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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
हो मनस्थित घर बेस्या लेइ, ते सुख महा नरक पद देई । कुल कम्पा इछ नहीं, हो सुभ प्ररु असुभ कर्म के भाइ ।
या जिसो तिसो लुण, हो ति कालि तसा फल खाइ ॥रासा२२॥ पिता का क्रोधित होना तथा अपनी इच्छानुसार विवाह करने का निश्चय करना
हो होए कोप करि सुबरि तात, पुत्री हो राली मेरी बात । देखो कर्म किसो फलो, हो गलल कोढ़ होइ जाको अंग । मैणा सुधरि व्याहिस्यो, ही कम सुता को देखों रंग ॥रासा२३॥
हो राजा मन में मती उपाइ, ऐक विनि वन फोड़ा जाइ । सिरीपाल तहि देखियो, हो रक्षक अंग सातसै साथ। कोढ़ प्रहारा पुरिया, हो तुरंग बाल का पीछी हाथि ।। रास॥२४॥
हो बहरी व्यौंची कोड कुजाति, खसरी कंडू ते यह भांति । सोइल पथरी बोदरी, हो बडी बाउ जहि बैसे माफ । कोद मसूरि उजारिग जे, हो बैंहै गलं जिम काक ||२||
हो कोढ उदंबर सेत सरीर. दार कोड प्रति दुःख गहीर । खुसन्यौ बाल रहै महाँ, भो चोदी कोढ़ उपजे माल । गलत कोढ़ अंगुलि घुवं, हो निकल हाड उपी खाल ।।२६।।
हो इहि विधि कोढ़ रह्या भरपूरि, कोढी एक बहाव तूर । एक संख धुनि उच्चर, हो बावै इक सोगी असमान । एक वाथै को करी, हो एक देह घरगू को तास ।।राप्त।२७॥ हो कोही एक छत्र सिरिताणि, कोढी गाइ न विद बखाणि । इक न कीव कोढी घला, हो लाठी करि ले कोढी रक। मार मार घुनि उन्नर, हो कर न नीच कहूं को संक ॥२८॥ हो इस विधि कोही वह विकराल, बेसर दिउ राज सिरिपाल । प्रावत राना देखयो, हो मन माह अति करे विचार । पुत्री इहर्न व्याहिस्मो हो, देखो कर्म तणो व्योहार ।।२६।।