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कविवर त्रिभुवनकीति
एक समुद्र जाल बहू, संचि एक दोष गुण बहू । वंचि एहवी अद्भुत वाणी, खग मुणीए ॥२६।। २६६।।
संग्राम जांणी मर मीय, जंब श्रेणिक प्रणमीय । विमान लेईदि सनि लेई चालीए । सहीए ।। ३०।।२७।।
जंबुकुमार का प्रस्थान वस्तु-ताम श्रेणिक ताम श्रेणिक कही तिणी बार ।
भो भो क्षत्रय सज थई जरह जीणसनाह लेइ । यान वाहन सय सज करी चतुरंग सैन्य सहय लेइ । विविध वाजिन वाजता, पाव्या से तेणि ठाम । रमचुल सग जीपवा, श्रेणिक चालि ताम ।।३१।।२७१।।
दहा-केत लाग चंदने चया, के तला प्रस्वारोह ।
सनाह लेई केतला, छोडीनि धरना मोह ।।३२॥२७२।। सेमा वर्ष।
पायक आगलि चालीया, सेना सवे चतुरंग । समुद्र सरीखीए पछि, रणस्थानिक नहीं भंग ।।३३।२७३।।
संन्य सागर तिहां चालता, जल स्थल एकज होइ । सम विसम पंथा सहू, ते सये सरस्खा जोइ ॥३४॥२७४।।
ढोल ददामा दरबड़ी, पण काहल रणतुर । पंच शाबद वाजि घणां, जाणे सायर पूर ॥३५॥२७५।।
सैन्य सह तिहां प्रावीउ, विध्याचल उत्तंग । जीव घणा तिहां देखीया, विस्मय पाम्यु मन चंग ।।३६।१२७६।। कपि केकी वाराहनि, हरण रोझ गोमाउ । इस व्याघ्र गज सांवरा, मृग वृष महिष निकाय ॥३७॥२७७।।
भिल्ली भिल्लज देखीया, ते प्रायुध सहित अपार । सैन्य साद देखी करी, नासा ते सिणी वार ।।३।।२७८ ।।