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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
सांगानेर का उल्लेख ब्रह्म रायमल्ल ने तो किया ही है इस नगर में खुशालचन्द काला (17 वीं शताब्दि), पुण्यकीति (संवत् 1660), जोधराजगोदीका (16 वीं17 वीं शताब्दि) हेमराज ।। (17 वीं शताब्दि) तथा किशनसिंह जैसे विद्वान् हुए । जयपुर बसने वो 50 वर्ष दान न राह नगर जैन मादित्यकों के लिए विशेष प्राकर्षण का केन्द्र रहा । ब्रह्म रायमल्ल ने सांगानेर के बारे में जो वर्णन किया है उससे पता चलता है कि उस समय यह नगर धन-धान्यपूर्ण था तथा चारों ओर पूर्ण सुख शान्ति थी । श्रावकों की यहाँ बस्ती की वे सभी धन सम्पत्ति युक्त थे । सबसे अच्छी बात यह थी कि उनमें प्रापस में पूर्ण मतक्य था। नगर में जो जैन मन्दिर थे उनके उन्नत शिखर प्राकाम को छूत थे। बाजार में जवाहरात का व्यापार खूब होता था। सांगानेर वाइड देश में विशेष शोभा युक्त था। शहर के पास ही नदी बहती थी पौर चारों ओर पूर्ण सुख-शान्ति व्याप्त थी।
विद्वानों के केन्द्र के साथ ही सांगानेर भट्टारकों का केन्द्र भी था । प्रामेर गद्दी होने के पश्चात् भी वे बराबर सांगानेर पाया करते थे। अभी तक जितनी भी प्रशस्तियो मिली है उनमें सभी में भट्टारकों का अत्यधिक श्रद्धा के साथ नामोल्लेख किया गया है । लेकिन भट्टारकों का विशेष विहार भट्टारक चन्द्रकीति (संवत् 1622-62 तक) से बढ़ा और भट्टारक देवेन्द्र कीति, भट्टारक नरेन्द्रकीति भट्टारत सुरेन्द्रकति, भट्टारक जगत्कोति, भट्टारक महेन्द्रकीति, भट्टारक सुखेन्द्रकीति आदि का विशेष आवागमन रहा । तेरहपन्थ के उदय के समय भट्टारक नरेन्द्रकीति वहीं सांगानेर में थे ।' खुशालचन्द काला लक्ष्मीदास के शिष्य थे जो स्वयं भट्टारक देवेन्द्रकीति के प्रमुख शिष्य थे।
देस ढूढाइ सोभा वणी, पूजे तवा प्रालि मण तणो । निर्मल तल नदी बह फिर. सुख में बसे बह सांगानेरि ।। बहुदिशि बण्या भला बाजार, भरै पटोला माती हार । भवन उसुग जिनेश्वर तणा. सौभ चंदवा तोरणा घणा । राजा राजे भगवन्तदास, राजेश्वर सेवाहि बढ तास । परजा लोग सुस्थी सब बसौ, दुशी दलित्री पुरव पास। श्रावक लोग बसै धनवन्त, पूजा करहि जपहि परिहन्त ।
उपरा ऊपरी वैर न फाम, जिहि अहिमिन्द मुश सुन्न नाम ।। J. भट्टारक प्रविरिके नरेन्द्रकीरति नाम ।
यह कुपन्थ तिनके समै नयो चल्यो अघ धरम ।।