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________________ पूर्व पीठिका की पचासों कृतियों प्रकाश में आ सकी । सन् १६५० में जब इस क्षेत्र की ओर से एक प्रशस्ति संग्रह प्रकाशित किया गया तो अपभ्रंप के विशाल साहित्य की श्रीर विद्वानों का ध्यान गया और हिन्दी के मूर्द्धन्य विद्वानों ने उस प्रज्ञात साहित्य को हिन्दी के लिये वरदान माना । प्रशस्ति संग्रह' प्रकाशन के पश्चात् डा० हरिवंश कोछड ने अपभ्रंश साहित्य पर अपना शोध प्रबन्ध प्रस्तुत किया जिसमें उसके महत्त्व पर प्रथम बार अच्छा प्रकाश डाला तथा अपभ्रंश साहित्य को हिन्दी का ही पूर्वकालिक साहित्य स्वीकार किया । डा० हीरालाल जैन, एवं डा० आदिनाथ मेमिनाथ उपाध्ये ने अपभ्रंश की कृतियों को प्रकाश में लाने की दृष्टि से प्रत्यधिक महती सेवा की और महाकवि पुष्पदन्त के तीन ग्रन्थों को प्रकाश में लाने में सफलता प्राप्त की। गत २५ वर्षों में हिन्दी जैन कवियों एवं उनके काव्यों पर देश के विभिन्न विविद्यालयों में जो शोध कार्य हुआ है और वर्तमान में हो रहा है वह यद्यपि एक रूप में सर्वे कार्य ही है फिर भी इससे जैन हिन्दी विद्वानों एवं उनकी कृतियों को प्रकाश में आने में बहुत सहायता मिली है और हिन्दी के शीर्षस्थ विद्वान् यह अनुभव करने लगे हैं कि जैन विद्वानों विकृतियों की केवल धार्मिक साहित्य के बहाने साहित्य जगत् से दूर रखना उनके साथ धन्याय होगा। स्थान प्राप्त होना चाहिये जो अन्य हिन्दी कवियों के साहित्य को प्राप्त है । साहित्य को देखते हुए इसलिये उसको भी वही जो म जैन कवियों के आ सके हैं वे तो 'घाटे में नमक' के बराबर ही कहे जा सकते हैं । हिन्दी जैन साहित्य विशाल है और उसकी विशालता के मूल्यांकन के लिये हजारों पृष्ठ भी कम रहेंगे। अभी तो ऐसे सकड़ों कवि है जिनकी कृत्रियों का ग्रन्थ सूचियों के प्रतिरिक्त कहीं कोई नामोल्लेख भी नहीं हुआ है । मूल्यांकन की बात का प्रश्न ही सामने नहीं आया । ब्रह्मजिनदास जैसे कवियों की रचनाओं को प्रकाशित करने के लिये वर्षों की साधना चाहिये और हजारों पृष्ठों का मैटर छापने के लिये चाहिये । ब्रह्म रावमहल एक ऐसे ही हिन्दी कवि हैं जिनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व दोनों ही महत्त्वपूर्ण होते हुये भी अभी तक अज्ञात अवस्था को प्राप्त हैं। प्रस्तुत पुस्तक में हम उनके एवं उनके समकालीन ( संवत् १६०१ से १६४० तक) होने वाले ग्रन्थ कवियों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर सामान्य रूप से प्रकाश डालने का प्रयास कर रहे हैं। हमारा यह प्रयास कितना सफल रहता है इसका मूल्यांकन तो विद्वान् ही कर सकेंगे । तत्कालीन युग संवत् १६०१ से १६४० तक का युग हिन्दी साहित्य के इतिहास के काल विभाजन को दृष्टि से भक्तिकाल में आता है। मिश्रबन्धु विनोद में इस काल को A
SR No.090269
Book TitleMahakavi Bramha Raymal Evam Bhattarak Tribhuvan Kirti Vyaktitva Evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year
Total Pages359
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size5 MB
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