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मूलन ही की जहाँ प्रयोगति के शव गाई । होम हतासन घूम नगर एक मलिनाई ॥ दुर्गति दुर्जन ही जु कुटिल गति सरितन ही में धीफल की अभिलाष प्रकट कविकुल के जी में अति चंचल जह बलदलै विधवा बनी न नारि
मन मोह्यां ऋषि राज को अद्भुत नगर निहारि । डा• कासलीवाल का प्रयत्न निश्चय ही स्वागत योग्य है। उन्होंने ब्रह्म रायमल्ल के ग्रन्थों का ही उद्धार नहीं किया, वरन् विस्तृत भूमिका में कवि और उसके काव्य के सभी पक्षों पर अध्यवसाय पूर्वक प्रकाश डाला है। ऐसी भूमिका से ही इस कवि के गहन अध्ययन के लिए रुचि जाग्रत होती है।
__ इस महान प्रयत्न में सम्पादक मण्डल में मुझे भी सम्मिलित करके जो उदारता प्रौर कृग दिखाया है, और दो शब्द लिखने का अवसर दिया है, उसके लिए कृतज्ञता व्यक्त कर सकने योग्य शब्द मेरे पास नहीं।
हां, मैं प्राशा करता हूं कि महावीर ग्रन्थ अकादमी के प्रकाशनों से समृद्ध जैन साहित्य का पानपूर्ण प्रा भार ते
स ह भावना : मैं इस प्रयत्न की सफलता हृदय से साहता हूं ।.
डा. सत्येन्द्र