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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
परमहंस जपं सुन बहु, एह परपंच माया का सहु । निराचं पटन छ चेतनां, तिह के पारा जाहु तंषीनां ।।६१||
व्योरो बात हमारी कही, थारो पुत्र छडाव सही । तव नीवृत्य गई तीनां, निसचे पटन जहाँ चेतना ॥२॥
सासु सना बंदीया पाई, बात कही दुख की वीरताई । राजा मन बंध्यो मुझ नंद, कवर विवेक अधिक गुनवंत ॥६३३॥
.. महंस तुम नाकार, कौस्या बात हो सो भली । हमने मात करो उपगार, छूटै जिम विवेक कुमार ॥६४।। सुनी दात जु निवृत्त्य तनी, प्रती चेतना दया उपनी । निबृत्य सेती कह सुभाई, पुत्र छुटाई करो उपाई ।।६।। प्रवति को प्रती हरष्यो हीयो, मेरो राज निकंटक भयो । मन राजा सु कह हसंत, मेरी बात सुनो गुणवंत ।।६६।। मोह पुव थारो वर पीर, माता पिता को सेवक धीर । स्वामी देइ मोहन राज, सीरो सब तुम्हारो काज ।।६७।। मन राजा प्रवृत्य वस भयो, राल्यो नहीं श्रीया को कयो ।
राज विभूति तनो सह साज, मोह बुला दीयो तिही राज ॥६८|| पाप नगरी का वर्णन
मोह राव सकुराई करें, दुरजन कोई घोर न धरै ॥ तह को अधिक तेज प्राताप, जाउ नगरी बसाचे पाप ।। ६६॥
पुरी अग्यान कोट चहु पास, त्रिसना पाई सोभ तास । च्यारू' गति दरवाजा वयां, दीस तिहां विषवन घणां ॥७०।।
जेता बहुल असध वर णाम, उचा मंदीर दीसे ठाम । कुप्राचार तणो चहुं वास, कोई कीसही को न वीसास ॥७१।।