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जम्बूस्वामी राम
नव योवन पूरि से नार, कंठ सोहिए काउल हार 1 शीलाभरण भूख्य तस देह, दिन दिन पनि
यि ॥५॥। १२४ ।।
एक दिवस सूती जनमती, पश्चिम रयणी देखि सती ।
पंच स्वपन देक्षां प्रभिराम नयणे नींद्र न मावि ताम ।। ६ ।। १५५००
पहिलि
दुनिया रहित पात फूल रसाल ।
बीजि निरघूम प्रति अंगीठ, शाल क्षेत्र त्रीजि घगउ मीठ ||७|| १५६ ॥
सरोवर चुधि दीठउ जान त मारस क्रीडा करि ताम । पंचमि समुद्र दीव तिहोसार, उ प्रभात जागी तिणि वारं ।।८।। १५७॥
अर्हदास प्रालि को बात, पंच स्वपन देख्या विक्षात । सुजी वचन बन जाई नाह, मुनिवर प्रणमी पूछि साहू ।।६।। १५ ।
सुखी वचन बोलि मुनि रही, स्वपन फलाफल जाणउ सही । जंबू फल देख्यउ तदेव नारि, पुसि चिर जंबू कुमार ।।१०।। १५६ ।
निरधूम पनि देख्यउ तम्हे सुणउ, क्षय करनि सर्व करमह तनु । शील क्षेत्र देख्या अभिराम, लक्ष्मीपति होस गुणधाम ।।११।। १६० ॥
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जल पूरयु सर दीठ सार, पाप तणु करसि परिहार | रत्नाकर देख्यु तिणि बार, जन बोधी भव तरसि पार ।।१२।। १६१ ।।
बरस सोले त्यजी पर वार, व्यारि नारि छंडी परिवार | दीक्षा लेई तप करसि सार, चरम देही होसि भवतार ।।१३।। १६२ ।।
सुणी वचन हरष्यु प्रवास स्वजन महित प्राब्यु भावास । सुबलसि नारीनि नाह, काल गये नवि जाणि साहू ।।१४।। १६३ ।।
भाउ प्रति तडिरमाली देव, स्वरग थकी पयो ते लेव । जिनमती उपनु गर्भ, दिन दिन बाधि तेज दंभ ।। १५ ।। १६४ ।।