्रारम्भ होती है। सर्व प्रथम उसने भीलों का उत्पात शान्त किया और उनसे गायों को छुडा कर राजा को वापिस
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२७४
कविवर त्रिभुवनकीति
लौटा दी । इससे वह गोप बड़ा प्रसत्रहमा और उसने अपनी लड़की के साथ जीवन्धर का विवाह कर दिया। इसके पश्चाद बीवन्धर ने सुघोष वीणा बजा कर गंधर्षदता से विवाह किया । इसके पश्चात् उसने मरते हुए स्वान को णमोकार मंत्र सुनाया जिससे मरने के बाद वह यक्ष हुमा । उन्मत्त हाथी को वश में करने के पश्चात् उसे सुरमंजरी जैसी सुन्दर कन्या प्राप्त हुई। सहस्त्रकूट चैत्यालय के कपाट खोसकर राजकन्या से विवाह किया। पद्मावती का विष उतार कर उसका वरण किया । एवं प्राधा राज्य मी प्राप्त किया। इसके पश्चात् उसने मोर भी कितनी ही सुन्दर कन्यामों से विवाह किया और अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया। अपने पिता के शत्रु काष्टांगार को मार दिया । अपना खोया हा राज्य प्राप्त कर एक दीर्घ समय तक राज्य का सुख भोगा । अन्त में वैराग्य धारण करके निर्वाण प्राप्त किया। काव्य कला
जीवन्धर चरित एक प्रबन्ध काव्य है । इसका नामक जीवन्धर है लेकिन प्रतिमायक एक नहीं कई हैं जो पाते है और चले जाते हैं। प्रस्तुत रास सर्गों में विभक्त नहीं है किन्तु जब कथा को मोड देना पड़ता है तो "एह कथा इहो रही" कह दिया जाता है। इससे पाठकों का घोड़ा ध्यान बट जाता है।
___ रास के सभी वर्णन अच्छे हैं । कवि ने अपने काव्य को सरस बनाने के लिये कभी प्रकृति का, कभी मानव का, और कभी वन्य प्रदेशों का सहारा लिया है। जीवन्धर की माता विजया का जब कवि सौन्दर्य का वर्णन करने लगता है तो वह पूर्ण धंगारी कवि बन जाता है
मस्तक वेणी सोभतुए, जाण सखी मार। सिंथह सिंदूर पूरतीए, कंठा खडा हार । काने कुंडल झलकाए, फिडि कटि मेस्खल । चरणे नेउर पिहिरतीए, दीसंता निर्मल । रंभास्तंभ सरी खडीए, विन्यइ छिबंध । हंसगति चालइ सदा ए, मध्यइ जसी संघ ॥४४॥
तृष्णा का कभी अन्त नहीं । समुद का जल सूख सकता है लेकिन तृष्णा का पन्त फिर भी नहीं हो सकता । इसी को कवि ने कितने ही उदाहरण देकर समझाया है--
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२७४
जीवन परिचय एवं मूल्यांकन समुद्र जल नवइ माजइ, तिरसा नपा बिदि किम था विरस । विषया शक्त प्रामह नर नाम, अनुक्रमि काया विनास ।।१५।।
मोटी काया हस्ती तणी, मन दव सथाइ रे वगी। खाई षड्यु सहि बहु दुःख, तेहनि पामइ लवलेस नु सुख ||१|| जिहवा लोलप मछ दुल सही, कांदि बोध्यु लोही बहि । परू पर तडफ उकु मरइ, तेह जोर काया नवि घटइ ।।१७५ ।
बधि के समय में जिन विद्यामों का पठन-पाठन होता था उन्हीं का उसने जीपंधर को शिक्षा के प्रसंग में वर्णन किया है जो निम्न प्रकार है
कुण कुण शास्त्र भणावीमाए, वृत्त नई छंद पुराण । नाटक योतिक बंदक ए, भरह ना तर्क प्रमाण । मंत्र विद्या नर लक्षणाए, राजनीति अमंकार । प्रश्वपरीक्षा गज रत्नए सा भष्यु छि लिप्पि पठार ३१ ।
वेद विद्या भणाबीउए, माव्यु तातनि पास विनोद करइ गुरू शिष्य सु, भोगवइ भोग निवास ।।३२॥
वसंत ऋतु माती है तो चारों ओर फूल खिल जाते हैं भौरें गुजारते हैं तथा शीलत मन्द सुगन्ध हवा चलने लगती है । इसी वर्णन को कवि के शब्दों में देखिये.
सखी एकदा मास बसत, प्राध्यु मननी प्रति रलीए । मजरी आंजे रसाल, केसूयो राती कलीए ।।१।। सखी केतकी परिमल सार, मोगरा फेला तिहां अति धणीए । सखी दडिम मंडप दास, रंभास्तंभ राङ्गण घगीए ।।२।।
सखी कमल कमल प्रपसंग, प्रास्वादन मधुकर करइए। मखी कोकिला सुस्वर नाद, हंस हंसी शब्द घरइए ||३||
सखी मलयाचल संभूत. शीतल पवन वांद पणाए । . सुख करई कामीय काय, स्मृस तु रात्रि दिवस सुणलए ।।४।।
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· कविवर त्रिभुवनकोति जोवंधर को देख कर गुणमाला उसके विरह में खान-पान स्नान पादि सभी भूल जाती है
मंदिर पायी ताम, स्नान मज्जन नबि धरहए । रजनी न धरइ नीद्र, दिवस भोज नवि करदए ।॥३७॥ न घर सार 'गार, आभूषण ते नवि धरिए । नवि यामद काय निवृत्ति, शीतोपचार घणा करईए ।।३।।
इस तरह रास के सभी वर्णम सुन्दर है । तथापि यह एक कथात्मक काव्य है लेकिन शैली में आकर्षण है तथा वह प्रभावयुक्त है। छन्दों के परिवर्तन से राम के अध्ययन में रोचकता आती है। यह एक गेय काव्य है जिसे मंच पर गाया जा सकता है 1 कवि का भी रास काव्य लिखने का संभवत: यही उद्देश्य रहा है ।
रास में दूहा, चउपा एवं वस्तु बंध छन्द के अतिरिक्त ढाल यशोधरनी, ढान आणदानी, ढाल सुदरीनी, ढाल साहेलोनी, राग घन्पासी, राग राजवल्लभ, दाल सखीनी, दाल सहीनी-राग गुडी, ढाल नौरसूपानी, दाल भामाहूलीनी, ढाल वणजार रानी का उपयोग हुमा है ।
इस काव्य में स्वर्ण मुद्रा के लिये 'दीनार' शब्द का प्रयोग हुआ है । ' इसी तरह अन्य शब्दों का प्रयोग निम्न प्रकार हुमा हैमाया-प्राव्युरे (२३।१३२)
प्रावी (२५) पाया-प्रामी (३६)
प्रामीय "तुम्हारी--तुम्ह
पंच दीनार दीधा मन रंग, भोग इछा तमह मन रंग ।
मस्तंगत प्राभ्यु तब सूर, कामीनि सुन्न करवा पूर ।।१०।। २. पुरुष न आयु सामार ३, राय तणु प्रामी सनमान ॥३१॥ प्रामीय शिष्या अति मनोहार ४. दुर्बल दीसह तुम्ह काय ।।२।११३३
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२७७
जीवन परिचय एवं मूल्यांकन “विनय किया-बोनम्यु २उस, उसका, उसकी-विणी, तेह, तेहनी
शब्दों के पागे 'नी' 'नु' भगा कर उनका प्रयोग किया गया है । जैसे कर्मनि, पुत्रनु, नाथनु, पुषीनु इत्यादि ।
इस प्रकार जीवंधर रास १७वीं शताब्दि के प्रथम पाव में रचे जाने वाले काव्यों का प्रतिनिधि काव्य है जिसमें तत्कालीन शैली के सभी रूप देखे जा सकते हैं। राजस्थानी, गुजराती एवं हिन्दी इन तीनों का मिश्रित रूप कहीं देखना हो तो हम त्रिमुवन कीर्ति के रास कामों में देख सकते हैं।
रास का प्रादि प्रात माम निम्न प्रकार है
मावि भाग
आदि विषवर प्रादि विषवर प्रथम के नाम मुग मादि ने अवता , जुग प्रादि भणसरोय दीक्षा । जुग प्रादि जे प्रामीमा केबल ज्ञान सणीय, शिक्षा युग प्रादि जिणि प्रगटोयु । घम्माधर्म विचार तास चरण प्रणमी. रच रास जीवंधर सार । अजित पादि सीर्थकरा, जे मछि त्रिणिनि पीस । कर्म कठोर सवे खपी, हया ते मुक्तिना ईश ।।२।। केवस वाणी सरसती, भगवती करू पसाउ । निर्मल मति मुझ पापयो, प्रणमु सुम्ह घी पाउ ।।३।। सिद्ध प्राचार्य जेहवा, उपाध्याय वली साधु ||४|| निज निज मुणे अलंकरा, ते मुझ देज्यो साधु । थी उदग्रसेन सूरी पाए नमी, रचर कक्ति विशाल । जीवंधर मुनि स्वामिनु, मौरुप तणु गुणमाल ||५||
१. सरसंघर जाई वोनब्यु । २, तिमी नगरी वाणिज्य वसइ, गंधोत्कट तेह नाम ।
सुनंदा स्त्री तेहनी, मूड पुत्र जण ताम ॥३७।।
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२७८
कविवर त्रिभुवनकोति
मन्तिम माग
सात तत्व पुण्य पाप, काल निर्णय तिहां करइ । त्रिसठि पुरषाक्षान, पंपास्तिकाय उच्चरइ ।।४२।।
श्रावक नियती धर्मा, भेदाभेद सह कही । विहारी तणी इच्छाइ, देस विदेस जाइ सही ।।१३।।
द्रोण मगध तिलंग, मालब द्रावड गुज्जर । पंचाल माहोभोट, कर्णाद फोबोज कस्मीर ।।४।।
तिहां रही अक्षर पंच, ते प्रकृति क्षय करी । प्राम्या सिद्ध नउ ठाम, अष्ट गुणा मला वरी ||५||
तिहां नहीं रोग वियोग, रूप वर्ण गंध नहीं । जिहां नहीं बामग मणं, नारीय पुत्र जिहां नहीं ।।४६॥
जिहां नहीं रोग वियोग, रागदेष जिहां नहीं । जीवंधर मूनि राय, से स्थानिक प्राम्यु सही ।।४७।।
जे मुनिसद्द पंच, तप्य करी स्वगि गया । तप करी सवे नारि, स्त्री लिग छेदी देव हुमा ।।४ati
महीपलि पाई नर, चारित्र नई बली प्रामसह । करीय कर्मा नउ क्षय, सेस विमुक्ति जाय सह ।।४।।
नींबई गछ मझार, रामसेनान्वयि हवा । श्री सोमकीरति विजयसेन, कमलकीरति यशकीरति हवउ ।।५।। तेह पाटि प्रसिद्ध, चरित्र भार धुरिधरो । वादीय भंजन वीर, श्री उदयसेन सूरीश्वरो ॥५१॥
प्रणमीय ते गुरू पाथ, त्रिभुवन कीरति इम बीनवइ । देयो तम्ह गुणग्राम, अनेरी काई वाडा नहीं ।।५२ ।
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जीवन परिचय एवं मूल्यांकन
२७६
कल्पवल्ली मझार संवत सोलमहोत्तरी । रास रचत मनोहारि, रिद्धि हयो संघह परि ।।५।।
जीवंधर मुनि तप करी, पहुप्तु शिवपद ठाम ।
विमुवन कीरति एम वीनवर, देमो तुम्ह गुणग्राम ॥५४।। इति जीवंधर रास समाप्तः
२. जम्यूस्वामी रास
कविवर त्रिभुवनकोति को यह दूसरी काग्य कृति है जो राजस्थान के शास्त्र भण्डारों में उपलब्ध हुई है । प्रस्तुत कृति भी उसी गुटके में लिपि बस है जिसमें कवि की प्रथम कृति जीवघर रास संग्रहीत है। जम्बूस्वामी रास उसकी संवत १६२५ की रचना है अर्थात् प्रथम कृति के १९ वर्ष पश्चात् सन्दोबस की हुई है। १६ वर्ष की अवधि में त्रिभुवनकोति ने साहित्य जगत को और कौन-कौन सी कृतियां भेंट की इस विषय में विशेष खोज की आवश्यकता है। क्योंकि कोई भी कवि इतने लम्बे समय तक चुपचाप नहीं बैठ सकता। लेकिन लेखक द्वारा राजस्थान के बन ग्रन्थ भण्डारों के जो विस्तृत खोज की है उसमें भी अभी तक कवि की दो कृतियां ही मिल सकी है।
जम्बूस्वामी रास एक प्रबन्ध काव्य है जिसमे जैन धर्म के अन्तिम केवली बम्बूस्वामी का चरित्र निबस है। पूरा काध्य रास शैली में लिखा हुपा है तथा भाषा एवं शैली की दृष्टि से जीवंधर रास से जम्बूस्वामी रास अधिक निखरा हुमा है। प्रस्तुत रास दूहा, चउपई एवं विभिन्न रागों में निबद्ध है। कबा का विभाजन सगों में नहीं हुआ है किन्तु उसमें भी उसी प्राचीन शैली को अपनाया गया है ।
जम्बू स्वामी के वर्तमान जीवन का वर्णन करने के पूर्व उनके पूर्व भवों का वर्णन किया गया है । कवि यदि पूर्व भवों के वर्णन को छोड मी जाता तो भी काव्य की गरिमा में कोई विशेष अन्तर नहीं प्राता । लेकिन क्योंकि प्राय प्रत्येक जैन काव्य में नायक के वर्तमान के साथ-साथ पूर्व भवों के वर्णन करने की परम्परा रही है इसलिये कवि ने उस परम्परा से अपने आपको अलग नहीं कर सका है।
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२८.
कविवर त्रिभुवनकीति
कवि ने काव्य का प्रारम्भ भगवान महावीर को वन्दना से किया गया है । सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय एवं सर्वसाधु परमेष्ठी का स्मरण करने के पश्चात् अपने गुरू उदयसेन को नमस्कार किया है ।' बम्बूद्वीप में भरत क्षेत्र और उसमें मगध देश तथा उसकी राजधानी रामह थी । राजागिर रामगृती का सम्राः ।। चेलना उसकी पटरानी थी । चेलना लावण्यवती एवं रूप की खान थी कवि ने उसका वर्णन करते हुमे लिखा है---
ते धरि राणी पेलना कही, सती सरोमणि जाणु सही । सकित भूक्षउ तास सरीर, धर्म ध्यान धरि मनधीर ।।१।।
हंसगति चालि चमकती, रुपि रंभा जाणउ सती । मस्तक वेणी सोहि सार, कंठ सोहिए काडल हार ॥२०॥
कांने कुडल रश्ने जड्या, चरणे नेउर सोवन घड़या । मधुर क्या बोलि सुविचार, मंग अनौपम दीसि सार ।।११।।
एक दिन विपुलाचल पर्वत पर भगवान महावीर का समवसरण आया । राजा श्रेणिक पूरी श्रद्धा के साथ सपरिवार उनके दर्शनार्थ गये । राजा श्रेणिक ने भगवान महावीर से निम्न शब्दों में निवेदन किया--
राई, जिनवर पूछीया जी, कह स्वामी कुण एह । विद्युन्माली देवता जी, जिन जीइ कह सह हेत हो स्वामी ।।
भगवान महावीर ने राजा श्रेणिक के प्रश्न का उत्तर देते हुये कहा कि वर्द्धमानपुर में भषवत्स और भावदेव दो ब्राह्मण विद्वान थे। नगर में कुष्ठ रोग फैलने के कारण भनेक लोग मारे गये । एक बार वहां सुधर्मा स्वामी पधारे । उन्होंने तत्वज्ञान एवं पुण्य-पाप के बारे में सबको बतलाया। भवदस ने उनसे वैराग्य धारण कर लिया। कुछ समय के पश्चात् भवदत्त ने भवदेव के सम्बन्ध में विचार कर यह घर
१.
