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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
__ लेकिन हिन्दी अन कान्यों में शृगार परक तत्त्व अघवा वर्णन मिलता ही नही हो ऐसी बात हम नहीं कह सकते । जैन कवि प्रसंगवश अपने काव्यों में शृगार का भी वर्णन करते हैं और कभी कभी उल्लेखनीय सुटकी लेते हैं। उनके काव्य सयोग वियोग शृमा र दोनों से ही युक्त होते हैं ब्रह्म रायमल्ल के सभी कान्यों में श्रृंगार भावना का विकाल देखा जा सकता है। कवि ने अपने प्रथम काव्य श्रीपालरास से लेकर अन्तिम रूपक काव्य परमहंस चौपई तक किसी न किसी रूप में शृगाररस का वर्णन किया है और मानवीय भावनाओं को व्यक्त करने का सफल प्रयास किया है । इससे एक ओर काव्यों में सजीवत्ता पायी है तो दूसरी ओर मानव पक्ष को प्रस्तुत करने में भी वे दूर नहीं रहे हैं
श्रीपालरास में धवल सेट रणमंजूषा के रूप एवं लावण्य की देख कर उसके साथ भोग भोगने की तो लालसा से अपने मन्त्री से निम्न शब्दों में विचार व्यक्त मारता है .....
हो रण मंजसा सेवे कत, वरल से प्रति पीस क्त । नींव भुल तिरखा गइ, हो मंत्री जोग्य कही सह बात ।
मुम्बरि स्यौ मेलौ करो, हो कहीं मरो करो अपघात ।।२२।। धवल सेठ की दूती भी रैणमंजूपा को निम्न शब्दों में उसे समझाने लगती है.---
भोग भोगउ मन तरणा, हो मनुष्य जन्म संसारा पाई।
प्याले पीजे विलसोने, हो प्रवर जन्म की कही न जाइ ।।३३।। पवन जय जब मजना के सौन्दर्य के बारे में सुनता हैं तो वह कामातुर हो जाता है और मन्न एवं जल का त्याग कर बैसता है।' पवन जय का अजना के साथ विवाह तो हो जाता है लेकिन १२ वर्ष तक एक दूसरे से अलग रहते है। एक रात्रि को जब वह चकवा च कवी के विरहालाप को सुनता है तो उसे भी अंजना का स्मरण हो पाता है और वह भी बिरहाकुल हो जाता है और अजना से मिलने के लिये तड़फने लगता है। ब्रह्म रायमल्ल ने कामातुरो का उस काव्य में बहुत ही
१ पवनंजय सृणि सुदरि रुप, सुर कन्या थे अधिक अनूप ।
काम बारा वेधियों सरीर, तज तंबोल प्रश्न अह नीर ।।२।।
२ पवनंजय सुनि पंख णि बात, काम बारा तस बध्यो गात ।
चिता उपनी बहुप्त शरीर, रहे न चित्त एक भए धीर ||४||