________________
पूर्व पीठिका
जैनाचार्यों, भट्टारकों एवं विद्वानों का भारतीय साहित्य को समृद्ध एवं सपाक्त बनाने में विशेष योगदान रहा है। भारतीय संस्कृति के स्वर में स्वर मिलाकर उन्होंने देश की सभी भाषामों में विशाल साहित्य का निर्माण किया और उसके विकास में चार चांद लगाये। उन्होंने न किसी भाषा विशेष से राग किया मौर न
षषध किसी भारतीय भाषा में साहित्य निर्माण को बन्द विया । संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंप एवं हिन्दी जैसी राष्ट्रभाषाओं तथा राजस्थानी, गुजराती, मराठी, तमिल, तेलगू एवं कन्नड़ जैसी प्रादेशिक भाषाओं के विकास में योग दिया । जैन कवियों ने काव्य, पुराण, सिद्धान्त, अध्यात्म, का, ज्योतिष, प्रायुर्वेद, गणित, छन्द एवं अलंकार जैसे विषयों पर सैंकड़ो ग्रन्थ लिखकर साहित्य सेवा का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया । जन कवि जन-जन में बौद्धिक नेतना जागृत करने में कभी पीछे नहीं रहे और किसी न किसी विषय पर साहित्य निर्माण करते रहे । देश के जंन ग्रन्थागारों में जो विशाल साहित्य उपलब्ध होता है वह जैन प्राचार्यों एवं विद्वानों के साहित्य प्रेम का स्पष्ट द्योतक है । इन ग्रन्थागारों में संग्रहीत साहित्य अत्यधिक व्यापक एवं समृद्ध है । यद्यपि अब तक सकड़ों कृतियों प्रकाशित की जा चुकी हैं लेकिन यह प्रकाशन तो उस विशाल साहित्य का एक अंश मात्र है । वास्तव में जैन ग्रन्थागार साहित्य के विपुल कोष हैं तया उनमें संग्रहीत साहित्य देश की महान् निधि है।।
हिन्दी में भी जैन विद्वानों ने उस समय लिखना प्रारम्भ किया जब उसमें लिखना पांडित्य से परे समझा जाता था और वे भाषा के पंडित कहताते थे। यह भेदभाव तो महाकवि तुलसीदास एवं बनारसीदास के बाद तक चलता रहा । हिन्दी में जैन कवियों ने रास संज्ञक रचनामों से काव्य निर्माण प्रारम्भ किया। जब अपन या भाषा का देश में प्रचार था तब भी इन कवियों ने अपनी दूरदर्शिता के कारण हिन्दी में भी अपनी लेखनी चलाई और साहित्य की सभी विधाओं को पल्लवित करते रहे और उनमें संस्कृति एवं समाज की मनोदशा का यथार्थ चित्रण करने लगे । जिनदत्तचरित (सं० १३५४) एवं प्रद्युम्नचरित (सं० १४११) जैसी कृतियां अपने युग की खुली पुस्तकें हैं। जैन कवियों ने हिन्दी की सबसे अधिक एवं सबसे लम्बे समय तक संवा की तथा उसमें अवाच गति से साहित्य निर्माण करते रहे । लेकिन हिन्दी विद्वानो की जैन ग्रन्यागारों तक पहुंच नहीं होने के कारण वे उमवा मूल्यांकन नहीं