श्री उदयसेन सूरी वर नमी, त्रिभुवन कोर्ति कहि सार । रास कई रलीया मणु', प्रक्षर रयण भंडार ।।
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कविवर त्रिभुवनकोति भाया । भवदत्त के उपदेश से भवदेव ने भो वैराग्य धारण कर लिये लेकिन उपका मन अपनी स्त्री की अोर से नहीं हट सका । स्त्री ने मुनि से अपनी व्यथा कही । इस अवसर पर नारी के प्रति कवि ने वे ही विचार प्रकट किये हैं जो अन्य जन कवियों
इमा रहित प्रति लोभणी, धर्म न जाणि सार । दयामणी दीसि सही, रूठी कर अपार ||१२॥
नारी रूप न राचीय, गुण राचर सहु कोइ । जे नर नारी मोहीया, ते नवि जाणि लोय ।।१३।।
भवदत्त ने तपस्या करके स्वर्ग प्राप्त किया और फिर वहां से पुण्डरोक नगरी के राजा के यहां सागरचन्द्र नामक राजकुमार हमा। तथा भवदेव ने बीतशोका नगरी के शिवकुमार राजकुमार के रूप में जन्म लिया । राजा के नाम पर महापदम था । मवदेव ने शास्त्रों का ज्ञान अर्जन किया । एक बार संयोगवश उसी नगर में एक प्रवधिज्ञाती मुनि का आगमन हुआ। सभी लोग उनके दर्शनार्थ गये । शिव. कुमार को मुनि को देखते ही पूर्व भव का स्मरण हो गया। इससे उसे वैराग्य हो गया और घोर तपस्या करने के पश्चात् वह मृत्यु के पश्चात् छठे स्वर्ग में विद्युन्माली नामक देव हुमा । सागरचन्द्र को भी घोर तपस्मा के पश्चात् तीसरे स्वर्ग की प्रारित हुई । वही विद्युन्माली सात दिन पश्चात् राजगृह नगर के से अहंदास के जम्बूकुमार नाम से पुत्र रूप में उत्पन्न हुप्रा ।
मगध देश राजग्रहि अहंदाप्त घिर सार ।
जिनमती कूलि अतिरि जंबूकूमर भवतार ।।३।। जम्बू कुमार की माता का नाम जिनमति था जो प्रत्यधिक लावन्यवती शीलवती एवं पीनपयोधरा थी। एक रात्रि को जिनमति ने पांच स्वप्न देखे जिनका तिम्न प्रकार फल बतलाया गया--
जंबू फन्न देख्य उ सम्हेव नारि, पुत्र हसि घिर जंबूकुमार । १०॥ निरधूम अग्नि देख्य उ तम्हे सुणउ क्षय करसि सवे करम महंतणु । शाल क्षेत्र देख्य अभिराम, लक्ष्मीपति होसि गुणधाम ॥११।। जल पूरयु सर दीठलं सार, पाप तणु करसि परिहार ॥ रत्नाकार देख्यु तिणिवार. जन बोधी भव तरसि पार ॥१२॥
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जोवन परिचय एवं मूल्यांकन
जम्बूकुमार का जन्म प्राण शुक्ला अष्टमी के शुभ दिन हुमा । सारे नगर में उत्सव मनाये गये । बाजे बाजे । मन्दिरों में पूजा की गयी । कवि ने जन्मोत्सव का विस्तृत वर्णन किया है
तृत करि करि नृत्यंगनाए, गीत गाइ रमाल । धाजित वाजि अनि घणाए, होल ददामा कमाल 11६।।
तिवली तर मादल घणाएं, भेर वाजि वर चग । इणी परिजन महोत्सवाए, थेष्ठि घिरहुउ रंग ।।७।।
बचपन में हो जम्बुकुमार ने विविध शास्त्र, एव विद्याएं सीखली तथा कला में वह पारगत हो गया । जवृकुमार की सुन्दरता देखते ही बनती थी । जो भी कुमारी उसे देखती वही उमको चाहना करने लगती तथा माता-पिता के भाग्य का सराहना करती कि जिनके यहां ऐसा पुत्ररत्न उत्पन्न हुपा है । उमी नगर में सागरदत्त, घनदत्त, वैश्रवण एवं वणिकदत्त श्रेष्ठि रत्न थे । चारों के ही एक एक कन्या थी जिनके नाम पद्मावती, कनकधी, विनयश्री एवं लक्ष्मी थी। चारों ही सुन्दरता की खान थी
च्यार कान्या अछि प्रति भलीए, रूप सोभागनी खाणि । पृथु पीनपयोषरा. बोलि अमृन वाणि ।। ३२।। कटियंत्र अति रूडीए मृग नयणी गुणवंत ।
अक्षय तृतीया के दिन जम्बुकुमार का विवाह इन चारों कन्यानों से निधिचत हो गया। बमन्त ऋतु आने पर सजा श्रेणिक, नगर सेठ जम्बुकुमार एवं उनकी होने वाली पस्नियां सभी वन क्रीडा के लिये गये। उस समय राजा थेणिक का हायो बिगड गया और कराल काल बन कर चारों ओर उत्पात करने लगा। हाथी ने अनेक वृक्षों को तोड़ डाला, फूलों को रोद डाला । उसको देख कर सभी प्राण बचाकर भागने लगे। लेकिन जम्बुकुमार ने उमे महज ही वण में कर लिया। इससे उसकी वीरता को चारों ओर प्रशंसा होने लगी।
कुछ समय पश्चात् एक विद्याधर राजा श्रेणिक के पास प्राया तथा कहने लगा कि भविष्य वाणी के अनुसार केरल देश के राजा की राजकुमारी के प्राप पति होंगे । लेकिन हंसी के राजा ने उस राजकुमारी को लेने के लिये उस पर चढ़ाई
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कवितर विभुवनकीर्ति
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कर दी । इस विपत्ति में वह राजा श्रेणिक की महायना चाहता है। जब कुमार वहीं राज सभा में थे। उन्होंने विद्याधर के प्रस्ताव को स्वीकार करके राजा थेणिक की अनुमति मांगी । तया मैन्य दल के साथ दक्षिण की पोर चर पड़े। जबकुमार के विध्याचल पर आये और वहां की शोभा का अवलोकन किया--
सैन्य सहित तिहां प्राबीउ, विध्यांचल उत्तंग 1 जीव घणा तिहां देखीया, विस्मय पाम्यु मन चंग ।।३६॥
पिक केकी वाराहनि, हरण रोझ गौमाउ । हंस ध्यान गम सांबरा, मृग वष महिप न काय ।। ३७।।
मिल्ली भिल्लज देखीया, ते प्रायुघ महित अपार । सैन्य हाय देसी करी, नाठा ते तिणी वार ||३८
प्रागे चल कर उन्होंने जिन मदिरों की वन्दना की। अन्त में जवृकुमार मेना के साथ केरल पहुंचे । नगर में दूर ही उन्होने पडाव किया और प्रतिद्वन्दी लचूल विद्याधर को समझाने के लिये अपना दूत भेजा। दून ने राजा को विभिन्न प्रकार से समझाया लेकिन समझ नहीं सका । दोनों की सेना प्रों में घोर युद्ध हुमा। कवि ने रास काव्य में युद्ध का का वर्णन किया है 1 युद्ध में सभी तरह के बाणों का प्रयोग हुमा, हाथी, घोड, रथ एव पंदल सभी सेनायें एक दूसरे से खूब लड़ी।
तिहा क्रोध करीनि ऊठीया, मुकि बाण अपार । तिहाँ मेघ तणी धारा परि, बरमि तिणी वार । तिहां सिंध तणी परि गाजता, नेह लइ नहीं ठाम । तिहां छत्रीस प्रायुध ले नि, राइ करि संग्राम ।
अन्त में युद्ध में जम्बुकुमार की विजय हुई । चारों और उसकी जय जय होने लगी । नगर प्रवेश पर जात्रुकुमार का जोरदार स्वागत हुग्रा ।
राई नगर सणगारज. नगर कीट प्रबेस । नगर स्त्री जोइ धणु, करती नव नवा वेस । १२॥
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जोवन परिचय एवं मूल्यांकन काम रूप देखी भलु, विस्मय प्रामी नार ।
धन जननी धन ए पिता, जे घर एह कुमार ॥१३।। इसके पश्चात् रत्नचूल विद्याधर ने जम्बूकुमार को एवं राजा अंगिक को मपने यहां प्रामंत्रित किया। राजा श्रेणिक ने जंबूकुमार की खूब प्रशंसा की तथा उसका सम्पान किया । खेचर पुत्री के साथ विवाह होने पर अंगिक एवं जम्बूकुमार दोनों ही वहां से लौट गये और विध्यांचल पार करके स्वदेश आ गये 1 मार्ग में उन्हें सुधर्माचार्य के दर्शन हुये । श्रेणिक एवं जम्बूकुमार दोनों ही उनके चरणों में वैट गये । तत्वोपदेश सुना रान्त में गना ने '-II पूजा । सुदर्भागार्य ने उसके पूर्व भव का पूरा चित्र उसके सामने रख दिया। उससे 'जम्बूकुमार को वैराग्य हो गया लेकिन सुधर्माचार्य ने घर पर जाकर प्राज्ञा लेने की बात कही।
जम्मू कुमार ने माता-पिता के सामने जब वैराग्य लेने का प्रस्ताव रखा तो वे दोनों ही मूच्छित हो गये ।' जम्बूकुमार को बहुत समझाया गया । स्वर्ग सुख के समान घर को छोड़ने के विचार का परित्याग करने को कहा। लेकिन जम्बू कुमार ने किसी को नहीं सुनी। चार कन्याओं को जम्बुकुमार के निश्चय की सूचना दी गयी तो वे भी बिलाप करने लगी । अन्त में यह तय हया कि जम्बुकुमार चारों कन्याओं के साथ विवाह करेगा तथा एक-एक दिन में घर में रह कर फिर दीक्षा ग्रहण करेगा ।
जम्बूकुमार के विवाह की जोरदार तयारी की गयी । बजे बजे । गीत गाये गये । बन्दी जनों ने प्रशंसा गीत गाये। जम्बुकुमार चंचल घोड़े पर सवार होकर
-- -- - १. बचन सुणी मुगिति हुई, नाम्बी वाय ते विदी थई ।
रूदन करि दुख आणि घणउ, पुत्र प्रसंसि माता सुणउ ।। एक रात्रि एक दिवस परणानि वली एह । ब्रह्म समीपि तु रहितु, नषि शांहि गेह ।।१७।। वचन सुणी कन्या तणां, कन्या नावलि नात । प्रहदास घिर पाबीया, कुमर प्रति कहि बात ॥१८।। एक दिवस परणी करी, घिर रहु एक दिन | पछि दीक्षा लेय जो, जु तुह्म हुई मन ।.१६
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कविवर त्रिभुवन कोत्ति
तोरण के लिये गये । विवाह में विविध प्रकार के पकवान बनाये गये। विवाह सम्पन्न हुआ और जम्बूकुमार चारों पत्नियों के साथ अपने घर चला । रात्रि आयो । नव विवाहित पत्नियों के हाव-भाव से जम्बूकुमार का मन लुभाना चाहा लेकिन वे किचित भी सफल नहीं हो सकी। जम्बूकुमार ने एक-एक पत्नी को समझाया । प्रत्येक स्त्री मे कथाएं कही और गृहस्थी का सुख भोगने के पश्चात् वैराग्य लेने की बात कही लेकिन जम्बूकुमार ने सबका प्रतिवाद किया और वैराग्य लेने की बात को हो उसम स्वीकार किया ।
उसी रात्रि को जम्नुकुमार के घर विद्युत चोर चोरी करने के विचार से आया | नगर कोटवाल एवं दण्डनायक के भय से वह जम्बूकुमार के पलंग के नीच जाकर लेट गया । एक श्रोर जम्बूकुमार जब अपनी नव-विवाहित पत्नियों को समझा रहा था तो उस चोर ने भी उनके उत्तर प्रत्युत्तर को सुनने में मस्त हो गया । विद्युत चोर भी जम्बूकुमार से अत्यधिक प्रभावित हो गया और उसके भी जगत् को निस्सार जान कर वैराग्य धारण करने की इच्छा हो गयी ।
२८५
प्रातःकाल होते ही जम्बूकुमार को नवीन वस्त्राभूषण पहिनाये गये । पालकी में बैठ कर वह दीक्षा लेने चल दिया। नगर में हजारों नर-नारी जम्बूकुमार के दर्शनार्थ उपस्थित हुये और उसकी जय जयकार करने लगे । उसकी माता जिनमती भाकर रोने लगी । वह मूच्छित हो गयी । स षारा बहने लगी
पुत्र आगित माता रही, करि रूदन अपार । बार बार दुख धरि करि मोह भपार ||
जल विण किम रहि माछली, तिम तुझ विण पुत्र । मुझ मेहली बीसासोनि कोइ जांउ वन सुत ॥
लेकिन जम्बूकुमार अपने निश्चय पर दृढ था। वह माता को कहने लगा
पुत्र कहि माता सुणु ए संसार असार 1
दिक्षा सेवा मुझ देउ, कांई करू अंतराय ।। १९।।
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कविवर त्रिभुवनकीति
. पन्त में माता-पिता, सास-श्वसुर सब से प्राज्ञा लेकर जम्मार सुधीस्वामी के चरणों में जा पहुँचा तथा उनसे दोभा देने की प्रार्थना की । जम्बूकुमार निन्य बन गये। उनके साथ विधु प्रम एवं उसके साथी, अहदास एव उपकी माता जिनमती, पद्मश्री मादि उसकी चारी पत्नियों ने भी जिन दीक्षा धारण करली ।
कुछ वर्षों के पश्चात् जम्बू उमी नगर में प्राये । मुनि जम्बूस्वामी के दर्शनार्थ हजारों नर नारी एकत्रित हो गये । सेठ जिनदास के यहां मुनिश्री का प्राहार हुश्रा । माहार के प्रभाव से रत्नों की वर्षा हुई। कुछ समय पश्चाद सुधर्मास्वामी को निर्वाण प्राप्ति हुई और उसी दिन जम्बूस्वामी को कंवल्य हो गया । इन्द ने गन्धकुटी की रचना की । जम्बूस्वामी ने सभी को सम्यग्दर्शन, सम्पज्ञान एवं सम्यकचारित्र की जीवन को उतारने, बारह व्रत, भोजन क्रिया, अष्टमूलगुण, दशधर्म, षट् आवश्यक कार्य प्रादि पर विस्तृत प्रकाश डाला। पर्याप्त विहार करने के पश्चात् जम्बूस्वामो एक दिन विपुलाचल पर्वत पर भाये सौर वहीं से निर्माण प्राप्त किया। इन्द्रादिक देवों ने जम्बूस्वामी का निर्वाण महोत्सव मानाया। जम्बूस्वामी के पिता प्रर्ह दास ने छटठा स्वर्ग प्राप्त किया। उनकी माता जिनमती स्त्री पर्याय को छोड कर ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में इन्द्र हुई । जम्बूस्वामी की चारों स्जियों में भी इसी प्रकार स्त्री पर्याय का विनाश कर स्वर्ग में जाकर देव हुई । विद्य च्चोर ने घोर तप कर सवार्थसिद्धि प्राप्ति की।
इस प्रकार कवि ने जम्बूस्वामी रास में जम्बूस्वामी का जिस व्यवस्थित पोली में जीवन चरित्र प्रस्तुत किया है, वह अत्यधिक प्रशंसनीय है । कवि का प्रस्तुत काव्य कथा प्रधान है। इसलिए इसमें कहीं-कहीं कथा भाग अधिक है तो कहीं-कहीं उसमें काव्य प्रधान अंश भी देखने को भी मिलता है।
मूल्यांकन
जम्बूस्वामी रास का रचना काल संवत् १६२५ है । उस समय तक बहुत से रास काव्य लिखे जा चुके थे । और रालो काव्य की दृष्टि से वह उसका स्वर्ण युग था । ब्रह्म जिनदास जैसे महाकवियों ने पचासों गम लिख कर रास शैली का निर्माण किया था । ब्रह्म जिनदास के पश्चात् भट्टारक ज्ञान भूषण, विद्याभूषण एवं रायमल्म ने जिस परम्परा को जन्म दिया था उसी पर त्रिमुयन कीनि ने अपने दोनों रास कात्रों की रचना की । इन रास कान्यों में कथा प्रवाह बराबर चलता रहता हैं । और उसी प्रवाह से कवि कभी कभी काव्यमय वर्णन भी प्रस्तुत करने में सफल होता है
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जीवन परिचय एव मूल्यांकन
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राजा की सहायतार्थ
जम्बूस्वामी रास का नायक है जम्बूकुमार जो राजगुड़ी के नगर सेट श्र दास का पुत्र है । जम्बूकुमार के जीवन में वीररस, शृंगार एवं शान्त रस का समावेश है । वह बचपन में ही महाराजा श्रमिक के उन्मत हाथी को सहज ही वश में कर लेता है । १५-१६ वर्ष की आयु में वह सेना लेकर केरल के जाता है और उसमें अपनी अपूर्व वीरता से विजय प्राप्त कर लेता है। एक भोर विद्याधरों की सेना दूसरी ओर जम्बूकुमार की सेना । दोनों में घनघोर युद्ध होता है । स्वयं जम्बूकुमार विभिन्न प्रकार के शस्त्रों का प्रयोग करता है। और प्रन्त में में युद्ध बिजय प्राप्त करता है। वह वीर हैं और किसी भी शत्रु को हराने में समर्थ है । जम्बूकुमार का जीवन श्रृंगार रस से भी प्रोत-प्रोत है। बचपन में वह बसन्तोत्सव मनाने के लिए नगर के बाहर उद्यान में जाता है और वहाँ बसन्तोत्सव का आनन्द लेता है । है । वराय लेने से पूर्व अपने माता पिता के अनुरोध पर चार कन्याओं से विवाह बंधन में वक्त है। सुहाको नया थी स्वर्ग सुन्दरियां थी जो विभिन्न हाव-भाव मे एवं अपने तर्कों से जम्बूकुमार से गृहस्थ जीवन परिपालन प्राग्रह करती है ।" सभी पत्तियां एक एक करके जम्बुकुमार से विभिन्न दृष्टान्तों से गृहस्थ जीवन की उपयोगिता पर प्रकाश डालती हैं तो जो भविष्य के सुख का त्याग करते हैं वह उनकी दृष्टि में प्रशंसनीय कार्य नहीं है । २ जम्बूकुमार एक एक पत्नी की अपने अकारण प्रमाणों में निरूत्तर कर देता है। इसी बीच उसे विद्युच्चोर मिलता है । वह भी जम्दूकुमार को वैराग्य लेने में सहायक बनता है ।
—
१.
२.
३.
कामाकुल ते कामिनी करि ते विविध प्रकार देवाडि प्रापणां बली वली जम्बूकुमार
गीत गान गाहे करी, कुमर
उपाई र
२०५
निस्पल फल मूकी करी जे
फल वटि धन्य ।
ते
मुख कां नवि लही, चितवि प्रावणि मन ॥ ३ ॥ १३० ॥ मनरलीय भमी उत्तर दक्षण पूरब पश्चिम ए दिश ए । करणाट सिल द्वीप केरल देश चीणक ए दिशि । कुंतल देस विदर्भ जनपद सह्य पर्वत प्रामी ॥१॥ भसपच पाटण ग्रहीर कुंकण देश कछियावीउ । सौराष्ट देसि किष्कंध नगरी गिरनार पर्वत भावीउ ||
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जोवन परिचय एवं मूल्यांकन
जम्यूकुमार यौवन प्राप्ति के पूर्व ही वैराग्य धारण कर लेता है और अन्त में कंवल्य प्राप्त कर निर्वाण का महापथिक बनला है। उसका अधिकांश जीवन शान्त रस से समाविष्ट रहता है भाषा
रास की भाषा गुजराती प्रभावित राजस्थानी है। क्रिया एवं किया एक क्रियापदों में दोनों एक साथ चलती हैं । क्रिया पदों में प्राप्यु (३३।१६३) घाल्यु (५।१६३) पुछीया (६१६३) पायीमा (१०।१६४) पाम्यु (३६।१७३) पाबीउ १६१६४) जाइ, प्रावि (१५१६४) लीघा दोघां (२०११६५) का प्रयोग काश्य में प्रमुख रूप से हुआ है । वैसे रास की भाषा, अत्यधिक सरल एवं सहज रूप से लिखी हुई है । उसमें कृत्रिमता का प्रभाव है। शब्दो को तोड़ मरोड़ कर प्रयोग करने में कवि को जरा भी रुचि नहीं है ।
छन्द
रास गेय काव्य हैं । सभी छन्द गेम है पौर कवि ने उसे गेय काव्य बनाने का पूरा प्रयास किया है । रास के मुख्य छन्द, हा, चुपई, राग, गुडी ढाल साहेलीनी, बाल यशोधरनी, ढाल मियामोनी, ढाल मालंजडानी डाल सखीनी, ढाल सहीनी, राग प्रासाउरी, राग सन्यासो, राग विराडी, हाल दमयंतीनी, ढाल मोहपराजतनी, राग सामेरी, ढाल भवदेवनी, ढाल बियाउलानी, द्वाल हिंगोलानी राग देशाल, ढाल आणंदानी, हाल रणजाराती, हाल दशमी यशोधरनी प्रादि विविध ढालों, रागों का प्रयोग किया गया हैं। इन रागों से प्रस्तुत रास पूर्णतः मेय काव्य बन गया है । सामाजिकता
प्रस्तुत रास में तत्कालीन सामाजिक प्रथानों का भी वर्णन उपलब्ध होता है।
नेम निर्वाण जिहां पाम्या, राजीमतीइ तप ग्रही। तिहो आवी जिणवर पाय प्रणमी, मानव भव सफल नहीं ।।२।। प्रबंदाचल मेवाड देस लाइ मरहठ पामीउ । चित्रकोट गुजराति देस मालव सिधु देशि कामीउ । काशमीर करहाट देस विराट हु' भ्रम्य प्रति घणउ । परिभ्रमण कीधी द्रव्य कारणी पार न पाम्यु तेह तणु ।। ३ ।।
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जीवन परिचय एवं मूल्यांकन
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पुत्र जन्मोत्सव पर अनेक प्रकार के प्रायोजनों का सम्पन्न होना, उपाध्याय के यहाँ विधार्थियों का प्रध्ययन, सभी तरह की विद्यापों, कला एवं अन्य विद्यामों में पारंगता प्राप्त करना, विवाह के अवसर पर बाओं का बजना, स्त्रियों द्वारा मंगल गीत गाना, नृत्य करना, बन्दीजनों द्वारा गुणानुवाद करना, घोड़े पर चढ़कर विवाह के लिये प्रस्थान करना, दहेज में सोना चांदी, रत्नों के आभषण देना, विवाहोत्सव पर विविध प्रकार के व्यजन तैयार करना, आदि प्रथानों के नाम उल्लेखनीय है । इसके तत्कालीन समाज का कुछ कुछ परिचय प्राप्त किया जा सकता है। नारी को त्यागने के प्रति बंन काव्यों में उत्माह्न वर्धक अंश रहता है । नारी के त्यागने पर मुक्ति मिल सकती है । क्योंकि नारी शोर गृहस्थी का तारात्म्य सम्बन्ध है है । यदि किसी के जीवन में नारी है नो वराम का प्रभाव है । साधु के जीवन में प्रवेश करने के पूर्व नारी का परित्याग नितान्त आवश्यक है इसलिये प्रत्येक जन कवि ने अपने काव्यों में नारी की प्रशंसा के साथ साथ उसकी निन्दा भी उसे संसार परिभ्रमण का कारण मान कर की है । प्रस्तुन काव्य भी इस से अछूता नहीं बचा और यहां भी विभुवनकीति ने नारी के प्रति निम्न विचार प्रस्तुत किये है ---
क्रूड कपटनी कोथली, नारी नीठर जाति । नसकि देगी रूपान, करि पियारी तात ॥१०॥
सीयल रयण नवि तेह गमि, हीय डा सुधरी मोह। रस सूरमि अनेरडी, अन्य बडाधि दोह ॥११॥
दया रहित प्रति लोमणी, धर्म न आणि सार ।
दयामणी दीसि, सही रूठी क्रूर अपार ॥१२॥
नारी के सौन्दर्भ के प्रति अरुचि पैदा करके मानव में वराग्य की भावना उत्पन्न करना ही जन काव्यों का मुख्य उद्देश्य रहा है। काव्यों के रचयिता स्वयं जनाचार्यों एवं सन्तों ने इराको पहले अपने जीवन में उतारा है और वही बात काव्यों में प्रस्तुत की है। जम्बूस्वामी भी अपनी नवविाहित ऐसी पत्तियों का त्याग करते हैं जिनके विवाह की मेंहदी भी नहीं सूनी थी तथा विवाह का कंकण हाथों में ही बंधा था । लेकिन यदि निर्वाण पथ का पथिक बनना है तो इन सबका परित्याग करना पड़ेगा । इसी त्याग के कारण एक 'साधु सम्राट द्वारा पूजित होता हैं इन्द्रों एव देवों द्वारा नाराम्य होता है।
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कविवर त्रिभुवनकोति
भट्टारक त्रिभुवनकीति जैन सन्त ये । त्याग उनके जीवन में उतरा हुआ था । इम प्रकार के सन्त जल में कमलयत रहते हैं । वे अपने भक्तों को पाप के कार्यों का त्याग करने एवं पुण्य के कार्यों को अपनाने के लिए कहा करते हैं। यद्यपि पाप एवं पुण्य दोनों हौ संसार का कारण है लेकिन पुष्ध से उत्तम गति उत्तम देह, ऐश्वर्य एवं मभ्यत्ति सभी तो मिलती है । इसलिए ऐसे कार्यों को करते रहना चाहिए जिससे सतत पुण्य का उपार्जन होता रहे। प्रस्तुत काव्य में कवि पुण्य की प्रशंसा भी इसीलिये निम्न शब् मैं करते हैं
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२६०
पुण्य धरि घोडा नीलास पुष्यि विर लक्ष्मी नु वास । पुष्यि थिरि रिषि प्रविसार, एस पुण्य तणु विस्तार ||२४||
1
में
प्रस्तुत काव्य जवाछ नगर के शान्तिनाथ चैत्यालय में रचा गया था इसकी एक मात्र पांडुलिपि जयपुर के दिगम्बर जैन तेरह पंथी बड़ा मन्दिर के शास्त्र भंडार गुटका संख्या २५५ के पत्र संख्या १६१ से १६० तक संग्रहीत है। प्रस्तुत पांडुलिपि संवत् १६४४ फागुण शुक्ला अष्टमी की लिखी हुई है। लिपि स्थान बडवाल नगर का आदिनाथ जिनालय था। लिपिकर्त्ता थे ० सामल जो काष्ठा संघ में नन्दीतटगच्छ के विद्यागण के भट्टारक विश्वभूषण के शिष्य थे ।"
१. संवत् १६ ४४ वर्षे फागुण मासे शुक्ल पक्षे भ्रष्टम्यां शुक्रवासरे बडवाल नगरे श्रादिनाथ चैत्यालये श्रीमत्काष्ठासं नंदीतटगच्छे विद्यागणे भट्टारक विश्वभूषण तत् शिष्य ब्र० सामल लिख्यते ।
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जम्बूस्वामी रास रचनाकाल संवन १६२५ रचनास्थान-जवाछ नगर
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अथ जम्बूस्वामी रास लिख्यते
मंगलाचरण
वीर जिणर २ नमते सार । तीर्थकर चुबीसमुदाँछित फल बहु दान दातार । बालपणि रिधि परिहरी, वरीय सयम भार मार । रुद्र पूरीसह प्रति सही, करी वली तप प्रचार । हूया ते मुगति नाराजीया कमहणी कटोर ॥१॥
हा- तीर्थकर वीस जे पूर्शव हूया ते सार ।
तास चरण प्रणमी करी, कवित करू' मनोहार ।।२।।
सिद्ध सूरि उवज्झायना, प्रणमी साधु मुनिद । हृदय कमल बिकासवा, जाण अभिनव चद ।।३।। केवल वाणी रूपही, मनधरी सारद माय । निर्मल मति मुझ प्रापज्यों, प्रणयुतमचा पाय ।।४॥
श्री उदयसेन सूरी वर नमी, त्रिभुवनकोत्ति कहि सार । रास कहुँ रलीयामणु, अक्षर रयण भंडार ।।५।। भवीयण जन समे सांभलु, चरित्र जम्बूकुमार ।
सार सोक्ष जम लहु, बाँछित फ़ल बहु सार ।।६।। मगध देश की राजधानो राजगृही का वर्णन चुपई-सायर द्वीप प्रसंख्या जाण, तेह मध्य जंबू द्वीप बग्याण ।
लक्ष योजन कुडल भाकार, त्रिगुणी परिधि पछि विस्तार |1911 मेर सुदर्शन मध्यि का , सहश्र नवाणु' रक्षु । सइच योजन भू मध्यि जाण, पंघ वर्ण रत्न मिव बस्याग ।।८।।
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कविवर त्रिभुवनकीति
मेर थकी दिक्षण विभाग, भरत क्षेत्र बमि तिहां लाग । पंत्रसि योजन छत्रीस. छह कलावर जाण ईश |६||
मगध देश अछि तिहां चंग, सविहू देश माहि मन रंग । राइण केल अनिसहकार, दाडिम द्राव तणत नहीं पर ।।१०।।
ठाम दाम दीसि प्रासाद, झालरि हॉल दादांमा नाद । कनक कलस ध्वजा लहकंत, ठाम ठाम मुनिबर महत ।।११।।
मटंब धोख करबट छिपणा, पुर पाटण नगर नहीं मणा । टाम ठाम पर्वत उत्सग, मुनिवर ध्यान धरि रही श्रग ।।१२॥
देश मध्य मनोहर ग्राम, नयर राजग्रह उत्तम ठाम । गढ़ मढ़ मदिर पोल पगार, परहटो हाट तणु नहीं पार ।। १३11
धनयंत लोग दीसि तिहां घणा, सज्जन लोक तणी नहीं मणा । दुर्जन लोक न दीसि ठाम, चोर चरड नहीं तिहां ताम ।।१४।।
धरि परि वाजिन्न वाजि चंग, घिर घिर नारी रि मन रंग । धिर धिर उछध दीसि सार, एह सहू पुण्य तण विस्तार ।।१।।
राजा धेणिक एवं चेलना रानी का वर्णन
तिणि मयर श्रेणिक छि राय, सवि भूपती जीता भडवाय । शन करी सुर वृक्ष समान, याचकनि देह बहुदान ।।१६।।
धर्म त राय करि विस्तार, पाप तणु करि परिहार । समकित रयण भूक्ष पारीर. कामदेव सम रुपि धीर ।।१७।।
ज्ञान विज्ञान जाणि सवि भूप, जीवा जीवा जाणि स्वरूप । प्रथम तीर्थकर मनागत सार, कर्म ताणुउ करि परिहार ।।१।।
से धरि राणी चेलना कही, सली सरोमण जाणु सहो । समकित भूक्षउ तास सरीर, धर्म ध्यान घरि मन धीर ।।१६।।
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जम्बूस्वामी रास
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इस गति चालि चमकती, रूपि भा जाणउ मती। मस्तक वेणी सोहि सार. कंठ सोहिए का उस डार ।।२० ।
काने कुचल रत्ने जडयां, चरणे नेजर सोवन धशा । मधुर वयण बोलि सुविचार, अग अनोपम् दीसि सार ।।२१।।
राय तणी राणी छि इसो, सुख विलास ते हम उल्हमी । तेह सरसु भोगवह सुख भोग, तेह सरसु भवि लहि वियोग ।।२२।।
काल गउ नवि जाणि राय, राज्यपालि जिन पूजि पाय । चिहु प्रकार देह बहु दान, मन अहिङ्कार न धरि मान ।।२।।
पुण्यि धरि घोड़ा नीलाम, पुण्यि घिर लक्ष्मी तु वाम । पुण्य पिर रिघि अविसार, ए सहू पुण्य तणु विस्तार ॥२४॥
भगवान महावीर के समवसरण का आगमन दहा-एक दिवस विपुलाचलि. प्राध्या वीर जिणंद ।
समोसरण धनदि रचउ सीख लेइ त ब द ।।२५।।
रयण सुवर्ण रूपयामि, घूली गढ़ ए च्यार गढ गढ प्रति सोभति पोल अछिच्यार च्यार ||२६।।
मानस्तंभ अति रूमडा सोहि च्यार उत्तंग । यायव सिद्ध जा सह लहि, माहवानन करि चंग ॥२७॥
निमय प्रादि प्रति भली, बार सभा माईत । चतुर्निकाई देवता, तिहां अछि अनंत ।।२८।।
मध्य सिंघासण विसणि, विठा जिनपर भाण । सप्त भंगी वाणी हुई, गोजन एक प्रमाण ॥२६॥
भामंडल पूठि भलु . दिनकर कोडि समान । छत्र अय अति रूयडा पंच, परि बली ज्ञान ।।३०।।
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कविवर त्रिभुवनकीति
एक दिवस वनपालक, पाठ्यु वनह मकार छह रनां फल देखीनः मन माहि करि विचार ||३२||
श्रोणिक द्वारा भ. महावीर की वंदना
समोसरण जिन बीरनु, आव्यु विपुलगिरि राय । हरष घरी मन आपण देव पंचाग पसाय ||३३||
सिंघासन श्री आनंद भेर देइ
7
उतरी, ते दिश नमोज राय I करी, वोरनि वंदन जाय ||३४||
वस्तु - तिप्रिय २ राजा भाव तरी मनपाणि स्नान करी ।
वस्त्रांग पिहरी सामग्री सवि सज करी । निर्मल भाव मन माहि घरी ।
राग गुडी ढाल साहेलडोनी.
