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शृङ्गार परख वर्णन
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तिलकपुर जाकर चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र की पूजा करने की इच्छा (दोहा) होती है' | हनुमत कथा में पारम्भ में चोवीस लोक स्तुति के साथ स्थान-स्थान पर जिन भक्ति की प्रशंसा की गयी है। जिनेन्द्र भगवान की पूजा से शुभ कर्म का बन्ध एवं अशुभ कर्म का क्षय होता है। राजा महेन्द्र नंदीश्वर द्वीप जाकर जिनेन्द्र भगवान से निर्वाण पथ का पथिक बनने की प्रार्थना करता है 1
भगति बंदना तेरी करें, मुकती कामणी निश्च वरं । नित उठ कर तुम्हारी सेव ताकौ पूर्व सुरपति देव ॥ ५१ ॥ जिरावर मोपरि करौ सनेह, कुर्गात कुशास्त्र निवारज एह ।
ओर न कछ मांगों तुम्ह पास, बेहु स्वामि बेकु बास ५२/७४
लेकिन ब्रह्म रायमल्ल को जिन भक्ति किसी संसारिक स्वार्थ के लिये नहीं है। और न ही उसने अपनी भक्ति के बदले में कुछ मांगा है। जिनेन्द्र भक्ति तो पुण्योत्पादक है और पुण्य के सहारे सभी विपत्तियां स्वयमेव दूर हो जाती है । प्रभाव प्राप्ति में बदल जाता है ।
श्रृंगार परक वर्णन
जैन काव्यों का प्रमुख उद्देश्य पाठकों को विरक्ति की ओर ले जाने का रहा है इसलिए हिन्दी जैन काव्यों में प्रेम का पर्यवसान वैराग्य में होता है यद्यपि काव्यों के नायक एवं नायिका कुछ समय के लिये गार्हस्थ जीवन व्यतीत करते हैं, युद्धों में विजय प्राप्त करते हैं, विदेश यात्राएं करते हैं तथा राज्य सुख भोगते हैं लेकिन अन्त में तीर्थंकर अथवा मुनि की शरण में जाते हैं, उनका उपदेश सुनते हैं और अन्त में संसार से उदासीन बन कर वैराग्य धारण कर लेते हैं। इसलिये जैन काव्यों का प्रमुख लक्ष्य न तो प्रेम दर्शन को अभिव्यक्त करना है और न दाम्पत्य प्रेम की महत्ता को काव्य का मुख्य विषय बनाना है। इन काव्यों में प्रेम विवाद और कठिनाइयों का चित्रण अवश्य मिलता है लेकिन अन्त में प्रेम की क्षणभंगुरला दिखला कर वैराग्य की प्रतिष्ठा की जाती है ।
१. सोग सबै छाडिउ तहि बार जिनवर चरण कियो जुहार ।
गुणग्राम भास्या बहु भाइ, जहि थे पाप कर्म क्षो जाइ ॥ १८:३०
२. स्वामी मेरी अँसो भाउ असो तिलक पुर
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पट्टरिण जाउ ।
माठ भेद पूजा विस्तरी, जिरणबर भवरण
महीयौ करी ।। २८/४६
२. कीजै पूज चरण जिनराश, बंध धर्म अशुभ क्षो जाइ ॥ ३४ /७२