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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
उस समय सांगानेर के जैन समाज की बहत ख्याति बढ़ गयी थी तथा धार्मिक एवं सामाजिक मामलों को निबटाने की दृष्टि से भी वहां के प्रमुख श्रावकों के पास आते और उनसे मार्ग दर्शन चाहा जाता। कविवर जोधराज गोदीका के कारण सांगानेर को और भी प्रसिद्धि एवं लोकप्रियता प्राप्त हुई । उसने लिखा है कि हजारों नगरों में सांगानेर प्रमुख नगर था ।'
सांगानेर साहित्यिक केन्द्र के अतिरिक्त व्यापारिक केन्द्र था । जयपुर बसने के पूर्व इस नगर का बहुत महत्त्व था । बाहर के विद्वान् एवं व्यापारी यहाँ अाकर रहने लगते थे । हिन्दी के विद्वान् किशनसिंह (17-18 वीं शताब्दि) व्यापार के लिए ही रामपुरा छोड़कर सांगानेर पाकर रहने लगे थे। इसी तरह ब्रह्म रायमस्स (16 वीं शताब्दि) ने भी यहाँ काफी समय तक रहे थे । हेमराज द्वितीय सांगानेर के थे लेकिन फिर कामा जाकर रहने लगे थे ।
__सांगानेर में बड़ी भारी संख्या में ग्रन्थों की प्रतिलिपियों की गई जिससे यहाँ के समाज की साहित्यिक नियता का पता लगता है। संवत् १६०० में सांगा के गासन में भट्टारक वर्धमान देव कृत वरांग चरित्र की प्रतिलिपि की गयी थी । उसमें सांगा को 'राव' की उपाधि से सम्बोधित किया है । ' सांगानेर के पुनस्थापन के पश्चात् संवतोल्लेख वाली यह प्रथम पाण्डुलिपि है। इसी ग्रन्ध की पुनः संवत् १६३१ में प्रतिलिपि की गयी थी। उस समय नगर पर महाराजाधिराज भगवन्तसिंह का राज था। इसके पश्चात् प्रादिनाथ चैत्यालय में संस्कृत की प्रसिद्ध पुराण कृति हरिवंशपुराण की प्रतिलिपि की गयी। उस समय महाराजा मानसिंह का शासन था। संवत् १७१२ में प्राधिका चन्द्रश्री ने दिगम्बर जैन मन्दिर ठोलियो में चातुर्मास किया ! उनकी शिष्या नान्ही ने उस समय अष्टान्हिका प्रत रखा और उसके निमित
१. सागानेरि सुयान में, देश डूडाहडि सार ।
ता सम नहि को पोर पुर, देखे सहर हबार ।। २. उपनौ सौगानेरि को, अब कामागढ़ वास ।
पहा हेम दोहा रचे, स्वपर बुद्धि परकास || १. ग्रन्थ सूची प्रथम भाग- पृष्ठ संख्या ३८४ । २. पन्थ सूवी तृतीय भाग-पृष्ट संख्या ७५ ।