पट हस्ती नगरीनि चाल्यु सवि परिवार |
प्रष्ट प्रकार पूजा लेई करतु जय जय कार ||१|| ||३५||
वीर जिणेसर वांदवा जी, चाल्यु श्रेणिक भूप ।
भाव धरी मन आपणे जी, जाण तु तस्य स्वरूप |
हो स्वामीय गुरू बंदण जाई, वीर तप्पा गुण गाई रे साहेलडी || १ || ||२६|
गज बिसी राजा बालीउ जी, साथि सहू परिवार |
वाजित्र वाजि अति घणा जी, संख्या रहित अपार । हो स्वामी ||२|| ||३७||
मैगल माता प्रति घणा जी, राजवाहन चक्रड़ोस |
वाय वेग तुरंगमाजी, तेह् श्रधि बहू मूल ही स्वामी || जग||३||३८||
मस्तक छत्र सोह्रामणु जी, चमर ढलि बिट्ट पास ।
दान देव राजा अति घणुं जी. याचक पूरि आस हो स्वामी || जन ||४||३१||
मान घरंतु प्रति धणु जी, लागू जिनवर पास ।
त्रण प्रदक्षणा देईनिजी, पांदि मन उल्हास हो स्वामी || जग || ५ ॥ ४० ॥
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अम्बूस्वामी रास
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अस्ट प्रकारी पूजा करी जी, स्तवन करि रे नरिंद 1 जग गुरू जंग मुनु राजीउजी, जगप्रय सेवि जिर्णद हो । स्वामी।।६।।१।।
जिन जीइ पम प्रकासीउ जी, कड़ीउ तत्व स्वरूप । चिहगति नां सुग्न दुख कहां जी, से मवि सुणीयां भूप हो स्वामी ।।७।।४२।।
देब एक तिहाँ प्रापी जी, अपहरा च्यार सहेत । देखी मन माहि चमकोउ जी, पुचि देव न देत हो वामी ॥
१४३ ।
राजा श्रेणिक को जिज्ञासा
राई जिनवर पूछीया जी, कह स्वामी कुण एह । विद्युन्माली देवता जी, जिनजीइ कह सह हेत हो स्वामी ॥जम ४|
काज यकी दिन सातमि जी, चसि एहज देव । पन माहि संदेह प्रामित्र जी, पूछि थेणिक हेव हो स्वामी ।।जय।।१०।४५
पूरवि तमो इम कहू जी, पट मास इह ज प्रायु । ठंमाला म्लनिज हुइ जी, तेह हद सुछ आयु हो स्वामी जग।।११॥४६॥
बैंक भावी पूजा करी जी, विठउ सवि परिवार । एतलि राह पूछी जी, देवनु सहुई विचार हो स्वामी । जम॥१२॥11
सांभल राजा तुझ कद जी, देवनु सहूइ विचार ।
एक मनां महू सांभलु जी, जिम लहू सोख्य अपार हो स्वामी ॥जग।१३।४।। भ० महावीर द्वारा समाधान
बस्तु वंध-तुणु राजन सुण राजन देव चरिष ।
भवदस्त भवदेवनु कह चरित्र, मन पाणंद प्राणी । नप जप संयम प्राचरी घरीय ध्यान मन ज्ञान बाणी । प्राज थकी दिन सातमि स्वर्ग थकी चवी सार । देव देवी सुम्स भोगवी, मध्य लोक प्रवतार ||१४॥४६।।
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वर्तमानपुर नगर वर्णन
हाल यशोधरनी
कविवर त्रिभुवनकोति
सहि
जंबू द्वीप भरह क्षेत्र वर्द्धमानपुर नाम सार भत्री मन मोहि ॥१॥५०॥
मिध्यात्व द्विज प्रतिषणाएं, तेह नयर मकार | वेद स्मृति यज्ञ करीए हणि जीव अपार ||२||११||
स्वरंग मारग लिपि कारणि ए. करि धर्मज एह । जीव तत्व अजीव तत्व नवि जाणि ते ।।३।। ५२ ।।
मिथ्यात्वी द्विज एक वमि, तेह नयर मकार I आर्यवसु तसु नाम मंजु, सोम सर्मा नार ॥४॥१३॥
तश्य तणी कुखि उपनीए, भवदत्त सास्त्र सवे भणावीयाए. पाम्या योजन ते
भवदेव
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। । ५ । । ५४ ।।
प्रष्टादस अरसह तणु ए. हुउ भावदेव बार वरस तणो उलंघए, हुउ भवदेव ।।६।।५४।।
1
1
एक दिवस श्रार्यवसू ए. पापह परिभाव कुष्ट घणु तेह नीसरयुड पाम्यु दुख दाब ॥७।। ५६ ।।
बीवत अस्था परहरीए, काष्टह घणां मेली । बिहा करो प्रवेश कीउ, साथि स्त्री सहेली ॥८॥५७॥
पित् त दुख पुत्र करि, नवि जाणि समं । धिर रह्यां सुख भोगविए, नवि जाणि धर्म ||६|| ५८ ||
एकदा मुनिवर आवीयाए, सौम् स्वाम I ज्ञानवंत यक्षी नायकु ए तेज तणु धाम ॥ १० ॥ ५६ ॥
दश लक्षण घुर धर्म घरि प्रण रश्न भण्डार । क्यारि कषायन ऋण सरन्य, ते रहित संसार || ११ || ६ ||
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जम्बस्वामी बास
भवदत्तादिक नगर लोक, प्राग्या तेणि ठाम || मुनिबर वांदी पाय पूजी, विठा सचिताम ॥१२॥६१॥ मुनिबर बोल्यु बिहुय परि, श्रावक यती धर्म । सात तस्व पुण्य पाप भेद, कह तेहज़ ममं ॥१३॥६॥
धर्म प्रभावि जीव, लहि स्वरग अवतार । पाम प्रभावि नरक माहि, छेदन दुख अपार ॥१४॥६॥
जाइ प्रावि जीव एकलुए, चिहं गति मझार । ए कलु सुख दुख भोगवि ए, जीव इणि संसार ॥१५।। ६४॥
मुनिवर बांगो सनिली, मायदेव बना । बैराग पाम्य भति घणु ए, संसार धी संक्यु ।।१६।१६५
दिक्षा लीधी जिण तणी ए, सवि मूकी संग। चारित्र पासि निर्मलुए, मन घरीय सवेग ॥१७॥६६॥ एकदा मुनिवर चितविए, भ्राता भवदेय । मिथ्यात्व मत माहि पड्यु ए. प्रतिबोधु हेव ॥१८॥६७।। गुरू वादी एक शिव्य लेइ, चाल्यु मुनि तेह 1 भव देव घिर प्रावीउ, दीठ तच गेह ॥१६॥६।।
उछन देखी अति घणुए, पूछि भावदेव । कर कंकण कुण कारगिए, बोलि भवदेव ॥२०॥६६॥
मद्धमान पुर माहि द्विज, दुर्मख नागदेवी । तेर सणी घी नागलए, स्वजने परणावी ॥२१४७०।।
माभली मुनिकर कम कम्युए, सोलि बछ बात । घमं बिना जीव नधि लहिए, इंद्रादिक ता तउ ॥२२॥७॥ वचन सुणी अति बीहनुए, श्रावक व्रत लोघां । सकिति लीघनिर्मलए, मूलगुण दीयां ॥२३॥७२।।
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कविवर त्रिभुवनकीति
मुझ धिर स्वामी प्राहार सई, विस मेह : माहार लेई मुनिवर कहिए. अखय अन्नं एह ॥२४॥७३॥
माहार लेई धर्म वृधि कही, चाल्यु तल रवेव ।। कमडल लेई पूठ थकी, चाल्यु भयदेव ।।२५।।७४।।
मारग जातो चितविए, किम जाउ गेह । कंकण केरा काज सवि, किम करूय तेह ।।२६।।७।।
मारग जातो देखदिए, मरोच नर वन वृक्ष स्वामी जाणउ मुझ गेह. मुभ मंडप दक्ष ॥२७॥७६।।
खोलि मूनिवर सूण वष्ठ, नहीं मंडप गेह । चालिनि मुनि मायीयए, बिका तिहां सेह ।।२८॥७॥ देखी मुनिपर बोलिया ए, भाई प्रति बोधी । दिक्षा लेबा ल्याबीउ, भवदेवह सोधी ॥२६॥७८||
वचन सुणी मन चितविए, हवि कर केम । वाघ दोतर विचि पड्यउ, ए जीव घरू फेम ॥३०॥७९॥
लाज' आणी मन पाणिए, मांगि व्रत हेव । ससि दिक्षा मुनिवरिए, दीधी भव देव ॥३१॥८०11
कामिक तप प्रतिघणु ए करि मन प्राणी । नागला रूप सौभाग्य कला, मन माहि जाणि ॥३२।।१।। बर्द्धमान पुर संघ सहित, पाब्या मुनि ताम । ध्यान घरी मुनिवर सहुए, बिठा निज ठाम ।।३३।।२।। माहार लेवा नगर मणी, चाल्यू भवदेव ।
चैत्यालु सम देखी ए संसि हउ हेव ॥३४॥८३।। वस्तु-तेह मुनिवर तेह मुनिवर प्राव्यु पुर मध्य
नेह घरी मन प्रापणि, नागला नारी उपरि अपार । नगर माहि घली पिसंता, देशु चैत्य नव उधार | देखी प्रमाद स्याउ, मन चिति मुनिराय 1 चालीनी तिहा आवीउ, दीठी तिहां एक नारि ।।३५।।४।।
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जम्बूस्वामी रास
वोहा मीण गात्र प्रति दूबली. जोवानि नही लाग । मुनिवर वांदी नागला, बिठी अमेवि भाग ।।
१५।।
धमं वृद्धि भुनि इम कही, पूछि पूर्व विचार । भवदत्त भवदेव द्विज, किस कार ब्यापार ।।२।।६।।
वमन सुणी कहि नागला, मुनि हूया भवतार । मामली कि काली, मामला नारि विचार ॥
४॥
पौवन पायी प्रति घणु, परण्यु भवदेव । नारि तेह बडा किसु करि, किम रहति प्राधार ||५||
वपन अलापिउ लक्षु, जाण्यु ए भवदेव । स्थितिकरण करू पणु, प्रतिबोषं मुनि हेव ||१||
पचन सुणी मुनिवर तणा, छोधि नागला नारि । रे रे मुनिथर तुझ कहु सामलि बचन उदार ॥६॥१०॥
जिन दिक्षा जिन दर्शन, प्रामी घरम संयोग । विषय सुख मन माहि घरी, कुण इछि वर मोग ||७||६||
समकित चितामणि समु, प्रामीनि ममहार । विषय सुख दुर्गाति तणा, दुःख देइ अपार ॥ २॥ स्वरग मुगति सुख दायनी, प्राणी दिक्षा सार । नयरतणी दाता सही, कुष ई छिए नारि ॥६॥६३|| कूड कपटनी कोथली, नारी महिर जाति । नसकि देखी स्याउ, करि पियारी तात ॥१०|| सीमल रयण नवि तेह गमि, हीयाडा सुधरी मोह । रस सुरमि अने रडी, अन्य चावि दोह ।।११।।१५।।
दया रहित प्रति लोमणी, धर्म न जाणि सार । दया मणी दीसि सही, रूठी क्रूर अपार ॥१२|६ ।।
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३०२
कविवर त्रिभुवनकीत्ति
नारी रूप न रात्रीय, गुण राउ स कोड जनर नारी मोहीया, हो नि जागि लोय ।।१३।। ६७ ।।
नवे द्वारे प्रशुचि चविमल पुस्यु तस देह | सत्य भाषि सदा सत्य न बोलि तेह || १४॥ ६८ ।।
इथो बचन ज समिली मास्यु मुनिवर लाज । अवो मुख जो घउ, नवि सरयुद्ध सुझ काज ॥१३६॥
जे पूछिति नागला, ते मुझनि तु आण 1
देह कुछित मुझ देखीनि मम कर मोह प्रयाण ।।१६।। १०० ।।
मोहि नर दुर्गति सहि, प्रामी दुखनी खाणि मोह करि जे प्राणीया, करि सवि जीव नौहाणि ॥ १७॥ १०१०
द्रव्य हतु जे ताहरू, खरचीनि मनोहार | चिरयकराच्यु रूपउ, पुण्य तणु आधार ॥। १५ । १०२३१
परिग्रह सहूइ परिहरी श्रावक व्रत घरी सार 1 हणि स्थानिक तप जप करि, रहती जिन श्राधार ।। १६ ।।१३।।
एहवी मुझनि जाणीति, चंचल चित्त मम थाय । निश्चल मन करे श्रापणु, सेवि जिनवर पाय ॥२०॥१०४॥
वचन सुणी नारी तणां लाज लही अपार । नाव समान मुझ तु हुई, उत्तारखा भव पार
।।२१।। १०५ ।।
जे नारी सहूइ कहि ते ए नारन होइ । स्वरग मुगति सुख दायनी, एह समान न कोइ ।।२५।। १०६ ।।
क्षमा क्षमतभ्य कही, श्राव्यु धनह मकार
गुरु चरणे प्रणमी करी, मांगि संयम भार ॥ २३॥। १०७ ॥
भाव चारित्र लेई करो, तप जप करि प्रधोर । राग द्वेष सहू परिहरि, विषय निवारि चोर ।। २४ ।। १०८ ।।
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जम्बू स्वामी गस
३०३ वि मुनिवर अति रूपड़ा, ध्यान धरि बन माहि । संयम पालि निर्मल, घरीस ते मन उछाह ॥२५॥१०६11 पवमानि विपुलाचलि, याव्या ने मुनिराय ।
अणमण लेई ध्यान मू. भूमि के मुनिकाय ।।२६॥११॥ बस्तु बेह मुनिवर बेतू मुनिवर करी नप घोर ।
सप्प सागरनि प्रायु खि तृतीय स्वरग अवतार । प्रामी ममकित पालि निर्मलु चारित्र भावि । स्वरग गांमीय सुख भोगांब ब प्रति घणु कीडा करि पार ।
काल गउ जाणि नहीं भोग लही सुख सार ॥२७॥११॥ ढाल-मिधामोती
जंबू द्वीपि भति भलु ए, पूर्व विदेह विक्षात तु । उत्सर्पणी अबसपीए, काल तगी नहीं बात तु ॥१॥११२३॥ सलाका पुरुषह उपजिए, अंतर नहीं तिहाँ हेततु । कोड पूरलु नु मायुखुए, पच सिंघ नु देहतु ॥।॥११३।। अब्ध मिथ्यात्व तिहां नहीए, दीसि सास्वत काल तु। पंच ज्ञान तिहाँ सास्वताएं, सास्वतां तत्व रसाल तु ॥३॥११४|| बिदेही मुनिबर प्रतिषणाए, मुनि दीसि रिधिलंत तु । मोक्ष मारग एस जाहए, संधि सौख्य अनंत तु ॥४॥११॥ व्यसन एक तिहां नहीं, एक नवि दोसि तीहां कुरीति तु । सत्य भाषि नर अति घणाए, नवि दोसि तिहाँ ईत तु ।।५।।११६॥ तस मठिय देसह मलजए, पुकलाबती ससु नाम तु । मटव घोष करबट भरघु ए. नगर दीसि ठाम ठाम तु ।।६।।११७।। पुडरीकणी नगरी भलोर, देशह तेह मझारतु | पैत्य त्याला प्रति घणा ए, बन उपवन अपार तु ।।७।।११।।
ध्यान धरि मुनि प्रति घणाए, स्वरग मुक्ति तणि हेतु तु । पुण्यवंत नर मति भलाए, नारी नर भीलवंत तु ।। ११।।
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३०४
कविवर त्रिभुवनकाति तेह नगरी नु राजीउ ए, ब्रमदंत तेह नाम तु । घोर प्रतापी प्रति भलुए, सोहि अभिनवु काम तु ॥२०॥ तस पट राणी स्यडीए, विशालाक्षी तस नारि तु । भवदत्तु जीव जे पछिए, श्रीजा स्वरग मझार तु ।।१०॥१२॥
तिहां थको चबी उपनुए. तास यपरि अवतार तु । सागरचन्द्र नामि भलुए, दिन दिन वानि अपार तु ।।११।१२२।।
पीतशीका नगरी भली ए, तेह देस माहि जाण तु । मणि माणिक पुरी अछिए रत्न तणी ते खाणि तु ॥१२॥१२३॥ तेह नगरी नु राजीउग, चक्रधर महा पद्म तु । घट खण्ड ते भोगविए पौद रत्न तेद छद्म सु ।। १३११२४॥ नयह निधि घिर प्रति मसीए, सहस्र बीस राय तु । छन् सहम अते घरीए, सेवि तेह न पाय तु ।।१४।।१२।।
अठार कोड तुरंगमाए, लक्ष चउरासी नाग तु । एतला रथ चंदन तणा ए, पायदल तणु गहीं भाग तु ॥१५॥१२६।।
छन उप कोखि प्राम अछिए, सहम बोसह देस तु । पण कोद्धि गोकल अहिए, एक कोचि हल हेसतु ।।१६।।१२०॥
राज रिद्धि सुख भोगविए, पुत्र रहित राय तु। पुत्रनी बोछा जब करिए, सेवि जिनवर पाय तु ।।१७|१२८॥
मषदेव परजे अछिए, स्वरग थकी चवी हे ततु । शिव कुमार नरमि भलु ए, पुत्र हुड तस गेह ॥
१२॥
बीज चंद तणी परिए, दिन दिन वाघि देह तु । माठ बरस जब वु लोया ए, भणया मुक्यु तेह तु ॥१॥३०॥
शास्त्र सवे भणावीउए, प्राम्मु ज्ञाननु संच तु । विवाह मेली परणावीए, कन्या सुभसि पंच तु ॥२०॥१३॥
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जम्बूस्वामी रास
तिहुं सरसां सुख भोगविए, क्रीडा करि अपार तु । एह कथा हवि इहां रही ए, प्रवर सुणु विचार तु ॥२१॥ १३२।।
सागरचंद्र नामि भलु ए, सुख भोगवि समान तु । भवधि ज्ञानी मुनि भावीयाए, प्राव्यु नगर उद्यान तु ।।२२।।१३३॥
नगर लोक कुमारसु ए, बाल्या सब परिवार तु । मुनि वांदी धर्म सांभलीए, पूछि निज भवसार तु ॥२३॥१३४।।
पूरव मब मुनि पर कह या, ए प्राम्यु प्रति बैराग्य तु । दिक्षा लेई मुनि तप करिए, करतु जीवनु माग तु ॥२४॥१३५।।
विहार करंतु प्रावीउ ए, पीतशोक मुनिशय तु । राज द्वार पासि भावीउ ए, सेटि प्रणम्या पाय तु ॥२५॥१३६।।
पडघाई घिर प्राणीउ ए, प्रहार दीउ अपार तु । रश्न वृष्टि तिहां हुई ए हउ तिहा जयकार तु ।।२६।।१३।।
कोलाहल हुज घणा उए. कुमार सुणीउ ताम तु । मुनि साहमु जब जोई ए, जाति समर तिणि ठाम तु ।।२७।।१३।।
पूरद वृतांत ह जाणीउ ए, आप्यु मुनिधर पास न । देखी मुनिवर मूर छयु ए, चेत रहित नीसास तु ।।२।।१३६।।
स्वजन मिली तिहा प्रावीयाए. पूष्ठि मातनि सात नू । कुण कारण तु मूरछयु ए, अम्हनि कह सहू वात नू ॥२६।।१४०.।
दिक्षा लेउ ब्रह्मो रूपहीए, तप करतूं ब्रह्मो माय तु । सुगीय वचन बिलखी हुई ए, कुश मानसी प्रनि राय तु ॥३०॥१४॥
तात्त भिवारि पृवनि ए, दिक्षा नु नहीं काल तु । जिन दिक्षा दोहिली अछिए, घिर रही व्रत पालतु ।।३१।। १४२।।
सुणी वचन तात तणाए, घिर रहु कुमार तु । तप करि तिहा प्रति घणु ए, नीरस लेइ माहार तु ।। ३२।।१४।।
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३०६
