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जम्बू स्वामी गस
३०३ वि मुनिवर अति रूपड़ा, ध्यान धरि बन माहि । संयम पालि निर्मल, घरीस ते मन उछाह ॥२५॥१०६11 पवमानि विपुलाचलि, याव्या ने मुनिराय ।
अणमण लेई ध्यान मू. भूमि के मुनिकाय ।।२६॥११॥ बस्तु बेह मुनिवर बेतू मुनिवर करी नप घोर ।
सप्प सागरनि प्रायु खि तृतीय स्वरग अवतार । प्रामी ममकित पालि निर्मलु चारित्र भावि । स्वरग गांमीय सुख भोगांब ब प्रति घणु कीडा करि पार ।
काल गउ जाणि नहीं भोग लही सुख सार ॥२७॥११॥ ढाल-मिधामोती
जंबू द्वीपि भति भलु ए, पूर्व विदेह विक्षात तु । उत्सर्पणी अबसपीए, काल तगी नहीं बात तु ॥१॥११२३॥ सलाका पुरुषह उपजिए, अंतर नहीं तिहाँ हेततु । कोड पूरलु नु मायुखुए, पच सिंघ नु देहतु ॥।॥११३।। अब्ध मिथ्यात्व तिहां नहीए, दीसि सास्वत काल तु। पंच ज्ञान तिहाँ सास्वताएं, सास्वतां तत्व रसाल तु ॥३॥११४|| बिदेही मुनिबर प्रतिषणाए, मुनि दीसि रिधिलंत तु । मोक्ष मारग एस जाहए, संधि सौख्य अनंत तु ॥४॥११॥ व्यसन एक तिहां नहीं, एक नवि दोसि तीहां कुरीति तु । सत्य भाषि नर अति घणाए, नवि दोसि तिहाँ ईत तु ।।५।।११६॥ तस मठिय देसह मलजए, पुकलाबती ससु नाम तु । मटव घोष करबट भरघु ए. नगर दीसि ठाम ठाम तु ।।६।।११७।। पुडरीकणी नगरी भलोर, देशह तेह मझारतु | पैत्य त्याला प्रति घणा ए, बन उपवन अपार तु ।।७।।११।।
ध्यान धरि मुनि प्रति घणाए, स्वरग मुक्ति तणि हेतु तु । पुण्यवंत नर मति भलाए, नारी नर भीलवंत तु ।। ११।।