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भविष्यदत्त चौपई कुसल समाधि बुझी व्योहार, जैसो श्रावग जति प्राचार । कमलश्री दे मस्तकि हाथ, प्रणिका सेयो अझै बाप्त ॥२४१३॥
माता मोहि कर्म संजोग, पाजे दुख पुत्र हि जोग । राति विवस झोखत हो जाइ, चित्त एक क्षरण रहे न डाई ।।२४२॥
बोली जिका सुणो कुमारि, दुख सुख दुवै मिश्र संसा र । कबही होइ सुभ संजोग, कब हो तिहि को होइ वियोग ।।२४३।।
सगर चक्रधर अत्ति बलिचंड, सह घरती भुजे छहखंड : साठि सहल सुत ताहिक हुवा, एक बार सगला ही मुवा ।।२४४।।
कवही नर सुन लीला करे, कपही भीख मांगतो फिरं । कवही जीवीडो खाइ कपुर, कवही न लहै बलि को पूर ।।२४५।। पुन्य पाप तरु जैसा बोई, तहिका तसा फल भोगवे । झुठा जीव पसारा करे, करम फिर से फिरें ।।२४६।।
पुत्री मन मैं न करी सोग, मिलसी पूत्र कर्म संजोए । मन मैं दुख न कीजे कोइ, भावी' लिखा न मैट कोइ ।।२४७॥
कमलश्री अजिकास्वी भणे बीनती एक हमारी सुणी । व्रत धर्म कर दिख उपदेम, मिल पुत्र सहू बाई कलेस ।। २४०।।
श्रुत पंचमी का व्रत
मुखत अजिका कहै विचारि, वत उपदेस सुणों दणरि। श्रत पंचमी तो तसार, तहिकों कीजे अंगीकार ।।२४६॥
सब कमलथी बोली एच, व्रत पंचमी को कहिए भेव । कोण मास दिन कहि विधि नोइ, तहि को उसर दोजे मोहि ।।२०।।
१. क, ग–भयो। २. क ग प्रति-जैनधर्म दिठ उपदेश ।