कविवर त्रिभुवनकोति
विषय सुख सहू परिहरिए, परिहरि नारी संग तु । सहू परिहरिए, ध्यान धरि मनरंग तु ।। ३३ ।। १४४ ।।
राम
बरस उरामो सहश्र लगि तप कर अन्त काल दिक्षा घरीए, संयम पाली सार तु
अपार तु ।
||३४|| १४५ ।।
सुभ ध्वानि काल करीए छट्ठा स्गरंग मझार तु । स्मानी देव हुए, इद्र तणु अवतार तु ॥३५॥१४६॥
सागर दर्शन भाषिए, नथि बागि गत काल तु । प्यार देवीस मल रलीए, भोगवि सौल्य रसाल तु ।।१६।। १४७ ।।
सागरचन्द्र तप करीए, पाली घणसण सार तु । विणि स्थग प्रेते हुए, भोगथि सोक्ष अपार तु ॥३७॥१४६॥
बस्तु सृणु श्रेणिक सुणु श्रोणिक एड् कथा सार । विद्युन्माली देवता च्यार नारि इह भाय्यु | आज की दिन सातमि चचीय भवह अवतार । पानि मगध देश राजहि श्रहंदास घिर सार + जनमती कवि अवतार जंबूकुमार भवतार ॥३८॥१४६॥
चुपई - जंबूद्वीप भरत मझार, नयर राजग्रह उत्तम ठार ।
राजकारि तिहां श्रेणिक राय, सबि भूपति प्रथमि त पाय ।। १ । १
नयर घुरंधर श्रेष्ठी वस, मदास नामि उल्हसि । धर्मधुरा घरि मन वीर, समकित भूख्यउ तास शरीर ।। २ ।। १५१ ।।
दाता घरमीनि गुणवंत, राज्य मान प्रति शीलवत । प्यार प्रहार देह बहू दान, मन अहिकार न धरि मान ।। ३ । । १५ ॥
तस विर राणी शीलि सती, चंद्र वदना नामि जिनमती । पोन पयोधर मदनावास, विबाधर कोकिल संकास ॥४॥१५३॥३
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जम्बूस्वामी राम
नव योवन पूरि से नार, कंठ सोहिए काउल हार 1 शीलाभरण भूख्य तस देह, दिन दिन पनि
यि ॥५॥। १२४ ।।
एक दिवस सूती जनमती, पश्चिम रयणी देखि सती ।
पंच स्वपन देक्षां प्रभिराम नयणे नींद्र न मावि ताम ।। ६ ।। १५५००
पहिलि
दुनिया रहित पात फूल रसाल ।
बीजि निरघूम प्रति अंगीठ, शाल क्षेत्र त्रीजि घगउ मीठ ||७|| १५६ ॥
सरोवर चुधि दीठउ जान त मारस क्रीडा करि ताम । पंचमि समुद्र दीव तिहोसार, उ प्रभात जागी तिणि वारं ।।८।। १५७॥
अर्हदास प्रालि को बात, पंच स्वपन देख्या विक्षात । सुजी वचन बन जाई नाह, मुनिवर प्रणमी पूछि साहू ।।६।। १५ ।
सुखी वचन बोलि मुनि रही, स्वपन फलाफल जाणउ सही । जंबू फल देख्यउ तदेव नारि, पुसि चिर जंबू कुमार ।।१०।। १५६ ।
निरधूम पनि देख्यउ तम्हे सुणउ, क्षय करनि सर्व करमह तनु । शील क्षेत्र देख्या अभिराम, लक्ष्मीपति होस गुणधाम ।।११।। १६० ॥
३०७
जल पूरयु सर दीठ सार, पाप तणु करसि परिहार | रत्नाकर देख्यु तिणि बार, जन बोधी भव तरसि पार ।।१२।। १६१ ।।
बरस सोले त्यजी पर वार, व्यारि नारि छंडी परिवार | दीक्षा लेई तप करसि सार, चरम देही होसि भवतार ।।१३।। १६२ ।।
सुणी वचन हरष्यु प्रवास स्वजन महित प्राब्यु भावास । सुबलसि नारीनि नाह, काल गये नवि जाणि साहू ।।१४।। १६३ ।।
भाउ प्रति तडिरमाली देव, स्वरग थकी पयो ते लेव । जिनमती उपनु गर्भ, दिन दिन बाधि तेज दंभ ।। १५ ।। १६४ ।।
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३०८
1
कविवर त्रिभुवनकीति
गर्भकरी सोहि जिनपती उत्तम डोहला धरती सती ।
विनय भंग न पानि दे, सुरित गेहूँ ।। १६ ।। १६५ ॥
मन बछित पूरि भरतार ए सहू पुण्य तणु विस्तार |
r
पुष्यि नर पामि धणी रिवि, पुयि विरि हुइ सहू सिधि | ११६६ ।
मास नव पूरा यया जलि, पुत्र जनम हुउ घिर तमि
श्राषाढ घिर भजु पालि पाख, प्राटिम दिन जाणन ए माथ ||१०१.१६७ ।
वस्तु - पुत्र जन्म पुत्र जन्म पति मनोहार |
धिर विर उछ्व प्रति घणा, धिर धिर वर्तिय मंगल च्यार |
स्वजन जन सहू हरषीउ, नयर लोक प्रति अपार ।
बंदी जिन विदावली, बोलि प्रति घणो सार ।
हरष कूड हीइडि षणु प्रशस तम नारि ।। १६ ।। १६८ ।।
I
हाल माताती
धिर घिर उच्च प्रति घणाए, मालंतडे धिर धिरमंगलच्यार सुणु सुदरे । नयर लोक सह हरपीउए । म उ करि रे अपार ॥१॥
धिर घिर गुडी उछलीए । म तलीया तोरण सार ।
बंदी जिन बोलिए मा० विउदा चलीय कुमार ||२|| १७०॥
जय जय शब्द करि धणु ए । मा० प्राकासि रही देव । दुभिनाद करि भ्रणु ए मा०
रतन वृष्ठि करिव ।। ३।। १०१ ।।
नारि अक्षांणा लेई लेई ए मा० आवि श्र ेष्ठ व्यावास । taraifa इम कहीए | मा० जीव जे कोडि वरस ||४|| १७२||
नयर सहू सणगारीइए । मा०
क्लीय विसेखि हाट । चां सबै सगारीए । मा० घिर गवाक्षनि वाट । ५ ।। १७३॥
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जम्बूस्वामी रास
नन करि करि नश्यंगनाए ।मा०। गीत गाइ रताल' ! वाजिव वाजि प्रतिषणा एमा०। बोल ददांमां कमाल ॥६॥१७॥
निवलो तूरमा दल घणारा मा०। भेरि वाजि वर चंग । इणी परि जनम महोत्सवए ।मा०। थेष्टि हिउ रंग ॥७॥१७।।
जिन मर गूगा । "चम कपूर मिवाव : चविह दान देश घणाउए ।मा०। सदगुरूनी करि सेव ।।८।।१७६||
इणी परिदश वासरहूयाए ।मा छ। उछिव महितप्रपार । सोयषा अणसारि फरू ए ।मा०। जंबूय नाम कुमार ।।६।।१७७॥
बीजना चंद्र तणी परिए मा० दिन दिन वाधि बाल । एणी परि प्रष्टवर सहूयाए मा० सुदर सिगुण माख १०|१७||
जिनवर बिंब पूजी करी ए मा । भणावा मेल्यु कुमार। जैन उपाध्याय 'भणावताए ।मा प्रामीन भणवा पार ।।११।१७।।
कुण कुण मास्त्रज जोईयाए ।मा। कुण कुण ग्रंथनी जाति । कुण कुण भासज जोईयां ए |मा। कुण कुण जाणि बात ॥१२॥१७६।
व्याकर्ण शास्त्रज यती भण्यु एमा०। साहित्य तर्क प्रमाण । योतिक वैदिक ते भण्यु एमा० छंदनि काव्य पुराण ।।१३।१८०॥
चौदह विद्या नर लक्षणाए मा०। जाणि लिन पठारा । सर्व कलावती सीखीउ ए मा आणि सास्त्र विवार ॥१४||११||
घिर आबी क्रीड़ा करिए माल। रायना पुत्र संधात । राज लीला करि घणी ए मा0। घर्म तगी करि बात ।।१५।।१२।।
रूपि काम देव समुए ।मा। बल करी सिंघ समान । समुद्र समु गंभीर छिए 1मा. नवि धरि क्रोधनि मान ।।१६।।१८।।
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कविवर त्रिभुवन कीति
बशकीति न घणउ विस्तव ए |मा भूमण्डल जग माहू । बन जातां देखी करी करीए ।मा०। पौर नारी मन माहि ।।१७।१८।।
विरहानल व्यापी धणु ए |मा०। करिपछि विविध प्रकार । पगनु नेउर कहि शरिए ।मा०। कंठ तणु पगे हार ।।१८:१८३।।
किहिडितणी कटि मेस्नलाएमा । कंठ धरी तिणि वार । मस्तक वेणी सोहामणाउ ए मा०। किड धरि सुविचार ६१८६॥
माणु पुत्र मुकी करी ए मा०। पुग्नु पूत्र धरेव । घरनां काम मूकी करा ए मान चालि जेमात तसंव ।।२०।।१८७||
रूपदेखी कुमर तणुए मा। प्रामि मौह अपार | मन संकल्प धरि घणु एमा०। देखि रूप कुमार ।।२१।। १८८।।
माहो माहि एकसु कहिए ।मा०। बोलि एहबी बात । घन जननी कुभर तणी ए मा०। धन धन एहनु तात ।।२२॥१६॥
जो घिर पुत्र एह थिए ।मा। सरणं सवे तेह नो काम । शीलवंत स्त्री जे प्रलिए मा०। तेह लेइ एहसु' नाम ।।२३।। १६०॥
फामा फूल बोलि इKए ।मा०1 ते करीइ तप सार । मन्य जन्म एव समुए मा। प्रामीइए भरि ।।२४॥१६१।।
पापणु यसकात्ति न सहूए ।मा०। समिलि भापणे कान । इणी परि घिर सुस्वि रहिए ।मा। घरतु घरमनु ध्यान ॥२५१६२॥
उत्तम पुत्र एकि भतुए मा०। भार धरि कुल जेह । घणे मुडे सु कोजीहए ।मा०। खोपण आणि जेह ॥२६॥१६३।।
श्रेणिक रायनि वापसुए ।मा०) स्नेह धरि रे कुमार । सुख विलसि घिर रह ए मा । भोगवि सोक्ष पार ॥२७।।११
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जम्बस्वामी रास
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निणि नयर विवहारीउए ।मा०। सागरदस्त ते नाम । पदमावती कूखि मलीए मा०। पद्मश्री सुता नाम ॥२८॥१९५॥
घनदत्त बीजु भलुए मा। कनकमाला तस नारि । कनकधी पुरी भलीए ।मा। सवं कन्या माहि सार ३२६१६।।
वैश्रवण त्रीजउ बलीए मा। बिनयमाला स्त्री जाण । विनयश्री दुहिता भली एमा० बोलि मधुरी वाणि ।।३०॥१६॥
प्रणमन परशर लिए मा विनयवती तस नारि। लक्ष्मी दुहिता तस घिर ए ।मा। जाणि परम विचार ॥३१॥१९७।।
चार कन्या पछि अति भली ए ।मा ०। रूप सोभागनी खाणि । पृथु पीन पयोधरा मा०। बोलि प्रमृत वाणि ॥३२॥१६॥
कटियंत्र प्रति रूडीए मा०। मृग नयणी गुणवंत । स्वरग श्री च्यारि प्रवतरीए ।मा०। जाणि पूर्व वृतांत ॥३३।। १६६।।
सास्त्र सवि भणावीयां ए मा०1 कन्मा केरे तात । कला गुण सह सखिचीए मान हुई छि लोक विक्षात 1॥३४॥२०॥
पुत्र पुत्री जण्या विना एमा०। पूरवि बोल्या बोल । अहंदास घिर आदीया ए मा०। मनसुधरी रंगरोल ।।३।।२०१1।
पासण विसन घणां दीर्याए मा०) मान दीधारे अपार । मीठा मधुरा बोलीयाए मानते बिठा तिणि ठाम ॥३६॥२०॥
दूहा --से चार तिहां बोलीया, अईदास प्रतिसार ।
जंबू कुमार ए पुत्रीयां, योग्य प्रछि भरतार ।।३७॥२०॥
इशां वचन जब सभिली, मनसु घरी उल्लास । स्त्रीय सहित प्रालोचियो, प्रमाण कहि अहदास ।।३।।२०४||
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३१२
कविवर त्रिभुवनकोति
उत्तम जोसी तेडीउ, लगन लीतिणी वार । मखय तृतीया नु दिन, उत्तम जाणी सार ॥३६॥२०॥
निज मंदिर च्यारि गया, हरफर मन महि । घिर जाई घिर प्राणि, उत्सव करि विवाह ।।४।।
महदास घिर इणी परि, उछय हुइ अपार । मंडप खाल्या रूपला, प्रति घणी विस्तार ।।४।।२०७।।
तोरण बोध्या रुपडा, चंद्रो या ओसाब । मुगता फलनो बखां, पुष्पतणी नरमाल ।।४२॥२०॥
इणी परि उछय पंच घिरि, गीत गान अपार । महोछर हु अति धणु, को नवि लाभय पार ।।४६॥२०॥
वस्तु-बसंत प्राब्यु बसन्त श्राब्यु प्रति हाली रंग।
कामीजन मनरंजनु, पंथीजन उदेष करत । कोकिल कलिरष प्रति, हया मधुप शब्द अधिक । घरता मंडप प्रतिषणा, दान करी बस्संत । विवाह उछव बोयबा, पाव्यु मास बसंत ॥४॥२१॥
हाल सखीनी
सखी पाल्य मास बसंत, वन वन वृक्षत मुरीयाए । चंपक चूत रसाल, केसूयडो धणां प्रावीयाए ॥१॥२११।।
मलयाचल संभूत बाइ, सुगध बार घणाउए । सुखकरी कामी काय, पंथी जन दुख तण उए २।२१।
सखी कोकिल पंचम राग, हंसी हमी सबद करीए । माम्यां वृक्ष प्रसंस्य, घन सकाम पुर धरिए ॥३॥२१३।।
सम्बी पाब्यु जाणी बसंत, क्रीड़ा करिबा बन भणीए । नगर लोक समेत. साथि सेना अति धणोए ॥१॥२१४।।
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जम्बूस्वामी रास
बन क्रीडा वर्णन
मुखी श्रेणिक राय सुजाण, रमवा वन भणी चलीउ । चेलणा राहू परिवार, जंचू कुमार वली भावीउए ॥५।। २१५।। सखी वन प्राध्या सहू कोइ, बसंत क्रीडा करि भलीए । सरोबर झील लोक, जंबकुमर भोलि बलीए ।।६।।२१६।।
सखी क्रीला करि चिरकाल, सरोवर कठि प्राधीयाए । सज करी याहन सर्व, नगर भणी सदे चालीयारे ।।७॥२१७।।
सम्बी मेरी मुगल नाद, ढोल ददमा प्रति वणाए । रण काहृण रणतुर, पारन पाम तेह तणु रे पाव।।२१७॥
हाथी का पागल होना
सखो तिणि दिन श्रेणिक नाग, सालि श्रोरी मन रलोए । चाल्यु नगर मझार, दुष्ट पणुधरतु वली रे ।।६।।२१।।
सम्वी वन माहि पाठय नाग, वन वृक्ष ऊपाडी यारे । साल तमाल कदंब, मल्लको कपित्थ कमाडी बारे ||
१२१९।
जंबू बंदीर अशोक, महिकार नारिंग वलीए । खजूर कदली द्राव, ऋमक चंपक पाडनीए ।।११।।२२०।।
श्रीखंड दामि विलनाल, केर राइण खरोरे । नागवेल वर बोल, प्राखोइ बधाम दुभमरीरे :१२।२२१ ।। सस्त्री घुब खरणी गिरमाल, बहेडा महडा प्रांयती रे । लींबू'द लीबक पार, बीजोरी बीलो बलीरे ।।१३।।२२२।।
पाखीए मान पंग प्रमुख, वन वृक्ष महू भाजीयारे । पंखी सबे अनेक तिहुना माला टानीयारे ।।१४।।२२३॥
सखी महामाद पूरयु नाग, अंकृणनि मानि नहीं रे । पास विन रनि नार, राजादिक लोकां म्हरे ॥१५॥२२४।।
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कविवर त्रिभुवनकाति
मावी दई दिशि नाग लोक, श्रेणिक स भूगति सवेरे । नाग तर नि नारि, प्रांण राख्नु ए सुलविरे ।।१६।२२५।।
साखी को पि नवकार, 11 केवि दे हरे। सन्यास लेइ केवि, के वि अणमण लेइरे ।।१।१२२६।।
जातार द्वारा हाथी को वश में करना
सखी दुजर्य जाथी नाम, जबकूमार पाब्यु वली रे । नाग प्रति कुमार द्दष्टि, देइ मननी रली रे ।।१८।।९२७।।
युद्ध करि तेह साथ, अंकुस धाय मूकि रही रे । सांग तणा बली चाय, कुंडल धाय चूकि नही रे 1।१६। २२८।।
सजी निरमद कर बली नाग, पग देई ऊपरि घड्यु रे । फेरचीनि चिरकाल, मुष्ट प्रहारि सुनई उरे ।।२०।२२६।।
जीतु तेवली नाग, जय लक्ष्मी तिही पामी उरे । पुष्प वृष्टि करि देव, ए तलि श्रेणिक मावीउरे ।।२१।।२३।।
सखी करीय प्रसमा सार, मनसु स्नेह धरि धण उरे । पुण्यि लाश्च भंडार, पुष्यि घिर घोडा सुणु रे ।।२२।।२३१॥
पूज्यु श्रेणिक राह, अर्धासन देह वली रे। महोछत्र सहित कुमार, नगर माहि पावि रती रे ।।२३।२३२।।
सखी नगर नारि तिनी वारि, वृद्धा वि गुरिय रही रे । जोती जेबकुमार, तृपत्ति न पामि ते सही रे ।।२४ ।२३३।
सनी इणि पिरि पाव्य प्रावाम. माय बाप स्वजन मिल्यु रे । पूछि क्षेम समाधि, कहु नाग तम्हे भिम कलुरे ॥२५।।२३४॥
सस्वी जिम जिम जीतु नाग. ते ते पिर सधली कही रे । सुखि रहि मंदिर माहि, दिन जाता जाणि नही रे ।। २६।।२३।।
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जम्बूस्वामी रास
दूहा - एड् कथा ह िहां रही, एवर मृणु तम्हो बात । विमान विसी एक आउ, विद्याधर विख्यात ।।२७।। २३६ ।
गगनगति विद्याधर का श्रागमन
गगन, मारग थी मदसि भाथ्यु सदति मकार । प्रणमी श्रेषक रायन, बिउ ते तिणीवार ||२८||२३७ ||
विग्र वित्त ते जाणी, पूछि श्रेणिक राय ।
कुण काम हो श्रावीउ, वासि कु कुण ठाम ११२६ ।। २३८ ।।
सांभलि राजा तुम कहू, सह अंग गिरि ठाम खेचर नु हूं राजीज, गगनगति मुझ नाम ॥३०॥२३६॥
तिथि पर्वत मुझ वामदल हूं आव्यु जिन काज ते बात तुक हूं कहू वोलि तु महाराज || ३१।७२४-२४
ढाल सहनी - रागगुडी
मलयाचल दक्षिण दिलि. केराना नगरी तिहां अछि । घन कण संपति पुरीय, ते भली सहीए १४.२४१ ।।
मृगांक विद्याधर भूपती, तस घिर राणी मालती । सौभाग्य गुणो प्रागलीए. सहीए ॥ २॥ २४२ ॥ |
तेह तणी कुखि उपनी, यौवन करी वली नीपती । विलासवंती नाम रूयइड, ए सहीए । ३।२४०
द्र पीन पयोहरा, कनक वर्ण काया बरी । मृग नयणी हंस गति गामिनीए सहीए । ४।२४४ ॥
