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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
हो यह बेगि थी जहां भरतार हो कंत कंत कहिके पुकार । चरण बंदि बीनती करें हो स्वामी कहो कोण विरतांत । जहि कारण तुम बीया, हो कोण दोप थे तेरी घात ।। १६५॥
हो फोडीभर बोलं सुणि नारि, जीव कर्म मिथत संसारि । पाप पुण्य लागा फिरें, हो जैसो कर्म उ होइ बाइ | जीव बहुत लालच करें, हो नहि तं तहां धि ले जाई ।। १८६०
हो गुणमाला जप सुणि कंत, दोर्स सुभट महा बलवंत गोत जाति कहि प्राणी, हो बोल्या सुभट जूम हम जात । मरु जाति कैसी कहीं, हो राजा के पति अपनी भ्रांति ।।१८७।।
हो तव गुणमाला करें बखाण, कही जाति के नजो पराण । संत्री भाजं मन तण, कोडीभड जंप तुणि नारि । संसी बारी भांनिमी. हो तीया एक प्रोम मारि ।। १६८ ।।
हो वचन सुपत तहां गइ गुणमाल, रंणमजूता मोहनि वाल । नमसकार करि बीन, हां सखी मोकली हो सिरीयल | जाति गोत तहि की कहो, हो सागर तिरि आयो सुकुमान ||१= ६०
हो रैणमंजूसा जंप भखी, सिरीपाल के दुखि हुं दुखी । सिरीपाल की कामिनी, हो चलहु वेगि जहां के राज संसो भान मन तणी, हो मनवंछित सह पूर्ग काज ।। १६० ।।
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हो गई दुत्रं घौ जहां नरनाथ, नमस्कार करि जोड्या हाथ । रैणमंजूसा बीनवं, हो सिरीपाल को गोत उत्तग राउ सित्ररथ पुत्र यो हो अंग देस चंपापुर
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लग ।। १६१ ।।
नाम वखणि 1
हो रत्नदीप विद्याघर जाणि विदितप्रभ तसु इंद्र जेम सुख भोगवे, हो रैणमंजूमा लिहू की घीया । सिरीपाल हो व्याहि दो, हो कंचन रत्न |इजी टीमा ।।१६२३९