Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
३८
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
चंथम् । तथाहि - बाच्यमानं पुस्तकमिव प्रतिक्षणमवहीयन्ते सकलजनसाधारणानामीश्वराणामप्पायूंषि । मुनिशिरसिषु बुद्धिरियन चिरस्यापिनी भवति देहकान्तिः । स्त्रीमनसोऽप्यस्थिरतरमियं गौवनमा जवजवीसानोपनाते विनिपाते च पतति । न भयत्यक्ष्य इव महानगोचरः । कोनाशस्तु यः परं बीभत्सुर्मापि कारौरिणमतिस्पृहयालुतया गिलति स कथं स्वभावसुभगं परिहरेत् । लब्जेव मे वृत्तिच्वो मा भूदिति स यदि कवाचिकानिचिद्दिनानि दन्तान्तर प्रवास्ते, तदावश्यं विषयविजयप्रासाविनिर्माणाविव भवितव्यं शिरसि पलितल्ल रोपताका रोहणेन, हितोपवेदानिधेधपरिपाकादिव बाढमुत्कम्पितव्यमुतसमर्थ है तब इन सब का समुदाय क्या प्राणियों का अनर्थ नहीं करेगा ? इससे में ( यशोधर ) निम्न प्रकार विचार करता हूँ ।
स्वयं पुण्य कर्म करनेमें असमर्थ पुरुषोंसे अपने व्यसन-पोषण के लिए अज्ञानी पुरुष स्वेच्छारों में प्रवृत्त किये जाते हैं । निस्सन्देह जाति ( ब्राह्मणत्वादि ) को अपेक्षा से पाप पुण्य नहीं होता और धर्म अधर्म नहीं होता। हो सकता है यदि कर्म का उदम विपरीत रूप से देखा जावे । अर्थात् — अधर्म से सुख और घमं से दुःख होता हुआ देखा जाय तब कहीं अश्रमं धर्म हो सकता है किन्तु चैसा नहीं देखा जाता, किन्तु पाप से दुःख और पुण्य से सुख होता हुआ देखा जाता है ।
अब उसी का निरूपण करते हैं- समस्त लोक सरीखे धनाढ्यों या राजाओं को भी आयु पढ़ी जानेवाली पुस्तक-सी क्षण-क्षण में क्षीण हो रही है । जैसे मुनियों को केश वृद्धि चिरस्थायिनी नहीं होती वैसे शरीरकान्ति भी चिरस्थायिनी नहीं होती। यह जवानी स्त्री- चित्त से भी विशेष चञ्चल है । यह प्राणी संसार स्वभाव से आए हुए मरण के अवसर पर भरता हो है । महापुरुष भी साधारण लोक सरीखा मृत्यु का विषय होता है । निस्सन्देह जो यमराज कुरूप प्राणी को भी विशेष चाहनेवाला होने से खा लेता है वह स्वभाव से सुन्दर राजा को कैसे छोड़ेगा ? 'मुझ यमराज को शीघ्र हो जीविका ( लोक को अपने मुखका ग्रास बनानेरूप वृत्ति ) का उच्छेद ( नाश ) नहीं होना चाहिए' इससे यदि वह कुछ दिनों तक अपने दांतों के मध्य में स्थापित करनेवालासास्थित रहता है । अर्थात् यदि किसी को तत्काल नहीं निगलता तो उस कालमें निश्चय से वृद्ध के शिर पर सफेद बालों की लतारूपी ध्वजा का आरोहण होना चाहिए। जिससे ऐसा मालूम पड़ता है मानों -विषयविजय- प्रासाद के निर्माण से ही ऐसा हुआ है । अर्थात् --जैसे जब राजा किसी विषय (देश) पर विजयश्री प्राप्त कर लेता है, जिससे वह उस देश को ग्रहण करता हुआ वहां पर प्रासाद (महल) का निर्माण करके उसके ऊपर ऊँची ध्वजा स्थापित करता है, वैसे ही यमराज भी जब वृद्ध पुरुष इन्द्रिय-भोगों पर विजय प्राप्त कर लेता है तब वह (यमराज) प्रासाद ( प्रसन्नता ) का निर्माण करता है इससे वृद्ध के मस्तक पर श्वेत बालरूपी ध्वजा स्थापित करता है | इससे हो मानों - उसके मस्तक पर श्वेत केशरूपी ध्वजा का बारोहण होता है । वृद्ध का शिर विशेष रूप से कम्पित होता है मानों - हितोपदेश के निषेध की परिपूर्णता से ही अतिशयरूप से कम्पित हो रहा है । एवं उसके नेत्र अन्धकार- पटल से सदा आच्छादित होते हैं- मानों - मानसिक स्फूर्ति के नष्ट हो जाने से ही ऐसे हुए हैं । वृद्ध पुरुष की मुखरूपी गुफा से लार बहती है, इससे ऐसा मालूम पड़ता है— मानों - शारीरिक सन्धिबन्धनों के टूट जाने से हो ऐसा हुआ है। तथा वृद्ध पुरुष की दन्त-पंक्ति चारों ओर से गिरने योग्य होती है - इससे मानों - रति शक्ति के विधवा होने से ही ऐसा हुआ है तथा वृद्ध शरीर प्रचुररूप से त्वचाओं की संकोच रूपी लहरों से व्याप्त होता है। इससे मानों ---मोहरूपी वायु के प्रसार से हो ऐसा हुआ है । उसकी पीठ झुक जाती है— मानों -- सरसता के विनाश से ही टेड़ी हुई है । उसका स्वसानल जाल ( शरीररूपी महान वृक्ष के लता-समूह-सरीखी नसों व हड्डियों की श्रेणी ) विशेषरूप से प्रकट होती है— मानों - लावण्यरूपी समुद्र के जल के विनाश होने से ही ऐसा हुआ