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यशस्तिलक चम्पूका
यस्याश्च प्रतिदिवस दिविजसभाजन पौरजनरुपहितानि भगवतः स्वकीयपादमुद्रितन गत् अयपतेजिनपतेमं जनमङ्गलानिविन्दमानायाः सकृत्प्रकान्ताभिषेक महोत्सब लज्जित इव जातखवंसरभावः पुरो निवसति मन्वरः । अपि च । आयभिकः
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यामेवं प्रावुष्पवनल्पसंकल्पनो विनैयजनः [वृष्ट्वा ] शिक्षूरभावादुत्प्रेक्षापक्षता नयति ॥ ५४ ॥ श्रीरेया स्वर्गसिन्धोः किमु पवनबलोल्लोलकल्लोलवारेः स्वर्णच्छायाप्रतानस्तवतु विसरति व्योति कोऽयं प्रकारः । वृम्पोताववाला दिशि दिशि च तताः कान्तयो भान्ति मध्ये स्थानेऽस्मिनसौधावलि रूपरलसत्केतुसीवर्णकुम्भाः ॥ ५५ ॥
नहीं था। जहाँ पर बहुमार्गता ( वायु-प्रवेश व उसके निस्सरण हेतु अनेक मार्ग ) वातायनों ( |खड़कियों-आदि) में थी परन्तु वहाँ पर बहूमागंता ( अनेक मार्गशिर - अगहन मासों की स्थिति ) नहीं थी । जहाँ पर स्वभावस्तब्धत्व' ( स्वाभाविक कठिनता ) केतुकाण्डों ( ध्वजादंडों) में था परन्तु मनुष्यों में स्वभावस्तत्व ( स्वाभाविक निर्दयता ) नहीं था। जहाँ पर परप्रयता ( दूसरों के द्वारा ले जाना ) वैजयन्तियों ध्वजाओंमें थी परन्तु वैजयन्ती — सेना - में प्रेरणता नहीं थी । जहाँ पर गुणनिगूहुन* ( तन्तुओं का प्रेरण) मणिवितानों - चदेवों में था परन्तु वहाँ की जनता में गुणनिगूहन ( दूसरों के ज्ञानादि गुणों का आच्छादन) नहीं था । जहाँ पर गलग्रहोपदेश" ( गाय-वगैरह पशुओं का बन्धन ) रजनीमुख (संध्या) में था परन्तु मनुष्यों में गलग्रहोपदेश - अप्रत्युपकार ( कृतघ्नता अथवा आकस्मिक कष्ट ) नहीं था ।
जहाँ पर विलय विलसित' (पक्षियों के निवास का विलास ) शकुनावासों ( घोंसला ) में था, परन्तु मनुष्यों में विलय विलसित (विनाश का विस्तार-अपमृत्यु ) नहीं था। जहाँ पर 'अनोपार्जन ( अञ्जन – स्याही द्वारा धनोपार्जन ) लिपिकरों' ( लेखकों ) में था। परन्तु मनुष्यों में अजनोपार्जन ( कलङ्क का उपार्जन ) नहीं था१० । जिस वसतिका के सामने, जो कि प्रत्येक दिन देवों-सरीखे नागरिक मनुष्यों से किये गए ऐसे भगवान् जिनेन्द्र के अभिषेक भङ्गल प्राप्त कर रही है, जो कि अपने चरण कमलों द्वारा तोनलोक स्वामियों । इन्द्र आदि ) को अधःकृत करने वाले हैं, शोभा के लिए कृत्रिम सुमेरु पर्वत स्थित है । जो ऐसा मालूम पड़ता है— मानों - अभिषेक मेरु [ देवों से केवल एक बार किये हुए मनोज्ञ अभिषेक महोत्सव से लज्जित हुआ ही लघु हो गया है ।
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विशेषता यह है प्रचुर कल्पनाएं प्रकट करने वाला शिष्यजन जिस वसतिका को दूर से देखकर उसे निम्न प्रकार की उत्प्रेक्षाओं के पक्ष में ले जाता है ॥ ५४ ॥
जो ( वसतिका) ऐसी मालूम पड़ती यो- मानों - वायु की शक्ति से चञ्चल हुईं तरों के जलवाली स्वर्गगंगा की यह लक्ष्मी ही है । अथवा मानों कलश सहित सुवर्ण की कान्ति का समूह हो हैं । अघवामानों— कोई यह प्राकार ( कोट ) ही आकाश में विस्तृत हो रहा है। अथवा उसकी प्रत्येक दिशा में विस्तृत
२. प्रेरणता ।
३. पताका वैजयन्ती स्यात्केवनं ध्वजमस्त्रियामित्यमरः । ५. गवादीनां वन्धनं न तु प्रत्युपकारः ।
१. दंडेषु कठिनत्वं ।
४. गोपनं प्रेरणं आच्छादनं । ६. वीनां लयः तस्य विलसितं पक्षे न पुनवनाश: । विलयो विनाशः पक्षिमं यस्व । यंत्रसाम्ये संश्लेषण विनाशयोः ।
७. शकुनः शकुनिश्व पक्षी ।
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८. अञ्जनेमार्थोपार्जनं, न तु कलङ्कः 'अशनं मष रसान्ने उक्त सौवीरे' । ९. लेखकेषु । १०. परिसंख्याकारः । * उत्प्रेक्षालंकारः ।