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जम्बूस्वामी रास
तिहां थी संम्यज चालीउ, आव्यू कुर गिरि ठाम | जिन प्रासाद छि ऊपरि, ते देकमा पाभिराम ।।१९।२६॥
जिन पूजी जिनवर नमी, मुनि प्रणमी बली पाय । पंथाश्रम विनास वा, विश्रामि तिहां राय ।।४।२०।।
राग पन्नासी
के नर समायक करि, के पि नवकार । के जंबुकुमार नी, बोलि झाति पपार ॥४१॥२८॥
तिणि अवसर बिमान भी ऊतरी, जंबु कुमर विधाबरूरे । केरला नगरी विन्यि भाग्या, संन्य देस्यु तेणेवा करे ॥१॥२८।।
जंबूकूमर खग प्रति बोलि ए, संन्य कहिन अछि रे । रतन शिखिर विद्याधर वरी, गढ़वीटीपडस अछि रे ॥२८॥
मृगांक विधाघर मापणउरे, स्वामी गढ माहि इणि राक्षुरे । वचन सुणी कुमार ज बोलि, मग एक विमान तेराखुरे ॥३॥२८६।।
गनन मारगथी ऊतरी रे, हेठउ संन्य सागर माहि प्राव्यु रे । विघाघरे जब तेहज दीठउ । दैत्य दानव भन भाव्यु रे ।।४। २०४ ।
द्वार याची प्रतिहारज कहीउ रतन चूलनि किहि जोरे । मागांकि मोकल्यु दूतज पान्यु, इणि स्थानिक तम्हो घर जोरे ।।५।।२८५।।
नुति स्तुति करा बिना विटउ, सिंह समान तब दो रे । दैत्य दानव मानव नहीं, एह दूत पणउ किम मीठउरे ।।६।।२८।।
बिस्मि प्राम्यु बोलि विधाघर कुण कोमि इहां पाग्य रे । सांभलि रतन चूलहै तुझ कहु', न्याय मूकी कोई घालाव्यु रे ।।७।२८७।।
रूप सुदरी स्त्री तम तणि निर, तेह तणु नही पार रे । एक मृगांक पुश्री तिणि कारणि, ए आग्रह नहीं सार रे ||८||२८८॥