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कविवर त्रिभुवन कोत्ति
तोरण के लिये गये । विवाह में विविध प्रकार के पकवान बनाये गये। विवाह सम्पन्न हुआ और जम्बूकुमार चारों पत्नियों के साथ अपने घर चला । रात्रि आयो । नव विवाहित पत्नियों के हाव-भाव से जम्बूकुमार का मन लुभाना चाहा लेकिन वे किचित भी सफल नहीं हो सकी। जम्बूकुमार ने एक-एक पत्नी को समझाया । प्रत्येक स्त्री मे कथाएं कही और गृहस्थी का सुख भोगने के पश्चात् वैराग्य लेने की बात कही लेकिन जम्बूकुमार ने सबका प्रतिवाद किया और वैराग्य लेने की बात को हो उसम स्वीकार किया ।
उसी रात्रि को जम्नुकुमार के घर विद्युत चोर चोरी करने के विचार से आया | नगर कोटवाल एवं दण्डनायक के भय से वह जम्बूकुमार के पलंग के नीच जाकर लेट गया । एक श्रोर जम्बूकुमार जब अपनी नव-विवाहित पत्नियों को समझा रहा था तो उस चोर ने भी उनके उत्तर प्रत्युत्तर को सुनने में मस्त हो गया । विद्युत चोर भी जम्बूकुमार से अत्यधिक प्रभावित हो गया और उसके भी जगत् को निस्सार जान कर वैराग्य धारण करने की इच्छा हो गयी ।
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प्रातःकाल होते ही जम्बूकुमार को नवीन वस्त्राभूषण पहिनाये गये । पालकी में बैठ कर वह दीक्षा लेने चल दिया। नगर में हजारों नर-नारी जम्बूकुमार के दर्शनार्थ उपस्थित हुये और उसकी जय जयकार करने लगे । उसकी माता जिनमती भाकर रोने लगी । वह मूच्छित हो गयी । स षारा बहने लगी
पुत्र आगित माता रही, करि रूदन अपार । बार बार दुख धरि करि मोह भपार ||
जल विण किम रहि माछली, तिम तुझ विण पुत्र । मुझ मेहली बीसासोनि कोइ जांउ वन सुत ॥
लेकिन जम्बूकुमार अपने निश्चय पर दृढ था। वह माता को कहने लगा
पुत्र कहि माता सुणु ए संसार असार 1
दिक्षा सेवा मुझ देउ, कांई करू अंतराय ।। १९।।
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