________________
श्रीपाल रास
४६ लिये मही निश्चय किया गया कि दोनों राजारों में ही परस्पर में युद्ध हो जावे और उसमें जो विजयी हो वही राजा बने । श्रीपाल एवं वीरदमन में परस्पर युद्ध हुआ । श्रीपाल ने सहज में ही उसे पराजित कर दिया ।
श्रीपाल ने जीतने पर भी अपने वृद्ध काका से राज्य करने का अनुरोध किया। वीरदमन ने श्रीपाल के इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया और संयम धारण करने का निश्चय किया। श्रीपाल ने लम्बे समय तक देश का शासन किया और प्रजा को सब प्रकार से सुखी रस्त्रा। एक बार नगर के बाहर श्रुतसागर मुनि का आगमन हुआ । श्रीपाल ने भक्तिपूर्वक बन्दना की और अपने जीवन में प्राने वाली विविध घटनाओं के कारणों के बारे में मुनिराज से जानना चाहा । श्रुतसागर ने विस्तार पूर्वक श्रीपाल को उसके पूर्व भव में किये हुये अच्छे बुरे कार्यों के बारे में बतलाया ।
श्रीपाल फिर सुख से राज्य करने लगा। प्रतिदिन देवदर्शन, पूजन, सामायिक एवं स्वाध्याय उसके दैनिक जीवन के अंग बन गये । एक दिन जब वह वन क्रीड़ा के लिये गया तो मार्ग में कीचड़ में फंसे हाथी को देख कर उसे वैराम्य उत्पन्न हो गया और उसने दिगम्बरी दीक्षा धारण करली । उसके साथ मैनासुन्दरी सहित अन्य स्त्रियों ने भी आर्यिका दीक्षा स्वीकार कर ली। अन्त में श्रीपाल ने कर्म बन्धन को काट कर मोक्ष प्राप्त किया तथा मनासुन्दरी सहित अन्य रानियों को अपने-अपने तप के अनुसार स्वर्ग की प्राप्ति हुई। कवि ने इस प्रकार २६६ छन्दों में श्रीपाल एवं मैनासुन्दरी के जीवन पर विस्तृत प्रकाश डाला है । उसने अन्त के ५ छन्दों में अपना परिचय दिया है जो निम्न प्रकार है .
हो मूलसंध मुनि प्रगटो जाणि, कीरति अनंत सीस को वॉरिण । तास तरणी सिष्य जारिणज्यो, हो ब्रह्म रायमल्ल दिद्ध करि चिस । भाउ भेव जाणे नहीं हो तहि विट्ठो सिरोपाल चरित्त ||२६४।।
हो सोलहसे तीसौ सुभ वर्ष, हो मास असाढ मण्यो फरि हर्ष । तिथि तेरसि सिप्स सोममी, ही अनुराधा नक्षत्र शुभ सार | करणं जोग बीसे अला, हो सोमन बार शनिश्चरवार ||२६५।।
हो रगमभ्रमर सोभ कविलास, भरिया नीर ताल चहु पास । बाग विहरि धाडी घणो हो, धन करण संपति तणों निधान | साहि अफवर राज हो, सो घणा जिरासुर थान ।।२९६||