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जम्बूस्वामी रास
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दत्य दानव को देवता, ए बल तेहज होइ । इसु निस्यउ मनसुधरी, जुद करि सह कोइ ॥५॥३०॥
तिणि अबसर मृगांका अई बली केष । श्रेणिक मोकल्यु को नर जुद्ध करि बली सेण ॥६॥३०१।।
एहयां वचन ज सांभली, देवडा वीरण भेर । संन्य सधे लेई प्रावीउ, मन करी निश्चल मेर १७॥१०॥
केतला समकित लेईनि, अणसण लेई केवि । रिश संग्रामि प्राषिया बरह जोण घरी खेव ॥८॥३०३।।
मोहो माहि प्रति घणउ, सुभट करि संग्राम । कपि कायर हाथ थी, लोह पडि तिणि ठाम ॥९॥३०४।।
पति जुद्ध तिहाँ हुइ कायरनि करि भीति । जे संग्रामि वाउला, तेह्सु करि सम प्रीति ।।१०||३०५।।
प्रारति पामी केतला, पुत्रि कलित्र वली मोह। पंच यावर तिर्यचं गति, मरी करी उपजि छोह ।।११॥३०६।।
रौद्र ध्यानि मरी केतला, मरी करी नरक जाम । धर्म ध्यानि मरी केतला, देव मनुष्य गति थाय ।।१२।३०७।।
वाणे नकि मुदगरि खडग तो मनि पास । कुत धेनुनि सांग सु', उभय संन्य हा नास ||१३||३०||
रत्नचूल कुमर सु, युद्ध करि अपार । मुइ थकी तब देखीउ, मृगांक राय तिणी वार ॥१४॥३०६।।
कुमार मुकी अंवर, रत्न शिखिर प्रान्यु भूमि । नाग बमुए फुण अछि मृगांक पूछि एमि ॥१५॥१०॥