एक दिवस रूप देखीय मन चित्ति राय पेत्रीय | बन जाई ज्ञानी मुनि पूछी उए । सहिए ।।४।। २४५ ॥
कुण वर होसि एहनु, मुनिवर बोलि राय निसुणज । श्रेणिक भूपति वर एह तु । सहीए || ६ || २४६ ॥
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कविवर त्रिभुवनकोत्त
एम् मन निश्चि घरी, धिर रहि सुखी करो
ए लिए अन्य क्यांतर चालीउए सहीए |७|| २४७ ।।
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न द्वीप द्वीपोपती रतन चुलि निहां खग पतो । संपतांग राज राय सुख भोगविए । सहीए । ८.२४६ ।
स्याम दाम भेदि करो, कन्या मागी तिथि खरी ।
ते नि मृगांक कि नवि दीघोष | सहीए ॥६२४६ ।
कोप की सेना मेली, देस नगर सबै भेलीय पछि केरला नगरी श्रावीउए । सहीए ||१०||२०||
रतनचूल मय मन धरी, नगरी गढ नि श्रणुसरी । स्वीकीय संन्य रहु ते वलीए । सहीए ।। ११ ।। २५१ ।।
काहलि संग्राम राय करिति, रतन चूल सु वली भडसि । एहए पूरव वृत्तांत तुझ कहु ए ।।१२।। २५२ ।।
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मान तणु धन जेह ति संवे पदारथ ते नि । मान रहित मू उ प्रति भलउए । सहीए ।। १३ ।। २५३।।
एह कहीनि क्षण रही, चालवा उत्रम करि सही । एतलि जंबू कुमार बोलीउए । सहीए ११४ ।। २५४ ।।
क्षण व विधावर, जंबूकुमार कति खेरू | सैन्य लेई श्रेणिक प्रावसिए । सहीए | १५ | २५५ ।।
इसी करी खग इम कहो, संग्राम मारग नवि लहि । वामनु हस्ति चंद्र किम ग्रहिए। सहोए ।। १६ । २५६ ।।
स योजन मारग दूर, भूचर जादा नवि सूर । खेचर पाषि को नवि जाइए। सहीए ।।१७.२५७।।
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जम्बूस्वामी रास
भूपति विस्मय प्रामीयाचित्राम लिक्षा दामोया । श्रेणिक चिंतातुर तव हूउए । सहीए ।१॥२५८।।
हवडी राह कहि किम करूं, किम काया किम जीव घरू ।
प्रति घणु कष्ट हूं प्रामीउए । सहीए ।। १६॥२५६।। जंबुकुमर द्वारा जाने का प्रस्ताव
चिंतातुर रा देखीउ, जंबुकुमारि पेखोड़ । बोलीए सांभाल राय तुझ कहूंए । सहीए ॥२०॥२६॥
मुझ प्रादेश देउ राय, खग साथि जाउ तिणि ठाय । काजए करसुरा तह्म तणउए । सहीए । २१॥२६१।।
कुमर वचन लग सांभली, विस्मि प्राम्यु ते वली । रतन चूल प्रागवि, घावोसुकरीए ॥२२॥२६२।।
वचन सुणी तब मन रली, मुझ लेई जाउ खग वली । वैरी जीपी मृगांक राज देउ ए । सहीए ।॥२३॥२६३॥ तव भाणेज णिक देई, जय लक्ष्मी तबहु लेह । प्रापणि नगर वेगि पारसुए । सहीए ।।२१।२६४।। श्रेणि पर्वत फुण भेदि, दुय विरि कुण छेदि । बलवंत साथि बालक कुण मडिए । सहीए ।।२।।२६५।।
श्रेणिक राइ म कहि काल जीव धणा हि । एक सघ शबद गजवा सि वगाए । सहीए ।।२६।।२६६।।
एक गरूड बहू अहिदलि, एक जीव संमति रलि । एक एक केबली लोक सहू देखिए । सहीए ।।२।२६७।। एक प्रगनि वन सहू दहि, एक जीव दुख सहि । एक जीव मुगति रमिए । सहीए ॥२८॥२६८।।
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कविवर त्रिभुवनकीति
एक समुद्र जाल बहू, संचि एक दोष गुण बहू । वंचि एहवी अद्भुत वाणी, खग मुणीए ॥२६।। २६६।।
संग्राम जांणी मर मीय, जंब श्रेणिक प्रणमीय । विमान लेईदि सनि लेई चालीए । सहीए ।। ३०।।२७।।
जंबुकुमार का प्रस्थान वस्तु-ताम श्रेणिक ताम श्रेणिक कही तिणी बार ।
भो भो क्षत्रय सज थई जरह जीणसनाह लेइ । यान वाहन सय सज करी चतुरंग सैन्य सहय लेइ । विविध वाजिन वाजता, पाव्या से तेणि ठाम । रमचुल सग जीपवा, श्रेणिक चालि ताम ।।३१।।२७१।।
दहा-केत लाग चंदने चया, के तला प्रस्वारोह ।
सनाह लेई केतला, छोडीनि धरना मोह ।।३२॥२७२।। सेमा वर्ष।
पायक आगलि चालीया, सेना सवे चतुरंग । समुद्र सरीखीए पछि, रणस्थानिक नहीं भंग ।।३३।२७३।।
संन्य सागर तिहां चालता, जल स्थल एकज होइ । सम विसम पंथा सहू, ते सये सरस्खा जोइ ॥३४॥२७४।।
ढोल ददामा दरबड़ी, पण काहल रणतुर । पंच शाबद वाजि घणां, जाणे सायर पूर ॥३५॥२७५।।
सैन्य सह तिहां प्रावीउ, विध्याचल उत्तंग । जीव घणा तिहां देखीया, विस्मय पाम्यु मन चंग ।।३६।१२७६।। कपि केकी वाराहनि, हरण रोझ गोमाउ । इस व्याघ्र गज सांवरा, मृग वृष महिष निकाय ॥३७॥२७७।।
भिल्ली भिल्लज देखीया, ते प्रायुध सहित अपार । सैन्य साद देखी करी, नासा ते सिणी वार ।।३।।२७८ ।।
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जम्बूस्वामी रास
तिहां थी संम्यज चालीउ, आव्यू कुर गिरि ठाम | जिन प्रासाद छि ऊपरि, ते देकमा पाभिराम ।।१९।२६॥
जिन पूजी जिनवर नमी, मुनि प्रणमी बली पाय । पंथाश्रम विनास वा, विश्रामि तिहां राय ।।४।२०।।
राग पन्नासी
के नर समायक करि, के पि नवकार । के जंबुकुमार नी, बोलि झाति पपार ॥४१॥२८॥
तिणि अवसर बिमान भी ऊतरी, जंबु कुमर विधाबरूरे । केरला नगरी विन्यि भाग्या, संन्य देस्यु तेणेवा करे ॥१॥२८।।
जंबूकूमर खग प्रति बोलि ए, संन्य कहिन अछि रे । रतन शिखिर विद्याधर वरी, गढ़वीटीपडस अछि रे ॥२८॥
मृगांक विधाघर मापणउरे, स्वामी गढ माहि इणि राक्षुरे । वचन सुणी कुमार ज बोलि, मग एक विमान तेराखुरे ॥३॥२८६।।
गनन मारगथी ऊतरी रे, हेठउ संन्य सागर माहि प्राव्यु रे । विघाघरे जब तेहज दीठउ । दैत्य दानव भन भाव्यु रे ।।४। २०४ ।
द्वार याची प्रतिहारज कहीउ रतन चूलनि किहि जोरे । मागांकि मोकल्यु दूतज पान्यु, इणि स्थानिक तम्हो घर जोरे ।।५।।२८५।।
नुति स्तुति करा बिना विटउ, सिंह समान तब दो रे । दैत्य दानव मानव नहीं, एह दूत पणउ किम मीठउरे ।।६।।२८।।
बिस्मि प्राम्यु बोलि विधाघर कुण कोमि इहां पाग्य रे । सांभलि रतन चूलहै तुझ कहु', न्याय मूकी कोई घालाव्यु रे ।।७।२८७।।
रूप सुदरी स्त्री तम तणि निर, तेह तणु नही पार रे । एक मृगांक पुश्री तिणि कारणि, ए आग्रह नहीं सार रे ||८||२८८॥
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३२०
कविवर त्रिभुवनकोनि
मांन मुफी मृगांराज, प्रणमो सुख भोग वुधिर जाइ रे । मांनि दुजोर्धन नासज, प्राम्युमानि दुर्गति जाह रे ॥६॥२८६।। बापि कन्या अणिक दोघो, ते तुझान कम दे रे । मोह छांडी भास्या परी, मुकी परस्त्री सुख कुण वेई रे ॥१०||२१०॥ पर स्त्री कारण रावण राणि, नरक माहि दुख सहिरे । वचन सुणी रतन चूलज, कोप्यु इंसा पवन कांइ कहिरे ।।११।२६।।
कोप करी रतन शिखिरज, बोल्यउ तुझ स्वामी भूमि गोचरी रे । रावण विद्याधर शमि जीत, तुमू कीजि खेचरी रे ।।१२॥२६२॥
भूमिचर सिंघ सेपर वाय, सप्त सु कीजि खेचरी रे । सिंघ सियाल सरमा नवि होइ, तुसुमला भूमि गोचरी रे ।१३।२६३।।
क्रोध करी रतनचूल ज ऊठज, लेज लेउ दूतज एहजरे । सजयाई खेचर सधे, कम्या बल' जाण्या बिना तहरे ॥१४।।।।
होठ उसी क्रोध करी, फुमर खडग घरी तक उठ्य उरे ।
प्रायुध सधला कुमरनि, भावां गमनगति तव तूठडरे ।।१५।।२६।। दूहा राग प्रासाउरी जंबुकुमार द्वारा युद्ध करना
जबू कुमर तब ऊठीउ, खड़ग घरी तिणी वार । युध करि खेचर समुबलह न लाभि पार ॥१॥२६॥
से प्रागलि नवि को रहि, जुट करवा नही जाण । कोटी भट्ट कहीह सदा, कवण सहि ते बाण ।।२।।२६७।। जब कमरि एकलि रिण, संसामि सेन । क्षण एकि विधाघर भंग पमाड्या सेण ।।३।।२६८।।
जंबू तिणि अवसरि विधाघरा, माहोमाहि चवंति। ए बल नहीं मृगोक नु, ए बल दूत न हंति ||२६६'।
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जम्बूस्वामी रास
३२१
दत्य दानव को देवता, ए बल तेहज होइ । इसु निस्यउ मनसुधरी, जुद करि सह कोइ ॥५॥३०॥
तिणि अबसर मृगांका अई बली केष । श्रेणिक मोकल्यु को नर जुद्ध करि बली सेण ॥६॥३०१।।
एहयां वचन ज सांभली, देवडा वीरण भेर । संन्य सधे लेई प्रावीउ, मन करी निश्चल मेर १७॥१०॥
केतला समकित लेईनि, अणसण लेई केवि । रिश संग्रामि प्राषिया बरह जोण घरी खेव ॥८॥३०३।।
मोहो माहि प्रति घणउ, सुभट करि संग्राम । कपि कायर हाथ थी, लोह पडि तिणि ठाम ॥९॥३०४।।
पति जुद्ध तिहाँ हुइ कायरनि करि भीति । जे संग्रामि वाउला, तेह्सु करि सम प्रीति ।।१०||३०५।।
प्रारति पामी केतला, पुत्रि कलित्र वली मोह। पंच यावर तिर्यचं गति, मरी करी उपजि छोह ।।११॥३०६।।
रौद्र ध्यानि मरी केतला, मरी करी नरक जाम । धर्म ध्यानि मरी केतला, देव मनुष्य गति थाय ।।१२।३०७।।
वाणे नकि मुदगरि खडग तो मनि पास । कुत धेनुनि सांग सु', उभय संन्य हा नास ||१३||३०||
रत्नचूल कुमर सु, युद्ध करि अपार । मुइ थकी तब देखीउ, मृगांक राय तिणी वार ॥१४॥३०६।।
कुमार मुकी अंवर, रत्न शिखिर प्रान्यु भूमि । नाग बमुए फुण अछि मृगांक पूछि एमि ॥१५॥१०॥
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___ ३२२
कविवर त्रिभुवनकोत्ति
गगनगति हम उवरि, तम' रोप आण। एसु जाणी युधह करि को नघि मूकि माण ॥१६।।३११।।
छत्रीस पाउध ले नि तिही कार संग्राम । अवसर लही नाग पास, समृगांक बाध्यु ताम ॥१७॥३१२॥
बाट सहश्र खग जो पीनि, कुमर याव्यु मुइ लग । जुद्ध करता देखी करी, विस्मय पाम्यु खग ।।१८॥३१३।।
वस्तु बंध
तिणि अबसर तिणि अवसर विद्याधर सहू कोइ विस्मय प्राम्या प्रति घणउ, माहो माहि करिए बात । ए सामान्य नर नवि भछिए सीकरी तेली सर्व क्षात । जुद्ध करता देखी करी विस्मय पाम्प खग ।
पाठसहस खग जीपौनि, कुमर माध्यु भूइ लग ||१६||३१४॥ राग विराडी दाल बमयंतिनी
संग्राम भूमिज देस्त्रीय पैरवीय रोद्र रूप इम चितवर । निरापराध ए खेचरा भृचरा मारयामि इम चितविए ॥१॥३१५।।
निरदय भाव ते मनधरी परहरी दयाभाव ते प्रति घणुए ।। ए बडङ कर्ममि कोइ करूं, कख्य भोगव जीवतु आपणउं ए । २।३१६।।
पुरवि जीव पे करम करि करम इह लोकि जीव भोगदिए । इसु चित कोमल जप कर्यजं. तब आगिल प्रावी खग इम चविए ।।३।।३१७।।
मांभलि कुमर तुझ कह तुझ विण आठ महल न ग कुण इणिए । दूत वचन मृगांक सुणी संग्राम कीधु, गगन गति इम भगिए ।।४।३१।।
रतन सिखर प्रस्ताव लही, साहीय नाग पासि बांधीउ ए । इसा वचन जब सांभली क्रोधिय कुमरि बाणज सांचीउ ए ॥५।।३१६।।
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जम्बूस्वामी रास
३२३
महा उरग मणि कुण ग्रहि कुण काल मुख पिसोनी सरिए । मद पूरमउ गज कुण घरि, कुण पुरष सिंह सायो संग्राम करिए ।।६।।६२० ।।
जिनधर्म पाक्षि सुन नहीं पापिय नरग माहि जीव दुख सहिए । मुझ छतां मृगांकज साहीम, देसन परमाहिं कुण रहिए ।।७॥६२१॥
खडग घरी मुझ प्रागलि कूण रहि गगन गति मुझ तुम्हो कहजए । कुमर बचन खगपति सुणी, गुणीय राज्ञा सेना हम लहीए ॥६॥३२२।।
उभय संन्य तब सज थई जरह जीण लेइय प्राव्यु अति भलाए । रण काहल रण बाजीयां गाजीयां ढोल नीमाण एकलाए ॥६।।३२३।।
रतनपल रण प्राबीउ भावीच जंत्रमारनि अति रलीय । उभय सैन्य तिहा एक थई, आईस युद्ध करि सवे एकलाए ॥१॥३२४।।
हस्ती-हस्तीसु भाडि असवार प्रसवार साधि प्रति घणउए । रखवंत रथवंत सुकरि, करिय संग्राम पार बिना घग उए ।।११।३२५।।
रतनचूल पासी प्रावीज प्रावीय कुमर कहि विद्याधरूए । मृगांक साही मुझ प्रागनि जीवतु किम रहे सतु नेत्ररूरे ॥१२॥३२६।।
पाठ सहश्न नगमि मारी यावि तुझ तणु वारू अवीउए । जु तुझ माहि बल अछि पछि कांउ विद्याधर ल्यावीउए ॥१३॥३२॥
एणे रांके मारे कांह मछि भापणविन्य जुध करूयकलाए । एसा वजन जल सामलि रण संग्राम करिय विन्यि ते अति भलोए ।।१४||३२८।।
हा-रण काहल रण बाजीयां बागां कोल नीसाण
बाणगा भेर विहां अप्ति षण कोवि ला भि माण ।।१५।।३२६।।
हाल मोह पराजतनी-राग सामेरी
तिहां कोध करी नि कठीया, मुकि बाण अपार ! तिहां मेघ तणी धारा परि बरसि सिणिवार ॥१।। ३३०।।
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कविवर त्रिभुवनकोति
तिहां संघ तणी परिगाजता, भेद्दलइ नही ठाम । तिहां छत्रीस पायधु लेईनि, राइ करि संग्राम ।।२।।३३॥
तिहाँ सबल वैरी तव जाणिनी, सरि देव बाण । तिहा नाग बाण राई मूकीउ, कुमर हज जाण ॥३॥३३२।। तिहाँ गुरड़ तांण कुमरी भरी, मेन निशिकार । तिहां अगनि बांण वैरोधरि, मउ क्यु उ सैन्य कुमार ॥४॥३३३॥ तिहां अगनि सलि हुई. हूउ हाहाकार । तब जरह जीण बलि घणां, बलि रयण अपार ॥श६३३४।। तेह समाबवा मूकीउ, कुमरि मेघ बांण । विहां गाज बीज करी, प्रावीउ प्राप्यु धन प्राण ॥६।।३३५॥
तर बाय बाण राह परीज', कुमर प्रति हेव । तिहां पनि मेघनि वारीउ, हस्यउ सहू सैव ॥७॥३३६।।
तव कटक सह नासी गर्ड, नाग सवे भूप । तिहा हा हा कार हूउ धगु, हूउ बली कोप |८||३३७।। आकासि नारद रही, नीयु तिमी धार ।
देव सबे तिहां नाचीया, बोल्या जय जय कार ॥।॥३३॥ मुख में जम्बु कुमार की विजय वहा-नाग पास मूकी करी, साहउ रतनचूल ।
सैन्य सबे भंग पामीउ, जिम नासि भृगतूल ॥१०॥१३॥
जय जय शबद तिहां हज, मकान्यू मृगांक ।
हरष हउ होडि घणउ, को नवि लाभि संक ॥११॥३४॥ नगर प्रवेश
राइ नगर सणगारज, नगर कीउ प्रवेस । नगर स्त्री जोइ धणु, करती नव नवा वेम ।।१२॥३४१।।
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जम्बस्वामी रास
३२५
काम रूप देनी भलु विस्मय प्रामी नार । घन अननी घन ए पिता, जे घिर एन कुमार ।।१३।।३४।।
जस महिमा निज प्रापणउ, सांभल तु गुणग्राम । मृगांक सभा माहि प्रावीउ, विठल ते निज ठाम ॥१४॥३४३।।
कुमर कहि रत्नचूलनि, सांभल' तू' महाराय । तू राजा मोटु अछि, सेवि तुझ खगराय ॥१५॥३४४।।
भीठे वचन संतोषिनि, कुमरि मुक्यउ तेह । नगर पधारू श्रापणि, काज करू निज गेह ।।१६॥३४५।।
एसा वचन जब सोभली, रत्न चूल कहि वास । श्रेणिक राजा नोयना, भावुतम संधात ।।१७।। ३४६ ।।
केतला दिन तिहां रही, विमान रची तिणि वार । पंचसि रच्यां भला, दीसंता मनोहारा ।।१८।।३४७ ।।
रतनचूल तब चालीउ, मृगांक कुमर बली साथ । गगनगति वली स्याउ, कन्या छिन्त्रली साथ ।। १६॥३४८ ।
कुराल गिरि सह ग्रानीया, श्रेणिक छि जहा राय । हरष धरी हीयद्धि घणु, प्रणमि थेणिक पाय ॥२०॥३४६॥
हाल भवदेवनी राग धन्यासी
पाकास विमान मकी करी, हेग प्राग्य सह ताम । जम्बू कुपर राय तिहां निल्यारे, मिलि मुहू सेई नाम ।।१।।३५०।।
