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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
मौसाण-रूपस्यौ बिनती करं, तुम कोप साथा सब मरं । तुम सतर्वती निर्मल भाउ, हम उपरि करि छमा पसाय ॥३५७।।
जे पछिम दिस ऊगै भान, को नविभान सील निधान । मावा संक चित्ति मत करो, होसी सही कुरा को बुरौ ।।३५८।।
पण्यक पुत्र सह रख्या करं, बंधुदत्त नवि नख संचरं । भवसदत्त त्रिया क्षमा कराइ, तिम तिम प्रोहण चाल्या जाइ ॥३५।।
मती कर मन माहै चित. मुझ बिजोग मरिसी सुत कंत । हौं पणि मरिस्पों तासु बिजोग, असो भयो कर्म संजोग ॥३६०।।
भविष्यानुरुपा को स्पन
रंणि समं सूती सत भाइ, सुपनो को देवता पाई। हे सुदरि तुम न करो चित, मास एक मिलिसी तुझ कत ॥३६१॥ सुपनो सुभ कामिणी देखियो, सुभ मन धीर पापणो कीयो । मिलिसी कंत मास जे माद, प्राण हमारा रहसी ठाइ ॥३६२॥
जहाज का समुद्र तट पर प्राममन
चलत चलत केइ दिन गयो. प्रोहण सुमद तीर लागियो । बणिक उतर प्रोहण भार, बस्त किराणा चीर भंडार । ३६३॥
बालदि भरी बस्त बहु सार, बंधुदत्तस्यों वणिक कुमार । रसी रंग सब ही मनि भया, हथणापुरि तंगण पहचिया ॥३६४।।
बन्धुवत्त एवं धनपति मेठ का मिलन
पहृता ननि बधाई हार, बंधुदत्त आगम न्यौहार । सुणी बात धनपति सुख भयो, ले बाजा बहु सामहु गयो ॥३६५।।
भेदि पुत्र बहु भयो उल्लाह, बाज्या बहु नीसाण धाव । वणिक पुत्र बहु भयो उछाह, पुत्र नन में ल्यायो साहु ।।३६६।।