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कविवर त्रिभुवनकीति
कवि ने काव्य का प्रारम्भ भगवान महावीर को वन्दना से किया गया है । सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय एवं सर्वसाधु परमेष्ठी का स्मरण करने के पश्चात् अपने गुरू उदयसेन को नमस्कार किया है ।' बम्बूद्वीप में भरत क्षेत्र और उसमें मगध देश तथा उसकी राजधानी रामह थी । राजागिर रामगृती का सम्राः ।। चेलना उसकी पटरानी थी । चेलना लावण्यवती एवं रूप की खान थी कवि ने उसका वर्णन करते हुमे लिखा है---
ते धरि राणी पेलना कही, सती सरोमणि जाणु सही । सकित भूक्षउ तास सरीर, धर्म ध्यान धरि मनधीर ।।१।।
हंसगति चालि चमकती, रुपि रंभा जाणउ सती । मस्तक वेणी सोहि सार, कंठ सोहिए काडल हार ॥२०॥
कांने कुडल रश्ने जड्या, चरणे नेउर सोवन घड़या । मधुर क्या बोलि सुविचार, मंग अनौपम दीसि सार ।।११।।
एक दिन विपुलाचल पर्वत पर भगवान महावीर का समवसरण आया । राजा श्रेणिक पूरी श्रद्धा के साथ सपरिवार उनके दर्शनार्थ गये । राजा श्रेणिक ने भगवान महावीर से निम्न शब्दों में निवेदन किया--
राई, जिनवर पूछीया जी, कह स्वामी कुण एह । विद्युन्माली देवता जी, जिन जीइ कह सह हेत हो स्वामी ।।
भगवान महावीर ने राजा श्रेणिक के प्रश्न का उत्तर देते हुये कहा कि वर्द्धमानपुर में भषवत्स और भावदेव दो ब्राह्मण विद्वान थे। नगर में कुष्ठ रोग फैलने के कारण भनेक लोग मारे गये । एक बार वहां सुधर्मा स्वामी पधारे । उन्होंने तत्वज्ञान एवं पुण्य-पाप के बारे में सबको बतलाया। भवदस ने उनसे वैराग्य धारण कर लिया। कुछ समय के पश्चात् भवदत्त ने भवदेव के सम्बन्ध में विचार कर यह घर
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श्री उदयसेन सूरी वर नमी, त्रिभुवन कोर्ति कहि सार । रास कई रलीया मणु', प्रक्षर रयण भंडार ।।