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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
वैसाख मास – वसान मास पाने पर पुरुष और स्त्री में विविध भाव
उत्पन्न होते हैं। वन में पक्षीगण क्रीडा करते हैं तथा स्त्रियां षट्रस व्यंजन तयार करती हैं, लेकिन हे स्वामी ! पाप तो घर-घर जाकर भिक्षा मांगते हो। यह कंजूसी आपने कबसे सीस्त्र ली ?'
जेठ मास - मवसे अधिक गर्मी जेठ में पड़ती है। हे स्वामी ! घर में
शीतल भोजन है, स्वर्ण के थाल है तथा पनि भक्तिपूर्वक खिलाने को तैयार है । घर में अपार सम्पत्ति है लेकिन पता नहीं आप दीन वचन कहते हुए घर-घर क्यों फिरते हैं ।
प्राप' जैसे व्यक्ति को कौन भला कहेगा ?२ प्राषाढ मास –प्राषाढ पाते हो पशु-पक्षी सब पर बना कर रहने लगते हैं
तथा परदेश में रहने वाले घर आ जाते हैं, लेकिन प्रापने तो प्रपनी जिद्द पकड़ ली है। प्राप पर मन सन्य का भी कोई असर नहीं होता। इसलिए मेरी प्रार्थना अपने चित्त में धारण करो।
ब्रह्म रायमल्ल ने राजुल की व्यथा को बहुत ही संपत भाषा में छन्दोबद्ध किया है। विरह-वेदना के साथ-साथ राजुल के शब्दों में कवि ने जो अन्य धार्मिक क्रियाओं का तथा नेमिनाथ की मुनि क्रिया का उल्लेख किया है उससे राजुल के कथन में स्वाभाविकता पा गई है । अन्त में राजुल नेमिनाथ से यही प्रार्थना करती है कि इस जन्म में जो कुछ भोग भोगना है उन्हें भोग ही लेना चाहिए क्योंकि अगला जन्म किसने देखा है । वास्तव में जब घर में खाने को खूब अन्न है तो लंघन करके भूखो
१. अहो मासि वैसाख पावे जब नाह, पुरिष तीया उपज बहु भाउ ।
वन में हो पंखि क्रीडा कर, अहो छह रस भोजन सुदरि नारि ।
भीख मांगत धरि धरि फिर, स्वामी योहु स्याणप तुम्ह कोण विचार ।१४। २. अहो जेठि मांसा प्रति तपति को काल, सीतल भोजन सोवन थास ।
करौ हो भगति प्रति कामिनी, अहो घर मैं जो संपदा बहुविधि होइ। दीन वचन धरि धरि फिर, स्वामि ता नरस्यो भलो कहै न कोई ।१५। ग्रहो मास भासाद्ध प्रावै जब जाई, पसूहो पंखि रहै सब घर छाई। परदेसी घरा मम फरे, अहो तुम्ह नै जीदई लगाई वाय। मंघ तंत्रानवि कलजी, स्वामि बात चित मै घरी जादो जी राई १६६