कुरल गिरि सह प्रायोया, भेटत श्रेणिक राम । हरष घरी मन प्रापणि रे, प्रणाछि श्रेणिक पाय ।।२॥३५॥
फुसल कल्याण सहू पूछो उरे, पूछि संग्राम नी बात । पूर्व वृत्तांत कुमरि का रे, तिहूनी बोलि सविक्षात । ३।३५२।।
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३२६
कविवर त्रिभुवनकोति
कुमरि खग उलखावीयारे, रतनचूलि परी प्रादि । अंणिक राम प्रसंसीमारे, तिहुं प्रति बोली साद | |३५३॥ मृगांक सूता तिहां परफी उरे, श्रेणिक राय सुजाण । सहइ खग चलावीयारे निज निज मंदिर प्राण ॥कुरल।।५।। ३५४॥
तिहां थी थेणिक चालीउरे, प्राब्यु विध्याचल ताम। विलासवतीनि देखाल तुरे, विविध कुगति तिणि आम ।।
_ विध्या चल सहू भावीया ।।६।।३५५।। विध्याचल वर्णन
हरण रोझ गम सांवरा रे, मृग मयूरनि सेह । कपि महर्षि सिंघ अति भला, देवालतु स्त्रीयनि तेह् ।।कुरल।।७।।३५।। तिहां थी श्रेणिक पालीचरे, साथि जम्बू कुमार । सैन्य सबै साथि प्रछिरे, देस्यु सौधर्माचार्म ॥कुराला||५७।।
मगर उद्यान सह मावीयारे, भेटउ सौधर्मा स्वाम । हरष हूउ हैयदि घमारे, प्रणमि मुनिवर पाय ।।६।३५८॥ तप जप ध्यानि मागलु रे, पंचसि शिष्य समेत । ज्ञानवंत मुनिवर अछिरे, तत्व तणन आणि हेतु ||१ नगर।३५६।। सौधर्म मुनिवर वांदीयारे, विठ श्रेणिक राय ।
धर्म वृघि मुनिवर कही रे, प्रमि जंबू पाय ॥११॥नगर।।३६०।। वस्तु-तिणि अवसर तिणि अवसर जम्बकुमार ।।
प्रणमी मुनिवर चरण युग, बिठज ते वली प्रावि भाग । कुमरि मुनिवर पूछीया. स्वकीय भव लही लाग । सांभलिबह तुझ हं कई, स्नेह तणी बली बात ।
एक चित्त मनधरबी, पूरब भव सहू क्षति ।।१॥३६१।। पूर्व भव वर्णन चुपई-मगध देश देशा माहि मार, वर्तमान पुर उत्तम ठाम ।
भवदस भववेव वाइब कही, समकित पामी दिक्षा लही ।।१।।३६२।।
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जम्बूस्वामो रास
३२७
सप जप संयम पामी कला, सतीय स्वरग हया भला । स्वणा तषां सुख भोगवी सार, मध्य लोक हज अवतार ||२||३६३11
भवदत्त चर जेह तु सुरेन्द्र, वनदंत घिर सागर चंद्र । भववत्त चर जे स्वरग मझार, महा पद्म घिर शिव कुमार ||३।।३६४।।
पराग्य बस घरी दिक्षा तेह, स्वरग छठि प्रवतरीया बेह। इंद्र प्रती या तिहां रहो, देव देवी सुख भोमवि सही ॥३६॥
सांभलिबछ पम्हारी बात, मगध देश संवाहन क्षात । सुप्रतिष्ठ सजाछि भलु, दान शील संयम गुग निलउ ।। ५१।३६६।।
तमा घिर राणी शोज़ माती बाणा! मामि गुणवती ! सागरचन्द्र वर जे सार, उस कूखि हुन अवतार ॥६॥३६७।।
नष मास पूरे हूउ सूत, सौधर्म नाभि दीउ तव पुत्र । दिन दिन दृद्धि विर रहउ, अनुक्रमि विद्या सवे ला, ।।७।।३६८।।
एक दिवस यिग्रुला वीर, प्राध्या जाण्या राठ धीर । जिन बांदी जिन पूजी पाय, बिठउ नरपति तिणे ठाय ।।६।।३६६ ।।
परम वली प्रामी वैराग, दीक्षा लेई की माग । तप जोगि गणधर पदलही, देशज मुनिबर संक्यु मही ।।६।।३७०।।
हूं वैरागि वासजसार, लीधी दिक्षा मि भवतार । पंचम मणघर हउ वली, विहार करम शरियन रली ।।१।।३७१।
प्रान्यु एणा नगरोद्यान, ध्यान रहूं मूकी वली मान IT मुझ देखी तुझ उपनु नेह, पूरव भव संस्कारज एह ॥११॥३७२।।
सांभलि वछ तुमारी बात, भवदेव ब्राह्मण विक्षात । सही पराग दीक्षा घरी जेह, तृतीम स्वरग टूउ वली तेह ।१२।।३७३।।
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३२८
कविवर त्रिभुवनकोति
स्वरग तणां सारां सुख लही, शिव कुमार हूउ ते सही । तप जप इयान सूघउ तिणि धरी, अंत काल जिणि दीक्षा करी ।।१३।३७४।
प्रणशण पालो स्वरग मझार, विद्युत्माली हउ भरतार । भ्यार देवी मुलही संयांग, तिहंसर सुवली सही भोग ।।१४।।३७५।।
दस सागर ते जीवी प्राय. मंग अनोपम रूडी का म 1 तिहां थकी चवी सुरसार, प्रहंदास घिर जंबू कुमार ॥१५॥३७६।।
स्वरग देवी च्यारि जे हत्ती, तिहां थकी चपी ते सती । जू जू जज नमहूउ तेह तणु, समुद्रदत्त प्रादि ते मुणु ।।१६।।३७७।।
मब यौवन पूरी ते नारि, प्राज थकी दिन दशमी मार। चिहुनि परणी लही संयोग, तिहुं सरसउ तुलहे सवियोग ।।१७ १३0018
जे पूली ते तुझ कही बात. पूरव भव नणीय क्षात । वचन सुणी पाराग्य, शिर जवानहीं। लाग 1१1!३७६।।
जंबुकुमार का वीक्षा के लिये निवेदन
दिक्षा मागी मुनिवर पास, संसार तणी छोडी ग्रास । वचन सुणी मुनिवर कही बात, घिर जाई तम्हे पूछ तात ।।१६।।३८०।।
माय बाप हुँया बहबार, स्वजन बंघउ एणि संसार । तु माता तु तातज कही, भव संसार उतारू सही ।।२०।।३८१॥
प्रथम संसार भर्मतां ब्रह्मो, पडना राक्षु स्वामी तम्हो । हैवहां काइन कस समाल, हु छु स्वामी तम्हारू बाल ।।२१।।३८२॥
माता पिता से प्राहा मांगना
गुरु बचने घिर जई कुमार, माय तात मिल्यु तिणि वार । दुख करि माता तिहां रही, पुत्र प्रसंसि माता सही । २२।। ३६६|| मणउ माता अम्हारी दात, अहमे दिक्षा लेसु मणु तात । वचन सुणी मूळ गति हुई. नोखी वाय ते बिठी थई ।।२३।।१८४।।
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जम्बूस्वामी रास
रदन करि दुख आणि घणउ, पुत्र प्रसंसि माता सुणउ |
बार बार स्वरगि सुख भोग भोग लही लहि वियोग ।। २४ ।। ३८५ ।।
तुहि नृपति न पाम्युं सार दुख सह्य एणि संसार | हिasi दिक्षा ले बन रही, पंच महाव्रत पालु सही ||२५|| २८६ ।।
पूरव भव मातानि कह्मा पुत्र थकी माताइ लह्या ।
सुणु हो पुत्र सुखी हउ जेम, इस आदेश दीउ बली तेम ||२६||३८७ ।।
दूहा - तिणि अवसर तिणे श्रेष्ठी ए, मोकल्या पुरुष ज बेह । कन्या विरजाई कह, कुमर लेइ तप देव ॥१॥३८॥
तिर्ण जाई तिहूं नि कहुं, पूरव महू वृतति ।
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बज्रपात तिहूनि उ बात सुणी बली कत || २ ||३६||
अन्य मन माहि चितवि, अन्य हूइ तिणि वार |
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शुभ शुभ जीव भोगवि, कर्म तणि अनुसार ।।३।।२०।।
दूत वचन जब सांभली. बोली कन्या सार । ताहरी मागी कन्या का कुण परणिए नारि ॥२४॥ ३६१५
जाति शुध जे स्त्री हुइ, ते नवि बांद्धि अन्य |
एक बाप एकह गुरु, एक एक कुल धन्य ।।५।। ३१२ ।।
एणि जन्म एह् बर
ए सुनियउ मन सुं
ग्रन्यह तात समान ।
करी. मूकि नहीं ते मान || ६ || ३६३||
एक रात्रि एक दिवस परणी नि वली एह । श्रमसमीप जू रहितु नवि छांडि गेहूं ||७|| ३६४।।
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वचन सुणी कन्या तणां, कन्यानो वलि तात । अदास घिर श्रावीया, कुमर प्रति कहि बात ||८|| ३६५३
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कविवर त्रिभुवनकात्ति
एक दिवस परणी करा, घिर रह एक दिन | पछि दिक्षा लेय जो, जु तम्ह हुइ मन ।। ।३६६।।
बचन सुणी सुसरा तणां, बोलि जंबकुमार ।
लाज प्राणि मन प्राणि, हाय भणी तिणी बार ||१०||३६७|| हाल धीवाउलानी जंद्र कुमार का विवाह
प्रहदास प्रादि चहु घिरे, उच्छव हुइ अपार रे । मंडप घाल्या प्रति स्यडा, सोहि घिर घिर सार रे ॥१॥३९॥
चन्द्रोया तिहां बांधीया, साधीय पट्टकूल पट्टरे । तोरण को रणी प्रति भली. रयण मि ऊन स्वां पहरे ॥२॥३६६
कुशम माला तिहां लहि लहि, मह मह परिमल पूर दे । ममर भमि तिहां अति घणा, परिमल लीणाबे सूर रे ।। ३।४००।।
वाजिन बाजि ते प्रति घणा, ढोल ददामां नीसांण रे। तिवलीय तूर सोहामणा, जाजिय बाजिम आण रे ।।४।।४०१।।
गीत गाइवर कामिनि, भामिनी करि रंग रोलरे । नत्य करि वर कामिनि, भाभीय भामणां रंग रे ।५।।४०२॥
धन धन जननीय एह तणी, धन धन एह तु तात रे । धन धन जिणि कुल ऊपनु. धन धन एह नी जात रे ।।६॥४०३।।
बंदी जन विरदालली, बोलिय कुमरनी सार रे । लगन तणु दिन बाबीउ. भावीउ ते तिणी बार दे ।।७।४०४।।
चपल चंचल अश्व चडीय, चालीउ जंब कुमार रे । तिणी घडी प्रति सोभीउ, जाणउ इंद्र अवतार रे ।।८।।४०५।।
सासूइ कोषां पूषणा, पूरणीउ वर तिणे ठाम रे । माहिरामाहि भाणीउ, प्राचार करीय ते ताम रे ।।६।।४०६।।
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जम्बूस्वामी रास
हस्त मेलापफ तिहां हँउ, हउ छि जय जय कार रे । ज्यारि कन्या तिहां परणीज, जिनदास तणु कुमार रे ।।१०।।४०७।।
दूहा–च्यार कन्या तिहां परणीउ, बिह श्रेष्ठीनी ताम् ।
हरष धरी हीयडि धणउ, बोलि ते गुण ग्राम ॥११॥४०८।। ढाल बीजी बोवाउलानी
घ्यार कन्या लिणी घार, परणीड जंबूकुमार । सुसरि प्रापी परिधि, पामीउ प्रति घणी सिधि ॥१॥४०॥
पापीयां माणक मोती, कमक प्रवासी संजोती। रयणामि हार दीनार, पापीयां सोवन सार ॥२॥४१०॥
बाजूबंध बिरखी प्राप्या, रयण संघासन पाप्या। सासुए वर वषाव्यु इणी परि, बहू Fव्य लाव्यु ॥३॥४१॥
सुसरि पाप्यु भंडार, अपप्सु सार शृगार । अति धण संतोषीए, बोलिय गुण ग्राम तेह ॥४॥४१२।।
जमण जमि मनोहार खाजां लाड्य सार । विविध प्रकार पकवान, जमणमि घणि मान ।।५।।४१३॥
बहुबर दीधी पासीस, जीव जे कोडि बरीस । उच्छव उहित प्रपार, वाजिभ बांजता सार ।।६॥४१४।।
दिवसह पश्चिम भाग, चालीउ जाणीय माग । श्यार कन्या तब लेई, भाव्यु मंदिर सोर ॥७॥४१।।
मंदिर मंच ताम, बिछड ते तिणि ठाम । धरी मन हरष मानंद, बांध्यु घरमनु कंद ||८||४१६॥
दहा-तिणि अबर प्रस्ताचल, प्रस्तज पाभ्यु सूर ।
धकारि सहू व्यापीउ, कोह नवि दीसि भूर ॥११४१७॥
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३३२
कविवर त्रिभुवनकार्ति
पदमनी खर्डानि चक्रमा विरह करंतु तेह | कामी जननि कामिनी, तेह सु' बरतु नेह ॥ २ ॥ ४१६ ॥
घिर बिर दीपक प्रगटीया, नभ उम्बठ तव चद । अधकार सहू नासतु, करतु उद्योत मणि ।।३.१४१६॥
स्वजन प्रादेसि कन्यका, प्रावी ते पल्यंक जंबूकुमार पासि रही, पामी तेह तु अंक ||४|| ४२० ॥ प्रथम मिलन
काम कुल से कामिनि, करि ते विविध विकार । प्रंग देखाडि श्रापणां वली वली जंबूकुमार ||५||४२१
गीत गांन गाहे करी, कुमरउ पाद राग । अधिक वैरागि वासीज से किम पामी राम ||६|| ४२२ ।।
तिथि अवसर ते चित थिए, संसार असार । सार वस्तु कोइ नहीं, कामिनी काय मकार ॥७॥४२३॥
दुर्गति दाता कामिनी, वाघिण सापि एव | नवद्वारे अश्रु श्रवितो, ते सरसु सर नेहा ४२४॥
जे स्त्री आठ लाघी घीया, ते नर छूटि केम | जउ माया छोडि सही, तु नर छूटि एम ।।६।। ४२५ ॥
ढाल हिंडोलानी- राग मारुणी परस्पर वरीलप
पदमस्त्री सरबीयां कहि सांभलि मोरी बात |
विर आगि लगॉन, जिसु जीविडलारे अंध आगिल जे सु नृत्यु ||१ |४२६ ॥
तु इम जाणि तप करी, स्वरराज बांउ देवि ।
तिहां अह्म देवांगना, जीवन लारे इ सुय कहि ते देवि ||२||४२७॥
निस्पल फल मूकी करि जे फल बांखि अन्य ।
ते मरख कोइ नवि लहि, जीवदलारे चितवि परि मन ||३||४२८ ।।
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जम्बूस्वामी रास
३३३
एह ऊपरि कथा कहुं सोभलि तु कंत सार । घनदत्त एकहालिक, जीवड लारे परणीज एकज नारि ||४|४२६||
ते नारी एक सुत हउ मरणज पामी नारि । वृद्ध पणि बीजी वरी, जीवड़लारे कामा कुल तेणी वार ॥५॥४३०।।
एक दिवस सूतो विन्यि पल्यंक, रात्रि मझार । पररांग मुखी नारी हुइ जीवडलारे सामलि तु भरतार ॥६॥३१॥
प्रथम पुत्र जे तुझ अछि, ते हनि तुह जमार । तु आपण सुख भोगः: शीतलारे ग मोलिबाग :
३२''
सबल पुत्र तुझ तणु, मुझ पुत्र करि सेब । नु प्रापणा यु किम मिलि, जविडलारे इणि मारि सुख हुइ हेव ।।८।४३३॥
कठिन वचन जब सांभली, बोलि घनदप्त बात । बेस राखि ग्रह उद्धरि, जीवडलारे ते किम मारीय सुत ।।६।।४३४।।
राज रंड बली ऊपजि, पाप हुइ अपार । ए कम कीम कीजीइ, जीवडलारे साभलि नारि विचार ।।१०।।४३५।।
हल आगिल तेहनि घरी, हलनि चडि नेह । इणिमा तंतर मार जे, जीवडलारे काई नहीं हु तुझ गेह ।।११।।४३६।।
समीप यकी पुत्रि सुणी सबली तिहुंनी बात । शाल क्षेत्र अखेडीनि, जीवडलारे बाव सुणी गवली तात ॥१२॥४३७॥
इसे दृष्टांत बुझम्य दृझ्यु ते वली बाप । निस्पल फल मूकी करी, जीवडलारे कुण वंचि संताप ॥१३॥४३८।।
स्वाधीन सुख मूकी करी, स्वरग वाछि जे सार । ते हालि कसम जाणीई, जीवडलारे तिम बाण एह कुमार ||१४||४३६।।
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३३४
कविवर त्रिभुवनकीति
पचन सुणी नारी तणां, बौलि जंबू कुमार । एह समु मुझ काई करू, जोदडलारे सुणु एक कथांतर सार ॥१५॥४४०॥
विंध्याचल मोद गज मरणज प्राम्यू' एक । नदीय नीरि तांण्यउ वली, जीवडसारे काखि छिपाउ सेक ।।१६।४४१॥
हे ऊपरि एक वायस विठन, प्रामिख लोभ । समुद्र माहि जाई पड्यु जीवडलारे पामी प्रति घणउ लोभ ।।१७।।४४२।।
करा करां करि घणु जीवानि नही लाग । गज वायस विन्मि पड्या जीवडलारे समुद्र महिय विभाग ।।१८॥४४३॥
मांस लोलप वायम गल पडीड समष्ट प्रभार। तेह सरीखुह नहीं, जीवडलारे नहि पंड्यु एणि संसार ।।१६।।४४४।।
कनकधी बोली बली सामलि कत मुझ बात । कैलासगिर पी वानरि, जीघडलारे कीउ बली झपापात ।।२०॥४४५||
शुभ ध्यानि ते वली मउ, विद्याधर हुउ चंग । एकदा मुनिवर बांदीया जीवडलारे तिणि भव कहु मन रंग ।।२१।।४४६॥
एकदा स्त्री सहित सु. प्राव्यु तेणि ठाम । पूरव कथांतर स्त्री कही, जीवडलारे मरण कर एणि ठाम ||२२.४४७।।
वचन मुणी भरता तणां, रदन करि बली नारि । स्त्रीय निखेघउ ते १४3, जीवडलारे काप हउ प्रौद्धि अपार ।।२३।।४४८।।
स्वीकीय सुख मुवी फरी, वांछि देवज मुख । से नर गजनी परि जीवडलारे प्रामि प्रति घणु दुख ॥२४॥३४४६।।
ते नर सरखुहू नहीं, सामलि नारि विचारि । विध्याचल पर्वत भलु, जीवडलारे वानर एक उदार ||२५||४५०।।
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जम्बूस्वामी रास
कामातुर पौड्यु सही जे, जणि वानरी पुत्र । तेहनि मारि ते वली, जीवहलारे अजाणति रह्य, एक सृत ॥२६॥४५१॥
ते कपि यौवन प्रामीउ, अननी सुकरि संग । वृद्ध वानर तिणे देखीउ, जीवडलारे जुघ करतां प्राम्यु भंग १२७।।४५२।।
ते पुष्टि वानर थर, नाग वानर वृष । गहन वन माहि जाई रह्म , जीवडलारे नासरू तेह अर्बघ ॥२८॥४५३!!
