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जम्बूस्वामी रास
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परस्पर कातालाप
बोलि बंबू रे मांधलि प्रभवा तुझ हुं, जु एह देह रे पंच भूते करी लहउ । माता पिता रे पाखिए रेह नवि हूउ, कुभ नीपनु रे पंख भूते करी इम कहुं ।४।५१३।।
तुशानी रे ए कुभ काइसि नही जीव मोहि रे संसार माहि पडि सही । जीब धरमिरे स्वरग मुगति लहि वली। जीव पापि रे नरक दुख भोगवि भली ॥५॥१४॥
जीव पाम्वि रे सख दुल कुण भोगवि, जीव पाखि रे पाप पुण्य कुण संभाव। बोलि जंबू रे पूरव भव सह पापणां मि पूरवि रे सुख दुख सापां षणां ।।६।११।।
कहि प्रभघु रे सांभलि जंबू तुझ कहू, एक उटि रे वन ममता कूप लहुँ । कप काठि रे मष ऊजालु वृभि अछि, विहां ऊडी रे मक्षक व लगी देह पछि । ७।५१५||
मधु भक्षणु रे कोधू करभि मन रली, प्राह रे जेतलि तेहज बली। कूप मध्यि रे पड़ीउ तेहज बापडउ, मधु लोभि रे मरण प्राम्युउंटडज ।।।५१७।।
दुख सहीयारे अति घणां तिणि प्राणीद इस जाणो रे संवर मन माहि प्राणोइ । बोलि जंबू रे सांभलि प्रभवा ए तुझ कहूं एक वागी उरे व्यवसाय करि बहू ॥६।५१८॥
चडाबु
ध्यवसाय दणिक एक चाल्यु देस देसि से भमि । लोभिय लीउ तेह प्राणी दुख घणां ते स्वमि ।। सहश्च हुन लाख वाछि लाख नु पणी कोड ए। कोई पामी राज पाम्यु तुहि तृपति न नोडए ।।१।।५१६।।
पंथी जातो तृषा पोउ जल किहो किम मिला। परण्य पडीउ सुचिति केमह हाथी नीकलउ । नौसर जे तलि चोर देशउ मूसीयघन सहूइ लोउ । तृषां पीडिउ रात्रि सूता स्वपन माहि जल पीज ॥२॥५२०।।