________________
परमहंस चौपई
१६१
सर्प जे मरि पु भज गयो, सोध्यो नाही तास । नंदी कडाड रूषडो, जव तव होई विणास ॥२६४।।
सोध्यो कोज्यो सत्रु को, मंत्री करो बिचार । दाव घाव सोई फरो, मरही विवेक कुमार ।।२६।।
मन राजा भोलो . छांत मेगे गा ! मन में दया करी घणी, जान मापनो पुत्र ॥२६६।।
वैरी विसधर सारस्रो, तिह ये रहै सुचेत । मूढ़ जके दोला बहै, तास मरन को देत ॥२६७।।
मन राजा का पुत्र , मोह विवेक सुजांन । पूर्व प्रीत भई ईसो, मूसा सर्प समान ॥२६॥
वेगा चाकर मोकलो, सीधों लाव जाई ।
देस गांव पट्टन फिरो, बात कहो निरताई ॥२६॥ चौपई - कुड कपट इंडी पाखंड, विदा दीया च्यारो परचंड ।
देसही घरती बहुत असेस, पट्टन ग्राम गढ़ देस ॥३००।।
सब बाते बुझ निरताई, रहे विवेक कहो किहीं ठाई । बात भेद कोई नवी कहै, च्यारू मनमैं वहु दुख सहै ॥३-१।।
पंथी एक मिल्यो तिह ठोम, तिह के बहुत सरल परिणाम । तिह न मान बहुत कर दीयो, चलता बाट सरल बुझियो ।॥३०२।।
तुम परदेसा फिरता रहो, राजा देस वात बहु लहो। ककर विवेक रहै किही थान, तिह को हम कहो वखान ।।३०३।।
वोल्यो सरल सुनो हो मित्त, कवर विवेक तना विरतंत । पट्टन पुन्य महा सुविसाल, राज कर विवेक भोपाल ।।३०४।।
दान पुन्य चाल असमान, चोड चवाई नही तिहां पांन । सह परजा जिन शासन भक्ति, जुवा भादि विसन सह भक्ति ॥३.५।।