क्षुधा तृषा पोड्यु वली सरोवर पाव्यु तेह् । पंक माहि रकतु वली, जीवडलारे प्रामीउ मरणज तेह ।।२६।४५४।।
विषायतुर जे नर हइ, कपि मरि यामि मृत्यु । विषय कई म माहि पाउ, जीवडलारे हूं नहीं क्रएसी कात ।।३०।।४५५॥
विनयथी बॉलिइस सांभलि तु मुझ कंत । संखनाम दारिट्री एक, जीवडलारे दरिद्र करि रे एकांत ॥३१॥४५६
उदर प्रांटउ देई घणउ, दिन दिन दमकाउ एक । एकठउ करी मुइ खेपवि जीवडलारे नवि खाद कांड से रंक ॥३२॥४५७।।
तिणि वन को एक नर रूप टंका भूद मध्य । घातीनि यात्रा गड़, जौवडलारे दरिद्री लही पाम्यु सिषि ॥३३॥४५८॥
लोभ थकी दरिद्री तिहां पूनपि खेप्यु ताम । पात्रा करी पूरब नर, जीवडलारे कादि लेउ गउ ताम ||३४||४५६।।
स्त्रीनु वचन लेई करी, खणवा लागउ दाम । पुनरपि कुभ सोनी भर यु, जीवडलारे प्रामीउ तेणि ठाम ||३५॥४६॥
लोभ थको तिहां सांजीज, प्राभ्यु हरषज तेह । धन संचित पूरव धन, जीवडलारे बली भोग एह ।।३६।।४६१।।
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कविवर त्रिभुवनकीत्ति
कष्ट करी दिवस प्रति दम फु मूकि एक । धुरत एक देखीउ जीवडलारे गलबी लेइ गउ छेक ।।३७॥४६२।।
एक दिन तिणि जोइ गलु देक्षु सर्व । दुस्ख फरिते प्रतिघणु जीवडलारे पूरव गयु मुझ द्रव्य ॥३८॥४६३।
द्रव्य लह्म विलसि नहीं, लङ नवि भोगवि सुख । लोभ थकी संसनीं परि. जीवडलारे ते नर प्रामि दुख ||३६॥४६४।।
बस्तु-तेण अवतर तेण अवसर जंबू कुमार ।
सणीय वचन बली बोलीउ साभानि नारी मुझ बात । ते सुरसुलु नवि मछु करू नहीं संसारपात । ए कथांतरि तुझ कहूं सांभलि नु वलि नार । सार सौम जिम भोगबु संसृत पामु सार ।।१।।४६५।।
राग रागिरी
सांमलि नांरि एक. कथा रे, लुब्ध दत्त एक सार । एक दिवस व्यापार गरे, चाल्यु प्राध्य वन माहि रे । भवीयण पर्म करू एक सार, घरमि सिव सुख पोमोइरे । घरमि अरथ मंडार रे, प्राणी धर्म करूं' एक सार ।।१।।४६६।।
वणिक पूठि एक गज थउरे, यम रूपी तेह जाण । वणिक नासी ते प्रावीउरे, कूप काठि ते सुजाण ।।२।।४६७।।
कूप तढि एक बट वृक्ष रे, पउवाई माई तेह । मूषक कालु ऊजलु रे, वडवाई कापि बेहरे ।।३।।४६६।।
चितातुर श्रेष्ठी हा रेहूंय करू हवि केम । कष्ट पड्यु दुःस्न भोगबुरे मरण पाम्यु वली ए परे ।।४।४६६५
हेउ तिण जब जोईउरे, माजगिरि देख्यु ताम । चिहुं पासे सर्प देखीयारे, कसाय रूपी एह नाम रे ॥५॥४७०।।
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जम्बूस्वामी रास
इसीय चिता माहि पड्यउरे, गज प्राव्यु तिणि ठाम । आवीय बट हलावीउरे, मधउ पड्यु मुखह ताम रे ॥६।।४७१॥
मक्षिका झडी प्रति घणी रे, प्रावी लागी तास देह । दुख देई ते मालपणा , पुण साह र हरे ।।
७२।।
तिणि अवसर एक खगपतीरे, प्राव्य तेणि ठाम ।। कष्ट पड्यु नर देखीउ रे, चोलि विद्याधर ताम रे ।।८।३४७३।।
सांभलि नर इहां थकी रे, काळु तुझनि हेव । परवम दुख काई भोगवी रे, इसुय कहि तेणि खेवरे ॥भवी॥६॥४७॥
मधु विद लोभि लोलिउरे, वांछि बीजी वार । तां लगि रह तम्हे खगपति रे, इसुय कहि निरधार रे ॥१०॥४७१।।
पचन सुणी खग बोलीउरे, सांभलि मूड गमार । मधु बिंदु सुखकरी लेसविरे, दुख न देखि अपार रे । ११।।४७६।।
बिंदु बीजु मुख नवि पडि रे, तुरषा तुर वली तेह । दुख घणा पामीउ रे, खग गज भापणि गेह ।।१२।१४७७।।
बडवाई कापी मुख किरे पडीड कूप मझार । पहतु गिरि से गस्यु रे, दुख सह्या अपार रे ।।१३।१४७८ ।।
लबलेम सुख कारणि रे, दुख न जाणि गमार । एणि संसार नहू पहउं रे, नारि सुण विचार रे ।।१४।।४७६।।
ऊपनी एस बोली रे सांभलि कत मुझ बात । एक कथा मह रूयडी रे, सप्पं तणी विक्षात रे ॥१५॥४
॥
एक दिवस मेघ मादीउरे गाज वीज करी भार । सात दिवस वृष्टि करी रे, थोडी हुई पछि पार रे ॥१६।।४८१।।
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३३८
कविवर त्रिभुवनकीर्त्ति
क्षुधा पीड्यु एक नीसरयु रे कोट बाहिर चकलास |
मतां देखीउ रे महा मुयंगम वासरे भवीयण धर्म करूं एक सार ॥१७४८२
चल चपल जिह, वा छिरे, मेल्हतु विष तणी झाल ।
कुंडल वाली जब रह्य, उ रे, जाणउ ग्रहज काल रे || १८ || ४८३ ||
देखी काकडउ सिविरे, ए बागिल जीव केम ।
चिती ते वालीउरे, नकुल तिणि छिद्र एमरे ।। १६ ।। ४६४ ।।
पूठि की महि चालीउरे, ते गड छिद्रज माहि । चकलास पाम्यु कीउरे, नकुल तणि गव गेहरे ||२०|| ४६५||
नकुलि हि तब मारीत रे, भक्ष करू तनि ठाम । चकलापांम्बु कीउरे, सर्प पाम्पु दुःख ताम रे ।। २१ । ४८६ ।।
स्वाधीन सुख नवि भोगवि रे, ते नर प्रामि दुःख ।
सर्प तणी पिरि प्रतिघणारे, कोइ न पामि सुख ॥२२॥४६७ ॥
से सरघु स्त्री हूं नही रे, बोलि जंबु कुमार ।
शीपाल कथा कहुं रुपडी रे, सांभलु तम्हो सहू ना रे ।। २३ ।।४६८ ।।
चूहा - जंबुक एक रात्रि वली श्राव्यु नगर मकार ।
वर्ला व एक देखीउ, मरण पाम्यु एक बार ॥१६४८६ ॥
मंस लोलप सीयालीउ, वलद पंजर मध्य भाग
मांस खाई तिहार, नवि लह्य रात्रि विभाग || २ ||४६०६ |
•
दिनकर ऊग्यु जाणीव, जावानि नहीं लाग 1
पंच सात जोत्रा मिल्या, न लहि जावा माग || ३ | ४६१ ॥
हृदय मांहि इम चितवि, खुद मुझ तणु धायु । रजनी मामुं जु किमि तु राखु, वली काय ॥४४६२
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जम्बूस्वामी रास
एक पुरुष तिहा आवीउ, लोघां करणनि पूछ ।
दत पाठि बीजि लोमा. वसीकरण तिथि अछि ||५|| ४९३ ॥
जीवत या परहरी, मारयु ते शीमाल |
स्वान वायस भक्षण कर्यो, तब पाम्यु वली काल || ६ || ४६४ ||
विषयासक्त जे नर हुइ ते सहि दुख अपार ।
नरक तिथंच माहि रलि, कहां नवि लहि सुख सार ||७||४६५।।
३३६
ढाल थूल भद्रनी- राग बेशाख
एक अवसर रे विद्युच्चर श्राभ्यु वली, काम लता रे घिर यो रात्रि मनरलो । पुर भमतुरे श्राब्यु जबू परि भण, जहां सुतुरे नारी सुकुमार सुणी ॥१॥ ४६६ ॥
धन देखी रे मनमाहि चितिं रही, घन लेवु रे एह तणु चिति सही । सिहां सांभली रे कथा तिनी प्रति वणी, विस्मद प्राभ्यु रे चोर मनसुते सुणी | २|४६७
तिणि श्रवसर रे माय बाबी कुमर क्षणी, संवेग वासु रे तप लेई जाइ वन भणो । इसु जाई रे माता तिहां रही, देशप्रभवु रे माताइ तिहां सही | ३|४६८
पूछिउ कुण रे चोर छंउ माता हू वली, प्राथ्यु चोरी रे करवा प्रभबू कही रली । धन लेउ रे नगर तथा उमि प्रति घण्ड, तुझ मिंदर रे धन लेवा आध्यु मुणु | ४ ४६६ ।।
बोलि जिनमती रे जे जोड़ लेउ तम्हो, विग्र चित रे कांइ ग्रनु माता लम्हो । युक्त पुत्र रे एक छि भाई तम्हो, सुणु दिक्षा ले वारे ऊपर भाव प्रति घणु । ५५००
इणि कारण रे दिन चित्त धणी अछ, तिणि कारण से बार बार रे जो अ बोलि प्रभवु रे विद्या मुझ कति घणी मोहस्तंभन मेलापक भंजन वणी | ६| ५०१ ।
܀
दिधि दर्शन रे सुप्त प्रबोधन यंजन, केम रूटा रे केम मनावोई भंजन ।
मुझ विद्या रे जु मोह पाउ एवली माय, श्रावीरे तु ह्नि इस सांभली | ७|५०२ |
पुत्र पूछि रे कुण कारण श्रायां इहां, तुम मांभुरे दिवस घणे प्रायुङ हो । fter प्रभवि रे वेस वणिकनु प्रति भलु, प्राथ्यु मंदिर रे माहि बिठउ एकलु ६५०३
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३४.
कविवर त्रिभुवनकात
कुण ठाम थी रे पापा मामा तम्हे का. भोलि प्रभवु रे सांभाल मोणेजहं कह । पण ममी रे मापार कारणि हुं पलो, तुझ मागिलहरे कह सामनु मन ली ।।५.४
विभिन्न देशों के माम
भम रतीय भभीउ उत्तर दक्षण पूरव पश्चिम ए दशि ए । करणार सिंघल दीप केरल देश चीणक ए दिशि । कुंतल देस विदर्भ जन पद सह्म पर्वत प्रामीउ । नवंदा नारि विष्म पर्वत तिह मास्यु मामीउ ।।१॥५०॥
भस्यच पाटण माहीर कूकण देग कछि प्रावीउ । सौराष्ट्र देसि किष्कंघ नगरी, गिरनारि पवंत भावीउ ।।२।।५०६।।
नेम निर्वाण जिहां पाम्या राजीमतीइ तप ग्रही 1 तिहां प्रावी जिणवर पाय प्रणमी, मानव भव सफल ग्रही ।।३।१५०७॥
पदाचल मेवाड देस लाड मरहठ पामोउ । चित्रकोट गुजराति देस मालव देशि कामीउ ॥४॥५०८॥
कासमौर फरहाट देस विराट ९ भम्यु अति घणज । परिभ्रमण कोषां द्रव्य कारणि, पार न पाम्यु तेह तणु ।।५।।५०६।।
पालि
बोलि प्रभषु रे सांभसि जंबू तुझ कहुं इणि संसार रे सुव दुर्लभ जीव सहू । सुख प्रामो रे भोगवि जे पुरख नही, ते प्रामी रे दुख सहि इहां रही ॥१॥५१०।।
तप लेई रे परलोकि सुख लहि ते पुरख रे काइ न जाणि सु कहि । जीव पारषि रे सुख दुख कुण भोगवि, जीव पापि रे पुण्य पाप कुणसभवि ॥२॥५११॥
देह माहि रे पंच मूते जीव हवउ, पंच भूते रे गई जीव तिहां चबा । दम जाणि रे पुण्य पाप को नवि लहि, इसु जाणि रे संसार सुख मोक्ष कहि । ३१५१२।।
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जम्बूस्वामी रास
३४१
परस्पर कातालाप
बोलि बंबू रे मांधलि प्रभवा तुझ हुं, जु एह देह रे पंच भूते करी लहउ । माता पिता रे पाखिए रेह नवि हूउ, कुभ नीपनु रे पंख भूते करी इम कहुं ।४।५१३।।
तुशानी रे ए कुभ काइसि नही जीव मोहि रे संसार माहि पडि सही । जीब धरमिरे स्वरग मुगति लहि वली। जीव पापि रे नरक दुख भोगवि भली ॥५॥१४॥
जीव पाम्वि रे सख दुल कुण भोगवि, जीव पाखि रे पाप पुण्य कुण संभाव। बोलि जंबू रे पूरव भव सह पापणां मि पूरवि रे सुख दुख सापां षणां ।।६।११।।
कहि प्रभघु रे सांभलि जंबू तुझ कहू, एक उटि रे वन ममता कूप लहुँ । कप काठि रे मष ऊजालु वृभि अछि, विहां ऊडी रे मक्षक व लगी देह पछि । ७।५१५||
मधु भक्षणु रे कोधू करभि मन रली, प्राह रे जेतलि तेहज बली। कूप मध्यि रे पड़ीउ तेहज बापडउ, मधु लोभि रे मरण प्राम्युउंटडज ।।।५१७।।
दुख सहीयारे अति घणां तिणि प्राणीद इस जाणो रे संवर मन माहि प्राणोइ । बोलि जंबू रे सांभलि प्रभवा ए तुझ कहूं एक वागी उरे व्यवसाय करि बहू ॥६।५१८॥
चडाबु
ध्यवसाय दणिक एक चाल्यु देस देसि से भमि । लोभिय लीउ तेह प्राणी दुख घणां ते स्वमि ।। सहश्च हुन लाख वाछि लाख नु पणी कोड ए। कोई पामी राज पाम्यु तुहि तृपति न नोडए ।।१।।५१६।।
पंथी जातो तृषा पोउ जल किहो किम मिला। परण्य पडीउ सुचिति केमह हाथी नीकलउ । नौसर जे तलि चोर देशउ मूसीयघन सहूइ लोउ । तृषां पीडिउ रात्रि सूता स्वपन माहि जल पीज ॥२॥५२०।।
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३४२
कविवर त्रिभुवनकोति
जाग्यु रे जे तलि कांइ न देखि, किहां सर किहां जल । जिहवा रे स्वादन करि प्राणी काँइ नवि लाहि बल । जिह्वा रे स्वादन बरत तेहनी तृषा तेहनी नवि गई। तृषा पीडउ मरण पांम्यु दुख मोगवि तिणि लई ।।३।।५२१।।
दहा--विश्य सचर इम बोलीउ सांमलि जंबू कुमार ।
वणिक एफ तस कामहनी पौवन प्रामी सार ।।१।।२२।।
निज द्रव्य लेई नीकली मिलीउ धूरत एक । स्नेह यांधी तेह सुबली सुख विलसि अनेक ।।२।।५२३।
तिहाँ रहती वली अन्य सूलन्द हुध तिणीधार । विहू सरसा सुख भोगवि को न वि जाणी पार |1||५२४॥
जरि वृत्तांतह जाणिउ कपट धरी मन माहि । पूर्व वृतांत तलवर कही मन सघरी मति दाह ।।४।। ५२५॥
माजि रात्रि तम्हो भाव जो, लाभ हसि मुझ गेह । इंसु कहीय धिर पाबीउ, समन सूतु वली तेह ॥५॥।॥२६॥
कामाकुल ते कामिनी, सूती सिज्या जई सार । विहां घुरति सह देखीउ, स्त्रीय चरित तिणि वार ।।६। ५२७॥
रानि संकेति माबीउ, नगर तणु रक्षपाल | नगर लोक जागवतु, पाय तिहां फोटपाल ॥७॥५२८ ।।
जार सिध्या थी ऊठी करी प्रावी घुरत पास । तल रक्षक बली प्रावीउ . धूरत तणि प्रावास
||५२९।।
प्रावी घूरत बोलीवीउ. कुण अछि तुझ गेह । हूँ नवि जाणउ बोलीज कोई ग्रहउ पली तेह ।।।५३.।
सुष्ट मुष्ट करी बांधील जार मा तिमि ठाम । राअभय या नीफल्य, धूरत स्त्री सई ताम ||१०.५११॥
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जम्बूस्वामी रास
३४३
नदी कांठिवि पाषीया धूरत चिति एम । एह मूकी वस लूटीनि चिति जाउ केम ॥११॥५३२॥
सांभलि स्त्री तुझ हूं कहुँ, द्रव्य हुछ वली जेह । मुझ हाचि बापु । उता ५३३||
लोभ पणि वसू पापीउ, घरत पाम्पु सुख । एकाकिनी मूकी तिहां रदन करि घरि दुख ॥१३॥५३४।।
एनलि एक सियालिणी मांस घरी मुख एम । रही रही जोड तिहो हषि करसिए केम ।।१४।। ५३५।।
मास मूकी पूठि थई मछ गड चल ठाम । मन मांस लेह गउ, रही रही जोइ साम् ॥१५॥३६।।
हे नारी तिसुकर निज मारी भरतार । जैसा थि तु नीकली, ते गउ तुझ झार ॥१६॥५३७॥
नारी संबुक प्रति कहि मुझ यु डाह पण तुझ । उभय भ्रष्ट हुई वली कियुप कई वली मुझ ।।१७॥५३८।।
वस्तु-तेण अवसर तेण अपसर जंबू कुमार ।
विद्य च्चर प्रति बोलीउ सामलि मामा मुभ बात । असती जंबुक ते समु काई सु मुझ बात। ए संसार प्रसार छिइ समाणु सहू कोइ । एक कथा कहु.रूपडी सहू सभिलु तम्हो लोइ ॥१॥५३६।।
ढाल पाएंवानी
जंबु स्वामी बोलीउ प्रार्णधानी सांभल प्रभवा बात तु वणिक एक वाहण चड्यु । द्रव्य लेइ संघाततु ।।मा॥१॥५४०।।
विधिध वस्तु लेई करी ।पा। द्वीपांतर गउ तेह तु । वस्तु बेची तिहां प्रापणी ।पा। विविध वस्तु सीषी तेह तु ॥२१॥४१॥
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३४४
कविवर त्रिभुवन कीर्ति
हस्ती घोडा प्रति घणां प्रा० मणि मणक लीया ताम तु। मनसु चिति घर जई मा०। भोग राजनि ग्राम ॥३॥५४२।।
रतन पाम्यउ अति रूयाउ प्रा०। हरषहू उ मन माहि तु । बोहण पूरी निज मापणां प्राशनाबीउ समुद्रह माहि तु ||४||५४३||
समुद्र माहि जब वीउ मा०। रतन पडर तिणि वार तु । हा हा कार तिहां हूउ ।पा। दुख करि बारो वार तु ॥५॥५४४।।
वाहण खेडि ते नाउडी मा०। तिहुं प्रति बोल्यु साह तु । वाहण राखउ तम्हो आपणउ पाक रतन पड्यु जस माहि ।।६।।५४५।।
ते जोउ तम्हो रहा रही ग्रा०। बोलि नो खातामतु । साथ लहूउ ए वाणीउ प्रा० किम लाभि रत्न एणि ठामतु ||७||१४६।।
वायवेग वाहण जाइ धा । समुद्र अछि अपार तु । रन पड्यज इहां किम जाडि मा०। मूरख तय गमार तु ॥८॥५४७।।
तिम संसारह जलनिधि प्रा० माणस जन्म ए रत्न तु । हस्त थका जब ए आयु प्रा०। नव सहीइए नर रत्न तु ।६॥५४८।।
वचन सुणी चोर बोलीउ मा० सामति जंबू कुमार तु । विष्याचल एक भील रहि पा। पारचि करि रे अपार तु ॥१०॥५४६।।
उष्ण कालि गज प्राबीउमा पाणी पीवा सर ताम तु । बोण मूकी ताण भीलष्टि प्रा०। मारीउ गज तिणि ठाम तु ।।११।।५५०।।
सर्प उसु भील मू ।पा। घतुषि मूउ तत्र काल तु । तिणि स्थानिक ते ऋण पड्या ।पा। एतलि प्राज्यु सीयाल तु ।।१२.५५१
हस्ती भिल्ल पहि देखीउ मान घनुष देखु तिणि ठाम तु । हरष हूउ शीयालीया मा० मध्य प्राम्यु घणु ताम तु ।।१३।।५५२।।
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जम्बूस्वामी रास
३४५
षट मास ए गज हसि ।पा। मास एक मानव जाण तु । एक दिवस एं अहि पछि मा०। मन चितिए सु प्रयाण तु ।।१४।५५३।।
भाग्यवंत जीघ मुझ सम्मान को नहीं एणि संसार तु । 'प्रथम धनुष गणए मनु मा०। ए सहू पछि आधार सु ।।१५।१५।।
धनुष प्रत्यंचा खाइता माग तालुउ फूटउ तेह तु । मरण पाम्यु ते बापडउ मा०। दुख तणा हूउ गेह तु ।।१६॥५५५।।
विद्यमान सुख परहरि ना जे वांछि स्वर्म सुख तु । लोभ थकी ते बापड मा० मति घणा प्रामि ते दुस्ख तु ।।१७ ॥५५६।।
वचन सुणी ते बोलीउ मा०| जंबू नाम कुमार तु । सोमलि प्रभवा तुझ कई मा। कबाडी एक निराधार तु ।।१८।१५५७।।
काष्ट वेचिते प्रति घणां ।मा०। दिन दिन पर ति तेह तु । कष्ट करी उदर भरि प्रा. एकदा बन गउ तेह तु ।।१९।५५८।।
उष्ट काल पीयुषण मा। लेई लेई प्राधि काष्ट तु । ताप पीन्यु ते प्रति घणु मा० भावीय सूतु ते वाट 1॥२०॥ ५५६।
