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महाकवि ब्रह्म राममल्ल
हो शावक लोक मस धनयंत, पूजा कर जप अरहस । दान चारि भुभ सकत्ति स्पो हो श्रावक व्रत पाले मन लाइ । पोसा सामाइक सबा हो, मत मिथ्यात न लगता जाइ || १६७।। हो हं से अधिका छिन छंच, करियण भण्यौ तासु मति मंद । पर प्रक्षर की सुधि नहीं, हो जसो मति बौनी मोकास | पंजित कोई मत्ति हसौ, तैसी मति कीनो परगास ।।२६८।।
रास भरखो श्रीपाल को ।। इति श्रीगाल रास समाप्ता । भोपाल : राजा का काव्य ई इस में राजस्थानी शब्दों का पूरा प्रयोग हुआ है । कवि ने 'श्रीपाल' शब्द का भी 'सीरीपाल' शब्द के रूप में प्रमोग करके उसे राजस्थानी भाषा का रूप दिया है। लहडी (१३) डाइजो (१६) जिणवर पूजण (१७), ज्योरणार (११३), जवाइ १११८), रांड (१३४), भांवरि (१६६) जैसे शब्दों को रास काव्य में भरमार है। यही नहीं जुगलियों, चल्यो, मिल्यो, सुण्या, बाण्या, नैणा, रेगमंजुसा, जिएको, भणं जैसे ठेठ राजस्थानी शब्द कषि को अत्यधिक प्रिय रहे हैं। संवत् १६३० में यह काव्य रणथम्भौर में लिखा गया था।
अकबर के शासन में होने के कारण उस समय वहां फारसी, अरबी जैसी भाषानों का जोर अवश्य होगा । लेकिन इस काव्य में उनके एक भी शल्द का प्रयोग नहीं होना कषि की अपनी भाषा में काव्य लिखने की कट्टरता जान पद्धती है। इतना अवश्य है कि उसने काव्य को तत्कालीन बोलचाल की भाषा में लिखा है । कविवर का द्वाड प्रदेश से अधिक सम्बन्ध रहने के कारण वह यहां की सौदी सादी भाषा का प्रेमी था। इसलिये रास को दुरूह शब्दों के प्रयोग से यथाराम्भव दुर रखा गया है।
श्रीपाल के जीवन में बराबर उतार चढाव आते हैं। कभी वह कुष्ट रोग से ग्रसित होकर अत्यधिक दुर्गन्ध युक्त देह को प्राप्त करता है तो कभी उसका रूप लावषय ऐसा निम्नर जाता है कि उसकी कहीं उपमा नहीं मिलती। रत्नद्रा में जाने पर उसे पूरा राजकीय सम्मान प्राप्त होता है रूप लावण्य' युक्त रत्नमंजूषा जैसी सुन्दर वधु प्राप्त होती है किन्तु यही वधु उसको समुद्र में गिराने का कारण बनती है । समुद को वह पार करने में सफल होता है और पुनः दुगरे द्वीप में पहुंच जाता है जहां उसका राजसी स्वागत ही नहीं होता क्रिन्तु गुणमाला जैसी राजकन्या