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साहित्य साधना यहां उन्होंने 'प्रद्युम्न रास' को समाप्त किया और अपनी रचना में एक कडी मौर जोड दी 1 प्रद्युम्न रास कवि की उत्तम कृतियों में से हैं। यह रचना १६५ पद्यों में पूर्ण होती है। प्रस्तुत रास में कवि ने अपना जो परिचय दिया है उसकी कुछ पंक्तियां निम्न प्रकार है
हो मूलसंघ मुनि प्रमटी लोई, हो अनन्तफोति जाणो सह कोड । सासु तणो सिषि जाणिज्यौ जी, हो ब्रह्म रायमति कोयौ बलारणी । हो सोलहसै अठवीत विचारो, हो भावव मुवी दुतीया पुषवारो। गढ़ हरसौर महाभला जी, तिने भलो जिरणेसुरयानो । श्रीवंत लोग बस भला जी, हो वेव सास्त्र गुरू राख मानो ।। १६४।।
हरसोर नागौर प्रदेश के इतिहास एवं संस्कृति दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण मगर माना जाता रहा है । यह नगर संवत् १६२८ में अजमेर सूबा में सम्मिलित था 1
हसोर के पश्चात् महाकवि का काव्य रचना की और फिर ध्यान गया और वे एक के पश्चात् दूसरी रचना निमित करने लगे । संवत् १६२६ में वे मारवाड से विहार कर धौलपुर आ गये । धौलपुर का क्षेत्र प्राज के समान उस समय भी संभवतः डाकू आतंकित क्षेत्र था इसलिये सन्त रायमल्ल ने इस प्रदेश के लोगों में धार्मिक भावना जाग्रत करने के लिये विहार किया और पथ भ्रष्टों को वापिस गले लगाया । धौलपुर में पाने के पश्चात् उन्होंने "सुदर्शन रास" को छन्दोबद्ध किया और संवत् १६२६ में वैशास्त्र सुदी सप्तमी के शुभ दिन अपनी नवीनतम काव्यकृति को साहित्य जगत् को भेंट किया । २० धौलपुर पर उस समय बादशाह अकबर का शासन था । 'सुदर्शनरास' कवि की उत्तम कृतियों में से हैं । धौलपुर के बीहा क्षेत्र में विहार करने के पश्चात् ब्रह्म रायमल्ल भागरा, भरतपुर एवं हिण्डौन होते हुये रणथम्भौर पहुंचे । यह दुर्ग सदैव वीरता एवं शौर्य के लिये प्रसिद्ध गढ़ माना जाता रहा तथा साहित्य एवं संस्कृति का भी सैकड़ों वर्षों तक केन्द्र रहा। जब रायमल्ल ने इस क्षेत्र में प्रवेश किया तो उस समय वहां बादशाह अकबर का शासन था। चारों ओर शांति थी । महाकवि ने इस दुर्ग को कितने ममय तक अपनी चरण रज से पावन किया इस विषय में तो कोई उल्लेख नहीं मिलता लेकिन संवत् १६३० के प्रारम्भ में जब इस दुर्ग में प्रवेश किया तो जैन समाज के साथ-साथ सभी दुगं निवासियों ने ब्रह्म रायमल्ल का भावभीना स्वागत किया। कवि ने उस समय के दुर्ग का जो वर्णन किया है उससे ऐसा लगता है कि वहां के निवासी युद्धों की ज्वाला को भूल चुके थे
9€. Ancient Cities of Rajasthen page 329 २०. अहो सोलहस गुणतीसे वैसाखि, सातै जी राति उजाल जी पाखि 1