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परमहंस चौपई पुन्य नगर सोभा वणी, राजा ति हाँ विधेक । संक में माने काहु की, वस्त भंडार भनेक ||३४१॥
भने डंभ मुनि मोहजी, देस तुम्हारे बात । द्रव्य परायो लहजे, कर दिसास सुघात ॥३४२।।
बेटी बेच र द्रव्य ले, सब छत्तीसों पौंन । लोभ सरव परजा करे, चित न राख जान ।।३४३।।
कुछ कपट चाल घणों, घर न कर संताप । प्रसुघ किराणां बिणजजे, जिह थे उपज पाप ।।३४४।।
संसो सोग विजोग बहू, परजा कर पुकार । मारत रुद्र सदा रहै, न लहै सुख लगार ||३४५।।
पाप नगर में जे बसै, ते ता सर्प समान दम वात सगली कही, मोह सुनो दे कान ।।३४६।।
चौपई-- राजा मोष्ठ सुम्पो विरतंत, राब विवेक तणी सह बात ।
कह विवेक सुनो सहु कोई, मोह हमारो वरी होई ।।३४७।।
हम तो मोह कोम दुख दीयों, सिंह को वर्णन जाई न कह्यो। सुहे पांच मिलि कीयो विचार, जिह थे होई भलो व्योहार ।।३४८||
पांच भणे विवेकजी, सुनो जं कारज सारो भापनो । जिनवर पास बेग तुम जाहु, संजम स्त्री सु कोज्यो ब्याहु ।।३४६ ।।
मुनिवर पद लह महा सुचंग, जिथे वडा महल उत्तग । पा, मोह सु माडो राड, लूटदेस सहु करो उजाइ ॥३५०।।
मन राजा पिता वस कोरयो, सुभ ध्यान हीबडा में धरो। मदन मोह ईम मारो राई, काची ब्याधि टुटी सब जाई ।।३५१।।
समा विवेक पली इह बात, हम तुम मु भास पिरतांत । भलो होई तिम करो नरेस, तुम सुख लही इस महु देस ॥३५२।।