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कविवर त्रिभुवनकीत्ति
धर्म सुणी राजादिक, प्राध्या नगर मझार । निज स्थानिक देव गया, फरसा जप जय कार ।।६।।६५०॥
विहाकवि काली के पुर पारपहिया । मच जीव मति बुझवी, प्राध्या विपुल गिरि ठाम ॥७.६५१।। ध्यान धरी तिहां मुनिवरि, बहुरि प्रकृति करि घात । गुणास्थानिक लघु चौदमु, क्षय करी कर्म अघात 11।।६५२।।
तेर प्रकृति तिहां क्षय करि, रही तिहां अथर, पंच 1
हूया ते मुगति नाराजीया, सौक्ष तणु नही संच ।। ६ ।६५३।। ढाल दशमी यशोधरनी
जिहां नही ए जामण मरण रूप रस जिहां नही ए । जिहां नहीं ए भोग बियोग, भोग सौख जिहां नहीं ए ॥१॥६५४।।
ते स्थानिक ए प्राम्य कुमार, पाठ कर्म हणी करोए । प्राम्य मुगति निवास, सार सौख वली घरीए ।॥२॥६५॥
तिहां नहीं ए देशनि ग्राम पुर पाटण जिहाँ नहीए। जिहां नही ए शीतनि सष्ण, वणं गंष जिहाँ नही ए ॥३॥६५६।।
जिहां नहीं ए मानि तात, पुत्र कलित्र जिहां नहीं ए । जिहो नहीं ए योग वियोग, रात्रि दिवस जिहां नहीं ए ॥४।६५७।।
जिहां नहीं ए काय विकार, सौक्ष अनंत जिहां अछिए । जिहां नहीं ए प्रायु नु अंत, तेज अनंतु जिहां पछि ए ते स्थानि ।।५।६६५८।
जिहाँ नहीं ए जीव समास, गुणस्थानिक जिहां नहीं ए । जिहां नहीं ए संज्ञाचार, छमयाति तिहां नहीं ए ॥६॥६५६।।
जिहां नहीं ए मागंणा नव सिद्ध मार्गणा जिहाँ । मचिए जिहां मछि केवल शान, केवल दर्शन जिहां अछिए ।।७।।६६.।।