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परमहंस चौपई
प्रारम्भ वोहा- परमहंस प्रती गुण निलो, जो बंद बहु भाइ
तीह को परगाह बरणऊ, सुनहु मविक मन लाई ॥२५॥ जाह समरन टूट सब कष्ट, करम तपा बहु भार । चहु गत मध्य फीरे नहीं, ऊतरे भव बल पार ॥२७॥
चौपई --- परमहंस राजा सुभ काज, घरं चतुसटय सखमी राज ।
नीसचय तीन लोक परमाण, जोम सोवरण पती गुन जाण ॥२८॥
बहालो सियाला जासों, दोलुह मधि रहछे तीसी । मोर कदर पती ढूढन जाई, घर घर भीतर रह्यो समाई ॥२६॥
परमहंस के स्त्री चेतना, नीरमल गुन पति सोभ घना। तीह की महीमा जाई न कही, परमहंस न मति बालही ।।३०।।
पुत्र च्यार सो प्रति घना, सुख सत्ता बोध चेतना । परमहंस सुख मुजे एव, सकसप विकलप रहतसु देव ।।३।। करत फिरत मया तिहाँ गई, परमहंस सु भेंट भई । मया भण बिनो कर घनो, स्वामी सुजस सुन्यो तुम तणों ।।३२।।
कोरत पसरी तीनु लोक, गुन अनंत तुम हरष न सोक । सुध सुभाव तुम्हारो रूप, निराकार सुख तीसट भूप ॥३३॥
सुन स्वामी मेरी बीनती, बहु कामणी तिन में हूं सती । हरिहर या द मोह, तप जप सील छोड दे सोह ॥३४॥
स्वामि हुं प्रती चतुर सुजान, पुरष कुपुरष कही परमान । लोभी ह्रकर वृझ बात, करै बीसास पछे तसु घात ॥३॥
मैं माया बहु जग धियो, ठाई सहत कोई न वीगयो । मै होबा में देख विमास, माई स्वामी तुम्हारे पास :३६॥