________________
महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
सुणी बात खोलियो कुमार, सुषि कामिनि वृत्त को व्योहार । बान असा लीजे फोइ, श्रावक जनम अविर्था होइ ॥२१४॥
भविष्यदत्त का उत्सर
हम जिणवर व्रत चिता घरा, दान प्रदत्ता संग न करा । गुरू मुझ अडिग पाखड़ी बइ, मन बछ काया मानिए लइ ॥२१५।।
जो नर दान अवत्ता न लेइ, तहि को कीति इन्द्र करे। बान धदत्ता कीयो तिह्या संग, सत्य धोष मरि भयो भुजंग ॥२१६।।
नों बितर तुझ देसी मोहि, भोग विलास सर्व विधि हो । वचन हमारा जाणौ सार, श्रापक तणो कहो पाचार ॥२१७॥
असनबेग का आगमन
तो लग प्रसनयेगि पाइयो, बहुत क्रोध प्राइंषर किये। कोण पुरुष पायो मुझ थानि, तही पापी को घालो घाम ॥२१८।।
देव' बान सब मुझ से इरे, मेरा मन मैं को न सचर । भावं बहुत मनिषि की गंधि, सागर प्तहिन रालों बंधि ।।२१।।
भवसवंस उठीयो कलिकारि, पार वं बीच काहि वात विधारि । घणो कहा कीजे झंडाल, प्रायो सही तुहारी काल ।।२२।।
भवसदंत न धन्नु यल भयो, ठोकि कंघ सो सनमुख भयो । असनिगि देखियो कुमार, क्रोध सबै म्हालो तहि वार ।।२२१।।
दीयो असुर प्रवधि प्रय लोइ, मेरो मित्र पूर्वलो होइ ।
चितर बोले मणि हो मित्त, कहौं बात किम करो चित ॥२२२।। - - --- १. क ख प्रति - देव वारणा-मुझवी गरे । २. ख प्रति जीवाल।