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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल सूणी बात सह पंथी तणी, अपनी अंगिसी लाई घणी । मान देई बुझी पनहार, कोंन नगर भास नर नार 11३०६।।
कौन धर्म चाल इस थान, तिह को हम सु करी बखान । तब बोली पटन को नार. बात सुनो हो पंथी चार ॥३०७।।
दोष अठारा रहत्त सुदेव, गुरू निगुष सुजानो एव । बाणी सहीत्त जु जिनवर कही, असो धर्म मन में सही ॥३०८।।
पाखडी मिथ्याति होई, जान न हेई नगर में सोई । बात सुनी तव फोरयों भेष, लगा देन धर्म को पेष ॥३०६।।
ध्यानी मोनी अति ही भया, तंपिन नगर मध्य चालिया । वोन र सुमधुरी शान, कप: रूपातीमो मन का 22.!!
दोहा- पिछी कमंडल' हाथ ले, भेष दिगम्बर घार ।
इर्या पंथ वहु सोधता, पहुतां नगर मंझार |॥३१॥
चौपई- भोजन काज नगर में फिर, तास भेद ले लों संचरें ।
कोटवाल ग्यानो मन धनी, चेष्टा दुरी देखी लिद तनी ।।१२।।
ग्यांन सुभट चारू बूझिया, भेय दिगम्बर फदि थे लीया । प्राया तुहै चोर न्योहार, दीस नहीं शुद्ध प्राचार ।।११३॥
वचन सुनत्त तव ही स्वल भल्या, तपिन नग्न मोझ थे चल्या । भागा दुष्ट डूम पाखड़, हत्या कूर पद परचंड ।।३१४।।
राव बिवेक समा सुभ घणी, कोटवाल प्रायौ तिहां मणौ । स्वामि एह तो जती म होई, कही राषका सेशु जोई ।६३१५।।
सांभली वचन विवेककुमार, कुड कपट वोल्या ति पार । सांची बात कही निरताई, मठ पहूं तो लिकपलि जाई॥३११।।
फूड कपट वोल्या तंपिणां, मन बचन विवेक हम तनां । पाप नगर दुष तनो निधान, राजा मोह बस तिहं पान ।। ३१०॥