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महाकवि की काम्य रचला के प्रमुख कार सुसंस्कृत नागरिक । सांगानेर (संग्रामपुर) के समीप ही चम्पावती (चाकमू) तक्षकगढ़ (टोडारायसिंह) एवं ग्राम्रगढ़ (यामेर) के राज्य थे जिन्हें उसकी समृद्धि एवं वैभव पर ई िथी। कालान्तर में नगर के भाग्य ने पलटा खाया और धीरे-धीरे वह वीरान नगर-सा बन गया। जिसमें संधी जी का जन मन्दिर एवं अन्य घरों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं रहा । मन्दिर के उत्तुंग शिखर ही नगर के वैभव के एक मात्र प्रतीक रह गये।
१६ वीं शताब्दी में भामेर के राज सिंहासन पर राजा पृथ्वी सिंह सुशोभित थे । वे वीर राजपूत थे तथा अपने राज्य की मीमाएँ बनाले के तीघ्र इच्छुक थे । उनके १२ राजकुमार थे जिन्हें पृथ्वीसिंह ने भामेर में ही एक-एक कोटडो (किले के रूप में) बनाने की स्वीकृति दे दी। इन्हीं १२ राजकुमारों में से एक राजकुमार ने सांगा जो वीरता एवं सूझ वाले थे । महाराजा पृथ्वीसिंह के पश्चात् महाराजा रतनसिंह धामेर के शासक बने । रतनसिंह की और राजकुमार सांगा की अधिक दिन तक नहीं बन सकी । राजकुमार सांगा बीकानेर के शासक जयसिंह के पास चले गये। कुछ ही समय में उसने वहाँ सेना एकत्रित की और शस्त्रों से पूर्ण सुसज्जित होकर मामेर की भोर चल दिया । मार्ग में मोजमाबाद के मैदान में ही दोनों सेनाओं में जमकर लड़ाई हुई और उस युद्ध में विजयश्री सांगा के हाथ लगी। राजकुमार सांगा पामेर की ओर चल पड़े । मार्ग में उसे एक उजड़ी हुई बस्ती दिखलाई दी। सांगा जैन मन्दिर की कला एवं उसकी भस्मता को देखकर प्रसन्न हो गया । मन्दिर में विराजमान पापर्वनाथ की प्रतिमा के दर्शन किये और उजड़ी हुई बस्ती को पुन: बसाने का संकल्प किया । यह १६ वीं शताब्दी के अन्तिम चरण की घटना है । बस्ती का नाम सांगा के नाम से संग्रामपुर के स्थान पर सांगानेर प्रसिद्ध हो गया । कुछ ही वर्षों में वह पुन: प्रच्छा नगर बन गया ।
सन् 1561 में जब मुगल बादशाह अकबर अजमेर के ल्याशा की दरगाह में अपनी भक्ति प्रदर्शित करने गये तो आमेर के राजा भारमल्ल ने उनका स्शगत सांगानेर में ही किया । महाराजा भगवन्तदास के शासन में हिन्दी के प्रसिद्ध कवि ब्रह्म रायमल्ल हुए जिन्होंने सांगानेर में ही सन् 1576 में भविष्यदस चौपई की रचना समाप्त की । सन् 1582 में जैनाचार्य हीरा विजय सूरि सम्राट अकबर के निमन्त्रण पर उनके दरबार में गये थे तो बे सांगानेर होकर ही देहली गये थे। सांगानेर निवासियों ने उनका हार्दिक स्वागत किया था। इसके पश्चात् यह नगर 16 वीं शताब्दि से 19 वीं शताब्दि तक विद्वानों का उल्लेखनीय केन्द्र रहा