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परमहंस चौपई
वयां रहत परजा परमान, बाट बढाउन लह ठाय 1 कर विसास मारे ससु जोग, हिंसा बेस बस जो लोग ।।१०२।। बोल जको प्रसभाम, तिह स स्पागो तुम सनि जान ।
अधिउ झूठ एक बोले वाच, जिह ये टोकर भार सांच ॥१०३।।
उसमें सभी तरह की बुराइयां थी। हिंसा झूठ चोरी करने वालों की प्रशंसा होती थी। या तो यहां कसाई थे या फिर अत्यधिक विपन्न । नगर को देख कर दोनों को अत्यधिक वेदना हुई ।
निवृत्ति एवं विवेक फिर बढ़े | इसके पश्चात् वे 'मिथ्यात' नामक देश में पहुंचे । वहां सब उल्टी मान्यता वाले लोग थे। अन्ध विश्वास और मिच्या मान्यताओं में वे फंसे हुए थे।
रागसाहत सो मान वेब, तारन समरथ तरन सुए। कामनी संग सदा हो रह, तिह में सुख देवता कह ।। ११२।।
पीपल वेव पूज बहु भाई, तिहर्म पापी काटन जाई । लेई काठ से बालम जोग, महा मूळ मिण्याती लोग ।।१२१॥ गंगा तीरप कह सह कोई, तिहर्क सनांन मुकति पर होई । तिह में अशुचि सोच ते कर, मूढ लोग बेव विस्तर ।।१२२सा पूज वरष अंवसा तनो, सख संपत स्वामि वे धनो। महादेव कह बंदमा जाय, तिह नै पापी तुलित खाय ।। १२३||
कवि ने उस समय में व्याप्त लोक मूढतानों पर विस्तार से प्रकाश डाला है । जिन देवी देवताओं के आगे बलिदान होता था. उसकी भी कदि ने गहरी निन्दा की है तथा जोगियों की भस्मी में विश्वास करने वालों की कबि मजाक उड़ायी हैं । वे मद्य एवं मांस का भोजन करने वाले गुसाई जनों को भी मिध्यात्वी कहते हैं
निवृत्ति और विवेक "मिथ्यात' नगर की दयनीय स्थिति देख कर अत्यधिक दुखी हुये और वे दोनों आगे बढ़े । वे जिन शासन के देश पहुंचे और उसकी सुन्दरता से प्रसन्न होकर उसमें प्रवेश किया। जिन शासन नगर के निवासियों के सम्बन्ध में निम्न प्रकार वर्णन किया है !
लिहो भलो वीस संजोग, पानी छोण्या पौष सह लोग । मुनीवर बहु पाल आचार, पाप पुन्य को कर विचार॥१३२।।