स्वपन माहि तिणि देखीउ ।पा। जाणि भोगव राज तु । राज लीला कर प्रति घणी ।प्रा०। वली कर पापणु काज तु ।। २१५०।
छत्र चमर बली भोग' मा०। सिंहासन रहुं ताम तु । सेबक बहू सेवा करि प्रा०। भोगवु देस ग्राम तु ॥२२॥५६१।।
राजपुत्री वली भोग प्रा०। भोगव् सोख्य अपार सु । स्वपन माहि ए सुख देखत्तु (मा०। जग स्त्रीह भरतार ।।२३।।५६२॥
जाग्यु नवि देखि कोइ ।मा ०। कोष हुउ तेणी धारतु । स्वपन सुख चे देखीह मा। ते नवि कोई सार तु ।।२४।५६३।।
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कविवर त्रिभुवनकोति
कृष्ण वर्णा अति भीखणा प्रासादीसंती विकराल । पसी स्त्री मामिल रही ।प्रा. कापडीइ देखी तिणि काल तु 1१२५॥५६४।। कोप करीनि बोलीउ ।पा। कांइ जगाथ्यु रंड तु । दुम्न करि मनसु ध माका अस्त्र तणु नहीं खा ॥२६॥५६॥
स्वपन सरीखा जाणां मा0 संसार तणांए सुख तु । मे नर नारी मोझ्यिा मा० से नर प्रामि दुख तु ||२६॥५६६।।
पहा-वचन सुणी और बोलीउ, सांभलि जंब कूमार ।
नत्य कला एक पूरीउ, नाटक की एक सार १५६७।
एक दिवस राय मंदिरि वेश्या लेई बहुत । नुत्य करि तिहां रूयडउ हाव भाव संयुक्त ॥२१.५६८॥
विलास विभ्रम करि घणा, देखाली वली नेह । लोक तणा मन रीझवि, नत्य करतो तेह .१३.५६६॥
संसु वउ राजादिह णक कंचण दीनार । मणि मुक्तफल प्रति घणा, नपति देव तिणि बार ।।४।३५७०।।
राजा सनमान लही सुख क्लिास पण उ तेह। रजनी सूतां घेतवि, द्रव्य लेई जा एह ।।५।।५७१॥
द्रव्य लेई जच नीसरयु, महीउ अन्य संघात । लुप्ट मुष्ट करी बांधीउ, पाम्पु प्रति घणउ षात ॥६॥५७२।।
राज डंड राजा दीउ. पाभ्यु दुख अपार । लोभ करि जे लोभीउ, इणी परि दुख भार ।।७॥५७३11
ढाल साहेलाडीनी (राग धन्यासी)
वचन सुणी तब बोलीउ, जंबू संभल प्रभवाही बात । नयर वाणारसी राय लोकपाल, सेहनी छि बहू भात ।। साहेलनी बोलि अंबू कुमार, एह संसार मसार सा ||५७४।।
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जम्बूस्वामी रास
३४७
तस घिर रागी माती हाणे, मला हा नाम नव पौवन पुरी ते नारी, काम वाणे पीडी साम । सा०।१२।१५७५।।
आठ मद करी पूरी राणी, नवि जांणि काई विवेक । निलंज नारी कुलनी खाँपण, माणि प्रति घणु एक ॥सा।३।।५७६.।
एकदा पाय प्रति कहीं राणी, माय और मुझ अंग । काम बाणे मुझ पीडी काय, प्राम्याछि मति घणउ भंग ||सा बोलि ।।४।।५७७।।
को एक पुरष र हां तम्हे प्राणउ, माणोनि मुझनि मेलु। वचन सुणी दासी इम बोलि, जे कहि ते तुझ भेलु ।सा बोलि ।।५।।५७८।।
रूपि करी काम सरीखूनीसरयु प्रम विभाग । स कोमल अंग अनोपम काय ए, अधि बवा लाग ।।सा. बोलि ।।१७।।
नव यौवन पूरू सुंदर रूप स्वर्णकार पंग नाम । ते देखि मन विह वल इज एहा तेड एणि ठाम 1७||५८०॥
पारिका जाई तेडीउ तेह प्राणीउ राणी पास । राय तणी सेम्या जब मक्यु पूरसि ए मुझ भास | सा. बोलि ||८||५५१।।
स्नान मज्जन चंदन पुष्प पिहरी, लेई सार पार सजई अब । भावी हो रांणी वाजिक बांगा तब सा. बोलि ५८२५॥
छत्र चमर सामंत सहित, प्रवीउ राजा हो ताम । चंग खेई संचारी नास्यु गुप्त रक्षा सणि ठाम ||१०||५८३।।
राणीनि मदिर राय पधाऱ्या, भोगवि सोम अपार । षट मास षम रहयु णि ठाम, भोगवि दुखनु भार । सा बोलि ।।११॥५८४।।
पांडु संग दुरगंध शरीर, पामीउ तेहनु अंग । राय मादेसि सोघाउ कुछ, जलखाल नीसरयु चंग ।।सा. बोलि ।।१२॥५८५।।
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कविवर त्रिभुवनकीर्ति
अंग पखालउ नदी जाइ तेणि, प्रावीउ नगर मकार ।
पांडुरंग जब देखि, लोखे विस्मय प्रामीया भार ।। सा० बोलि ।। १४ । । ५८६ ॥
३४८
क्षोण गात्र जब दीखीउ, लोके पूछइ हो तेहनि लाम ।
एतला दिवस कहि रया, चंगते तु धमनि ठाम ॥ सा० बोलि ।। १५ ।। ५८७ ।।
पाताल कन्या लेई गई, मुमनि तिहां रहुं षट मास ।
इम कहोनि ऊतर प्राप्यु भवीउ निज आवास || सा० बोलि ।। १६ ।। १८८ ॥
1
स्नान भोजन करो उ सुरूप, प्रामीठ रूप अंग |
पुनरपि रांणीइ देखीट चंग, नेह पाम्यु वणउ रंग || सा० बोलि || १७।। ५८२ ।।
पूरबनीपिरिडीउ तेह, बोलीज सोचन कार ।
तुझ घिर भोगव्या जे भोग सार सांभलि ते मुझ अपार ॥ सा० बोलि ।। १८३५६०
इसुय कही घिर ग्रावीउ, ते नवि मान्यु तेथि ।
बोल जे परनारी लंपट पुरुष, नयर माहि करि रंग रोल ॥ सा० बोलि ।। १८ । ५६१।
नरक तिथंच गति उल्लंधी प्रामीड माणस जन्म |
भोग हा नवि नीगमउ, ए हइय जाणे सम्दे ममं ॥ सा० बोलि ||२०|| ५६२ ॥
प्रचल मेरजु चाल मांडि तु नवि चलि मुझ चित ।
पूर र पश्चिम ऊमितु, मन नवि प्रामि भंग ॥ सा० बोलि || ५६३॥
हस्तनागपुर संवर राजा, तेह तणु पुत्र एह |
विद्युतम्हे नांमि जाणव, ग्रासन भव्य विदेह ॥ सा० बोलि ।। २२ ।। ५६४ ।।
पद्मश्री आदि च्यार नारी ते पण हूई निरास
पंचसि चोर सहित प्रभवु लेणे मूकी वली प्रास ॥ सा० घोलि । २३००५६५ ।।
ज्ञानी करी प्रभवु प्रति बोध्यउ प्रति बोधी च्यार नारी ।
पंचसि चोर तिहां प्रति बोध्या, मात तात तिणी वार ॥ सा० बोलि ||२४|| ५६६।।
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जम्बूस्वामी रास
३४६ .
वहा-तिणी अवसर उदयाचलि. उदय पाम्यु तव सूर ।
राम रहित कुमरनि, जोवा भाब्यु सूर ||११५६७॥
सिय्या कूमर मूकी करि, करि सामायक सार । केतला पडि कमणु करि, केवि पि नवकार 1.२||५६८||
प्राधिक रागि वामीउ, इहां रहिबा नहीं लाग । बन जाई दिक्षा लेणं, कर हूं जीवनु माग ॥३५॥१६॥
इसुय जाणी घिर थकी, माव्यु श्रेणिक पास । हरष हूउ हीढि घणउं, प्राम्पुमन उल्लास ॥४॥६.०॥
वाजित बांगा प्रति घणो, को मवि लाभि पार । मुकट कुंडल वाजूब हरसा पहिराध्या कुमार ॥५॥१.१॥
सिबका प्राणी रूयडी, विसास्यु तिणी वार। नगर लोक राय सहित, सुचाल्यु जम्बूकुमार ॥६॥६०२॥
कुमर चाल्यु तर जाणीज प्राची जिन मसी माम | दुखि रुदन करि घणु, बली वली लागि पाय ||७||६०३।।
ढाल बलभवनी-राग बेलाजल
बिलवि ते पुत्रहू एकली तुझ विण रहि उ न जाय। सुरू बिण उदस एस हइ, सुप कहि वली माय । बोलि माय पुत्र पाछाचलु, ए दिक्षानु नहि काल । तु सुंदर नान्ह अछि दीसतु सफोमाल ।। बोलि ॥११६७४।।
पुत्र प्रागिल माता रही करि रुदन अपार । बार बार दुख धरि करि मोह प्रपार |बोलि ।।२।।६०५।।
सीयालिसी वाजसि बन रहिणतन जाइ । बत तादि तिहां खा सहि किम रहिमि हो काय ॥बोलि।। ।।६०६।।
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कविवर त्रिभुबन कीत्ति
पाए अणू हाणे चालवु अपरि सूरज ताप । तपती असू तपती सिला किम सहि सुहो बाप बोसि॥४॥६०७||
वरषा काल वरसा तनी किम सहि सुहो धीर । झाझावात बाइ घणा किम रहिम निरपार ||बोलि।।।।६०८
छह आवस्यक दोहिला महाक्त पंच। अठावीस मूल गुण दोहिला दौहिलु तेहनु संघ बोलि।।६।।६०६।
जल विण किम रहि माछली सिम तुझ विम पुत्र । मुझ मेहली बीसासीनि कांइ जाउ वन सुत ।।७॥१०॥
परभव दव पर जालीया, किमि दीषी हो भाव । किमि मुनिवर दूहल्या झिवि छोहा हो बाल ।बोलि।।।।६११॥
हाहाकार करि घणु करि बदन अपार । अश्रुपात करि घणु करि विविध विकार । बोलि।।६।१२।।
मुरझा वस परणी पडी करी भाणा हो पाय । मी बासी तेहनी सावधान इस तस काय ।।बोलि।।१०१॥६१३॥
पुत्र कहि माता सुणु ए संसार प्रसार । दिया लेवा मुझ देउ, कोई कर अंतराय ॥बोलि।।१।६१४।।
दर्शन ज्ञान चरित्र बिना मवि सहोइ मोक्ष । माता मुझ मा वारसु. मां घरसु हो रोष ॥१२॥६१।।
हेतु दृष्टांत देह घणा प्रति बोधी मात । सासु सुसुरा बुझवी प्रति बोधी हो तात ||१३||६१६॥
पादेस लेई माय नु चाल्यु, राय संघात । लोक सवे तिहां चालीया, बोलता बहू क्षात बोलि॥१४॥६१७।।
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जम्बूस्वामी रास
दहा-बाजित बांगा प्रति घणा, बंदी जन जयकार ।
हरष हुड हीमपि पपउ, को नवि लाकि पारि १९||
तिहाँ थी बसी याबीउ मंदन वनह मझार । सोधम्म स्वामी प्रणमीति विठव जंबू कुमार ॥२॥१६॥
नगर लोक सह प्रावीया, पाव्यु श्रेणिकराय । प्रण प्रदक्षणा देहनि, विठज प्रणमी पाय ॥३॥२०॥
अबसर पामीनि चली, बोलि जकूमार । स्वामी मुझ दिक्षा देऊं, ऊतार भवपार ॥४॥६२१।।
इस कहीनी तिहां रहं, मुनिवर भावि भाग ।
दिक्षा लेई तिहां निर्मली, छोडि परिग्रह माग ॥५११६२२॥ हाल बाजारीनीर-राग गुडो
मुकि परिग्रह वाह्य, प्राम्येतर मूको वसी ।
घेतन हीयसारे ॥१॥६२३।।
मुकट कुंडल बाजूबंष हार ऊतारि मन रली ।।चेतन॥१॥६२४॥
गरीए तणां जे वस्त्र सार शृंगार कि सही । स्वकीय हस्ति करि लोच, पंच मुष्टी तिहाँ रही । चेतन।।२३।६२५।।
पंच महावरतन मार, पंच सुमति मण गुप्त सु। पारित्र तेर प्रकार, तेह परि मन सुध सु। चेतना।३।।६२६।।
सह प्रावश्यक सार मूल गुण घरि वली । इंद्रीय पंच सहित, विषयनि वारि ते वली ।।चेतन।।४।२७।।
गुरनु लही अपदेश, लीधी दिसा तिहा सही। परिसह सहिरे बावीस, ध्यान धरि वन रही ॥५॥२८॥
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कविवर त्रिभुवनकर्कात्ति
हरष्षु श्रेणिकराय स्वजन लोक सहू हरषीउ । फेतले लीयां समकित फेतले त तिहां लीयां ॥चेतन।॥६॥६२६॥
पंचसि चोर सहित बिद्युत्प्रभ तिहाँ प्रावीउ । प्रणमी मुनिवर पाय दिक्षा लेईनि भाषीउ ।।चेतन।।७।।६३011
मुकी परिग्रह सर्व चारित्र भार तिहां धरी । हुज मुनिबर राय सर्व संग तिहां परहरी ।।८।।६३१॥
संसार जाणी असार, ग्रहदास मुनिवर हूउ । नीधी दीक्षा सार, ध्यान धरि मुनिवर सहू ।।चेतन॥६॥६३२॥
जिनमती जे वली माय. शिक्षा लीधी निर्मली। पदमश्री मादि नारि दीक्षा लीघी मनरली वेितन॥१०॥६३३।।
सुप्रभा प्रणमीय पाय, सास्त्र भणी तिहां रही। तप जप करि अपार, स्त्री लिंग हणवा ते सही तिन॥१५॥६३४॥
श्रेणिक घरी सहू कोय सोधर्मा मूनी नमी चासोमा । पाव्या हो नगर मझार, धर्म ध्यानि करी पासी ॥चेतन।।१२॥६३५॥
एक दिवस जंबुस्वाम नगर प्रतिवली मावीउ । ईर्यापथ सोधत, नीची दृष्टि करी भावी ॥चेतन।।१३।६३।।६
मगर तणी जे नारि, भवन लोकन करि घणु । पड़घाई मुनिराय, भाव सहित सु प्रति घणउ ॥चेतन।।१४।।६३७॥
बोलि हो नगरी नारि, च्यार नार छोडी करी। परहरी मायनि बाप, भव धणू मनसु धरी ॥चेतन।।१५।।६३८।।
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जम्बूस्वामी रास
लोष हो संयम भार एह सरीखउ को नहीं
एहवी बोलइ सहू क्षाति, नगर लोक नारी रही । वेतन।। १६ ।। ६३६ ॥
जंबू हो मुनिवर राय, जिनदास घिर श्रावीउ | पडघाई मुनिराई,
साग
तिथि अवसर जिनदास, पुण्य करि नव पिरा ।
आहार अनंतर नाम, रत्न दृष्टि हुई घरि ॥ तन ।। १८ ।। ६४१ ।।
धर्म वृद्धि कहीं तेण तप स्थानिक मुनि भावी । मुगति तणि चली हेतु. अधिक तप करी भावीउ || १६३२६४२ ।।
ध्यानि परि मुनिराय, विपुलाचल पर्वत रही।
शुक्ल हमान खडी स्वाम, मोह समावि तहां सही ||२०||६४३ ।।
सोधर्म मुनि तिणी ठाम, पाठ कर्म हणी थया । प्रथम पक्ष माघ मास, सप्तमी दिन मुगति गया ।। २१ ।। ६४४ ।।
दहा - तिणि दिन जंतू केवली. चडीउ उपसम श्रेणी । कर्म सर्व समाच. चडीउ क्षपक श्रेणि ॥ | १ ||६४५ ।।
तिसठ प्रकृति तिहां क्षप करो, बात कर्म करी हानि । गुणस्थानिक लही तेरमु ं ऊपनु केवल शान ॥ २३६४६ ॥
इंद्रादिक तिहाँ प्रावीया, प्राच्या चतुमिकाय | गंध कुटी रवी भली. प्रणमी केवलि पाय ॥३.१६४७।।
धर्म प्रकास्यं केवली, सागार प्रणगार | वार व्रत प्रकासीयां क्रिया ते त्रेपन सार | ४|| ६४८ ||
माठ मूलगुण कहा, आवक नो छह कर्म ।
छ भावस्य मलगुण कहवु ते दश विध धर्म ।।५।। ६४६ ॥
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कविवर त्रिभुवनकीत्ति
धर्म सुणी राजादिक, प्राध्या नगर मझार । निज स्थानिक देव गया, फरसा जप जय कार ।।६।।६५०॥
विहाकवि काली के पुर पारपहिया । मच जीव मति बुझवी, प्राध्या विपुल गिरि ठाम ॥७.६५१।। ध्यान धरी तिहां मुनिवरि, बहुरि प्रकृति करि घात । गुणास्थानिक लघु चौदमु, क्षय करी कर्म अघात 11।।६५२।।
तेर प्रकृति तिहां क्षय करि, रही तिहां अथर, पंच 1
हूया ते मुगति नाराजीया, सौक्ष तणु नही संच ।। ६ ।६५३।। ढाल दशमी यशोधरनी
जिहां नही ए जामण मरण रूप रस जिहां नही ए । जिहां नहीं ए भोग बियोग, भोग सौख जिहां नहीं ए ॥१॥६५४।।
ते स्थानिक ए प्राम्य कुमार, पाठ कर्म हणी करोए । प्राम्य मुगति निवास, सार सौख वली घरीए ।॥२॥६५॥
तिहां नहीं ए देशनि ग्राम पुर पाटण जिहाँ नहीए। जिहां नही ए शीतनि सष्ण, वणं गंष जिहाँ नही ए ॥३॥६५६।।
जिहां नहीं ए मानि तात, पुत्र कलित्र जिहां नहीं ए । जिहो नहीं ए योग वियोग, रात्रि दिवस जिहां नहीं ए ॥४।६५७।।
जिहां नहीं ए काय विकार, सौक्ष अनंत जिहां अछिए । जिहां नहीं ए प्रायु नु अंत, तेज अनंतु जिहां पछि ए ते स्थानि ।।५।६६५८।
जिहाँ नहीं ए जीव समास, गुणस्थानिक जिहां नहीं ए । जिहां नहीं ए संज्ञाचार, छमयाति तिहां नहीं ए ॥६॥६५६।।
जिहां नहीं ए मागंणा नव सिद्ध मार्गणा जिहाँ । मचिए जिहां मछि केवल शान, केवल दर्शन जिहां अछिए ।।७।।६६.।।
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जम्बूस्वामी रास
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जिहाँ पछिए क्षयक सम्मकत्व, अमाहारक जिहां महिए । पंचतालीसए योजन लाख, स्थानिक पांम्यु से मचित ।।८।।६६१॥
महोछव ए कीउ निर्माण, देवे मिली मननी रलीए । गया सहए निज निज ठाम, संस्कारी काया बलीए ॥६॥६६।।
दुहा-पहंदास मुनि तप फरी, छठा स्वर्ग मझार ।
इंद्र तगी पदवी लही, भोगवि सोक्ष अपार ॥१॥६६३।। स्त्री लिंग छेवी जिनमती तपह तगी परभाव । ब्रह्मोत्तर पत्त'द्र हूउ, भोगवि सोक्ष स्वभाव ।।२।।६६४।।
वासपूज्य चंपापूरी, तिहाँ बई च्यारि नारी । तपसयम अादरी, ध्यान धरा भवतार ।।३।६६५।।
सन्यासि काला करी, स्त्री लिग छेदी हेव । स्वर्ग महद्धिक देवता, अवतरीया तत खेद ।।४।६६६।।
विधुच्चर मुनि तप करी, सही परीसह भार । काल करी सर्वार्थसिद्धि, प्रवतरीउ भवतार ॥५॥६६७।।
सेत्रीस सागर पायुपु', प्रामी मन उल्लास । मध्य लोक बली प्रवतरी, हिसि मुक्ति निवास ॥६॥६६८।।
प्रशस्ति
काष्ट संघ जगि जाणीइ, नंदीयड गड मझार | रामसेन मुनिवर हुमा, गछ तणा सणगार ॥७॥६६६11
तेह अनुक्रमि मुनिवर हुअा, सोमकीति मुविचार । ज्ञान विज्ञान प्रागला, सास्त्र तणा भण्डार ।।८।।१७।
ससु पट्टि प्रति रूपहा, विजयसेन जयवंत । तप जप यानि मंडीया, मावंत गुणवंस ॥६७११॥
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________________ 356 कविवर त्रिभुवनकीर्ति मही मंडल महिमा पणज, महीमलि मोटु नाम / याकीरति यश पागला, श्री यशकीति अभिराम // 10 // 672 // तस पट्टि उदयाचलिइ, ऊग्यु अभिनव भांण / बाणी जन मन मोहीया, श्री उदयसेन सूरी जाण // 11 // 973 / / तस शिष्याइ अति रूयडउ, रज्यु रास मनोहार / त्रिभुवनकीतिइ सूरीश्वरह, सौक्ष तणु माषार / / 12 / / 674 / / जे कवीयण प्रति ख्यडा, तेणे सोपवु एह / खरू करी विस्तार यु, दोष न प्रामि जेह / / 13 / / 672 / / जाह मंडल महीधर, ओ सायर ससि सूर / ता लगिइ रह रास, जंबू स्वामिनु शान तणु ए // 14 // 676 / / संवत सोल पंचदीसि, जवाछ नयर मझार / भुवन शौति जिनवर तणि, रज्यु रास मनोहार // 15 / / 677 / / इति जंबूस्वामी रास समाप्त / संवत् 1644 वर्ष फागुण मासे शुक्ल पक्षे प्रष्टमं सुक्रवासरे वडवास नगरे प्रादिनाथ चैत्यालये श्रीमत्काष्ठा संघे नंदीतट गम्छे विधागणे म. विश्वभूषण तव शिष्य ब. सामल लहंत /