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कविवर त्रिभुवनकोनि
मांन मुफी मृगांराज, प्रणमो सुख भोग वुधिर जाइ रे । मांनि दुजोर्धन नासज, प्राम्युमानि दुर्गति जाह रे ॥६॥२८६।। बापि कन्या अणिक दोघो, ते तुझान कम दे रे । मोह छांडी भास्या परी, मुकी परस्त्री सुख कुण वेई रे ॥१०||२१०॥ पर स्त्री कारण रावण राणि, नरक माहि दुख सहिरे । वचन सुणी रतन चूलज, कोप्यु इंसा पवन कांइ कहिरे ।।११।२६।।
कोप करी रतन शिखिरज, बोल्यउ तुझ स्वामी भूमि गोचरी रे । रावण विद्याधर शमि जीत, तुमू कीजि खेचरी रे ।।१२॥२६२॥
भूमिचर सिंघ सेपर वाय, सप्त सु कीजि खेचरी रे । सिंघ सियाल सरमा नवि होइ, तुसुमला भूमि गोचरी रे ।१३।२६३।।
क्रोध करी रतनचूल ज ऊठज, लेज लेउ दूतज एहजरे । सजयाई खेचर सधे, कम्या बल' जाण्या बिना तहरे ॥१४।।।।
होठ उसी क्रोध करी, फुमर खडग घरी तक उठ्य उरे ।
प्रायुध सधला कुमरनि, भावां गमनगति तव तूठडरे ।।१५।।२६।। दूहा राग प्रासाउरी जंबुकुमार द्वारा युद्ध करना
जबू कुमर तब ऊठीउ, खड़ग घरी तिणी वार । युध करि खेचर समुबलह न लाभि पार ॥१॥२६॥
से प्रागलि नवि को रहि, जुट करवा नही जाण । कोटी भट्ट कहीह सदा, कवण सहि ते बाण ।।२।।२६७।। जब कमरि एकलि रिण, संसामि सेन । क्षण एकि विधाघर भंग पमाड्या सेण ।।३।।२६८।।
जंबू तिणि अवसरि विधाघरा, माहोमाहि चवंति। ए बल नहीं मृगोक नु, ए बल दूत न हंति ||२६६'।