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कविवर त्रिभुवनकीत्ति
नारी रूप न रात्रीय, गुण राउ स कोड जनर नारी मोहीया, हो नि जागि लोय ।।१३।। ६७ ।।
नवे द्वारे प्रशुचि चविमल पुस्यु तस देह | सत्य भाषि सदा सत्य न बोलि तेह || १४॥ ६८ ।।
इथो बचन ज समिली मास्यु मुनिवर लाज । अवो मुख जो घउ, नवि सरयुद्ध सुझ काज ॥१३६॥
जे पूछिति नागला, ते मुझनि तु आण 1
देह कुछित मुझ देखीनि मम कर मोह प्रयाण ।।१६।। १०० ।।
मोहि नर दुर्गति सहि, प्रामी दुखनी खाणि मोह करि जे प्राणीया, करि सवि जीव नौहाणि ॥ १७॥ १०१०
द्रव्य हतु जे ताहरू, खरचीनि मनोहार | चिरयकराच्यु रूपउ, पुण्य तणु आधार ॥। १५ । १०२३१
परिग्रह सहूइ परिहरी श्रावक व्रत घरी सार 1 हणि स्थानिक तप जप करि, रहती जिन श्राधार ।। १६ ।।१३।।
एहवी मुझनि जाणीति, चंचल चित्त मम थाय । निश्चल मन करे श्रापणु, सेवि जिनवर पाय ॥२०॥१०४॥
वचन सुणी नारी तणां लाज लही अपार । नाव समान मुझ तु हुई, उत्तारखा भव पार
।।२१।। १०५ ।।
जे नारी सहूइ कहि ते ए नारन होइ । स्वरग मुगति सुख दायनी, एह समान न कोइ ।।२५।। १०६ ।।
क्षमा क्षमतभ्य कही, श्राव्यु धनह मकार
गुरु चरणे प्रणमी करी, मांगि संयम भार ॥ २३॥। १०७ ॥
भाव चारित्र लेई करो, तप जप करि प्रधोर । राग द्वेष सहू परिहरि, विषय निवारि चोर ।। २४ ।। १०८ ।।