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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
दिया यहां तक कि ब्रह्मा, विष्णु एवं इन्द्र को भी नहीं छोडा । वह देश मिथ्यात देश है जहां जैन धर्म नहीं है, किन्तु वहां एकान्त मत का प्रचार है ।'
दुरारी पोर सत्यग्न नगर में देव शास्त्र गुरु में पूरी भक्ति थी तथा वहां सम्यग्दर्शन के पाठ अंगों की पालना होती थी । तीर्थंकर ने विवेक की बहुत प्रशंसा की और उसे पुण्य नगरी का राज्य दे दिया। पुण्य नगरी में प्रतिदिन भगवान की पूजा होती थी, चारों प्रकार के दान दिये जाते थे तथा शीलवत की पालना होती थी । विवेक सदलबल पुण्य नगर में निवास करने चले ।
तिथंकर जाण्यौ गुणातार, कोहों विरा विवेक कुमार। घरसन शाम वरन तर सार, घर बिधि सेन्या चली अयार ||२७०।। उपसम गण गढ़ चल्यो कुमार, तास छत्र सिर सो भवपार | सास मिसान वाज बहु भाति, सम बम सजन साथ पढोस ।।२७१।।
पुण्य नगर को विवेक ने देखा । तीन गुप्तियां जिस नगर का कोट थी, पांच समितियां ही मन्दिर थी तथा नियम रूपी कलश जिसके शिखरों पर सुशोभित था। द्वार पर आनन्द का तोरण था तथा कीति ही जिसकी ध्वजा घी जो चारों पोर उछल रही थी। चार संघ ही भावना के समान थे।
पुण्य नगरी में विवेक सुख से राज्य करने लगा। चारों भोर सुख शांति थी जो मुक्ति बोर एवं अन्त राय थे वे सब विवेक से दूर रह गये। मुक्ति का सबके लिये द्वार खुल गया--
विवेक राजा निकंट कर, जिनको आग्पा मम में धरं ।
सहत फुटंग विवेक भोवास, सुख में जातन जान काल ।। २८३।।
इसके पश्चात् दूसरा अध्याय प्रारम्भ होता है। कवि ने इस अध्याय का निम्न प्रकार प्रारम्भ किया है -
बोहा ब्रह्म राहमाल बंदिया को सास्त्र गुरु सार । घो र कथा आगे भई, सिंह को सुमो विचार ।।२८४।।
१ राज कर राजा मिथ्यात, जान नहीं जैनी की बात ।
मत एकांत तास उबरं, बोध महाभा अति हो करै ।।२५४।।