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कविवर त्रिभुवनकोति
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भट्टारक सोमकीर्ति अच्छे विद्वान एवं साहित्य निर्माता थे । संस्कृत एवं हिन्दी देनों में ही उनकी कृतियां उपलब्ध होती है ।" स्वयं त्रिभुवनकीर्ति ने उन्हें "ज्ञान विज्ञान, प्रागला सान्त्र तथा भण्डार" के विशेषण से प्रलंकृत किया है । सोमकीति के शिष्य थे विजयसेन जो पूर्णतः प्राध्यात्मिक संत थे तथा आत्म साधना में पंडित अमाशीन एवं गुणों के राशि थे यही कारण है कि उनका यशः चारों ओर फैल गया था । ३ विजयसेन का अन्यत्र वीरसेन भी नाम मिलता है। विजयसेन के पश्चात् मशः कीर्ति ए और उनके पश्चात् उदयसेन । उदयसेन त्रिभुवनकीर्ति के गुरु थे । त्रिभुवनकीति ने अपने गुरु को चारित्र-भार-धुरंधर, वादीर भंजन एवं वाणी जन मन मोहक" श्रादि विशेषणों से सम्बोधित किया है। उदयसेन अपने समय के प्रख्यात भट्टारक थे । वे शास्त्रार्थ करते और अपने मधुर वाणी से सबका अपनी मोर प्राकृष्ट कर लेते थे । यही कारण है कि स्वयं कवि ने भी स्वतः ही इनके चरणों में रहकर अपने जीवन निर्माण की इच्छा व्यक्त की थी।
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त्रिभुवनकीर्ति ने उदयसेन का शिष्यत्व कब स्वीकार किया इसके बारे में कोई उल्लेख नहीं मिलता लेकिन उन्होंने अपने गुरु के समीप ही विद्याध्ययन किया होगा तथा शास्त्रों का मर्म समझा होगा । ब्रह्म कृष्णदास ने अपने मुनिसुव्रत पुराण में उदयसेन एव त्रिभुवनकोति का निम्न पद्य में परिचय दिया है
कमलपतिरिवाभूत्मदुदयाद्यं तसेन ।
उदित विशदपट्टे सूर्यशैलेन तुल्ये ।
त्रिभुवनपतिनाथ ह्यदयासक्तचेता । त्रिभुवनकीर्तिर्नाम तत्पट्टधारी ।।१२ ।।
१. विस्तृत परिचय के लिए देखिये राजस्थान के जैन सन्त व्यक्तित्व एवं कृतिस्व, पृ० ३१ से ४० ।
२. ग्रन्थ प्रशस्ति जम्बू स्वामी रास ।
३. तसू पट्टि प्रति रूयडा विजयसेन जयवंत ।
तप जप ध्यानं मंडिया, क्षमावंत, गुणवंत ॥
मही मंडल महिमा घणा, महीयलि मोटु नाम || जम्बूस्वामी रात
४. एक पट्टावली में विजयसेन को यशः कीर्ति बतलाया गया है ।