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पपईस चौपई प्रवचन नगर बहुत विशाल था । दया धर्म वहां निवास करते थे। सन जीवों को अपने समान समझा जाता था । अनाचार को स्वप्न में भी नहीं जानते थे । तथा सर्वदा व्रत शील संयम की पालना होती थी। प्रवचन नगर को वर्णन कवि के शब्दों में देखिये -
तिहां परिहंत देव को वास, इंद्र एक सो सेव तास । पाजा साठा बारा कोड, सुर नर खेचर नम कर जोड़ ।।१५६।।
मारगनाव लोक संचर, करमषकोई नबी करै ।। उपरी उपरी बेरन कास, जिम सिधालो सिंघाबास ।।१५७॥
उस नगर में कोट थे, सरोवर थे, जिनमें कमल खिले हये थे। चारों ओर दरवाजे थे तथा तोरण द्वार थे। वहीं समोसरन था । तीर्थकर के दर्शन से ही पुण्य बंध होता था। तीनों नगर के अन्दर गये और उन्होंने चारों ओर कलश लगे हुये देखे । जिन मन्दिर के दर्शन किये । उनके प्रानन्द की कोई सीमा नहीं रही। वहीं जिनेन्द्र का समोसरन था । चारों ओर अपार शान्ति थी। ईर्ष्या, कषाय एवं तुष का कहीं नाम भी नहीं था । निवृत्ति विवेक एवं सुमति के साथ ममक्सरन में गये तथा सीन प्रदिक्षणा देकर वहां बैठ गये। जिनेन्द्र की भाशीर्वादात्मक दिव्यध्वनि निम्न प्रकार खिरी
रही ईहां तुम मिभंय थान, मुजो बहु सुख तनां निधान ।
मन में चिंता मति कोई करो, ईहा थानक को वुष्टम हरी ॥२२५।।
इस प्रकार विवेक ने 'पाप नगर' का वृत्ताप्त सुनाया 1 जहां मोह राजा राज्य कर रहा है वहां का बुरा हाल है
मिभ्यातो बह कर कुकर्म, जाम नहीं जिनेश्वर धर्म, 1 बहुत जाति पाखंडी फिर, भूट लोक तस देशश करे ।।२३०॥ भयोलहा संकन कर, घन के काज सगा परहर ।
जै तो महा दुष्ट प्राचार, तो सह मोह राव परिवार ||२३३।। विवेक ने अपने आने का पूरा वनांत कहा
बीमस बोध की सांभली बात, तुम थानक प्राया जिन तात ।
कीयो पाछलो सह परगास, दौठो जिनवर पुगी पास !"
इधर मोह को पुत्र लाभ हुग्रा जो चौरासी लाख जीवों का शवु था। वह जिनेन्द्र की बात नहीं मानता था। उसने बहुत से तपस्वियों के तप का खंडन कर