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धार्मिक तत्व
भवसपस मनि भाई,
बोली दिसती रही। सह कुटुम्ब सम्पचा सार, जैसो बीज तरणो चमकार ।।२।। माई कर्म गषि धाल फंद, राख न सकही इन्द्र फरपीटा। जोय बहुत ही लीला कर, बंध कर्म सु लोया फिरं ॥२६।। घर' गति जीव फिर एकसो, नीच ऊंघ कुस पावं भलो । सुख दुःख बाट माही कोइ, ला जिसा फल भूज सोइ ॥२७॥
मुनि श्री के उपदेश के प्रभाव से भविष्यदत्त ने अपने पुत्र को राज्य भार देकर स्वयं ने वैराग्य धारण कर लिया । भविष्यदप्त के साथ उसके परिवार के अनेक जनों ने भी संयम एवं व्रत धारण किये।
हनुमन्त कथा में स्वयं हनुमाण रावण को बहुत ही शिक्षा प्रद एवं हितप्रद बाते सुनाते हैं और सीता को पुनः राम को देने का परामर्श देते हैं
पर नारो सौ संग जो कर, अपजस होइ नरक संचरं । सीण हमारी करो परमारिस, पठवौ तिया राम के धान ॥५६११६।।
रावण को हनुमान की शिक्षा अच्छी नहीं लगती और अपनी शक्ति एवं वैभव की डींग होकने लगता है । लेकिन हनुमान फिर रावण को समझाते है
सगै न कोई पुत्री मात, पुत्र कालन्त मित्र मरतात । सगौ न कोई किसको होग, स्वारथ पाप कर सह कोय ॥६६१.०॥ भये प्रमन्त च भूपाल, ते पणि भया काटन की पास । भूप ममन्स गया व बाई, प्रागं जाह बसापा गाइ ॥६७।।
इसी अवसर पर हनुमान बारह अनुप्रेक्षाओं के माध्यम से रावण को जगत् की। शरीर एवं धन दौलत की असारता एवं विनाशी स्वभाव पर प्रकाश डालता है। इस तरह सभी जैन काम्य अपने नायक एवं नायिका के चरित्र को समुज्वल एवं निर्दोष बना कर संयम भथवा गृह त्याग के पश्चात् समाप्त होते हैं ।
इन काव्यों में कथा के साथ साथ भी कभी कभी गहन चर्चा की चुटकी ले ली जाती है जो जैन सिद्धान्तों पर आधारित होती है । प्रधुम्म रास में नारद ऋषि पाप-पुण्य के रहस्य के बारे में जो भीठी चुटकी लेते हैं यह दिखने में सरल लेकिन गम्भीर अर्थ लिये हुये है