________________
१६८
महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
विमल लिए घर पाल रात भज सोमे बाडीनाग सुचंग, कूप बावडी निर्मल भंग
चहुं दिसी वन्या अधिक बाधार भस्या पटंबर मोहती हार । जिन चल्पाला बहुत उतंग, चंदबा लोरन धुजा सुचंग ||६४७ ।।
विसाल ।
।। ६३६ ।।
श्रावक लोक व उपरा उपरी बैरनं कास,
घतवंत पूजा करें जर्व अरिहंत । जिम यह मंदिर सुरग
निवास ||६४५||
·
राज करं राजा जगनाथ दान देत नवी से पंदरासे पैंतीस सार पारसनाह मंदिर विसतार
हाथ |
||६४६ ।।
खंडेलवाल छाबडा गोल, चाहई संगही बहु पुन्यवंत । दान पुण्य साला प्रतिसार खरचे द्रव्य बहुत अपार ॥६५०।।
श्रावक पुन्य उपाये धनो लाभ लौयो बहु मोतनो । जो लग सुर चन्द्रमा अंस, नादी विरक्षो चाहड यंस ॥। ६५१ ।।
जो सग भरती सुभ भाकास तो लग तीष्टो टोडो बास । राजा परजा तिष्टौ चंग, जिन सासन को धर्म अभंग ।। ६५२ ॥
इति श्री परमहंस चौपई ब्रह्म राइमल कृत संपूर्णं ।
सुमं भवतु कम्यांनमस्तु, पोथी ब्रह्मजी सीमसागर जी पठानांथं लिखन्त पिं दयाचन्द सारोला मध्य संवत् १८४४ वर्षे कार्तिक स्यांम तिथी सनीसरवारे मध्या वेलायां ।
६