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भक्ति परख अध्ययन
बिस्तृत प्रवाह संचालित किया कि उसकी लपेट में न केवल वैष्णव एवं जैन ही पाये किन्सु देश में रहने वाले मुसलमान एवं अन्य जातियों के सदस्य भी उसी राग में अलाप लगाने लगे । जैन कवियों ने जिनेन्द्र भक्ति की प्रोर जिन भक्तों को प्राकृष्ट किया तथा वे अपनी कृतियों में जिन भक्ति की साधकता को सिद्ध करने में लगे रहे। ब्रह्म रायमल्ल के अतिरिक्त भट्टारक रतनकोति. भट्टारक कुमुदचन्द्र जैसे संतों ने भी जिन भक्ति को धार्मिक क्रियायों में सर्वोच्च स्थान दिया । १७ वीं शताब्दी के पश्चात जितने भी जैन कवि हुवे सभी ने किसी न किसी रूप में भगवान के गुणानुवाद करने पर बल दिया तथा भक्ति रस से प्रोत प्रोत पदों की रचना की ।
ब्रह्म रायमल्ल पुरे भक्त कवि थे। जिनेन्द्र भगवान की पूजा, स्तवन एवं गुणानुवाद करने में उनकी पूर्ण श्रद्धा थी । जिन भक्ति को प्रशित करने के एक मात्र साधन काव्य रचना में उनका अटूट विश्वास था। उन्होंने अपने काश्यों को तीर्थंकरों की स्तुति एवं वन्दना से प्रारम्भ क्रिया है। यही नहीं अपने पापको अपह प्रयाण कह-कर जिन भक्ति के प्रसाद को ही काव्य रचना में बहायक बतलाया है। ब्रह्म रायमल्ल कहते हैं कि न तो उन्होंने पुराण पड़े हैं और न वे तर्क शास्त्र एवं व्याकरण पढ़ सके है। बुद्धि भी अल्प है इसलिए वह उनके गुणों का वर्णन कैसे कर सकता है।
___कवि ने श्रीपाल रास में सिद्धचक पूजा के माहात्म्य का विशद वर्णन किया है । जिन पूजा को पुण्य की खान स्वीकार किया है। सिद्ध चक्र की पूजा करने से कभी रोग नहीं होता है । पूजा से शोक स्वयमेव विलीन हो जाता है। सिद्ध चक्र को पाठ दिन तक भक्ति एवं श्रद्धा पूर्वक जो पूजा करता है उसको श्रीपाल के समान ही उत्तम फल की प्राप्ति होती है ।
श्रीपाल जब बारह वर्ष की विदेश यात्रा पर जाने लगा तो मैना सुन्दरी ने उसे मरिहन्त भगवान का स्मरण करने का ही परामर्श दिया था ,
१. स्वामी गुणह तुम्हारा तणो विस्तार, स्वर नर फरिण नवि पाव हो पार ।
ते किम जाय मैं वर्णया, स्वामी हौं मरिख प्रति अपढ़ प्रयाग । ना मैं हो वीठा जी ग्रंथ पुराण, तर्क ब्याकर्ण में ना भण्या।
स्वामी थोड़ी जी बुधि विम करो बस्लामा ।। २. जिएवर पूज पुण्य की खानि ।।श्रीपालरास।। ५५ ।। ३. सिद्ध चक्र पूजा करी, हो रोग संग नवि व्या काल ।।५।।