________________
जम्बूस्वामी रास
तिहुं सरसां सुख भोगविए, क्रीडा करि अपार तु । एह कथा हवि इहां रही ए, प्रवर सुणु विचार तु ॥२१॥ १३२।।
सागरचंद्र नामि भलु ए, सुख भोगवि समान तु । भवधि ज्ञानी मुनि भावीयाए, प्राव्यु नगर उद्यान तु ।।२२।।१३३॥
नगर लोक कुमारसु ए, बाल्या सब परिवार तु । मुनि वांदी धर्म सांभलीए, पूछि निज भवसार तु ॥२३॥१३४।।
पूरव मब मुनि पर कह या, ए प्राम्यु प्रति बैराग्य तु । दिक्षा लेई मुनि तप करिए, करतु जीवनु माग तु ॥२४॥१३५।।
विहार करंतु प्रावीउ ए, पीतशोक मुनिशय तु । राज द्वार पासि भावीउ ए, सेटि प्रणम्या पाय तु ॥२५॥१३६।।
पडघाई घिर प्राणीउ ए, प्रहार दीउ अपार तु । रश्न वृष्टि तिहां हुई ए हउ तिहा जयकार तु ।।२६।।१३।।
कोलाहल हुज घणा उए. कुमार सुणीउ ताम तु । मुनि साहमु जब जोई ए, जाति समर तिणि ठाम तु ।।२७।।१३।।
पूरद वृतांत ह जाणीउ ए, आप्यु मुनिधर पास न । देखी मुनिवर मूर छयु ए, चेत रहित नीसास तु ।।२।।१३६।।
स्वजन मिली तिहा प्रावीयाए. पूष्ठि मातनि सात नू । कुण कारण तु मूरछयु ए, अम्हनि कह सहू वात नू ॥२६।।१४०.।
दिक्षा लेउ ब्रह्मो रूपहीए, तप करतूं ब्रह्मो माय तु । सुगीय वचन बिलखी हुई ए, कुश मानसी प्रनि राय तु ॥३०॥१४॥
तात्त भिवारि पृवनि ए, दिक्षा नु नहीं काल तु । जिन दिक्षा दोहिली अछिए, घिर रही व्रत पालतु ।।३१।। १४२।।
सुणी वचन तात तणाए, घिर रहु कुमार तु । तप करि तिहा प्रति घणु ए, नीरस लेइ माहार तु ।। ३२।।१४।।