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साहित्य साधना
बीबीस ठाणा चर्चा
१.२८ जीव समास
२६-५६ सुग्यय दोहा
६-६७ परमात्म प्रकाश
रत्नकरण्डश्रावकाचार उक्त गुटकं में पृष्ठ ६० पर निम्न प्रशस्ति दी हुई है - श्री । श्री संवतु १६१३ वर्ष जेष्ट बदि ८ मानौ वारे लिखितं ब्रह्म रायमल्ल ।।
देहली ग्रामे ।
इसी गुटके के पृष्ठ ६६ पर भी ब्रह्म रायमल्ल ने अपना निम्न प्रकार उल्लेख किया है
इति परमात्मप्रकाश समाप्त । प्रभुदास कृत ।। सुभं भवतु ॥ श्री ।। छ । श्री ॥ लिखितं ब्रह्म रायमल्लु ।।
इस प्रकार उक्त गुटका ब्रह्म रायमल्ल द्वारा लिपि बद्ध किया हुआ है। इस समय कवि देहली में थे और वहाँ ग्रन्थों की प्रतिलिपि करने का कार्य करते थे। कवि ने इस मुटके के पूर्व एवं इसके पश्चात् और कितने ग्रन्थों की प्रतिलिपियां की थी का सभी कोई तल्लेख नहीं मिला है लेकिन इतना अवश्य है कि कवि ने अपना साहित्यिक जीवन ग्रन्थों की प्रतिलिपि करने के साथ प्रारम्भ किया था। उक्त गुटके में कवि ने न तो अपने गुरु के नाम का उल्लेख किया है और न किसी श्रावक के नाम का, जिराके अनुरोध पर उक्त गुटका लिखा गया था। इसलिये यह भी कहा जा सकता है कि उसने यह गुटका स्वयं अपने प्रध्ययन के लिये लिखा हो। साहित्य साधना
ग्रन्थों की प्रतिलिपि करते-करते ब्रह्म रायमल्ल साहित्य निर्माण की ओर प्रवृत्त हुए और सर्व प्रथम इन्होंने नमीश्वररारा की रचना को हाथ में लिया । साहित्य निर्माण का कार्य सम्भवतः देहली छोड़ने के बाद ही प्रारम्भ किया था। देहली के बाद ये स्वतन्त्र रूप से विहार करने लगे और सर्व प्रथम झुंझनू में जाकर इन्होंने ग्राना स्वतंत्र लेखन कार्य प्रारम्भ किया । भुझनु उस समय साहित्यिक केन्द्र था। देहली के पास होने से वहाँ जैन साधुओं का प्रान्ना गमन बराबर रहता था। कवि ने उक्त नगर में संवत् १६१५ की धावरण बुदी १३ बुधवार के शुभ दिन नमीश्वररास' का समापन दिवस मनाया'५ तथा अपनी प्रथम कृति को विद्वानों एवं स्वाध्याय
१४. राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रन्थ सूत्री चतुर्थ भाग, पृष्ठ ७६५ १५. अहा सोलास पन्द्रह रच्यो राग, सावलि तेरसि सावण मासा
बरत जी बुधि वासो भलौ, अहो जैसी जी बुधि दीन्हीं अवकास ।