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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल दिया हुआ है जिसमें स्वयं महाकवि एवं साथ में उनके गुरु का स्मरण भी किया गया है
मंगल श्री अरहत जिणिद, मंगल अनन्तकोसि मुणिद । मंगल पढइ करई अखाण, मंगल ब्रह्म राइमल सुजाण ||१५||
पाण्डुलिपि की लेखक प्रशस्ति भी बहुत महत्वपूर्ण है। जिससे पता चलता है कि यह गुटका प्रागरा में बादशाह शाहजहाँ की हवेली में लिखा गया था। उस हवेली में जौता पाटणी रहते थे । वहाँ चन्द्रप्रभु का मन्दिर था । उस मन्दिर में छीतर गोदीका की पाण्डुलिपि थी जिसे देखकर प्रस्तुत पाण्डुलिपि तैयार की गयी थी । ग्रन्थ प्रशस्ति महत्त्वपूर्ण है जो निम्न प्रकार है -
संवत् १६६० बर्षे भादवा वद १ सुक्रबार । पोथी लिख्यते पोथी सा, जौता पाटणी दानुका को लिखी प्रागरा मध्ये पतिसाही थी साहिजहाँ की होली श्री जलाखो वोरची की मध्ये वाम जौता पाटणी। सुभं भवतु । श्री चन्द्रप्रभ के देहरं । सा. छीतर गोदीका की पोथी देखि लिखी ।
मनधरि कथा सुणे कोई, ताहि परि सुख संपति सुत होई । थोड़ी मति किया बलाण, भवसवंत पायो निर्वाण ॥१॥ प्रशोतमाति गंभीर, विश्व विद्या कृलग्रहं । भव्यौकसरणं जीयात, श्रीमद् सर्वशक्षासन ।।१॥
ग प्रति–पत्र संख्या ६६ । प्राकार ११४४ इश्च ।
लेखन काल--संवत् १७८४ जेठ बदि ७ सोमवार ।
प्राप्ति स्थान-महावीर भवन, जयपुर ।
प्रशस्ति-संवद १७८४ का जो बदि ७ सोमवार । प्रांबरि नगरे श्री मल्लिनाथ जिनालये | साहां का देहरामध्ये । भट्टारक जी श्री श्री श्री देवेन्द्रकीत्ति जी का सिषि पौडे दयाराम लिखितं जाति सोनी नराणा का बासी पोथी लिखी ।
प्रस्तुत पाण्डुलिपि में प्रारम्भ में मंगलाचरण एवं प्रारम्भिक में पद्यों की समया अलग-अलग दी गयी है। इसके पश्चात् पद्यों की संख्या एक साथ दी हुई है।