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प्रद्य म्नरास
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हो नमस्कार करि चरणां लागौ हो भीषम पुत्री को दुख भागी। मसुरपात प्रानंब काजी, हो सूझ बात हरिष करि मातो। सह संबर का घर तरणी मी, हो मयण मूल को कझो बतातो ।।५५।।
प्रश्न म्न ने अपने शौर्य, पराक्रम एवं विद्याबल' को अपने पिता स्वयं श्रीकृष्ण जी को भी बतलाने की एक युक्ति रची। उसने रुक्मिणी का हरण कर लिया और थोकृष्ण, बलराम नादि सभी को युद्ध के लिए ललकारा
है कहिल्योजी जी तुम्ह बलिभद्र झारो, हो बाना घालि होई प्रसधारो कपिरिण ने ले चल्यो जो, हो पोरिष छ तो आई छडा जं ।।१६६॥
प्रद्य म्न ने श्रीकृष्ण के अतिरिक्त पांचों पाण्डयों को भी युद्ध के लिये सलकारा । श्रीकृष्ण अपनी समस्त सेना के साथ युद्ध भूमि में प्रा डटे । प्रध मन ने भी मायामयी सेना तैयार की। कवि ने युद्ध का जो वर्णन किया है वह संक्षिप्त होते हुए भी महत्वपूर्ण है--
हो प्रसवारा मारै असवारो, हो रथ सेथी रथ जुई झझारो । हस्तीस्यौ हस्ती भिडजी, हो घणं कही तो होई विस्तारो ।।
श्रीकृष्ण की जब सेना नष्ट होने लगी तो उन्होंने गदा उठाली और प्रद्य म्न पर प्राक्रमण करने के लिए दौड़। इतने में रूक्मिणी ने नारद से वास्तविक बात प्रकट करने के लिए कहा। अब श्रीकृष्ण ने प्रद्युम्न को अपने पुत्र के रूप में पाया तो उनका दिल भर माया । युद्ध बन्द कर दिया गया । प्रद्य म्न को समारोह के साथ द्वारिका में ले जाया गया। प्रद्युम्न का उदधिमाला से विवाह हो गया और वे आनन्द के साथ जीवन व्यतीत करने लगे ।
__कुछ समय पश्चात् भगवान नेमिनाथ का उधर समवसरण प्राया। सभी उनकी वन्दना को गये । समवसरण में जब श्रीकृष्ण जी के राज्य की अवधि पूछने पर नेमिनाथ ने बारह वर्ष के पश्चात् द्वारिका दहन की बात कही। प्रद्युम्न ने संसार की भासारता को जान कर वैराग्य धारण कर लिया और घोर तपस्या करके कर्मों के बन्धन को काट कर मोक्ष पद प्राप्त किया।
कवि ने अन्त में अपना परिचय निम्न प्रकार दिया हैहो मूससंघ मुनि प्रगटौ लोई, हो प्रनतकोति जारी सह कोई ।
तासु तपो सिषि आरिणज्योत्री, हो पह्मि राइमलि कीयो बखाए ।।१६३ मूल्यांकन
प्रद्युम्न रास शुद्ध राजस्थानी भाषा की कृति है । इसमें तत्कालीन बोल-चाल के शब्दों का एवं लोक शैली का सुन्दरता से प्रयोग किया गया है । प्रत्येक छंद के