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परमहंस चौपाई
सवही तस पुरली उपनो निचं पट्टन में रहे चौपई - निवृति सुं जं चेतना, सांभल बहु
निवृत्य
पापी मोह दुसद सुभाव,
जाई जे छोड मोह को रहो जाई तुम नीके जान,
सुख अभार । विवेककुमार ॥ वचना हम तनां । पर पीडा चितवन सुहाव ॥६६॥
देस जाई तुम्हारो सब कलेस । जिठ चारीतह सुभ जान ||६७ ॥
सांभली बात चेतना तनी, विवेक तिवृति चाल्या तंषिता । चलत पंथ जब प्राधा गया, हंसा देस असुभ दे दिया ||८|| पाप नगरी बोसे तह रूद्र ब्योहार उपरा उपरी मार मार हांसि नि तिही प्रती ही होई, मार कोई सराहे लोई ||६||
दया रहत परजा परमान बाट बढाउ न लहे ठांम । कर विसास मारं तसु जोग, हिंसा देस वसें जो लोग ॥११००१
बोलें जको मूंठ असमान, तिहसु त्यागो तुम सुनि जन । अधिक झूठ एह बोलं वाच, जि थे टांकर मारे मांच ।। १०१ ।।
मुखानंद मन मोही घरं, सचि तिहां नवि लगतो खोटो परख खरी जो लेई, तिहकी कीरत अधिक करे
फीर ।
।। १०२ ॥
चोरी कर बहु पार्ड वाट धुनी मुसे करें घन घाट I सिर्फ बिनो करं प्रविचार, तुम सम पुरुष नहीं संसार ।। १०३ ||
सति अनादि बहुत विगतरं जं कोई नर चोरी करें । सेवे वर्ष जू इंद्री तनां, तीह को करे भगत बंदना ॥ १०४ ॥
सेव विवे जे मूळ गंवार, विह उपर प्रानंद पार । रुद्र ध्यान रायों दिन जाई, कर प्रपच अति मारे भाई ॥१०५ ।।
सुखन कोई बड़ी सेई, तिने मार फांसी देई । परजा यसै साई रंक, मारत पाप करे नीक ||१०६ ॥
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